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अमेरिका द्वारा भारत को अपने GSP के तहत पहले दिए जाने वाले लाभों को दोबारा बहाल करने से भी दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों को नई ऊर्जा दी जा सकती है. इससे दोनों देश उभरती संभावनाओं का अधिकतम दोहन कर सकेंगे.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने देश की विदेश नीति के बचाव अभियान की शुरुआत कर दी है. इसका मक़सद, डोनाल्ड ट्रंप के शासन काल में अमेरिका की विदेश नीति को हुए नुक़सान से उबारकर उसे दोबारा सम्मान दिलाना है. ऐसे में अमेरिका और भारत के संबंधों को लेकर भी बाइडेन का एजेंडा अलग होगा. अगर अमेरिका और यूरोप के बीच संबंध की बात करें, तो उन्हें सुधारने के लिए बाइडेन को ट्रंप के शासन में हुई गड़बड़ियों को दूर करने की ज़रूरत होगी. लेकिन, भारत के मामले में बाइडेन को ट्रंप की नीतियों पर ही आगे बढ़ना होगा.
ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत के साथ संबंधों पर डोनाल्ड ट्रंप का रिकॉर्ड काफ़ी सकारात्मक रहा है. सामरिक मोर्चे पर इसमें, दोनों देशों की सेनाओं के बीच आपसी तालमेल बढ़ाने को अंतिम रूप देने, समझौते करने, आपसी सहयोग पर आधारित मंत्रि-स्तरीय सलाह-मशविरा और रक्षा तकनीक और व्यापार की पहल को ज़मीनी स्तर पर लागू करने में प्रगति जैसे क़दम शामिल रहे हैं. इसके अलावा, रक्षा व्यापार के क्षेत्र में ट्रंप प्रशासन ने भारत की कुछ विशेष प्लेटफॉर्म को लेकर मांगों पर नरमी अख़्तियार करते हुए, ऐसी नीति अपनाई जिससे प्रमुख हथियारों के पूरक उपकरणों की ख़रीद को फ़ौरन मंज़ूरी दी जा सके. इसके अलावा ट्रंप प्रशासन ने भारत के अमेरिका से मानव-रहित सिस्टम ख़रीदने पर लगी पाबंदी को भी हटा लिया था.
व्यापार कर बढ़ाने के इस फ़ैसले में भारत को भी लपेट कर ट्रंप प्रशासन ने संकेत दिया था कि वो दोस्तों और दुश्मनों के साथ एक जैसा बर्ताव करेंगे.
हालांकि, इन उपलब्धियों के बावजूद, अमेरिका और भारत के बीच व्यापार, जो वर्ष 2019 में 146 अरब डॉलर के उच्चतम स्तर तक पहुंच गया था, वो कुछ विषयों पर टकराव के चलते ट्रंप के शासनकाल में लड़खड़ाता रहा था.
चूंकि डोनाल्ड ट्रंप का ज़ोर हमेशा निष्पक्ष और बराबरी का व्यापारिक समझौता करने पर रहा, तो उनके अधिकारी अक्सर उन देशों के ख़िलाफ़ चिंताएं जताते रहे थे, जिनके साथ अमेरिका का व्यापार घाटे में चल रहा होता था. हालांकि, अमेरिका के साथ भारत का व्यापारिक सरप्लस, चीन की तुलना में महज़ दसवां हिस्सा ही है. फिर भी भारत डोनाल्ड ट्रंप के उन आरोपों से नहीं बच सका कि वो अमेरिका के साथ व्यापार में छल करने वाला देश है. ट्रंप ने ऐसे देशों के ख़िलाफ़ कुछ क़दम भी उठाए थे.
