Published on Mar 17, 2021 Updated 0 Hours ago

मौजूदा समय में यूरोप से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक के सभी देश अपने व्यापक हितों का ध्यान रखकर उसके हिसाब से ही गठजोड़ बना रहे हैं.

इंडो-पैसिफिक, एशियाई प्रोजेक्ट और उसके नये संबंध

(ORF हिंदी के इंडियाज़ वर्ल्ड में संजय जोशी और नग़मा सहर ने विस्तार से चर्चा की हिंद-प्रशांत क्षेत्र की बदलती रूपरेखा पर. ये लेख उसी बातचीत और उससे निकले निष्कर्षों पर आधारित है.)

बीता साल कोविड-19 पर केन्द्रित रहने के बावजूद हमने दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय स्वभाव के कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम देखे. इनमें – अमेरिका द्वारा चीन पर लगाए व्यापार प्रतिबंध; वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच हिंसक झड़पें; और साल खत्म होते होते अमेरिका में एक नए प्रशासन के शुभारंभ के बाद भारत और चीन के बीच तनाव कम करने पर बातचीत की शुरुआत. आखिर इस उठा पटक के बीच मौजूदा भू-राजनीतिक रुझानों का आकलन करें तो कैसे?

व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो भले ही भारत-पाक नियंत्रण रेखा (एलओसी) और भारत-चीन एलएसी यानी लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल (वास्तविक नियंत्रण रेखा) पर टकराव होने केआर बावजूद — न तो भारत, न ही पाकिस्तान और ना ही चीन वास्तव में इस इलाके में तनाव बढ़ाने के पक्ष में हैं. अमेरिका में व्हाइट हाउस में चाहे जो भी बदलाव हो, किसी भी राजा का राज आए, बहुत कुछ ऐसा है जो नहीं बदलता. और इनमें आज प्रमुख है अमेरिका के मूल सामरिक प्रतिद्वंदी के रूप में चीन का निरंतर उभरना.

ट्रम्प के चार साल अमेरिका और विश्व व्यवस्था के लिए उठा पटक के रहे. अब अमेरिका का नया प्रशासन पुनः प्रयास कर रहा है की कैसे फिर से टूटे रिश्तों को जोड़ पुनः सभी साथी देशों के साथ मिल कर चीन के विषय पर एक मिली जुली नीति बनाई जाए. 

जहां तक दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया के देशों का सवाल है, उन सब ने इतिहास से एक यह सीख तो ली है कि बड़ी ताक़तों की सामरिक प्रतिस्पर्धा से किस तरह से अपने आपको दूर रखा जाए. यही करने में उनकी भलाई है.

अमेरिका में व्हाइट हाउस में चाहे जो भी बदलाव हो, किसी भी राजा का राज आए, बहुत कुछ ऐसा है जो नहीं बदलता. और इनमें आज प्रमुख है अमेरिका के मूल सामरिक प्रतिद्वंदी के रूप में चीन का निरंतर उभरना.

फिर अमेरिका में ट्रंप का दौर ऐसा आया कि यूरोपीय देश भी अब रणनीतिक स्वायत्तता का मोल समझने लगे है — अमेरिका और चीन के संघर्ष के बीच अब कोई भी अपनी जान आसानी से सांसत में डालना नहीं चाहता. ऐसे में यूरोप से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक के सभी देश अपने व्यापक हितों का ध्यान रखकर, अपने गठजोड़ स्थापित करने में लगे हैं.

भारत-चीन के बीच भी एक ओर जहां एलएसी यानी कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सैनिकों के पीछे हटने की प्रक्रिया जारी है वहीं पाकिस्तान के साथ एलओसी यानी लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर भी तनाव कम करने पर भी सहमति कुछ आगे बढ़ती दिख रही है. ऐसे में- क्या हम इन दोनों घटनाओं का एक साथ मूल्यांकन कर सकते हैं?

हिंद-प्रशांत क्षेत्र का इतिहास, ज़मीनी और सामुद्रिक सरहदों को लेकर चल रहे कई विवादों का इतिहास है — इन विवादों में भी सबसे ज़्यादा विवाद चीन के साथ ही हैं जोकि इस भौगोलिक क्षेत्र के कई देशों के साथ सीमा-विवाद में संलिप्त है. जिस तरह यह तमाम सीमा संगर्ष द्योतक हैं हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र में छिड़ रहे सामरिक संघर्ष के उसी तरह भारत और चीन का असल संघर्ष उनको चार हज़ार मील लंबी सीमा का नहीं है. यह सीमा औपनिवेशकों से विरासत में मिली और प्रारम्भ से ही अपरिभाषित रही है. हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि वास्तविक संघर्ष इस नोक झोंक का नहीं है. एलएसी पर भारत और चीन के बीच का टकराव तो मात्र एक लक्षण है उस व्यापक दीर्घ-कालिक प्रतिद्वंदिता का जो भारत और चीन के बीच यूरेशिया के भविष्य पर है.

