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अमेरिका ने पिछले दिनों इंडो-पैसिफिक रणनीति जारी की जिसमें ये संकेत दिया गया है कि इस क्षेत्र में उसकी दिलचस्पी बनी हुई है और इसके ज़रिए अमेरिका ने दक्षिण एशिया में अपने सहयोगी देशों के डर को दूर किया है.
अमेरिका के एक उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के सोलोमन आइलैंड्स के दौरे से महज़ कुछ दिन पहले चीन और सोलोमन आइलैंड्स के बीच एक सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किया गया. इस समझौते ने दक्षिण-पश्चिम प्रशांत महासागर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की मौजूदगी को बढ़ा दिया है. इस इलाक़े में सुरक्षा प्रदान करने वाले परंपरागत देशों ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और अमेरिका में इस घटनाक्रम को लेकर चिंताएं हैं, इस चिंता की ख़ास वजह ये है कि समझौता उस वक़्त हुआ है जब यूरोप की सुरक्षा के भविष्य पर सवाल है और यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद अमेरिका और रूस के संबंध हमेशा की तरह अप्रत्याशित बने हुए हैं. अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने फिजी के अपने दौरे में कहा, “हम इंडो-पैसिफिक में अपना भविष्य देखते हैं” और उन्होंने सोलोमन आइलैंड्स में दूतावास बनाने का इरादा जताया. अमेरिका ने ये घोषणा चीन के राष्ट्रपति शी और रूस के राष्ट्रपति पुतिन के द्वारा “असीमित” रणनीतिक साझेदारी का एलान करने के बाद की. चीन और रूस का ये एलान वैश्विक व्यवस्था के “नये युग” की शुरुआत है जिसमें अमेरिका के ख़िलाफ़ क़रीबी रूप से काम करने पर ज़ोर दिया गया है.
अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने फिजी के अपने दौरे में कहा, “हम इंडो-पैसिफिक में अपना भविष्य देखते हैं” और उन्होंने सोलोमन आइलैंड्स में दूतावास बनाने का इरादा जताया. अमेरिका ने ये घोषणा चीन के राष्ट्रपति शी और रूस के राष्ट्रपति पुतिन के द्वारा “असीमित” रणनीतिक साझेदारी का एलान करने के बाद की.
पिछले दिनों अमेरिका के द्वारा इंडो-पैसिफिक रणनीति 2022 (आईपीएस-22) को भी जारी किया गया. आम तौर पर इस तरह की रणनीति के बाद क्षेत्रीय रणनीति और रक्षा रणनीति भी जारी की जाती है लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति (आईपीएस) बख़ूबी एक ऐसे क्षेत्र की तरफ़ काम कर रही है जो कि खुला एवं मुक्त, एक-दूसरे से जुड़ा, सुरक्षित और उसी तरह लचीला हो जैसा कि दूसरे लोकतंत्र अर्थ निकालते हैं. इस क्षेत्र में भारत को एक प्रमुख किरदार के तौर पर देखा जाता है और अमेरिका ने “भारत के लगातार उदय और क्षेत्रीय नेतृत्व” के समर्थन का संकल्प लिया है. राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा कि “हम ऐसे इंडो-पैसिफिक की परिकल्पना करते हैं जो कि खुला, दूसरों से जुड़ा, समृद्ध, लचीला, और सुरक्षित हो. इसको हासिल करने के लिए आप में से हर किसी के साथ मिलकर काम करने के लिए हम तैयार हैं”. कई संशयवादी महसूस करते हैं कि यूक्रेन पर रूस का आक्रमण इंडो-पैसिफिक क्षेत्र (आईपीआर) के विषय को बदल देगा लेकिन एंटनी ब्लिंकन ने जिस तरह की कूटनीतिक चाल चली है वो इस क्षेत्र के प्रति लगातार प्रतिबद्धता को दिखाती है. सेना, अलग-अलग एजेंसी, वित्त विभाग, और अंतर्राष्ट्रीय विकास के लिए अमेरिकी एजेंसी (यूएसऐड) को बुलावा और एसोसिएशन ऑफ साउथ-ईस्ट एशियन नेशन्स (आसियान), क्वाड्रिलेटरल सिक्युरिटी डायलॉग (क्वॉड), और ऑस्ट्रेलिया, यूके और अमेरिकी ट्राइलेटरल सिक्युरिटी पैक (ऑकस) जैसे साझेदारों, सहयोगियों और क्षेत्रीय संगठनों का समर्थन हासिल करना सुरक्षा की व्यवस्था के लिए प्रमुख है.
ये काफ़ी हद तक साफ़ हो गया है कि चीन-अमेरिका का मुक़ाबला आईपीआर या प्रशांत महासागर में होगा क्योंकि बढ़ता हुआ चीन और अमेरिका अलग-अलग राजनीतिक प्रणाली के साथ एक ही तरह की वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के भीतर मुक़ाबला कर रहे हैं.