भारत के ख़िलाफ़ ट्रंप प्रशासन ने ऐसा पहला क़दम मार्च 2018 में उठाया था, जब उसने स्टील और एल्युमिनियम के आयात पर व्यापार कर बढ़ा दिया था. हालांकि, अमेरिका ने ये क़दम स्टील और एल्युमिनियम के वैश्विक बाज़ार में चीन के बढ़ते प्रभाव से अमेरिकी कंपनियों को बचाने के लिए उठाया था. लेकिन, व्यापार कर बढ़ाने के इस फ़ैसले में भारत को भी लपेट कर ट्रंप प्रशासन ने संकेत दिया था कि वो दोस्तों और दुश्मनों के साथ एक जैसा बर्ताव करेंगे. तब दोनों देशों के बीच व्यापारिक असंतुलन का हवाला देते हुए, ट्रंप प्रशासन ने खुलकर या तो भारत को व्यापार कर का बादशाह कहकर उस पर निशाना साधा या फिर अमेरिकी बाज़ारों तक भारत की पहुंच को सीमित किया. इसका एक उदाहरण हमें तब देखने को मिला, जब डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका की तरफ़ से मिलने वाली GSP (Generalised System of Preferences) की रियायत को रोक दिया. इससे, भारत द्वारा अमेरिका को किए जाने वाला लगभग 5.7 अरब डॉलर का व्यापार प्रभावित हुआ था. ये क़दम उठाते हुए अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि (USTR) की ओर से तर्क दिया गया कि ‘भारत ने अमेरिका के साथ वाणिज्य की राह में करों की कई बाधाएं खड़ी की हैं, जिससे उनके हितों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.’
अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय द्वारा इस बात पर भी विचार किया जा रहा है कि वो धारा 301 के तहत व्यापार कर और अन्य प्रतिबंधों की सख़्ती से जांच करे. ये ठीक उसी तरह की कार्रवाई होती, जो अमेरिका ने चीन के साथ व्यापार युद्ध के दौरान की थी
अमेरिका के इस क़दम का बहुत व्यापक असर पड़ा. क्योंकि, इस फ़ैसले के माध्यम से ट्रंप प्रशासन ने अन्य मतभेदों पर भारत के तर्क को काटने की कोशिश की थी. उदाहरण के लिए भारत ने अमेरिका से फार्मास्यूटिकल्स के आयात पर क़ीमत की जो सीमा तय की थी, उसे जायज़ ठहराने के लिए भारत ये तर्क देता था कि वो एक विकासशील देश है और उसे अपने यहां के मध्यम आमदनी वाले वर्ग के उपभोक्ताओं का भी ध्यान रखना होगा. ऐसे में जब अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि ने भारत को GSP के तहत मिलने वाली रियायतों को ख़त्म किया, तो ट्रंप प्रशासन के उस विचार का हवाला दिया कि अब भारत इन रियायतों को हासिल करने के लिए ज़रूरी वैधानिक वैधता के दर्जे में नहीं आता. इस रियायत को पाने के लिए, ‘लाभार्थी के विकासशील देश’ होने की शर्त है. इसके बाद भारत को अमेरिका ने अपनी USTR के विकासशील देशों की सूची से भी बाहर कर दिया था. ये वो देश हैं, जिन्हें ‘इस जांच से रियायत मिलती है कि कहीं वो अपने निर्यातों को सब्सिडी देकर अमेरिका के उद्योगों को क्षति तो नहीं पहुंचा रहे हैं.’
ट्रंप प्रशासन ने ऐसे क़दम उठाकर भारत के साथ व्यापार वार्ताओं को और लंबा खींचने का काम किया. इससे अमेरिका की चिंताएं और बढ़ती गईं.
ट्रंप के शासन काल में अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइथिज़र ने व्यापार वार्ताओं में रूढ़िवादी रवैया अपनाया था. तब, अमेरिका द्वारा लगाए जाने वाले व्यापारिक करों को तो बस ‘भाले की नोक’ माना जाता था, जिसके ज़रिए अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सभी निर्यातक देशों के लिए सबसे लुभावना बाज़ार होने का लाभ उठाता था. ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका ने बहुत से देशों के साथ अपनी व्यापारिक शर्तों मनवाने के लिए टैरिफ बढ़ाने के हथियार का इस्तेमाल किया था. इसमें अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि के कार्यालय द्वारा तैयार किया गया राष्ट्रीय व्यापार अनुमान शामिल था, जिसमें भारत द्वारा ‘अपनी सीमाओं के आर-पार डेटा के प्रवाह पर लगाए गए प्रतिबंधों और डेटा को स्थानीय स्तर पर जमा करने की शर्त को बेहद सख़्त’ क़रार दिया गया था.