एलएसी पर भारत और चीन के बीच का टकराव तो मात्र एक लक्षण है उस व्यापक दीर्घकालिक प्रतिद्वंदिता का जो भारत और चीन के बीच यूरेशिया के भविष्य पर है.

हिंद-प्रशांत क्षेत्र का संघर्ष किस तरह यूरेशिया के भविष्य को प्रभावित करता है इस बात को लेकर भारत और अन्य देशों में एक राय नहीं है और इसी कारण से जहां तक भारत का प्रश्न है हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की ऐसी कोई निश्चित रूपरेखा अब-तक तय नहीं है जो सही माने में उसके हितों को सुरक्षित रखे. इस-पर प्रत्येक देश अपनी-अपनी अलग सोच और राय है. वास्तव में भारत के हित एक वृहद हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं जबकि अमेरिका सहित प्रशांत क्षेत्र के अन्य देशों कि सोच एक सीमित हिन्द-प्रशांत क्षेत्र कि सामरिक राजनीति खेलना चाहती है. पर भारत और यूरोप के लिए चीन के साथ द्वंद एक अधिक वृहद क्षेत्र को लेकर है जो इस सीमित रूप-रेखा में नहीं समा सकता.

हिंद-प्रशांत में यूरोप और एशियाई भू-भाग

साल 2020 में आयोजित रायसीना डायलॉग्स में अमेरिका के उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मैट पॉटिंगर ने इस बात का उल्लेख किया था कि, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में कैलिफ़ोर्निया से लेकर किलिमंजारों तक का समूचा इलाक़ा आता है. इससे पहले साल 2018 में संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ने अपने यूएस पेसिफ़िक कमांड का नाम बदलकर यूएस इंडो-पेसिफ़िक कमांड कर दिया था. नाम तो जरूर बदला पर अमेरिका के सामरिक हित और उन हितों कि रक्षा में जुड़ी सामरिक तंत्र कि वास्तविक सरंचना में कोई बदलाव नहीं दिखा. यूएस इंडो-पेसिफ़िक कमांड अब भी उसी इलाक़े में सक्रिय है जिसे अमेरिका के भूतपूर्व यूएस पेसिफ़िक कमांडर हैरी बी. हैरिस जूनियर ने ‘हॉलीवुड से बॉलीवुड’ तक सीमांकित किया था..

कमांड के इन ढांचों के बीच अगर कुछ छूट जाता है तो वो है यूरोप और एशिया के एक बड़े भू-भाग का अपना व्यापक संदर्भ जो कि भारत, यूरोप, चीन, पश्चिमी एशिया को प्रभावित करता है. 

अमेरिका की हिन्द-प्रशांत नीति से यह आभास होता है की यह मात्र एक सुरक्षा के घेरा है जिसे चीन को केंद्र में रखकर बनाया गया है. इस परिभाषा से ना सिर्फ भारत बल्कि आसियान क्षेत्र के देशों को समस्या है जिनके चीन के साथ गहन व्यापारिक संबंध हैं. यूरोप के देशों को भी इस से समस्या है.

वास्तव में यही यूरेशियन प्रोजेक्ट चीन के बीआरआई प्रोजेक्ट के केंद्र पर बैठा चीनी सामरिक नीतियों का एक बेहद अहम हिस्सा है. और यही कारण है कि यूरोप के कई देशों को आज अमेरिका से भिन्न, अपनी अलग हिन्द-प्रशांत रणनीति तय करने पर मजबूर होना पड़ा है. चीन को केंद्र पर रख चीन का मौजूदा यूरेशियन प्रोजेक्ट भारत के लिए बड़ा ख़तरा है. भारत की एशिया में एक एशियाई उपमहाद्वीप के रूप में अहम सामरिक भूमिका है. चीन का उद्देश्य भारत को इस भूमिका से हटा एक अलग-थलग पड़े द्वीप में परिवर्तित करने की है. वास्तव में यदि चीन का बस चले तो भारत उप-महाद्वीप का हिस्सा ना रहकर पुनः प्रागैतिहासिक काल का गोंडवानालैंड भर बन कर सिमट कर रह जाए. यही वजह है जिस कारण भारत के लिए अपने सामरिक और सुरक्षा नज़रिए से ऐसे सभी सामरिक गठजोड़ बरकरार रख नए संबंध बनाने की आवश्यकता है. संपर्कों के ये सूत्र हिंद महासागर और एशिया के ज़मीनी हिस्सों में पूरब और पश्चिम दोनों ओर बनाया जाना नितांत आवश्यक है ताकि समग्र एशियाई प्रोजेक्ट पर सिर्फ चीन की किलेबंदी ना रहे. आज जब ट्रम्प के बाद अमरीकी सामरिक नीतियों को लेकर जब स्थायित्व का अभाव पैदा हो गया है. जब भिन्न भिन्न देश अपनी पृथक हिन्द-प्रशांत नीति बनाने में लगे हैं तो मौका है नयी सोच का, नए गठ बंधनों का.

