पिछले दिनों जो शांगरी-ला डायलॉग हुआ, उसमें एक बार फिर चीन और अमेरिका की तनातनी सतह पर आ गई. इस डायलॉग से एक बात फिर साफ हो गई कि भले ही यूक्रेन में लड़ाई हो रही हो और अमेरिका का ध्यान वहां बंटा हुआ हो, लेकिन अमेरिका की नजर चीन पर टिकी हुई है. साथ ही, हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर भी उसका पूरा फोकस है.
शांगरी-ला डायलॉग में अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन भी पहुंचे थे. वहां उन्होंने रूस और चीन को सीधे चुनौती देते हुए कहा था कि रूस अपनी हरकतों से बाज आए. उनका कहना था कि चीन जिस तरह छोटे देशों के खिलाफ आक्रामक रवैया दिखा रहा है, उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ेगा.
चर्चा में क्यों?
शांगरी-ला डायलॉग में अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन भी पहुंचे थे. वहां उन्होंने रूस और चीन को सीधे चुनौती देते हुए कहा था कि रूस अपनी हरकतों से बाज आए. उनका कहना था कि चीन जिस तरह छोटे देशों के खिलाफ आक्रामक रवैया दिखा रहा है, उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ेगा.
अमेरिकी बयान पर चीन के डिफेंस मिनिस्टर जनरल वेई फेंग ने तीखी प्रतिक्रिया जताई. उन्होंने अमेरिका को चेतावनी दी कि वह चीन की घेराबंदी करना बंद करे. अमेरिका बाकी देशों को जोड़कर जो कंटेनमेंट पॉलिसी बना रहा है, वह कभी सफल नहीं होगी. उन्होंने कहा कि चीन आखिरी दम तक लड़ने के लिए तैयार है.
सवाल उठ रहा है कि अमेरिका क्या एक बार फिर नेटो की तरह का ही कोई ऑर्गनाइज़ेशन हिंद-प्रशांत इलाके में बनाएगा ताकि वह चीन को मैनेज कर पाए, उसकी बढ़ती ताकत को रोक पाए और उसके आक्रामक रुख पर कंट्रोल कर पाए?
इस डायलॉग में जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल हुआ, वह काफी हैरान करने वाला रहा. इसके चलते ऐसा लग रहा है कि अमेरिका और चीन के बीच जो शीत युद्ध चल रहा है, वह हिंद-प्रशांत इलाके में किसी हॉट वॉर में न बदल जाए. ताइवान इस तनातनी का केंद्र बिंदु बना हुआ है. ताइवान को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं कि चीन वहां पर अटैक कर सकता है. नजरें इस बात पर हैं कि चीन किस तरह से एक बार फिर ताइवान को कंट्रोल करने की कोशिश करेगा.
क्या हो सकता है असर
हालांकि इस समय चीन के सामने एक बड़ी चुनौती है. अमेरिका की पॉलिसी समान विचारधारा वाले देशों के साथ मिलकर काम करने की है. इसके तहत वह इन देशों के साथ गठजोड़ मजबूत करने की संभावना पर काम कर रहा है. इससे चीन की फिक्र बढ़ गई है. इस सिलसिले में कई बार नैटो (NATO) का जिक्र किया जाता है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी यूरोप को उस वक्त के सोवियत संघ से बचाने के लिए नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन जैसा अलायंस बनाया गया था. उसी तरह से आज हिंद प्रशांत क्षेत्र में एक दूसरा शीतयुद्ध दिख रहा है. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि अमेरिका क्या एक बार फिर नेटो की तरह का ही कोई ऑर्गनाइज़ेशन हिंद-प्रशांत इलाके में बनाएगा ताकि वह चीन को मैनेज कर पाए, उसकी बढ़ती ताकत को रोक पाए और उसके आक्रामक रुख पर कंट्रोल कर पाए?
क्वॉड में शामिल होकर चीन को एक चेतावनी दे दी है कि अगर चीन ज्यादा आक्रामक होगा तो भारत भी भविष्य में ऐसे देशों के साथ और बेहतर तालमेल की कोशिश करेगा, जो सामरिक मुद्दों को एक ही चश्मे से देखते हैं.
एशिया में नेटो की तरह के प्लैटफॉर्म की फाउंडेशन एक तरह से क्वॉड ने रखी है. क्वॉड यानी क्वॉड्रीलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग. यह अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया की सदस्यता वाला प्लैटफॉर्म है. 2007 में बना था और 2017 में इसे रिवाइज किया गया. पिछले साल 2021 में जब जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने इसे अपनी फॉरेन पॉलिसी में काफी अहमियत देते हुए शामिल किया. पिछले साल से लेकर अभी तक इसकी पांच बैठकें हो चुकी हैं, जिनमें तीन वर्चुअल रही हैं. इन चीजों को को देखते कई लोग कयास लगा रहे हैं कि भविष्य में किसी तरह के बड़े सिक्योरिटी आर्किटेक्चर के लिए क्वॉड एक तरह से धुरी बन सकता है और एशियन नैटो को भी जन्म दे सकता है.