चीन के प्रभाव का क्षेत्र, चाहे वो आर्थिक, कूटनीतिक, सैन्य, या तकनीकी हो, दक्षिण एशियाई और दक्षिणी प्रशांत के देशों में बढ़ रहा है और इसकी वजह से अमेरिका और उसके सहयोगी हतोत्साहित हो रहे हैं. चीन को इस बात का पता चल गया है कि अमेरिका और उसके सहयोगियों के नेतृत्व में संपर्क के निर्माण की वजह से इस क्षेत्र में विरोधाभासी हित बन रहे हैं. चीन और अमेरिका के बीच बढ़ता मुक़ाबला शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच होड़ से अलग आयाम देखेगा. वैश्विक निर्यातक, इंजीनियरिंग आविष्कार के लिए केंद्र, और उत्पादन के केंद्र के रूप में चीन के पास आर्थिक शक्ति है. उत्पादन का केंद्र भी ऐसा-वैसा नहीं बल्कि उभरते और सामान्य से हटकर तकनीकों जैसे कि एआई और ऑटोनोमस सिस्टम, हाइपरसोनिक मिसाइल, और जैव तकनीक (बायो-टेक्नोलॉजी), रोबोटिक्स और क्वॉन्टम टेक्नोलॉजी में तकनीक के दोगुने इस्तेमाल से एक महत्वपूर्ण श्रेष्ठता को विकसित करने वाला.
अमेरिका को चीन संरक्षक से ज़्यादा समस्या बनाने वाला समझता है. चीन आईपीएस-22 को इस बात का फिर से बयान समझता है चीन शांतिपूर्ण ढंग से आगे नहीं बढ़ सकता है और वो पश्चिमी देशों और मौजूदा विश्व व्यवस्था को सक्रिय रूप से नष्ट करना चाहता है.
अमेरिका को चीन संरक्षक से ज़्यादा समस्या बनाने वाला समझता है. चीन आईपीएस-22 को इस बात का फिर से बयान समझता है चीन शांतिपूर्ण ढंग से आगे नहीं बढ़ सकता है और वो पश्चिमी देशों और मौजूदा विश्व व्यवस्था को सक्रिय रूप से नष्ट करना चाहता है. इसलिए पश्चिमी देशों को हर हाल में चीन के उदय को रोकना चाहिए ताकि ‘चीन से ख़तरे के सिद्धांत’ और “चीन को निशाना बनाने के ख़्वाब’ के नाम से जाने जाने वाले गंभीर वैश्विक परिणामों को रोका जा सके. ये परिणाम हिंद महासागर और प्रशांत महासागर को जोड़ने वाले एक भू-राजनीतिक सिद्धांत हैं ताकि चीन के उदय को रोका जा सके और चीन को नियंत्रित किया जा सके. चीन के मुताबिक़ क्षेत्रीय समूहों जैसे कि क्वॉड, ऑकस और दूसरे सहायता कार्यक्रम का इस्तेमाल उसे रोकने के औज़ार के रूप में किया जा रहा है.
चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ और दूसरे क्षेत्रीय समूहों जैसे क्वॉड से संबंध को संतुलित करते हुए बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (बिम्सटेक), और साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन (सार्क) भारत के लिए महत्वपूर्ण कसौटी होंगे. वैसे तो गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति से बहुपक्षवाद की तरफ़ संभावित बदलाव दक्षिण एशिया के छोटे देशों और भारत के लिए स्पष्ट दिखाई देता है; लेकिन भारत के लिए आगे के समय में बड़े जोख़िम हैं, ख़ास तौर पर चीन के साथ बरकरार सीमा विवाद और व्यापार घाटे की वजह से. चीन और अमेरिका- दोनों देशों के साथ भारत अच्छे संबंध चाहता है, दक्षिण एशिया में अपना क्षेत्रीय असर बने रहने के साथ वैश्विक हित के साझा मुद्दों जैसे कि जलवायु परिवर्तन, मुक्त व्यापार, और सतत विकास के क्षेत्र में भारत को चीन और अमेरिका के साथ सहयोग की उम्मीद है. आईपीएस-22 में भारत की परिकल्पना एक सहमत, महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार, और नज़दीकी सुरक्षा और आर्थिक संबंधों वाले लोकतंत्र के रूप में की गई है. साथ ही आईपीएस-22 में उम्मीद जताई गई है कि भारत दक्षिण एशिया और हिंद महासागर का नेतृत्व करने में सक्षम है, दक्षिण-पूर्व एशिया में सक्रिय और जुड़ा हुआ है, क्वॉड की गतिशीलता में मज़बूती प्रदान करता है और क्षेत्रीय प्रगति और विकास के लिए एक प्रणाली है. यही वजह है कि आईपीएस-22 में ‘भारत के लगातार उदय और क्षेत्रीय नेतृत्व’ का समर्थन किया गया है. आईपीएस-22 में कहा गया है “हम एक रणनीतिक साझेदारी बनाना जारी रखेंगे जिसमें अमेरिका और भारत साथ मिलकर और क्षेत्रीय समूहों के ज़रिए दक्षिण एशिया में स्थायित्व को बढ़ावा देंगे; नये क्षेत्रों जैसे कि स्वास्थ्य, अंतरिक्ष और साइबर स्पेस में सहयोग करेंगे; अपने आर्थिक और तकनीकी सहयोग को और मज़बूत करेंगे, और एक मुक्त और खुले इंडो-पैसिफिक के लिए योगदान करेंगे.” अमेरिका बड़ी रक्षा साझेदारी को आगे बढ़ाएगा और जब वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की धमकी और शत्रुता ज़्यादा होगी तो एक सुरक्षा देने वाले देश के तौर पर भारत की स्थिति का समर्थन करेगा.