इसके अतिरिक्त, अमेरिका इस सच्चाई को भी स्वीकार करने में असफल रहा था कि ऐसे मुद्दों पर भारत के तर्क जैसे कि डेयरी उत्पादों पर ये सर्टिफिकेट अनिवार्य करना कि इन्हें तैयार करने में मांस का इस्तेमाल नहीं हुआ (अपने सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के कारण) या फिर सूचना और संचार तकनीक से जुड़े आयातों (जिससे कि सस्ती चीनी तकनीक की अपने बाज़ार में भरमार को रोका जा सके) पर नियंत्रण रखना ज़रूरी है. व्यापार वार्ताओं के लंबा खिंचने से दोनों देशों के बीच खीझ बढ़ती ही गई. इसी दौरान ख़बर ये भी आई कि अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय द्वारा इस बात पर भी विचार किया जा रहा है कि वो धारा 301 के तहत व्यापार कर और अन्य प्रतिबंधों की सख़्ती से जांच करे. ये ठीक उसी तरह की कार्रवाई होती, जो अमेरिका ने चीन के साथ व्यापार युद्ध के दौरान की थी.
चीन पर व्यापार कर लगाने की भरपाई का सीधा संबंध भारत को दी जाने वाली GSP रियायतों से है. ऐसे में बाइडेन प्रशासन अगर चीन से मुक़ाबले के लिए बहुपक्षीय नीति पर अमल करता है, तो उसे भारत की अहमियत को स्वीकार करना होगा.
ऐसे विवादों ने भारत और अमेरिका के बीच एक संक्षिप्त व्यापार समझौता भी नहीं होने दिया. जबकि फरवरी 2020 में ट्रंप जब भारत आए थे, तब ये समझौता होने की उम्मीद जताई गई थी.
2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के बाद, कुछ लोग तो ये उम्मीद कर रहे थे कि बाइडेन के पद संभालने से पहले ट्रंप के नाममात्र के शासनकाल में भी अमेरिका और भारत के बीच व्यापार समझौता हो सकता है. पर, ऐसा भी नहीं हो सका. अब बाइडेन प्रशासन, ने व्यापार प्रतिनिधि के तौर पर कैथरीन टाई को नियुक्त किया है. और नई अमेरिकी सरकार भारत के साथ ‘व्यापार समझौते की नए सिरे से समीक्षा’ कर रही है.
ख़बरों के मुताबिक़, कैथरीन का मानना है कि ‘हमारी विदेश नीति के अन्य हथियारों की तरह व्यापार भी एक औज़ार’ है. हालांकि, कैथरीन व्यापार को ‘अंतिम लक्ष्य’ नहीं मानतीं. उनकी नज़र में व्यापार एक ज़रिया है जिसके ज़रिए जनता में एक नई उम्मीद और उसके लिए नए अवसरों का निर्माण किया जा सकता है. अब चूंकि बाइडेन प्रशासन ने चीन के साथ टकराव वाली नीति पर ही चलने का संकेत दिया है, तो कैथरीन टाई ने ये भी माना है कि, ‘ट्रंप प्रशासन की व्यापार नीतियां पूरी तरह से ग़लत नहीं थीं.’ हालांकि, ट्रंप के रवैये से थोड़ा अलग रुख़ अपनाते हुए, कैथरीन ने इस बात की वकालत की है कि, ‘हम व्यापार वार्ताओं के ज़रिए ख़ुद, अपने कामकाजी लोगों और अपने उद्योगों को फुर्तीला, दक्ष, ज़्यादा ऊंची छलांग लगा सकने वाला, ज़्यादा मज़बूती से मुक़ाबला करने लायक़ और अंततः अपने मुक्त लोकतांत्रिक जीवन शैली की रक्षा करने में सक्षम’ बना सकें. व्यापार वार्ताओं में कई साझेदारों को साथ लेकर चलने और सबसे महत्वपूर्ण ये कि बहुपक्षीय दृष्टिकोण अपनाने का संकेत देना, बाइडेन प्रशासन के उस नज़रिए से मेल खाता है कि वो अपनी विदेश नीति मध्यम वर्ग के लिए बनाएंगे और अमेरिका के सहयोगी देशों और साझेदारों का संयुक्त मोर्चा बनाएंगे, जिससे कि चीन का मुक़ाबला कर सकें.
