Author : Manoj Joshi

Published on Oct 04, 2021 Updated 0 Hours ago

क्या ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और ब्रिटेन के बीच बढ़ती रक्षा साझेदारी से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा मजबूत होगी या इससे क्षेत्र में एक और अहम खिलाड़ी फ्रांस के साथ रिश्ते कमजोर हो जाएंगे?

हिंद-प्रशांत रणनीति: महासागर क्षेत्र में नया तूफ़ान हिंद-प्रशांत रणनीति: महासागर क्षेत्र में नया तूफ़ान

अफ़ग़ानिस्तान से हड़बड़ी में सैनिकों को वापस बुलाने के बाद अमेरिका के कमजोर होने को लेकर जो बातें कही जा रही हैं, उसे रोकने के लिए उसने तत्काल कदम उठाए हैं. ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका (ऑकस) की रक्षा क्षेत्र में नई साझेदारी की

ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका की नई साझेदारी

घोषणा ऐसा ही एक कदम है. इस समझौते के तहत ऑस्ट्रेलिया को अमेरिका परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियां दे रहा है. इसके मार्फत उसने चीन के साथ एशिया में अपने सहयोगियों को स्पष्ट संदेश दिया है कि वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की ओर से आने वाली किसी भी चुनौती का सामना करने को तैयार है. यह बात और है कि ऑकस के तहत ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बियां देने पर अमेरिका के यूरोपीय सहयोगियों और खासतौर पर फ्रांस ने सख्त ऐतराज जताया है.

ऑकस के तहत अमेरिका से पनडुब्बियां मिलने के कारण ऑस्ट्रेलिया अब फ्रांस से 43 अरब डॉलर का एक समझौता तोड़ रहा है. इसके तहत उसकी योजना फ्रांस की पारंपरिक पनडुब्बियां बनाने की थी. अब इसके बजाय वह अमेरिकी-ब्रिटिश तकनीक पर आधारित पनडुब्बियां बनाएगा. ऐसी पहली पनडुब्बी एडिलेड के पास स्थित ऑस्ट्रेलियन सबमरीन कॉरपोरेशन में 2040 तक बनेगी, लेकिन यह अभी तक पता नहीं चला है कि इस समझौते के तहत कौन सी पनडुब्बी बनाई जाएगी. उसकी वजह यह है कि अमेरिका शायद ही इसके लिए अपनी तकनीक देने को राजी हो. अगर ऐसा हुआ तो ब्रिटेन के एस्ट्यूट क्लास पर आधारित पनडुब्बी ऑस्ट्रेलिया में बनाई जा सकती है.

वॉशिंगटन डीसी स्थित चीनी दूतावास ने कहा कि इन देशों को ‘शीत युद्ध के दौर की मानसिकता से बाहर आना चाहिए और उन्हें अपने पूर्वाग्रह छोड़ देने चाहिए.’ मोटे तौर पर लग रहा है कि बाइडेन सरकार हिंद-प्रशांत को लेकर उसी रणनीति पर चल रही है

