Author : Gurjit Singh

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jan 17, 2025 Updated 0 Hours ago

प्रबोवो के कार्यकाल में इंडोनेशिया सक्रिय विदेश नीति की राह पर चल रहा है और वो आसियान की बंदिशों से आगे बढ़कर विश्व मंच पर संवाद करने की कोशिश में जुटा है.

राष्ट्रपति प्रबोवो की नई सोच कैसे बदल रही है इंडोनेशिया की विदेश नीति?

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20 अक्टूबर को प्रबोवो सुबियांतो के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के साथ ही वो अपने पूर्ववर्ती और जोकोवी के नाम से मशहूर जोको विडोडो की सरकार के रक्षा मंत्री से देश के सर्वोच्च नेता बन गए.

 

प्रबोवो ने वादा किया है कि वो इंडोनेशिया की लंबे समय से चली रहीस्वतंत्र एवं सक्रियविदेश नीति का पालन करेंगे. उन्होंने गुटनिरपेक्ष रवैये और राष्ट्रीय स्वायत्तता पर काफ़ी ज़ोर दिया है. वैसे तो उनका ये एलान इंडोनेशिया की पहले की नीतियों से मेल खाता है. लेकिन, उम्मीद की जा रही है कि अपने पूर्ववर्ती जोकोवी के एक दशक लंबे कार्यकाल के उलट प्रबोवो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक सक्रिय विदेश नीति अपनाएंगे.

उम्मीद की जा रही है कि अपने पूर्ववर्ती जोकोवी के एक दशक लंबे कार्यकाल के उलट प्रबोवो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक सक्रिय विदेश नीति अपनाएंगे.

प्रबोवो ने अपनी पार्टी के साथी सुगिओनो को विदेश मंत्री नियुक्त किया है. इससे विदेश नीति का नेतृत्व विदेश मंत्रालय से हटकर राष्ट्रपति भवन यानी इस्ताना पैलेस के पास आने का संकेत मिलता है. प्रबोवो का सुगिओनो को विदेश मंत्री बनाने का फ़ैसला, जोकोवी के कार्यकाल से ठीक उलट है. जब जोकोवी के कार्यकाल में तत्कालीन विदेश मंत्री रेटनो मरसुदी ने अपने लिए ख़ामोश मगर काफ़ी असरदार भूमिका बनाई थी. सुगिओनो की नियुक्ति से पिछले पंद्रह साल में पहली बार इंडोनेशिया में कोई ग़ैर राजनयिक विदेश मंत्री बना है.

 

आसियान के दायरे से बाहर निकलना

 

प्रबोवो को बख़ूबी पता है कि उनके सामने एक जटिल वैश्विक परिदृश्य से निपटने की चुनौती है. वो मानते हैं कि पूरी स्वायत्तता के साथ गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने में इंडोनेशिया की राह में क्या क्या चुनौतियां आने वाली हैं. उनकी सरकार को दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के संगठन (ASEAN) के साथ साथ अमेरिका और चीन जैसी बड़ी ताक़तों के साथ अपने रिश्तों में संतुलन बनाना होगा और इसके अलावा उन्हें उभरती मध्यवर्ती ताक़तों के साथ भी संवाद बढ़ाना होगा. उनका रुख़ इंडोनेशिया की भू-राजनीतिक स्थिति को दर्शाने वाला है.

 

शपथ ग्रहण के छह महीने पहले, प्रबोवो ने रक्षा मंत्री के तौर पर अपनी हैसियत का फ़ायदा उठाते हुए आसियान और अन्य देशों के नेताओं के साथ संवाद को बढ़ाया था, और अपनी सक्रिय विदेश नीति की आधारशिला रखी थी. निर्वाचित राष्ट्रपति के तौर पर प्रबोवो जिन देशों के दौरे पर गए थे, उनमें चीन और रूस भी शामिल थे.

 

सत्ता संभालने के कुछ दिनों के बाद ही प्रबोवो कई देशों के हाई प्रोफाइल दौरे पर निकल पड़े थे, जिससे उनकी सक्रिय विदेश नीति और भी रेखांकित हुई थी. प्रबोवो की धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलने, लोगों से आसानी से दोस्ती बनाने और करिश्माई व्यक्तित्व जैसी ख़ूबियां, उन्हें अपने पूर्ववर्ती जोकोवी से अलग खड़ा करती हैं, जो विश्व मंच पर बहुत संयमित रहा करते थे.

