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Published on Jul 18, 2025 Updated 0 Hours ago

PLFS 2025 संरचनात्मक सुधारों की बात तो करता है, लेकिन पलायन करने वाले श्रमिकों, अनौपचारिक रोज़गार से जुड़े लोगों और भारत की श्रम शक्ति को आकार देने वाली लैंगिक सच्चाइयों को नज़रंदाज़ कर देता है.

पीएलएफएस 2025: श्रम आंकड़ों में छिपी अनौपचारिकता और लैंगिक असमानता

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परिवार आधारित ‘आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण’ (PLFS) भारत की आर्थिक नीतियों की पड़ताल करने वाला एक महत्वपूर्ण साधन है. यह सर्वे रोज़गार व श्रम बाज़ार से जुड़े आंकड़ों का प्राथमिक स्रोत माना जाता है और तेज़ी से बदलती अर्थव्यवस्था में रोज़गार निर्माण, कौशल विकास और सामाजिक सुरक्षा संबंधी रणनीतियों के लिए साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण की राह तैयार करता है. यह बेरोज़गारी दर (UR), श्रम बल भागीदारी अनुपात (LFPR) और श्रमिक जनसंख्या अनुपात (WPR) अनुमानों जैसे प्रमुख संकेतकों की जानकारी दो रूपों में देता है- 

  • ‘वर्तमान साप्ताहिक स्थिति’ (CWS) बताकर, जो मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक आंकड़ों से बनता है

  • ‘सामान्य स्थिति’ के रूप में, जो शहरी और ग्रामीण रोज़गार अनुमानों के लिए प्रमुख स्थिति और द्वितीयक स्थिति (ps+ss) को मिलाकर तैयार किया जाता है.

2025 का PLFS भारत के ‘रोज़गार आधारित विकास’ को बढ़ावा देने के केंद्रीय बजट (2025-26) के उद्देश्यों के अनुरूप है.

संरचनात्मक विकास, घटते आंकड़े

PLFS की शुरुआत 2017 में हुई है. इसे हर पांच साल पर होने वाले ‘रोज़गार बेरोज़गारी सर्वेक्षण’ (EUS) के बदले शुरू किया गया था. 2024 तक इसकी तिमाही बुलेटिन में मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों की ही जानकारी दी जाती थी. 2025 में किए गए बदलावों के बाद मासिक अनुमानों के साथ वास्तविक समय के श्रम आंकड़े दिए जाने लगे, तिमाही सर्वेक्षण में ग्रामीण क्षेत्रों के बारे में बताया जाने लगा, और सालाना रिपोर्टों में CWS और ps+ss, दोनों अनुमानों को शामिल किया जाने लगा. इन सबका मक़सद इसे अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की सिफ़ारिशों की तरह बनाना था. इन सबसे इसका नमूना आकार बढ़ गया, स्थान के बारे में अधिक विस्तार से जानकारी दी जाने लगी, कामकाज के बारे में बताया जाने लगा, उद्योगों का वर्गीकरण किया जाने लगा और जिला-स्तर के परिष्कृत आंकड़े दिए जाने लगे. अब सर्वे के तरीकों में डाटा के अधिक डिजिटलीकरण और आंकड़ों के जल्द विश्लेषण के उपाय भी किए जाने लगे हैं.

PLFS में परिवार आधारित नमूना लिया जाता है, लेकिन इसमें उन प्रवासियों को शामिल नहीं किया जाता, जो आमतौर पर पलायन करते हैं, बाहर रहते हैं या निर्माण-स्थलों के आसपास अस्थायी घरों में या खानाबदोश की तरह झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं. 

PLFS 2025 में जो कुछ उल्लेखनीय संरचनात्मक सुधार किए गए हैं, वे हैं-

  • शिक्षा से जुड़े अधिक सवालों को इसमें शामिल करना

  • मालिकाना हक वाली ज़मीनों और पट्टे पर दी गई भूमि पर अलग से सवाल करना, और

  • ज़मीन या भवन के किराये, बचत व निवेश पर ब्याज, पेंशन और बाहर से आने वाली रकम को परिवार की मासिक आमदनी मानना. 

