Expert Speak Raisina Debates
Published on Sep 01, 2025 Updated 0 Hours ago

वैश्विक स्तर पर नए-नए व्यापारिक समझौते हो रहे हैं और इनका असर चीन के व्यापार एवं आर्थिक विकास पर पड़ रहा है. चीन इन हालातों से पार पाने की कोशिश में जुटा है. इन दिनों चीन के नीति निर्माता व्यापार की बदलती परिस्थितियों और घरेलू स्तर पर आर्थिक सुधारों में आ रही अड़चनों की दोहरी मार से जूझ रहे हैं. 

आर्थिक चुनौतियों पर चीन में चर्चाओं का दौर: व्यापार युद्ध और अवसरों पर छिड़ी बहस

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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 12 अगस्त, 2025 को दूसरी बार चीन पर टैरिफ लगाने की समय सीमा बढ़ा दी थी और उसके बाद से "चीन-अमेरिका टैरिफ टकराव" फिलहाल थम सा गया है. लेकिन इसके साथ ही, अमेरिका के इस क़दम के पीछे के मकसद को लेकर पूरी दुनिया में चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है. चीन के भीतर भी रणनीतिक गलियारों में इस मुद्दे पर बहसें हो रही हैं और लोग चर्चा कर रहे हैं कि आखिर इस घटनाक्रम के पीछे वजह क्या है. इस लेख में चीन में घरेलू स्तर पर मीडिया और रणनीतिक हलकों में इस मुद्दे पर चल रही चर्चाओं का उल्लेख किया गया है और यह बताने की कोशिश की गई है वहां चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध, वैश्विक स्तर पर लगातार बदल रहे आर्थिक हालातों एवं बीजिंग की अर्थव्यवस्था के भविष्य को लेकर क्या कुछ कहा और लिखा जा रहा है.

अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध पर चीनी विमर्श

चीनी मीडिया और कुछ चीनी विश्लेषकों की ओर से कहा जा रहा है कि ट्रंप 2.0 के टैरिफ युद्ध की धार कुंद हो चुकी है और अब उसमें उतनी तेज़ी नहीं दिखाई दे रही है, जितनी शुरुआती दौर में दिख रही थी. इनके मुताबिक़ ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति ट्रंप "बेहद डरे हुए हैं" और अपने ताबड़तोड़ क़दमों से ठिठक गए हैं. इसके अलावा, यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका-चीन के बीच व्यापार को लेकर मची तनातनी में धीरे-धीरे चीन की स्थिति मज़बूत होती जा रही है और कहीं न कहीं चीन इसमें बढ़त हासिल कर रहा है.

राष्ट्रपति ट्रंप ने जब दूसरी बार अपना कार्यभार संभाला था, तब चीन को लेकर तरह-तरह की चर्चाओं का बाज़ार गर्म था. कुछ लोगों का कहना था कि अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध की वजह से चीन के निर्यात में तेज़ी आएगी, जबकि कुछ का कहना था कि इससे चीन की अर्थव्यवस्था को भारी नुक़सान उठाना पड़ेगा, वहीं कुछ लोगों को लगता था कि जो हालात बन रहे हैं, उनमें चीन को सामाजिक अस्थिरता झेलनी पड़ेगी. लेकिन हक़ीक़त में ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, बल्कि चीन को आर्थिक मोर्चे पर लगातार अच्छी ख़बरें मिल रही हैं. जैसे कि साल की पहली छमाही में चीन का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 5.3 प्रतिशत बढ़ा है, वहीं पहले सात महीनों के दौरान चीन के निर्यात में 7.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज़ की गई है. इसके अलावा, चीन का ट्रेड सरप्लस 683.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है, यानी इसमें 31.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है.

अमेरिका के साथ छिड़े व्यापार युद्ध में चीन आर्थिक मोर्चे पर इन उपलब्धियों को अपनी बड़ी जीत के रूप में देख रहा है. अमेरिका-चीन के बीच व्यापार को लेकर छिड़ी जंग में इन उपलब्धियों को बेहद अहम माना जा रहा है और कहा जा रहा है कि इसकी वजह से दोनों महाशक्तियों के बीच आर्थिक समीकरण व्यापक रूप से बदल जाएंगे.