यूं तो ऑकस का ऐलान करते हुए तीनों देशों के नेताओं की ओर से चीन का नाम नहीं लिया गया, इसके बावजूद शी चिनफिंग सरकार की ओर से इस पर कड़ी प्रतिक्रिया आई है. वॉशिंगटन डीसी स्थित चीनी दूतावास ने कहा कि इन देशों को ‘शीत युद्ध के दौर की मानसिकता से बाहर आना चाहिए और उन्हें अपने पूर्वाग्रह छोड़ देने चाहिए.’ मोटे तौर पर लग रहा है कि बाइडेन सरकार हिंद-प्रशांत को लेकर उसी रणनीति पर चल रही है, जिसे ट्रंप सरकार ने बनाया था और इस साल बाइडेन के राष्ट्रपति बनने से कुछ हफ्ते पहले उसे सार्वजनिक किया गया था. इस दस्तावेज में तीन मुख्य सवाल उठाए गए हैं. पहला, हिंद-प्रशांत में किस तरह से अमेरिका का सामरिक वर्चस्व बना रहे और कैसे चीन को ‘अपना नया और अनुदार प्रभाव बढ़ाने से रोका जा सके.’ दूसरा, उत्तर कोरिया को अमेरिका और उसके सहयोगियों को धमकी देने से किस तरह रोका जाए. तीसरा, अमेरिका के वैश्विक आर्थिक प्रभुत्व को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया जाए. अमेरिका ने पहले एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया था कि ‘किसी संघर्ष की सूरत में द्वीपसमूहों की पहली श्रृंखला के अंदर लगातार समुद्री और हवाई दबदबा कायम न करने दिया जाए.’ अब शायद उसने इस लक्ष्य को छोड़ दिया है. यह श्रृंखला पूर्वी एशिया के तटीय इलाकों से शुरू होती है. इनमें मुख्य रूप से कुरिल द्वीपसमूह, जापानी द्वीपसमूह, रायकू द्वीपसमूह, ताइवान, उत्तरी फिलीपींस और बोर्नियो के इलाके आते हैं. चीन इस क्षेत्र में अपनी सैन्य क्षमता बढ़ा रहा है, जिससे ट्रंप सरकार की ‘द्वीपसमूहों की पहली श्रृंखला के बाहर हर क्षेत्र में दबदबे’ की रणनीति को चुनौती मिल रही है. हिंद-प्रशांत पर अमेरिकी दस्तावेज में भारत और ऑस्ट्रेलिया की भूमिकाओं का सरसरी तौर पर ही जिक्र है. अब ऐसा लगता है कि बाइडेन सरकार को हालात कहीं अधिक गंभीर लग रहे हैं. स्थिति कुछ ऐसी हो गई है, जिसे ऑस्ट्रेलियाई जानकार सैम रॉगेवीन ने ‘अप्रत्याशित’ बताया है. इसी वजह से बाइडेन सरकार ने ऑकस जैसे ‘सही मायने में ऐतिहासिक कदम’ का ऐलान किया है.

फिलहाल, चीन के तटीय इलाकों और दक्षिण चीन सागर को लेकर अमेरिका ने दबाव बनाए रखा है. इसके साथ अमेरिका अब तय समय में अपनी योजना पर अमल करने की ओर आगे बढ़ रहा है. इससे उसके लिए प्रशांत और हिंद महासागर में पीपल्स लिबरेशन आर्मी यानी चीनी सेना के गश्ती दलों पर नजर रखना आसान हो जाएगा. चीन की गतिविधियों को देखते हुए इस क्षेत्र में परमाणु क्षमता से लैस पनडुब्बियों को तैनात करना सही होगा. यह बात तो भारतीय नौसेना भी मानती है.

ऑकस के तहत ऑस्ट्रेलिया को मिलेगा परमाणु पनडुब्बी

ऑकस के तहत ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी तकनीक देने का फैसला वाकई अप्रत्याशित है. अमेरिका ने इक्का-दुक्का ही इस तरह की तकनीक दूसरे देशों को दी है. उसने 1958 में ब्रिटेन को परमाणु ऊर्जा से संचालित होने वाली रिएक्टर टेक्नोलॉजी दी थी, वह भी इसलिए कि रूस के स्पूतनिक लॉन्च करने के बाद वह सदमे में था. 1950 के दशक की शुरुआत में अमेरिका ने ब्रिटेन के साथ मिलकर परमाणु हथियार तकनीक पर काम करने से मना कर दिया था. उसने परमाणु और थर्मोन्यूक्लियर बम ख़ुद बनाए. यह स्थिति 1960 के दशक में जाकर बदली. तब से ब्रिटेन की परमाणु पनडुब्बियों में अमेरिकी मिसाइलें लगने लगीं. ऑस्ट्रेलिया इस मामले में हमेशा से जूनियर पार्टनर रहा है. यूं तो ब्रिटेन ने अपने परमाणु हथियारों का परीक्षण ऑस्ट्रेलिया में किया था, लेकिन इसके बावजूद उसे परमाणु मामलों से दूर रखा गया. हालांकि, प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध, वियतनाम युद्ध में साझी भूमिकाओं के कारण कनाडा, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया के साथ ब्रिटेन ने एक वैश्विक जासूसी नेटवर्क स्थापित किया, जिसकी स्थापना ब्रिटेन-अमेरिका के बीच 1947 में हुए एक खुफिया समझौते के तहत की गई थी. इस समझौते को वक्त के साथ बदला जाता रहा. इसमें संशोधन होते रहे. इससे इन देशों के बीच बहुत करीबी सहयोग कायम हुआ. ऑकस को इसी समझौते का नया रूप माना जा रहा है, जिसकी आज के दौर में जरूरत भी महसूस की जा रही थी.