2024 तक PLFS की आलोचना इसलिए की जाती थी, क्योंकि नमूना हासिल करने का इसका ढांचा जन-सांख्यिकीय था. सर्वेक्षण में ढांचागत सुधार के बाद, इसकी CWS पद्धति में अनौपचारिक और अस्थायी नौकरियों के संदर्भ में पिछले सात दिनों की गतिविधियों का भी उपयोग किया जाने लगा. इसमें यह जानकारी ली जाने लगी कि इन सात दिनों में व्यक्ति ने किस तरह के काम किए. हालांकि, इसमें कामों का वर्गीकरण सिर्फ़ दो तरह से किया जाता है- एक, मुख्य और दूसरा, सहायक. इसमें भारत की शहरी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में मौजूद ‘हाइब्रिड लाइवलीहुड’ (ऐसी स्थिति, जिसमें व्यक्ति या परिवार अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कई तरह के काम करता है) को शामिल नहीं किया जाता. 

PLFS में परिवार आधारित नमूना लिया जाता है, लेकिन इसमें उन प्रवासियों को शामिल नहीं किया जाता, जो आमतौर पर पलायन करते हैं, बाहर रहते हैं या निर्माण-स्थलों के आसपास अस्थायी घरों में या खानाबदोश की तरह झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं. PLFS 2025 के नमूना-संग्रह में चक्रीय-विधि का उपयोग किया गया है, जहां चुने गए 12 परिवारों में से प्रत्येक का लगातार चार महीनों में चार बार सर्वेक्षण किया गया था. अब पहले चरण की इकाइयों (FSU) का नमूना आकार 22,692 कर दिया गया है, जिसमें हर साल दो वर्ष की अवधि के लिए शहरी क्षेत्रों में 10,188 परिवारों को नमूने के रूप में चुना जाता है. इस तरह, नमूने का कुल आकार लगभग 2,72,304 परिवार हो गया है, जो दिसंबर 2024 तक 1,02,400 था.

इसमें जिले को प्राथमिक भौगोलिक इकाई (या बुनियादी स्तर) माना जाता है और जिले के अंतर्गत दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों को ‘आधार’ के रूप में रखा जाता है. FSU को ‘सिंपल रेंडम सेंपलिंग विदाउट रिप्लेसमेंट’ (प्रतिस्थापन के बिना सरल यादृच्छिक नमूनाकरण) यानी SRSWOR की प्रक्रिया द्वारा चुना जाता है. यह 2011 की जनगणना के अनुसार बड़े गांवों को और शहरी ढांचा सर्वेक्षण, जो शहरों के बुनियादी ढांचे और विकास का पता लगाने के लिए किया जाता है, द्वारा तय ब्लॉक को परिवारों की संख्या के आधार पर छोटी-छोटी उप-इकाइयों में बांटता है.

परिभाषा से जो बाहर हैं

इन सभी बदलावों के बावजूद, PLFS भारत के श्रम बल की विविधता और जटिलता को ठीक-ठीक नहीं बता पाता. इसमें ‘हाइब्रिड’, गतिशील और अनिश्चित श्रम में उल्लेखनीय अंतर दिख रहा है. क्या सिर्फ़ वास्तविक समय वाले जिला स्तर के संकेतकों से हम काम की प्रकृति या सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक श्रमिकों की पहुंच को समझ सकते हैं? क्या परिवार आधारित सर्वेक्षण कम समय वाले, मौसमी और नियमित समय पर होने वाले पलायन की प्रकृति ठीक-ठीक बता सकते हैं, जब तक कि वे परिवार-आधारित न हों?

PLFS कार्यस्थल पर सुरक्षा, ओवरटाइम या उत्पीड़न जैसे मुद्दों की चर्चा करने में विफल रहता है.

इतना ही नहीं, PLFS अब भी ‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ में ही श्रमिकों को बांटता है, बजाय इसके कि यह गहराई से जांच करे कि श्रमिकों के पास काम कम क्यों है, उनको व्यावसायिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य (OSH) सुविधा, आपात समय में सहायता और अन्य प्रकार की सामाजिक सुरक्षाएं क्यों नहीं मिलतीं? इस तरह की कमियां या परिभाषा से जुड़ी ख़ामियां पारंपरिक चुनौतियों, जैसे- श्रम बल में महिलाओं की तुलनात्मक रूप से कम उपस्थिति और प्रवासी मजदूरों की मुश्किलों की अनदेखी करती हैं. इसमें ऑनलाइन कामकाज को भी किसी तय श्रेणी में नहीं रखा जाता है.