 चीन को सबसे ज़्यादा दिक़्क़त इस बात की है कि यूरोपीय संघ की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने 25वीं चीन-यूरोपीय संघ नेताओं की बैठक में शिरकत करने के तुरंत बाद राष्ट्रपति ट्रंप के साथ एक व्यापार समझौते पर दस्तख़त कर दिए. इस समझौते के अंतर्गत अमेरिका यूरोपीय यूनियन के देशों से आयात होने वाली वस्तुओं पर 15 प्रतिशत टैरिफ लगाएगा. 

इसके अलावा, चीन ट्रंप प्रशासन की ओर से दुनिया के तमाम दूसरे देशों के साथ किए जाने वाले व्यापार समझौतों पर भी पैनी नज़र गड़ाए हुए है और पल-पल की ख़बर रख रहा है. उदाहरण के तौर पर 2 जुलाई, 2025 को अमेरिका और वियतनाम के बीच व्यापार समझौता होने के बाद चीन ने कड़ी आपत्ति जताई थी. इस ट्रेड एग्रीमेंट के तहत अमेरिका ने वियतनाम से आयात होने वाली वस्तुओं पर लगाए जाने वाले टैरिफ को 46 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत कर दिया था. इस समझौते में यह भी प्रावधान किया गया था कि अगर वियतनाम होते हुए किसी तीसरे देश के उत्पाद अमेरिका निर्यात किए जाएंगे, तो उन पर 40 प्रतिशत का दंडात्मक शुल्क लगाया जाएगा. इतना ही नहीं, इस समझौते के तहत वियतनाम ने अमेरिकी उत्पादों के लिए अपने बाज़ार को खोलने के अलावा, उन पर कोई टैरिफ नहीं लगाने पर भी सहमति जताई थी. अमेरिका-वियतनाम के बीच हुए व्यापार समझौते के बाद चीन के रणनीतिकारों ने कहा कि वियतनाम को ऐसे समझौतों के साथ कोई नई परिपाटी शुरू नहीं करनी चाहिए. इसके साथ ही उनका यह भी कहना था कि चीन को इसकी पुरज़ोर कोशिश करनी चाहिए कि कोई और दूसरा देश अमेरिका के साथ इस प्रकार का समझौता नहीं कर पाए और चीन के प्रभाव-क्षेत्र से बाहर नहीं निकल पाए.

चीन ने काफ़ी कोशिशें की अमेरिका के साथ अन्य देशों के व्यापार समझौते परवान नहीं चढ़ पाएं, बावज़ूद इसके एक के बाद एक कई देशों ने अमेरिका के साथ डील पर हस्ताक्षर किए हैं. राष्ट्रपति ट्रंप ने जुलाई के आख़िर तक पांच महत्वपूर्ण व्यापार समझौतों का ऐलान किया, जिनमें ब्रिटेन, वियतनाम, जापान, फिलीपींस और इंडोनेशिया के साथ ट्रेड डील शामिल थीं. अमेरिका-जापान एग्रीमेंट की बात की जाए, तो जापान ने इसके तहत कथित तौर पर अमेरिका में 550 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक का निवेश करने और अमेरिका के लिए अपने बाज़ार को खोलने पर सहमति जताई है. जापान ने विशेष रूप से अमेरिकी कंपनियों के लिए अपने ऑटोमोटिव और कृषि सेक्टरों को खोलने की सहमति जताई है. इतना ही नहीं, जापान ने अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं के लिए चीन पर निर्भरता को कम करने पर भी रज़ामंदी प्रकट की है.