 

वैसे तो कुछ विश्लेषकों का मानना है कि प्रबोवो की विदेश नीति आक्रामक है. लेकिन, इसे सक्रिय विदेश नीति कहना ज़्यादा बेहतर होगा, जिसमें राष्ट्रपति विदेश मंत्रालय के भरोसे रहने के बजाय अधिक सक्रिय भूमिका निभाएंगे. नवंबर में 12 दिनों के दौरे के दौरान प्रबोवो ने चीन, अमेरिका, ब्रिटेन और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) का दौरा किया. इसके अलावा वो एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग मंच की बैठक के लिए पेरू और G20 के शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए ब्राज़ील के दौरे पर भी गए थे. उनके ये दौरे इंडोनेशिया के बड़ी ताक़तों से संपर्क बढ़ाने और प्रमुख अंतरराष्ट्रीय बैठकों में शामिल होने की प्राथमिकता को दर्शाते हैं. इनसे ये भी पता चलता है कि राष्ट्रपति प्रबोवो विश्व मंच पर इंडोनेशिया की हैसियत को बढ़ाना चाहते हैं

 

बाद में प्रबोवो वॉशिंगटन डीसी के दौरे पर भी गए, जहां उन्होंने राष्ट्रपति बाइडेन से मुलाक़ात की. हालांकि, प्रबोवो निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप से सीधे तौर पर मिलने तो नहीं गए मगर, ट्रंप की टीम ने प्रबोवो के साथ उनकी फोन कॉल को सोशल मीडिया पर काफ़ी प्रचारित किया था. प्रबोवो के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान अमेरिका की तरफ़ से संयुक्त राष्ट्र में उसकी राजदूत लिंडा थॉमस ग्रीनफील्ड मौजूद रही थीं. अमेरिका, इंडोनेशिया के आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) में शामिल होने का समर्थन करता है. इंडोनेशिया इस मंच का हिस्सा बनने की पुरज़ोर कोशिश करता रहा है.

 

कुछ हलकों द्वारा आशंकाएं जताने के बावजूद, इंडोनेशिया के बहुत से लोग ये मानते हैं कि प्रबोवो की विदेश नीति उनके घरेलू एजेंडे से काफ़ी मिलती है, जिसके तहत वो दुनिया में इंडोनेशिया की हैसियत बढ़ाना चाहते हैं और विदेशी निवेश को आकर्षित करना चाहते हैं. G20 और APEC जैसे बड़े वैश्विक सम्मेलनों में शिरकत करके प्रबोवो ने अपनी इस महत्वाकांक्षा को और उजागर किया है. हालांकि, अपने पहले कार्यकाल में प्रबोवो इनमें से किसी भी संगठन की अध्यक्षता तो नहीं करेंगे. लेकिन, वो अपना पूरा ध्यान विश्व मंच पर इंडोनेशिया की हैसियत बढ़ाने का मक़सद पूरा करने पर लगा रहे हैं.

राष्ट्रपति के तौर पर पहले तीन महीनों के दौरान प्रबोवो की विदेश नीति के कुछ अहम पहलू उभरकर सामने आए हैं. पहला तो उनका ज़ोर क्षेत्रीय के बजाय वैश्विक स्तर पर है.

राष्ट्रपति के तौर पर पहले तीन महीनों के दौरान प्रबोवो की विदेश नीति के कुछ अहम पहलू उभरकर सामने आए हैं. पहला तो उनका ज़ोर क्षेत्रीय के बजाय वैश्विक स्तर पर है. एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग मंच APEC और G20 में अपने भाषणों और सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों- अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन के साथ संवाद बढ़ाने की उनकी कोशिश से भी पता चलता है कि इंडोनेशिया अपने आपको क्षेत्रीय मामलों तक सीमित करने के बजाय विश्व मंच पर अपना क़द बढ़ाना चाहता है.

 

प्रबोवो की एक उल्लेखनीय प्राथमिकता इज़राइल और हमास के संघर्ष के समाधान की रही है. जिससे फिलिस्तीन को लेकर इंडोनेशिया के समर्थन के लंबे इतिहास का पता चलता है. प्रबोवो ने शपथ ग्रहण वाले दिन यानी 20 अक्टूबर 2024 को संसद में अपने भाषण में भी फिलिस्तीन का ज़िक्र किया था. वैसे तो अभी उनके प्रयास शुरुआती ही हैं और प्रबोवो को अभी ठोस उपलब्धियां हासिल नहीं हुई हैं. फिर भी, इस मुद्दे को लेकर उनकी प्रतिबद्धता मज़बूत बनी हुई है. इंडोनेशिया ने इज़राइल को मान्यता नहीं दी हुई है, जो उसके कड़े रुख़ को रेखांकित करता है. हालांकि, 7 अक्टूबर 2023 को हमास के हमले के बाद से इंडोनेशिया के लिए चुनौती बढ़ गई है. क्योंकि, प्रबोवो के रुख़ से सहमति रखने वाले कुछ अरब देशों ने हमास से दूरी बनाई है, जिससे इंडोनेशिया के लिए चुनौती और जटिल हो गई है.