ऑकस के तहत ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी तकनीक देने का फैसला वाकई अप्रत्याशित है. अमेरिका ने इक्का-दुक्का ही इस तरह की तकनीक दूसरे देशों को दी है. 

अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के सामरिक रिश्ते बहुत गहरे हैं. इस रिश्ते की वजह से ही ऑस्ट्रेलिया ने चीन के साथ फायदेमंद व्यापारिक रिश्तों की कुर्बानी दी. वह परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) का भी हिस्सा है. इसलिए ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी देने के लिए अमेरिका को अपने किसी कानून में संशोधन करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इसके साथ यह भी सच है कि हाल के दशकों में अमेरिका ने परमाणु ऊर्जा तकनीक किसी को देने में दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, फिर परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियों की तो बात ही क्या करनी. आज तक किसी भी देश को ऐसी पनडुब्बी उसने नहीं दी है. अमेरिका की हर पनडुब्बी में न्यूक्लियर रिएक्टर लगा हुआ है. अभी तक यह पता नहीं चला है कि ऑस्ट्रेलिया को कैसी पनडुब्बी मिलने वाली है और अमेरिका उनके इस्तेमाल को लेकर क्या पाबंदियां लगाएगा. खासतौर पर यह देखते हुए कि अमेरिकी पनडुब्बियों में वही यूरेनियम इस्तेमाल होता है, जिससे परमाणु बम बनाए जाते हैं. 

त्रिकोणीय मामला

अभी ज़्यादा  वक्त नहीं हुआ, जब बाइडेन ने चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग से फ़ोन पर बात की थी. अब ऑस्ट्रेलिया को परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियां देने का ऐलान इसमें कहां फिट बैठता है, इसका ज़वाब देना मुश्किल है. पहले सीआईए से जुड़े रहे और अब CSIS के साथ काम करने वाले क्रिस जॉनसन ने एक्सियॉस से कहा, ‘अगर हमारे राष्ट्रपति (बाइडेन), राष्ट्रपति शी से कहते हैं कि हम सैन्य गतिविधियों को लेकर सुरक्षा के इंतजाम करना चाहते हैं. हम एक सुरक्षा दीवार चाहते हैं. लेकिन इसके बाद हम सामने वाले की सेना पर दबाव बढ़ा देते हैं. इससे दोनों पक्षों के बीच इस मामले में कोई बातचीत हो भी रही होगी तो वह तुरंत ख़त्म हो जाएगी.’

ऑकस की घोषणा कोरिया प्रायद्वीप में तनाव बढ़ने के बीच भी हुई है. 13 सितंबर को उत्तर कोरिया ने कहा कि उसने सामरिक लिहाज से महत्वपूर्ण क्रूज मिसाइलों का सफलतापूर्वक परीक्षण पूरा कर लिया है. दक्षिण कोरिया के मुताबिक, इसके दो दिन बाद उसने पूर्वी तट के पास समुद्र में दो बैलेस्टिक मिसाइलें छोड़ीं. हालांकि, उत्तर कोरिया के बैलेस्टिक मिसाइलें छोड़ने से पहले एक नया वाकया हुआ. जब दक्षिण कोरिया ने अपनी पनडुब्बी से पहली बार बैलेस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया. यह एक तरह से त्रिकोणीय मामला बन गया है, जहां उत्तर कोरिया की कोशिश अमेरिका पर दबाव डालने की है ताकि उसे आर्थिक पाबंदियों से राहत मिल सके. दूसरी तरफ, दक्षिण कोरिया उस मोड़ तक जा पहुंचा है, जहां वह रक्षा मामले में चीजें अपने हाथ में ले रहा है. वह अमेरिका पर आश्रित रहने को तैयार नहीं है.