इसके अलावा दिक्कत यह भी है कि ‘गिग वर्क’ (अस्थायी काम) और ऑनलाइन कामों की जानकारी तो बजट में दी जाती है, लेकिन PLFS में इस पर चर्चा नहीं की जाती. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार अनौपचारिक काम असल में वह काम है, जो कानूनी या सामाजिक सुरक्षा के बिना उपलब्ध है. यहां सामाजिक सुरक्षा का अर्थ है, औपचारिक अनुबंध, मातृत्व अवकाश, पेंशन या नियम के मुताबिक तय परिस्थितियों में काम करना. वह लिंग के अनुसार आंकड़े जमा करने और अनौपचारिक श्रमिकों पर विशेष ध्यान देने की बात भी कहता है. मगर इसके उलट, PLFS में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की कोई ख़ास परिभाषा नहीं दी जाती. इसमें उद्यम के पंजीकरण, अनुबंध की स्थिति, भविष्य निधि/ कर्मचारी राज्य बीमा (PF/ ESI) कवरेज और रोज़गार की प्रकृति (अस्थायी, नियमित वेतनभोगी या स्व-रोज़गार) पर ही ज़ोर दिया जाता है, जिससे पलयान और अनौपचारिक कामकाज के बीच का महत्वपूर्ण संबंध पता नहीं चल पाता. उद्योगों के साथ अनौपचारिकता के इस घालमेल के कारण सर्वे में श्रम बल का एक बड़ा हिस्सा ‘छूट’ जाता है. ‘ऑन अकाउंट वर्कर्स’ (किसी भी कर्मचारी को काम पर रखे बिना खुद का धंधा चलाना) या ‘सहायक’ जैसी श्रेणियां उन शोषणकारी स्थितियों को सामने नहीं आने देतीं, जो पारिवारिक दायित्व या अनौपचारिक अनुबंधों में छिप जाती हैं.

बिना आधार वाला रोज़गार- पीएलएफएस में अदृश्य प्रवासी

अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं इसका विकल्प उपलब्ध कराती हैं। उदाहरण के लिए, ILOSTAT कानूनी स्थिति, अवधि के आधार पर वर्गीकरण, काम और पलायन के संबंध, रोज़गार संबंध और उद्यम के प्रकार के आधार पर अनौपचारिक कामकाज को परिभाषित करता है. WEIGO (वूमेन इन इनफॉर्मल इंप्लॉयमेंट- ग्लोबलाइजिंग ऐंड ऑर्गेनाइजिंग) सांख्यिकीय का संक्षिप्त विवरण हमें बताता है कि कैसे राष्ट्रीय सर्वेक्षण आमतौर पर महिलाओं के घरेलू काम और देखभाल संबंधी कामों को गलत तरीके से वर्गीकृत करते हैं. विश्व बैंक की ‘जॉब्स डाइगनास्टिक्स’ के आंकड़े और IOM-UNESCO रिपोर्ट देश के अंदर होने वाले पलायन, ऑनलाइन काम और अनौपचारिक श्रम में लैंगिक विविधता का पता लगाती हैं.

भारत में, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की 2024 की रिपोर्ट में घरेलू पलायन पर विस्तार से चर्चा की गई है. आर्थिक सर्वेक्षण में श्रम बाज़ार में आए बदलाव, ग्रामीण-शहरी पलायन और कोविड-19 महामारी के कारण श्रमिकों के वापस घर लौटने की चर्चा की गई है. इसके अलावा, श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट असंगठित क्षेत्र के रोज़गार और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जुड़े आंकड़े बताती हैं. OSH कानून भी महत्वपूर्ण जानकारी देता है. आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय (अब इस मंत्रालय का विलय कर दिया गया है) द्वारा तैयार ‘पलायन पर कार्य समूह की रिपोर्ट’ भी पलायन के रुझानों के बारे में बताती है. फिर भी PLFS प्रवासियों को बमुश्किल जनसांख्यिकीय श्रेणी में गिनता है, जो संकेत है कि हमारे शासन की प्राथमिकताओं में कहीं-न-कहीं अंतर है.

PLFS का ‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ वाला ढांचा उन संरचनात्मक और नौकरशाही संबंधी चुनौतियों को छिपा देता है, जो श्रमिक झेलते हैं. 