फिलीपींस की बात की जाए, तो अमेरिका के साथ व्यापार समझौते के तहत उसने अमेरिकी वस्तुओं पर टैरिफ लगभग पूरी तरह से हटा लिया है, साथ ही सैन्य सहयोग के मामले में भी यूएस को रियायतें देने की घोषणा की है. बावज़ूद इसके अमेरिका ने फिलीपींस से होने वाले आयात पर 19 प्रतिशत आयात शुल्क लगाया है. ज़ाहिर है कि अमेरिका ने पहले फिलीपींस को 20% टैरिफ लगाने की धमकी दी थी, यह उससे मामूली रूप से कम ज़रूर है, लेकिन फिर भी बहुत अधिक है.

इंडोनेशिया और अमेरिका के बीच हुई ट्रेड डील को देखें, तो इंडोनेशिया को अमेरिका के पक्ष में कई रियायतें देने के लिए मज़बूर किया गया है. जैसे कि इंडोनेशिया ने अमेरिकी कंपनियों के लिए कई व्यापार बाधाओं को समाप्त कर दिया है. इसमें कृषि उत्पादों के निरीक्षण को समाप्त करना, अमेरिकी सर्टिफिकेशन को मंजूर करना, महत्वपूर्ण खनिजों पर लगे निर्यात प्रतिबंधों में ढील देना और अमेरिकी तेल, गैस एवं कृषि उत्पादों को ख़रीदना शामिल है. इसके अलावा, अमेरिका ने इंडोनेशिया में निर्मित ऐसे उत्पादों के आयात, जिन्हें बनाने में चीन और वियतनाम जैसी गैर-बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं यानी सरकारी नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्थाओं के घटकों का उपयोग किया जाता है, उन पर 40 प्रतिशत टैरिफ लगाया है.

चीन को सबसे ज़्यादा दिक़्क़त किस बात की?

चीन ने हाल ही में हुए अमेरिका और यूरोपीय संघ के बीच हुए व्यापार समझौते पर भी कड़ी आपत्ति जताई है. चीन को सबसे ज़्यादा दिक़्क़त इस बात की है कि यूरोपीय संघ की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने 25वीं चीन-यूरोपीय संघ नेताओं की बैठक में शिरकत करने के तुरंत बाद राष्ट्रपति ट्रंप के साथ एक व्यापार समझौते पर दस्तख़त कर दिए. इस समझौते के अंतर्गत अमेरिका यूरोपीय यूनियन के देशों से आयात होने वाली वस्तुओं पर 15 प्रतिशत टैरिफ लगाएगा. इसके अलावा, इस समझौते में इस पर भी सहमति जताई गई है कि यूरोपीय संघ अमेरिका में अपने निवेश को 600 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक बढ़ाएगा, साथ ही कुल 750 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के अमेरिकी सैन्य साज़ो-सामान और एनर्जी उत्पाद ख़रीदेगा. चीनी रणनीतिकारों और विश्लेषकों ने इसे चीन के लिए एक बड़ी चेतावनी बताया है. उनका कहना है कि चीन को इस बात का कई भ्रम नहीं पालना चाहिए कि ट्रंप 2.0 का मुक़ाबला करने में यूरोप उसके लिए मददगार साबित होगा, क्योंकि वास्तविकता में यूरोपीय संघ ने चीन की अनदेखी कर अमेरिका के सामने घुटने टेक दिए हैं.

कई चीनी विश्लेषकों का मानना है कि अब वो महत्वपूर्ण अवसर आ गया है, जब चीन भारत की तरफ दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाए और चीन-भारत आर्थिक सहयोग को सशक्त करने के लिए तेज़ी के साथ काम करे.