वहीं, चीन और जापान के बीच तनाव को देखते हुए जल्द ही ऐसी नौबत आ सकती है, जब दक्षिण कोरिया और जापान इस तनाव को बढ़ाने को कोशिश करें. वे अमेरिका की मदद या बिना मदद के ऐसा कर सकते हैं. दक्षिण कोरिया पहले ही परमाणु ऊर्जा से संचालित पनडुब्बी बनाने की तकनीक खुद डिवेलप कर चुका है. हाल में, यूकेयूएसए या अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, ब्रिटेन और कनाडा के बीच गोपनीय सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए बने समूह का विस्तार कर उसमें दक्षिण कोरिया को शामिल करने पर बातचीत हुई है. इसके बाद संभव है कि अमेरिका और दक्षिण कोरिया के रिश्तों में और मजबूती आए, जिसका चीन और उत्तर कोरिया पर असर पड़ना लाजमी है.

हाल में, यूकेयूएसए या अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, ब्रिटेन और कनाडा के बीच गोपनीय सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए बने समूह का विस्तार कर उसमें दक्षिण कोरिया को शामिल करने पर बातचीत हुई है. इसके बाद संभव है कि अमेरिका और दक्षिण कोरिया के रिश्तों में और मजबूती आए, जिसका चीन और उत्तर कोरिया पर असर पड़ना लाजमी है. 

वहीं, ऑकस गठबंधन का एक बुरा असर यह हुआ है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र की एक और शक्ति फ्रांस के साथ रिश्ते खराब हुए हैं. दरअसल, ऑस्ट्रेलिया 43 अरब डॉलर में फ्रांस से पनडुब्बियां खरीदने वाला था, जो ऑकस के तहत अमेरिका-ब्रिटेन की ओर से परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियों के ऑफर के कारण रद्द हो गया. फ्रांस ने इस मामले को लेकर अमेरिका और ब्रिटेन पर ‘पीठ में छुरा घोंपने’ का आरोप लगाया है. एक आधिकारिक बयान में उसने कहा कि अमेरिका और ब्रिटेन ने उसके पीठ पीछे यह सौदा किया. इसमें कहा गया कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में फ्रांस के 20 लाख नागरिक रहते हैं. फ्रांस ने भले यह बात न कही हो, लेकिन इस क्षेत्र में उसके पास 1.1 करोड़ वर्ग किलोमीटर का एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन (ईईजेड) भी है. वह हिंद-प्रशांत रणनीति का मजबूत समर्थक रहा है.