चीन और अमेरिका- दोनों देशों के साथ भारत अच्छे संबंध चाहता है, दक्षिण एशिया में अपना क्षेत्रीय असर बने रहने के साथ वैश्विक हित के साझा मुद्दों जैसे कि जलवायु परिवर्तन, मुक्त व्यापार, और सतत विकास के क्षेत्र में भारत को चीन और अमेरिका के साथ सहयोग की उम्मीद है.
चीन और भारत के बीच सीमा विवाद की वजह से दक्षिण एशिया की राजनीति काफ़ी हद तक चीन-भारत की दुश्मनी से परिभाषित की जाती है जिसमें चीन को एक क्षेत्रीय ताक़त के रूप में समझा जाता है. दक्षिण एशिया में चीन का हित भू-राजनीतिक सिद्धांतों के साथ बना हुआ है जहां अफ़ग़ानिस्तान अब तालिबान के शासन में है जबकि म्यांमार सैन्य शासन के अधीन; ये दो देश ऐसे हैं जो अब लोकतंत्र से दूर हो गए हैं. इसके अलावा चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर, ट्रांस हिमालयन मल्टी-डाइमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क, और चीन-म्यांमार इकोनॉमिक कॉरिडोर भी हैं. ये सभी हिंद महासागर और 138 करोड़ लोगों के भारतीय बाज़ार की ओर जाने वाले वैकल्पिक रणनीतिक रास्ते हैं. दक्षिण एशिया के नौ में से सात छोटे देशों- अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका- को चीन राजनीतिक और आर्थिक मदद दे रहा है ताकि शक्ति के क्षेत्रीय स्रोत भारत को घेरा जा सके जो कि अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति का सक्रिय सदस्य है. अमेरिका की मौजूदगी और रणनीतिक हिस्सेदारी संतुलन बनाए रखने और क्षेत्रीय राजनीति में भारत के असर की तार्किकता का रणनीतिक रूप से उपाय तलाशने मे योगदान कर सकती है. लेकिन इसके साथ-साथ अमेरिका भारत को क्षेत्रीय नेतृत्व हासिल करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है और भारत को ख़तरे के रूप में देखने वाले कुछ छोटे देशों के डर को दूर कर रहा है.
दक्षिण एशिया के नौ में से सात छोटे देशों- अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका- को चीन राजनीतिक और आर्थिक मदद दे रहा है ताकि शक्ति के क्षेत्रीय स्रोत भारत को घेरा जा सके जो कि अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति का सक्रिय सदस्य है.
दक्षिण एशिया के देश रणनीतिक संपर्क और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए उत्सुक हैं ताकि अपने संसाधनों का इस्तेमाल आर्थिक विकास के लिए कर सकें. इन देशों को विकास के लिए चीन की मदद भी मिली है और ये चीन का इस्तेमाल भारत के राजनीतिक असर का मुक़ाबला करने के लिए करते हैं. एमसीसी जैसे आर्थिक ढांचे, जिसका नेपाल ने अभी समर्थन किया है, और नये भू-राजनीतिक सिद्धांत, बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड (बी3डब्ल्यू), जो जी7 के साथ अमेरिकी की पहल है और जिसकी शुरुआत 2022 से हो रही है, के साथ नये अवसरों का उदय हो रहा है. विरोध की आशंका और तीन शक्तियों- चीन, भारत और अमेरिका के बीच अपने हितों को आगे रखना छोटे देशों के लिए कूटनीतिक रूप से चुनौतीपूर्ण होगा. नेपाल में सरकार बदलने के बाद एमसीसी को मंज़ूरी के साथ-साथ चीन का जवाब और श्रीलंका में एमसीसी को मंज़ूरी दिलाने में नाकामी इसी के उदाहरण हैं. जब इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में एक नई द्विध्रुवीय व्यवस्था का उदय हो रहा है तो इसका असर छोटे देशों की विदेश नीति की स्वायत्तता पर पड़ेगा.
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Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...
Read More +Binoj Basnyat is a Strategic Analyst and former Major General of the Nepali Army.
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