फिलहाल चीन में चल रही चर्चाओं पर गौर करें, तो वहां माना जा रहा है कि चीन का एंट्रेपोर्ट ट्रेड या रि-एक्सपोर्ट व्यापार यानी किसी अन्य देश से पहले आयातित सामान का निर्यात करने का धंधा पूरी तरह से चौपट हो गया है. आंकड़ों पर नज़र डालें, तो साल 2024 तक अमेरिका को चीन से होने वाला 15 प्रतिशत निर्यात दक्षिण पूर्व एशिया के ज़रिए पुनः निर्यात किए जाते थे, लेकिन नए व्यापार समझौतों ने चीनी निर्यात के इस मार्ग को पूरी तरह अवरुद्ध कर दिया है. इस दौरान, चीन-अमेरिका के बीच व्यापार समझौते को लेकर जो वार्ताएं चल रही हैं, उनमें अमेरिका के दूसरे देशों के साथ हुए समझौतों ने उसके आत्मविश्वास को बढ़ाने का काम किया है और इसी की बदौतल वह चीन के सामने अपने पक्ष को मज़बूती के साथ रख पा रहा है. चीनी हलकों में कहा जा रहा है कि इस तरह के हालात भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की दशा और दिशा को बदलने वाले साबित होंगे और कहीं न कहीं इसमें चीन के लिए परिस्थितियां अनुकूल नहीं होंगी, बल्कि उसे तमाम परेशानियों का सामना करना पड़ेगा.

चीन की घरेलू अर्थव्यवस्था पर बहस

चीन की घरेलू अर्थव्यवस्था की बात की जाए तो, वहां निवेश आधारित इकोनॉमी और उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था को लेकर ज़बरदस्त बहस चल रही है. चीन में लोग खुलकर बात कर रहे हैं कि कब तक चीन आर्थिक मोर्चे पर 'बहुत ज़्यादा निवेश और बहुत कम उपभोग' की अपनी नीति पर चल सकता है. इसको लेकर वहां चीनी सरकार की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा किया जा रहा है. ज़ाहिर है कि चीन में घरेलू अर्थव्यवस्था के विकास में स्थानीय सरकारों की भूमिका बेहद अहम रही है, क्योंकि वहां आर्थिक गतिविधियों के संचालन में सरकारी नियंत्रण होता है. 

चीन में यह भी चर्चा चल रही है कि सरकार की ओर से चीन को एक शॉर्टेज इकोनॉमी की जगह पर सरप्लस इकोनॉमी में बदलने के बावज़ूद, यानी मांग से अधिक आपूर्ति वाली अर्थव्यवस्था में बदलने के बावज़ूद सरकार ने सिर्फ़ और सिर्फ़ उत्पादन क्षमता बढ़ाने को ही अपनी प्राथमिकता में रखा. इस वजह से तमाम उद्योगों में बहुत ज़्यादा उत्पादन होने लगा. देखा जाए तो पहले चीन में बनाए जाने वाले उत्पादों का एक बड़ा हिस्सा यूरोप व अमेरिका के बज़ारों में खपाया जाता था और वहां के उपभोक्ता उसकी खपत करते थे. लेकिन जिस प्रकार से अमेरिका ने चीन पर ज़बरदस्त टैरिफ लगाया है और दुनिया भर में चीनी उत्पादों के ख़िलाफ़ मुहिम चलाई जा रही है, उसने चीनी अर्थव्यवस्था को डंवाडोल कर दिया है. इतना ही नहीं, एक ही तरह के उत्पादों की भरमार होने की वजह से घरेलू स्तर पर भी चीन की अर्थव्यवस्था सिकुड़ने लगी है. 

चीन में घरेलू स्तर पर एक तरह के उत्पादों का बहुतायत में निर्माण होने से उनकी क़ीमतों में गिरावट आई है, जिससे हर सेक्टर की में चीनी कंपनियों का मुनाफ़ा प्रभावित हुआ है. उत्पादक मूल्य सूचकांक (PPI) में लगातार गिरावट से इसे समझा जा सकता है कि व्यापक स्तर पर चीनी अर्थव्यवस्था पर इसका कितना ज़्यादा विपरीत असर पड़ रहा है. इस वजह से कंपनियों को ज़्यादा लाभ नहीं होने के बावज़ूद यानी घाटे के बावज़ूद उत्पादन बढ़ाने या फिर उसे बरक़रार रखने के लिए मज़बूर होना पड़ रहा है. इससे चीनी अर्थव्यवस्था एक ऐसे दुष्चक्र में फंस गई है, जिसमें केवल गिरावट हो रही है और उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है.