इन सबका भारत के लिए क्या मतलब है

इन सारे घटनाक्रम का भारत के लिए मतलब है, जो योजनाबद्ध तरीके से हिंद महासागर क्षेत्र में भविष्य में चीन की किसी भी आक्रामकता का जवाब देने के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा है. इसी के मद्देनजर भारतीय नौसेना ने देश में दूसरा एयरक्राफ्ट कैरियर बनाने की परियोजना को कमोबेश ठंडे बस्ते में डाल दिया है और उसने परमाणु ऊर्जा से संचालित 6 पनडुब्बियों के प्रॉजेक्ट पर आगे बढ़ने का फैसला किया है. अभी उसके पास ऐसी एक ही पनडुब्बी है, जो भारत ने रूस से लीज पर ली है. भारत अरिहंत भी बना रहा है. इसमें वह पनडुब्बी के साथ वह रिएक्टर भी बना रहा है, जिससे यह संचालित होगी. इस काम में भारत को रूस से मदद मिल रही है. भारत के पास अरिहंत जैसी परमाणु ऊर्जा संचालित बैलेस्टिक मिसाइल सबमरीन (एसएसबीएन) बनाने का अच्छा-खासा तजुर्बा है. ऐसे में एक वर्ग यह भी मानता है कि वह इन्हें हमला करने वाले वेसेल (एसएसएन) यानी पनडुब्बियों में भी बदल सकता है. बस एक ही दिक्कत आएगी. बैलेस्टिक मिसाइल सबमरीन की सर्वाधिक गति पानी के अंदर जाने पर 18-20 नॉट प्रति घंटा ही रह जाती है, जबकि किसी भी हमला करने वाली पनडुब्बी की शीर्ष गति 30-35 नॉट प्रति घंटा होनी चाहिए. अधिक ताकतवर रिएक्टर के लिए उसके डिजाइन में बदलाव करना होगा. इसके साथ हल और कंपोनेंट्स में भी ज्यादा दबाव झेलने की क्षमता होनी चाहिए.

अमेरिका और ब्रिटेन भले ही ऑस्ट्रेलिया को परमाणु ऊर्जा से संचालित पनडुब्बी देने को राजी हो गए हैं, लेकिन वे भारत को शायद ही ऐसी तकनीक दें. 

एक और बात यह है कि अमेरिका-ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के आपसी रिश्तों की तुलना इन देशों के साथ भारत के संबंधों की नहीं की जा सकती. अमेरिका और ब्रिटेन भले ही ऑस्ट्रेलिया को परमाणु ऊर्जा से संचालित पनडुब्बी देने को राजी हो गए हैं, लेकिन वे भारत को शायद ही ऐसी तकनीक दें. इन दोनों ही देशों के पास कहीं बेहतर तकनीक है. अमेरिका और ब्रिटेन की पनडुब्बियों में जो रिएक्टर लगा है, वह भी हालिया तकनीक से बना है. उन्हें सेवा में रहने के दौरान ईंधन की जरूरत नहीं पड़ती. दूसरी ओर, अरिहंत को हर 6-7 साल के अंतराल पर ड्राईडॉक पर ले जाना पड़ता है, जहां उसे काटा जाता है और उसमें फिर से ईंधन डाला जाता है. अगर अमेरिका और ब्रिटेन, भारत को परमाणु पनडुब्बी की तकनीक देने को तैयार ना हों तो हमें फ्रांस के बारे में सोचना चाहिए. यह बात और है कि फ्रांस के साथ इस तरह का सौदा बहुत महंगा होगा. हो सकता है कि हिंद-प्रशांत के किसी प्रॉजेक्ट के तहत फ्रांस ऐसी तकनीक दे भी दे. उसने पहले भी भारत की ऐसी मदद की है. पहले अमेरिका जिस तकनीक को भारत को देने को राजी नहीं था, वह उसे फ्रांस से मिली थी. पिछले कुछ बरसों में भारतीय नौसेना ने कई विकल्पों पर विचार किया है. इनमें बाराकुडा क्लास के लिए तकनीक देने का फ्रांस का प्रस्ताव भी शामिल है. वह पहले से ही कलावरी क्लास की पारंपरिक पनडुब्बियां बनाने में भारत की मदद कर रहा है. फ्रांस के अलावा रूस भी एक विकल्प हो सकता है, जिसके साथ भारत के रक्षा उपकरणों और हथियारों को लेकर बहुत लंबे समय से संबंध रहे हैं.

अगर ऐसा होता है तो फिर क्वॉड का क्या होगा? सच पूछिए तो यह बहुत बड़ा सवाल है. अगर इसके मार्च सम्मेलन के बयान पर यकीन किया जाए तो अमेरिकी योजना में क्वाड की गैर-सैन्य भूमिका होगी. अमेरिका को लगता है कि मौजूदा हालात में सर्वोत्तम सैन्य विकल्प शीत युद्ध के दौर जैसा अलायंस है, जिसकी बुनियाद इसके सबसे भरोसेमंद सहयोगी होंगे.

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