 

निर्वाचित राष्ट्रपति के तौर पर प्रबोवो ने आसियान के ज़्यादातर सदस्य देशों का दौरा कर लिया था और उन्होंने आसियान के रक्षा मंत्रियों की बैठक में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, और क्षेत्रीय सहयोग को मज़बूती प्रदान की थी. हालांकि, अब आसियान पर प्रबोवो की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को प्राथमिकता मिलने की संभावना है. अब इंडोनेशिया द्वारा ’आसियान प्लस’ की विदेश नीति पर चलने की संभावना ज़्यादा है, जिससे वो आसियान की सामूहिक रूप-रेखा के दायरेसे निकलकर वैश्विक संबंध बढ़ाने के प्रयास तेज़ करेगा.

 

ये तब्दीली, APEC, G20 और ब्रिक्स सम्मेलनों के दौरान साफ़ तौर पर दिखी. क्योंकि इंडोनेशिया अब आसियान से ज़्यादा इन मंचों पर अपनी नुमाइंदगी बढ़ा रहा है. इंडोनेशिया ने 2022 में आसियान की अध्यक्षता की थी. प्रबोवो के कार्यकाल में इंडोनेशिया के हाथ में, आसियान की कमान नहीं आएगी. हो सकता है कि इस उभरती विदेश नीति के चलते इंडोनेशिया को आसियान की आम सहमति से हटकर अलग रुख़ अपनाना पड़े.

 

इसका एक उदाहरण इंडोनेशिया द्वारा नैटुना सी में चीन के साथ मिलकर अन्वेषण करने का समझौता है. जबकि नैटुना सी, साउथ चाइना सी के विवाद का एक हिस्सा है. इंडोनेशिया वैसे तो सीधे तौर पर चीन की नाइन डैश लाइन के साथ विवाद में शामिल नहीं है. लेकिन, चीन इस इलाक़े में इंडोनेशिया के दावे का विरोध करता है. रक्षा मंत्री के तौर पर प्रबोवो ने इंडोनेशिया की समुद्री सीमा मे चीन की घुसपैठ को लेकर बड़ा कड़ा रुख़ अपनाया था. हालांकि, चीन के साथ अपने साझा बयान में इंडोनेशिया ने समझौते की इच्छा ज़ाहिर की थी, जिससे फिलीपींस जैसे आसियान के सदस्य देशों की चिंता बढ़ी है. शिंजियाग की मुस्लिम आबादी पर चीन के ज़ुल्म को लेकर इंडोनेशिया की ख़ामोशी के साथ साथ चीन के नई विश्व व्यवस्था वाले रुख़ को समर्थन देकर इंडोनेशिया ने ये संकेत दिया है कि वो चीन से सीधे तौर पर उलझना नहीं चाहता. इंडोनेशिया की इस दुविधा वाली नीति का असर साउथ चाइना सी के कोड ऑफ कंडक्ट को लेकर चल रही वार्ता पर भी पड़ सकता है, जो आसियान देशों के मतभेदों के दौरान पहले ही अटकी हुई है.

 

आसियान के साथ विवाद का एक और मसला म्यांमार का है. जोको विडोडो की सरकार ने ब्रुनेई द्वारा प्रस्तावित पांच बिंदुओं की आम सहमति पर आगे बढ़ने का समर्थन किया था. हालांकि, म्यांमार की सैन्य सरकार इन बिंदुओं की अनदेखी करती रही है. थाईलैंड और म्यांमार के दूसरे पड़ोसी देश, सैन्य सरकार से सीधे संवाद कर रहे हैं. लेकिन, प्रबोवो शायद दख़लंदाज़ी न करने की नीति को तरज़ीह दें, जिससे कोई अर्थपूर्ण बदलाव लाने की आसियान की क्षमता पर सवाल खड़े होंगे.

 

आसियान के विदेश मंत्रियों की बैठक में सुगिओनो शामिल नहीं हुए थे. क्योंकि उन्हें राष्ट्रपति प्रबोवो के साथ D-8 के शिखर सम्मेलन में जाना था. इससे भी इंडोनेशिया की बदलती हुई प्राथमिकताएं उजागर हो जाती हैं. इससे प्रबोवो के विश्व स्तर पर संपर्क बढ़ाने की व्यापक रणनीति का पता चलता है, जिसके ज़रिए वो आसियान के बाहर भी इंडोनेशिया का प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं.