क्या कर सकता है भारत
क्वॉड की खासियत यह है कि अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया तो पहले के एलायंस पार्टनर हैं, लेकिन इसमें भारत के जुड़ जाने से क्वॉड जैसी पार्टनरशिप को एक अलग अर्थ मिल गया है. भारत दरअसल अलायंस में विश्वास नहीं करता. भारत की हमेशा से पॉलिसी रही है कि यह अलायंस से अलग रहने की कोशिश करता है. भारत वैसे भी जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका का कोई फॉर्मल ट्रीटी अलायंस पार्टनर नहीं है. लेकिन उसने क्वॉड में शामिल होकर चीन को एक चेतावनी दे दी है कि अगर चीन ज्यादा आक्रामक होगा तो भारत भी भविष्य में ऐसे देशों के साथ और बेहतर तालमेल की कोशिश करेगा, जो सामरिक मुद्दों को एक ही चश्मे से देखते हैं.
ऐसे में चीन बड़ा परेशान है. वह क्वॉड को लेकर काफी टिप्पणियां भी करता रहा है कि क्वॉड एक कंटेनमेंट मैकेनिज्म है. लेकिन अगर भारत के नजरिए से देखें तो क्वॉड एक एड-हॉक पार्टनरशिप है, कोई फॉर्मल ट्रीटी या अलायंस पार्टनरशिप नहीं है. भारत ने किसी फॉर्मल ट्रीटी पर साइन नहीं किए हैं, लेकिन भारत जिन मुद्दों पर ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के साथ तालमेल रखता है, उन पर साथ मिलकर काम करने की कोशिश कर रहा है. इनमें मैरीटाइम सिक्योरिटी, ट्रेड, वैक्सीन, इंफ्रास्ट्रक्चर और कनेक्टिविटी के मुद्दे हैं. ये सारे मसले हिंद प्रशांत इलाके में बहुत अहम माने जाते हैं. ये छोटे देशों के लिए भी इस समय परेशानी का सबब बने हुए हैं क्योंकि चीन एक तरह से बड़ी आक्रामक शक्ति के रूप में उभरकर आ रहा है. ऐसे में दुनिया की चार बड़ी शक्तियां क्वॉड के जरिए एक विकल्प देना चाह रही हैं.
क्या है असल बात
सवाल यह है कि क्या क्वॉड या इस तरह का कोई प्लैटफॉर्म एशियन नैटो की तरह उभर सकता है? इस मुद्दे पर काफी विवाद चल रहे हैं, बहस हो रही है. भारत ने इस बात से इनकार किया है कि ऐसा कोई फॉर्मल एलायंस स्ट्रक्चर खड़े होने की संभावना है क्योंकि भारत गुटबाजी से दूर रहना चाहता है. वहीं अमेरिका यही चाहेगा कि भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देशों के बीच में और गहरे संबंध बनें, भले ही वे एशियन नेटो का रूप लें या न लें. चीन को इस बात से काफी परेशानी है.
भारत ने इस बात से इनकार किया है कि ऐसा कोई फॉर्मल एलायंस स्ट्रक्चर खड़े होने की संभावना है क्योंकि भारत गुटबाजी से दूर रहना चाहता है. वहीं अमेरिका यही चाहेगा कि भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देशों के बीच में और गहरे संबंध बनें, भले ही वे एशियन नेटो का रूप लें या न लें. चीन को इस बात से काफी परेशानी है.
लेकिन जो हम हिंद प्रशांत इलाके में देख रहे हैं, वह नेटो से थोड़ा सा अलग है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जो नेटो बना, उसका ढांचा एक औपचारिक गठजोड़ का था. क्वॉड का जो स्ट्रक्चर है और जिस तरह के दूसरे प्लैटफॉर्म हिंद प्रशांत इलाके में बन रहे हैं, उनका स्ट्रक्चर थोड़ा अलग है. उन्हें देखते हुए ऐसा नहीं लगता है कि जो नेटो का मॉडल है, वह हिंद-प्रशांत इलाके में काम करेगा. हिंद-प्रशांत इलाके में जो दूसरा बड़ा फर्क है, वह यह है कि सारे देश एक-दूसरे के साथ आर्थिक रूप से जुड़े हैं. चीन के साथ भारत को ट्रेड करना है, अमेरिका को भी ट्रेड करना है, जापान और ऑस्ट्रेलिया भी ट्रेडिंग पार्टनर हैं. लेकिन जो सामरिक मुद्दे हैं, उन पर विवाद बना हुआ है. उनको देखते हुए जो भी आर्किटेक्चर हिंद-प्रशांत में बनाया जाएगा, उसका जो ढांचा होगा, वह नेटो के मुकाबले काफी अलग होगा. जिस तरह के भी एलायंस या पार्टनरशिप हिंद-प्रशांत में बन रही हैं, वे काफी फ्लेक्सिबल हैं. वे फॉर्मल एलायंस नहीं हैं और अभी तक अमेरिका ने भी इस बात पर जोर नहीं दिया है कि हिंद-प्रशांत इलाके में कोई फॉर्मल एलायंस आए. फिर भारत जैसा देश यही चाहेगा कि तालमेल तो हो, लेकिन उसमें लचीलापन भी हो क्योंकि ऐसा ढांचा ही स्ट्रैटेजिक लेवल पर भारत को ज्य़ादा स्पेस देता है.
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यह आर्टिकल नवभारत गोल्ड में प्रकाशित हो चुका है.
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