बाइडेन प्रशासन की इस सोच का समर्थन करते हुए, भारत अपने लिए GSP रियायतों को दोबारा बहाल करने पर ज़ोर दे सकता है. इसके लिए भारत, चीन और अमेरिका के व्यापारिक टकराव का हवाला भी दे सकता है.
हालांकि जो बाइडेन ने ट्रंप प्रशासन द्वारा व्यापार कर को हथियार बनाने की आलोचना की है. लेकिन, उन्होंने ये वादा भी किया है कि वो चीन पर ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाए गए व्यापार प्रतिबंधों को तुरंत नहीं हटाएंगे. न ही वो चीन और अमेरिका के बीच ट्रंप के शासन काल में हुए ‘पहले चरण के समझौते’ को ख़त्म करेंगे. ऐसे में जहां तक व्यापार कर की बात है, तो वो बाइडेन के सत्ता में आने के बाद भी कुछ दिनों तक जारी रहेंगे. या हो सकता है कि बाइडेन चीन के ख़िलाफ़ कुछ नए व्यापार कर भी लगा दें (जिससे की चीन को पहले दौर के व्यापार समझौते की शर्तों का पालन करने के लिए बाध्य किया जा सके). इस क़दम से अमेरिका के निर्माताओं पर जो प्रभाव पड़ेगा, उसे भारत को GSP के तहत मिलने वाली रियायतों को बहाल करके कम किया जा सकता है.
GSP बहाल करने के लिए बने गठबंधन के अनुसार, चूंकि अमेरिका में चीन के उत्पादों का आयात, धारा 301 के तहत लगाए गए करों से कम हुआ है. ऐसे में इन उत्पादों का अमेरिका को आयात, ‘वर्ष 2019 की पहली तिमाही में सबसे ज़्यादा उन देशों से बढ़ा’ है, जिन्हें GSP की रियायत मिलती है. ख़ास तौर से भारत की बात करें, तो धारा 301 के तहत चीन के जिन उत्पादों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं, उनका भारत से अमेरिका को ‘निर्यात 97 प्रतिशत बढ़ा’ है. इससे अमेरिका द्वारा भारत से 19.3 करोड़ का आयात बढ़ा, जो भारत से अमेरिका के आयात का 18 प्रतिशत है.
चूंकि, चीन पर व्यापार कर लगाने की भरपाई का सीधा संबंध भारत को दी जाने वाली GSP रियायतों से है. ऐसे में बाइडेन प्रशासन अगर चीन से मुक़ाबले के लिए बहुपक्षीय नीति पर अमल करता है, तो उसे भारत की अहमियत को स्वीकार करना होगा. इससे भारत और अमेरिका के बीच व्यापार की राह के रोड़े दूर किए जा सकेंगे.