भारत में प्रवासन 2020-21 रिपोर्ट इन कमियों की कुछ हद तक चर्चा करती है. हालांकि, यह रिपोर्ट उस तरीके से तैयार नहीं की गई थी, जिस तरह से PLFS सर्वे के लिए आंकड़े जमा किए जाते हैं. बल्कि, यह महामारी के दौरान की विशेष परिस्थितियों पर आधारित थी. जुलाई 2020 से जून 2021 तक की परिस्थितियों पर आधारित इस रिपोर्ट में छोटे समय के लिए होने वाले पलायन, अस्थायी तौर पर प्रवासियों का वापस घर लौटना, रोज़गार के स्थान में बदलाव और पैसे घर भेजने की प्रवृत्ति में आए परिवर्तनों को शामिल किया गया था. PLFS 2022-23 और 2023-24 में इस अस्थायी व्यवस्था को बनाए नहीं रखा गया, जिससे रोज़गार देने वालों से यह पता लगाने में नाकामी हाथ लगी कि श्रमिकों की आवाजाही कैसी रही?

यह सही है कि PLFS में अनौपचारिक मजदूरों को शामिल किया जाता है, लेकिन ऐसा नियंत्रित अनिश्चितता वाले ढांचों के भीतर किया जाता है. राज्य श्रम सुरक्षा के लिए योग्यता निर्धारित करता है और ‘स्वयं के उपभोग’ के लिए घरेलू श्रम को एक ही नियम के तहत दर्ज़ करता है, जिससे जटिल श्रेणियां सामान्य बनकर रह जाती हैं. इसके अलावा, जनवरी-दिसंबर 2025 का रोज़गार और बेरोज़गारी (फर्स्ट विजिट) फॉर्म में परिवार के मुखिया का नाम सबसे आगे रखा जाता है, जिससे परिवार के पदानुक्रम मजबूत बनता है और परिवार में किसे व किसकी शर्तों पर श्रमिक माना जाए, इस बारे में सामाजिक पूर्वाग्रह मज़बूत होते हैं.

लिंग, अधिकार औरपात्रताकी सीमाएं

PLFS में स्व-रोज़गार, बिना वेतन के काम करने वाले पारिवारिक सदस्य, घरेलू सहायक जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिससे शोषणकारी परिस्थितियों और पारिवारिक दायित्व के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं मिल पाती है. ‘विवाह’ या ‘परिवार के दूसरी जगह पर चले जाने’ जैसे लैंगिक कारण महिलाओं के गिग-कार्य, देखभाल या परिवार आधारित उद्यम के लिए होने वाले पलायन को नहीं बता पाते.  जहां अनौपचारिक कामकाज की विशेषता अस्थिरता, बातचीत या मोल-भाव का अभाव और शोषण बताई जाती हैं. वहीं PLFS सफाई कर्मचारियों सहित सभी श्रमिकों को औपचारिक रूप से नियोजित मानता है, उनकी अत्यधिक अनिश्चित स्थिति की अनदेखी करता है.

जब तक PLFS भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की सच्चाई नहीं बताता, तब तक श्रम संबंधी आंकड़े हक़ीक़त से मेल नहीं खा सकते.

महत्वपूर्ण बात यह है कि PLFS कार्यस्थल पर सुरक्षा, ओवरटाइम या उत्पीड़न जैसे मुद्दों की चर्चा करने में विफल रहता है. यह काम के घंटों को तो दर्ज़ करता है, पर बिना वेतन वाले श्रम या दबावपूर्ण परिस्थितियों में किए जाने वाले कामकाज को नहीं बताता. महिलाओं के वेतन-रहित घरेलू कामकाज को घरेलू जिम्मेदारियों में ‘सहायक’ के रूप में दर्ज़ किया जाता है, जिससे उनका आर्थिक योगदान सामने नहीं आ पाता. ‘अन्य’ श्रेणी, जिसका उपयोग भीख मांगने और वेश्यावृत्ति जैसे कामों को बताने के लिए किया जाता है, यही बताती है कि किस तरह से सामाजिक कलंक सांख्यिकीय वर्गीकरण को प्रभावित करता है. जबकि, WWEIGO और ILO की मानें, तो इनको आंकड़ों में शामिल करने से श्रम से जुड़ी लैंगिक सच्चाइयों के बारे में पूरी तस्वीर सामने नहीं आ पाती है.