कुछ महीनों पहले जहां अमेरिका फर्स्ट पर ज़ोर था वहीं आज अमेरिका इज़ बैक पर बल दिया जा रहा है. हम इस इलाक़े में लगातार बढ़ते सैन्य सहयोग देख रहे हैं जो दुनिया के सामने है. ये विश्लेषण का मुद्दा है और हमें ये तय भी करना है कि हम इसका किस तरह से विश्लेषण कर सकते हैं

भारत और अमेरिका ने वर्ष 2016 के बाद से तीन बड़े सुरक्षा करारों पर दस्तख़त किए हैं. इन तीनों ने मिलकर दोनों पक्षों के बीच और अधिक पारस्परिकता का मार्ग प्रशस्त किया है. 

भारत और अमेरिका ने वर्ष 2016 के बाद से तीन बड़े सुरक्षा करारों पर दस्तख़त किए हैं. इन तीनों ने मिलकर दोनों पक्षों के बीच और अधिक पारस्परिकता का मार्ग प्रशस्त किया है. अमेरिका और उसके मित्र देश आज भारतीय सुरक्षा बलों को सूक्ष्म स्थानिक सूचनाओं के रूप में बेशक़ीमती, अत्याधुनिक और ठोस तकनीकी मदद मुहैया कराने का काम कर सकते हैं.

बेशक इन तीनों करारों से भारत और अमेरिका के सुरक्षा तंत्र को और करीब से जुड़ने का मौका मिला है, लेकिन इसके बावजूद भारत ने रूस के साथ एस-400 मिसाइल समझौते पर आगे बढ़ अपनी दृढ़ता दिखाई है. कोई भी देश आज अपनी सामरिक स्वायत्तता खोना नहीं चाहता है और भारत के लिए भी यह जरूरी हो जाता है. सही रूप में भारत के हित में यही है कि वह सामरिक हथियारों के लिए किसी भी अन्य देश पर निर्भर नहीं रहे – चाहे वह देश अमेरिका हो या रूस हो. पर भारत को सही माने में आत्मनिर्भर बनने में अभी काफी समय लगेगा. तब तक ऐसे समझौते जो सुनिश्चित करे कि भारत किसी भी एक देश पर अत्यधिक निर्भर ना बने.

ऐसे में फिर ये सवाल उठता है कि आख़िर क्वॉड अब फिर सक्रिय हो रहा है? क्वॉड क्या और किस तरह से चीन को सीमित करने की भूमिका निभा सकता है?

चीन को लेकर दुनिया के लिए एक भारी दुविधा बनी हुई है. एक तरफ चीन विश्व की आर्थिक व्यवस्था में पूरी तरह घुला-मिला . यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों का वह अहम व्यापारिक साझीदार है. पिछले साल की टकराव और गरमागरमी के माहौल के बावजूद हक़ीक़त यह है चीन एक बार फिर व्यापारिक रूप से 2020 में भी भारत का सबसे बड़ा साझीदार बनने में सफल रहा है.

यदि अन्य देश चीन से संबंध अलग करते हैं तो चीन अपने में सिमट दूसरे देशों को आर्थिक नुकसान पहुंचाने की धम्की भी देना जानता है. ऐसा उसने जर्मनी की कार कंपनियों को लेकर किया भी है जिसके चलते जर्मनी को अपना रुख नरम भी करना पड़ा.

दूसरी ओर यदि चीन सिर्फ अपनी अर्थ व्यवस्था को खोलने का ढोंग मात्र भी करता है, जैसा उसने कई बार पहले भी किया है, तो खुले रूप से दूसरे देशों की व्यवस्था में उसकी पैठ बढ़ती ही जाएगी. इसलिए सभी देश प्रयास में है – जापान, ताइवान और दक्षिण कोरिया – की कैसे चीन से निपटने के रास्ते निकाले जाए. सभी को यह भी समझ में आता है की चीन एक ऐसे समस्या है जिसका समाधान चीन के बिना निकालना अत्यंत कठिन है. कैसे ऐसी सरंचना बनाई जाए की चीन बस में भी रहे और सब के हित वाली एक ऐसे व्यवस्था कायम हो सके जिसका चीन हिस्सा अवश्य हो लेकिन इतना सशक्त ना हो की वह सब पर हुकूमत करे.  

ये सच है कि चीन को लेकर दुनिया में एक दुविधा वाली स्थिति है. ऐसे में हमारे पास इस बात को समझने की गुंजाईश काफी कम है कि, चीन से जुड़े मसलों का हल, चीन को शामिल किए बग़ैर मुमकिन है. 

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