चीन अपने पुराने विकास मॉडल को नए विकास मॉडल में बदलना चाहता. यानी एक ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित करना चाहता है, जिसमें घरेलू उपभोग को बढ़ाने को बहुत महत्व दिया जाता है. इसका मतलब है कि चीन के बाज़ार को चीनी ग्रोथ की अगुवाई करनी चाहिए, इसके अलावा वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी चीन की भूमिका को मज़बूत करना चाहिए.

चीन की सरकार जहां एक तरफ राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार के निर्माण को प्रोत्साहित कर रही है, वहीं दूसरी ओर चीनी अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के मकसद से ‘अंतर्विकासीय’ प्रतिस्पर्धा यानी घरेलू स्तर पर कंपनियों के बीच बेहद अधिक प्रतिस्पर्धा को व्यापक रूप से सुधारने का भी प्रयास कर रही है. चीन की सरकार ने इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए साल की शुरुआत से ही अलग-अलग दिशानिर्देश और आर्थिक रिपोर्ट्स जारी की हैं.

चीन के रणनीतिक गलियारों और मीडिया में इस बात पर भी काफ़ी विचार-विमर्श किया जा रहा है कि क्या चीन की सेंट्रल गवर्नमेंट की तरफ से स्थानीय सरकारों को सौंपी गईं आर्थिक शक्तियों को वापस ले लेना चाहिए और उन्हें फिर से केंद्रीय सरकार या बाज़ार को नियंत्रित करने वाली ताक़तों (मुख्य रूप से उभरते उद्योगों में) को लौटाना चाहिए. इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे चीन में वस्तुओं की खपत बढ़ाने में मदद मिलेगी, साथ ही क़ीमतों को स्थिर रखने में भी मदद मिलेगी और ज़्यादा टिकाऊ आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया जा सकेगा. चीन में इन महत्वाकांक्षी सुधारवादी विचारों को मुश्किल चुनौतियों से भी जूझना पड़ रहा है. इसकी वजह यह है कि फिलहाल स्थानीय सरकारें, जिनके पास असीमित आर्थिक शक्तियां हैं और जिनका देश के क्षेत्रीय आर्थिक ढांचे पर दबदबा है, वो सब ऐसे सुधारों के साथ नहीं खड़ी हैं, बल्कि विरोध कर रही हैं.