 

आख़िर में प्रबोवो की रणनीति अमेरिका और चीन दोनों के साथ रिश्तों में संतुलन बनाने और किसी को नाराज़ किए बग़ैर दोनों के साथ सामरिक रिश्तों को मज़बूत बनाने की है. एक वक़्त में प्रबोवो के आलोचक रहे अमेरिका ने भी अपना रुख़ नरम कर लिया है, जिससे दोनों देशों के बीच सहयोग और गहरा होने की उम्मीद जगी है. प्रबोवो अमेरिका के साथ आर्थिक सहयोग बढ़ाना चाहते हैं. वहीं वो चीन के साथ भी रिश्ते मज़बूत करना चाहते हैं, जिससे वैश्विक प्रतिद्वंदिता को लेकर इंडोनेशिया के व्यवहारिक रुख़ का पता चलता है.

 

प्रबोवो के नेतृत्व में जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य

 

प्रबोवो के नेतृत्व में इंडोनेशिया ने एशिया प्रशात आर्थिक सहयोग मंच (APEC और G20 सम्मेलनों में एलान किया है कि वो जलवायु परिवर्तन के अपने लक्ष्य हासिल करने में तेज़ी लाएगा. अब इंडोनेशिया, राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्यों (INDCs) को 2050 में ही हासिल करना चाहता है, जो उसके 2060 के घोषित लक्ष्य से एक दशक पहले होगा. पेरिस समझौते से तालमेल बिठाने के लिए इंडोनेशिया 2040 तक कोयले से बिजली बनाने के सारे प्लांट बंद करने का इरादा रखता है. चूंकि इंडोनेशिया कोयले का एक बड़ा उत्पादक देश है. ऐसे में उसका ये लक्ष्य बेहद महत्वाकांक्षी ही कहा जाएगा.

ग़ज़ा से लेकर यूक्रेन तक दुनिया के अहम मसलों की अहमियत को समझते हुए राष्ट्रपति प्रबोवो को लगता है कि विश्व मंच पर इंडोनेशिया का क़द बढ़ाने और अपनी महत्वाकाक्षाएं पूरी करने के लिए तमाम देशों का सहयोग पाने में एक सक्रिय विदेश विदेश नीति बहुत आवश्यक है.

इंडोनेशिया अभी भी हरित ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने का प्रयास कर रहा है. इंडोनेशिया को उम्मीद है कि वो 2033 तक अपनी सरकारी बिजली कंपनी को अक्षय ऊर्जा की आपूर्ति करने वाली संस्था में तब्दील कर लेगा. इंडोनेशिया ने 2050 तक अपनी ऊर्जा की 75 प्रतिशत ज़रूरतों को अक्षय ऊर्जा से पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए इंडोनेशिया को ऊर्जा भंडारण और हरित ऊर्जा की आपूर्ति का मूलभूत ढांचा खड़ा करने के लिए 1.2 ट्रिलियन डॉलर की अनुमानित पूंजी की आवश्यकता होगी.

 

इस परिवर्तन के लिए पूंजी जुटाने के मक़सद से इंडोनेशिया मिले जुले और हाइब्रिड फाइनेंस के समाधान और कार्बन ट्रेडिंग के तरीक़े अपना रहा है. 60 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन सोखने की संभावित क्षमता के साथ इंडोनेशिया का व्यापक वन क्षेत्र इस मामले में काफ़ी अहम संसाधन है. इंडोनेशिया की सरकार जंगलों की आग से नष्ट हुए 1.2 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र को फिर से बहाल करने का इरादा रखती है, जिससे उसके ऊर्जा क्षेत्र और कार्बन ट्रेडिंग के बाज़ार में लोगों की दिलचस्पी जगी है. इन वजहों से वैश्विक जलवायु वार्ताओं और टिकाऊ निवेश के मामले में इंडोनेशिया एक अग्रणी देश बनकर उभरा है, जिससे उसे बाहरी विकल्पों के बजाय स्थानीय समाधानों का हिस्सा बनने का मौक़ा प्राप्त हुआ है. जलवायु के समाधानों का विरोध करने के बजाय अब इंडोनेशिया, न्यायोचित ऊर्जा परिवर्तन साझेदारी के साथ मिलकर काम करेगा.


ग़ज़ा से लेकर यूक्रेन तक दुनिया के अहम मसलों की अहमियत को समझते हुए राष्ट्रपति प्रबोवो को लगता है कि विश्व मंच पर इंडोनेशिया का क़द बढ़ाने और अपनी महत्वाकाक्षाएं पूरी करने के लिए तमाम देशों का सहयोग पाने में एक सक्रिय विदेश विदेश नीति बहुत आवश्यक है.

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