अगर भारत को GSP के तहत मिलने वाली रियायतें बहाल की जाती हैं, तो इससे दोनों देशों के व्यापार को वो ऊर्जा मिलेगी, जिसकी आज सख़्त आवश्यकता है. तभी दोनों देश आपसी व्यापार की उभरती संभावनाओं का अधिकतम लाभ ले सकेंगे. उदाहरण के लिए भारत के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों के मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में कहा था कि भारत में खाद्य तेलों की भारी मांग की पूर्ति अमेरिका से हो सकती है. गडकरी ने मांग की थी कि दोनों देश मिलकर नक़ली मांस के उत्पादन में भी सहयोग कर सकते हैं. इसके अलावा भारत, अमेरिका से इथेनॉल का आयात कर सकता है. इन क्षेत्रों में व्यापार बढ़ाने से अमेरिका को जो लाभ होगा, उससे भारत के साथ सीमित कृषि व्यापार समझौता करने से जुड़ी उसकी आशंकाएं भी दूर होंगी. हाल ही में आई अमेरिकी संसद की एक रिपोर्ट ने भारत के साथ कृषि व्यापार समझौते पर काफ़ी ज़ोर दिया था.
इसके अलावा, ट्रंप ने जिस तरह से व्यापार समझौतों को सुरक्षा से जोड़ा, उससे लेन-देन वाले कारोबार के राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी आयाम को भी वाजिब तवज्जो मिलने लगी है. यानी मुक्त व्यापार को नव- उदारवाद के सिद्धांत की तरह बढ़ावा देने के विचार की समीक्षा की जाने लगी है. इसी के चलते, भू-आर्थिक ज़रूरतों ने अमेरिका और भारत को ये अवसर प्रदान किया है कि दोनों देश द्विपक्षीय व्यापार का दायरा बढ़ा सकें.
उदाहरण के लिए, कोरोना वायरस की महामारी से पहले ही, भारत की फार्मास्यूटिकल कंपनियां जेनेरिक दवाओं में अमेरिका की 40 प्रतिशत ज़रूरतों को पूरा करती थीं. इस महामारी के आने के बाद दोनों देशों के बीच दवाओं का व्यापार और बढ़ा ही है. क्योंकि अमेरिका अब अपनी आपूर्ति श्रृंखला में विविधता लाने पर ज़ोर दे रहा है. इसका एक उदाहरण ये है कि एक अमेरिकी दवा कंपनी गाइलीड ने भारत की छह दवा कंपनियों के साथ रेमडेसिविर दवा बनाने का समझौता किया है. आगे चलकर, भारत और अमेरिका आपसी सहयोग का दायरा और बढ़ा सकते हैं. इससे चीन से आयात किए जाने वाले एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) और जेनेरिक दवाओं पर दोनों देशों की निर्भरता कम होगी.
और आख़िर में अमेरिका और भारत के बीच ऊर्जा व्यापार को स्ट्रैटेजिक एनर्जी पार्टनरशिप के खाने में डाल दिया गया है. इससे दोनों देशों के बीच ऊर्जा व्यापार (कच्चे तेल और गैस का व्यापार वर्ष 2017-18 से 2019-20 के दौरान) 93 प्रतिशत तक बढ़ गया है. इससे दोनों ही देश, ऊर्जा व्यापार को व्यापार घाटा पाटने का ज़रिया मानने लगे हैं. इस क्षेत्र में लाभ को भारत की ऊर्जा सुरक्षा की योजनाओं से जोड़ा जा सकता है, जिससे भारत अमेरिका के सामरिक पेट्रोलियम भंडार में अपने लिए कच्चा तेल तब तक रख सकता है, जब तक वो अपने यहां की भंडारण क्षमता का विकास नहीं कर लेता.
इसीलिए, GSP के मसले का व्यवहारिक समाधान निकालते हुए, भारत और अमेरिका, आपसी व्यापार की अन्य उभरती संभावनाओं का अधिकतम दोहन कर सकते हैं. इससे वो द्विपक्षीय व्यापार को लेकर पहले की चिंताओं से ख़ुद को मुक्त भी कर सकते हैं.
कशिश परपियानी ORF मुंबई में फेलो हैं और पालोमी चतुर्वेदी एक रिसर्च इंटर्न के तौर पर जुड़ी हुई हैं.
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Kashish Parpiani is Senior Manager (Chairman’s Office), Reliance Industries Limited (RIL). He is a former Fellow, ORF, Mumbai. ...
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