PLFS नौकरी अनुबंधों या सामाजिक सुरक्षा के आंकड़ों को लिंग, जाति या पलायन की स्थिति के आधार पर बांटने में विफल रहता है. इस कारण श्रम अधिकारों का न होना एक सामान्य बात बनकर रह जाती है. इसमें श्रमिकों के लाभों, जैसे कि सामाजिक सुरक्षा और मातृत्व/ स्वास्थ्य सेवा लाभ, की पात्रता के आधार पर उनकी अलग-अलग श्रेणियां ज़रूर बनाई जाती हैं, लेकिन श्रम कानूनों के उल्लंघन, न्यूनतम मज़दूरी और वेतन सहित अवकाश की चर्चा नहीं की जाती. रोज़गार के बढ़े हुए आकंड़े से रोज़गार अधिकारों के अभाव की अनदेखी होती है और इस बात पर विचार नहीं किया जाता कि सामाजिक सुरक्षा के अधिकार किस तरह से सामाजिक सीमाओं के पार ख़त्म हो जाते हैं.

इसके अलावा, यह कानूनी और स्वैच्छिक लाभों, जैसे कि कर्मचारी भविष्य निधि या EPFO और लोक भविष्य निधि (PPF) को एक साथ मिला देता है, बिना यह साफ़-साफ़ बताए कि ये लाभ नियोक्ता की तरफ़ से दिए जा रहे हैं, या राज्य द्वारा तय किए गए हैं या फिर खुद श्रमिक ने इसकी पहल की है. राज्यों और नियोक्ताओं के बीच फंसे प्रवासी श्रमिकों के लिए पोर्टेबिलिटी (नियोक्ता बदलने पर पेंशन अधिकार या स्वास्थ्य बीमा जैसे लाभों को आसानी से स्थानांतरित करने की क्षमता), निरंतर काम मिलने और नियमों को लागू करने वाले तंत्रों का अभाव होता है. PLFS का ‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ वाला ढांचा उन संरचनात्मक और नौकरशाही संबंधी चुनौतियों को छिपा देता है, जो श्रमिक झेलते हैं. इसके साथ ही, विक्रेता संघों, यूनियनों या स्वयं सहायता समूहों (SHG) के लिए संस्थागत व्यवस्था का अभाव उनकी सुरक्षा और मोल-भाव करने के अधिकार को कठिन बना देता है.

निष्कर्ष

भारत के अनौपचारिक श्रम-बल के लिए, कल्याणकारी पात्रता आमतौर पर कागज़ों पर ही मौजूद रहती है. 1996 का भवन एवं अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम (BOCW एक्ट) और 1948 का कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (ESI एक्ट) तकनीकी रूप से श्रमिकों की सुरक्षा करते हैं. फिर भी, पंजीकरण में गड़बड़ी, जागरूकता की कमी और अपर्याप्त कानून के अभाव में उनको इनका पूरा लाभ नहीं मिल पाता है. ई-श्रम पोर्टल, अनौपचारिक श्रमिकों के लिए पहचान पत्र और प्रवासी श्रमिकों के लिए आयुष्मान भारत स्वास्थ्य खाता (ABHA) जैसी पहलों का उद्देश्य इन श्रमिकों को अपनी पहचान देना तो है, लेकिन पोर्टेबिलिटी और एकीकरण के मोर्चे पर मुश्किलें बनी हुई हैं.

ऐसी हालत में, PLFS को ‘योग्य’ और ‘अयोग्य’ जैसे दो वर्गों से ऊपर उठना चाहिए और पूरे भारत के रोज़गार परिदृश्य की जटिलता, परिवर्तनशीलता और वास्तविकता पर ध्यान लगाना चाहिए. जब तक PLFS भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की सच्चाई नहीं बताता, तब तक श्रम संबंधी आंकड़े हक़ीक़त से मेल नहीं खा सकते.


(धवल देसाई ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, मुंबई में वरिष्ठ फेलो और वाइस प्रेसिडेंट हैं)

(दुर्गा नारायण ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में शोध प्रशिक्षु हैं)


[i] SRSWOR is a method sample building from a population where each unit in the population has an equal chance of being selected to ensure that the sample adequately represents the whole population. Once chosen the unit is not replaced back into the population. Thus, the same unit cannot be selected more than once.

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