भारत-अमेरिका व्यापार तनाव पर चर्चा-परिचर्चा

अमेरिका और भारत के बीच व्यापार समझौते को लेकर जो भी बातचीत चल रही हैं, चीन उस पर लंबे समय से नज़र बनाए हुए हैं. चीनी विश्लेषकों का मानना है कि अगर दोनों के बीच समझौता परवान चढ़ता है, तो इसका वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला और भू-आर्थिकी पर व्यापक असर पड़ेगा और यह कहीं न कहीं चीन के लिए हानिकारक साबित होगा. मई 2025 की शुरुआत में भारत-अमेरिका द्विपक्षीय व्यापार वार्ता का पहला चरण हुआ था, तब भारत की ओर से जो रुख़ अख़्तियार किया गया था, उस पर चीन ने सख़्त चेतावनी दी थी. चीन ने भारत को आगाह किया था कि वो राष्ट्रपति ट्रंप के साथ व्यापार समझौते के दौरान चीनी हितों को दरकिनार न करे, अगर वो ऐसा करता है उसे इसके गंभीर नतीज़े भुगतने होंगे. इसके बाद, चीन की ओर से भारत के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाया गया और उसने भारत को होने वाले महत्वपूर्ण खनिजों के निर्यात पर ही प्रतिबंध नहीं लगाया, बल्कि निवेश पर भी कैंची चलाई. वर्तमान में जब अमेरिका-भारत व्यापार समझौता वार्ता पटरी से उतर गई है, तो कुछ चीनी रणनीतिकारों ने राहत की सांस ली है. ऐसे में कई चीनी विश्लेषकों का मानना है कि अब वो महत्वपूर्ण अवसर आ गया है, जब चीन भारत की तरफ दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाए और चीन-भारत आर्थिक सहयोग को सशक्त करने के लिए तेज़ी के साथ काम करे. ज़ाहिर है कि वर्तमान में चीन के लिए निर्यात के बाज़ार लगातार कम होते जा रहे हैं और देश के भीतर खपत अभी बढ़ नहीं पाई है. इन हालातों के मद्देनजर भारत-चीन संबंधों के हिमायती और घरेलू उद्योगों के हित में आवाज़ उठाने वाले चेन जिंग का कहना है कि “चीनी सरकार भारत को नज़रंदाज़ नहीं कर सकती है, क्योंकि 140 करोड़ आबादी वाला भारत एक बड़ा बाज़ार है और वहां चीनी उत्पादों को खपाने की काफी संभावनाएं हैं. इसके अलावा मौज़ूद वक़्त में चीनी कंपनियों और उद्यमियों को एक बड़े बाज़ार की ज़रूरत है.” चेन जिंग का यह भी कहना है कि भारत के साथ व्यापार समझौते से जुड़ी बातचीत में चीन को मज़बूती की साथ अपनी बात रखनी चाहिए और किसी भी सूरत में झुकना नहीं चाहिए. इसके अलावा चीन को भारत से वार्ता के दौरान यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि भारत में चीन के मुनाफ़े पर कोई असर नहीं पड़े और टेक्नोलॉजी का हस्तांतरण भी कम से कम हो. चीन में कुछ विश्लेषक भारत और चीन की बढ़ती नज़दीकी को संदेह की नज़र से भी देख रहे हैं. इनका कहना है कि फिलहाल दोनों देश टैरिफ पर अमेरिकी दादागिरी से निपटने और उसके आर्थिक दबदबे को कम करने के लिए करीबी सहयोग करने को तैयार दिख रहे हैं. इनके मुताबिक़ भारत और अमेरिका के बीच फिलहाल भले ही ट्रेड और टैरिफ के मुद्दे पर तनातनी का माहौल है, लेकिन जहां तक चीन का सवाल है, तो कहीं न कहीं इस मुद्दे पर भारत और अमेरिका की सोच क़रीब-क़रीब समान है. इन चीनी विश्लेषकों का कहना है कि चीन और भारत के बीच दोबारा से संबंधों को सशक्त करने का जो दौर चल रहा है, इससे भारत की अमेरिका के साथ तोलमोल करने की स्थिति मज़बूत होगी. इतना ही नहीं, आने वाले दिनों में जैसे ही अमेरिका भारत के प्रति लचीला रुख़ अपनाएगा और उसे कोई लुभावना प्रस्ताव देगा, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत दौड़कर अमेरिका के प्रस्ताव को लपक लेगा और उसके साथ समझौता करने से कतई संकोच नहीं करेगा. इनका यह भी कहना है कि इन हालातों में भारत अपने फायदे के लिए चीन के हितों को दरकिनार करने से भी कतई संकोच नहीं करेगा.

आख़िर में, इसमें कोई शक नहीं है कि भारत चीन के साथ अपने आर्थिक रिश्तों को नए सिरे से सुधारने और उन्हें सशक्त करने की दिशा में गंभीरता से आगे बढ़ रहा है. ऐसे में भारत को और ज़्यादा चौकन्ना रहने की ज़रुरत है, यानी बीजिंग की ओर से उठाए जा रहे क़दमों के असल मकसद को समझने के लिए चीन के रणनीतिक गलियारों, मीडिया और आम जनमानस के बीच भारत के साथ आर्थिक मोर्चे पर इस नए गठजोड़ को लेकर क्या कुछ विचार-विमर्श चल रहा है, उस पर पैनी नज़र बनाए रखने और उसमें छिपे निहितार्थ को अच्छे से समझने की ज़रूरत है.



अंतरा घोषाल सिंह ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.

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Author

Antara Ghosal Singh

Antara Ghosal Singh

Antara Ghosal Singh is a Fellow at the Strategic Studies Programme at Observer Research Foundation, New Delhi. Her area of research includes China-India relations, China-India-US ...

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