बिल क्यों मायने रखता है?
महिला केंद्रित विकास के तहत भारत ने कई वर्षों से लंबित संविधान संशोधन विधेयक, जिसका उद्देश्य लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में एक-तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करना है, को इसके तार्किक अंत तक पहुंचाया.
दुनिया भर में राजनीतिक हिस्सेदारी के मामले में पुरुषों की तुलना में महिलाएं पीछे हैं. समय के साथ भागीदारी के मामले में पुरुषों और महिलाओं के बीच ये जेंडर गैप (लैंगिक अंतर) दुनिया के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अलग-अलग है. इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन, जो कि दुनिया भर की राष्ट्रीय संसदों का डेटा जमा करती है, की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1 जनवरी 2023 को एकल या निचले सदन के कुल सांसदों में महिलाओं का हिस्सा केवल 26.5 प्रतिशत था. इस तरह सालाना के हिसाब से महिलाओं की संख्या में सिर्फ 0.4 परसेंटेज प्वाइंट की बढ़ोतरी हुई है जो कि छह वर्षों में सबसे कम वृद्धि है. इसी रिपोर्ट के डेटा के अनुसार महिला सांसदों के मामले में भारत 187 देशों में 143वें पायदान पर है. जुलाई 2023 तक संसद के निचले सदन (लोकसभा) में महिलाओं की नुमाइंदगी 15.2 प्रतिशत थी जबकि ऊपरी सदन (राज्यसभा) में 13.8 प्रतिशत. ये अनुमान है कि केवल 31 देश ऐसे हैं जहां 34 महिलाएं राष्ट्राध्यक्ष/सरकार में प्रमुख के तौर पर काम कर रही हैं. ये आंकड़ा सत्ता के सर्वोच्च क्षेत्रों में लैंगिक समानता को 130 वर्ष के लिए और पीछे धकेल देता है. साफ़तौर पर, तरक्की की ये रफ्त़ार 2063 से पहले लैंगिक समानता को हासिल करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी और इससे संकेत मिलता है कि और ज़्यादा करने की ज़रूरत है.
1952 में भारत की संवैधानिक उद्घोषणा, जो अपने सभी नागरिकों के लिए “सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय” और “स्थिति एवं अवसर की समानता” सुरक्षित करने की बात करती है, के बावजूद महिलाएं अभी भी राजनीतिक क्षेत्र में अछूत बनी हुई हैं.
किसी देश की चुनाव प्रक्रिया में महिलाओं की हिस्सेदारी और उनका नेतृत्व उस देश के लोकतांत्रिक कल्याण के साथ-साथ उसकी क्षमता का प्रमुख सूचक है. 1952 में भारत की संवैधानिक उद्घोषणा, जो अपने सभी नागरिकों के लिए “सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय” और “स्थिति एवं अवसर की समानता” सुरक्षित करने की बात करती है, के बावजूद महिलाएं अभी भी राजनीतिक क्षेत्र में अछूत बनी हुई हैं. हालांकि, महिलाओं की चुनावी भागीदारी का बदलता परिदृश्य कुछ उम्मीद जगाता है लेकिन लैंगिक-राजनीतिक दूरी को भरने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. इस संदर्भ में तीन प्रमुख कार्यक्षेत्रों के माध्यम से जेंडर गैप की पड़ताल करना शायद अनिवार्य है: i) संसद में मतदाता के रूप में महिलाएं, ii) चुनावी उम्मीदवार के रूप में महिलाएं और iii) विधायिका में प्रतिनिधि के रूप में महिलाएं.
अलग-अलग रिपोर्ट के मुताबिक वोट प्रतिशत के मामले में महिलाओं और पुरुषों के बीच अंतर न सिर्फ़ कम हुआ है बल्कि 1962 के आम चुनाव में 16.71 प्वाइंट की कमी के मुकाबले 2019 के लोकसभा चुनाव में 0.17 प्रतिशत ज़्यादा हो गया है. एक और रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 के चुनाव में 39,70,49,094 रजिस्टर्ड महिला मतदाताओं की तुलना में 2019 के चुनाव में 43,84,91,517 रजिस्टर्ड महिला मतदाताएं थीं. इस तरह जेंडर अनुपात 2014 में 908 की तुलना में 2018 में ऐतिहासिक 930 पर पहुंच गया है. 2009, 2014 और 2019 में पुरुषों और महिलाओं का वोट प्रतिशत- जैसा कि तालिका 1 में दिखाया गया है- बताता है कि लैंगिक समानता में बढ़ोतरी हो रही है. ये चुनावी प्रक्रिया में महिलाओं की बढ़ती मौजूदगी का संकेत देता है.
तालिका 1: 2019 के चुनाव में मतदान प्रतिशत के मामले में पुरुष और महिलाएं एक समान थीं
ये केवल महिला वोटर के प्रतिशत में बढ़ोतरी नहीं है बल्कि उनकी राजनीतिक सोच की बुद्धिमानी की दिशा में एक कवायद है जिसने ‘ख़ुद को अधिकार संपन्न करने की ख़ामोश क्रांति’ को प्रोत्साहन दिया है. इसे नीचे तालिका 2 में दिखाया गया है:
स्रोत: नेशनल इलेक्शन स्टडीज़, CSDS डेटा यूनिट
दूसरी तरफ उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने वाली महिलाओं के प्रतिशत में मामूली बढ़ोतरी हुई है और ये 1999 के 6.11 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में केवल 9 प्रतिशत हुआ है जिसे तालिका 3 में दिखाया गया है.
तालिका 3- लोकसभा चुनाव में महिला उम्मीदवार, 2004-2019
स्रोत- इंडिया टुडे की डेटा इंटेलिजेंस यूनिट के द्वारा इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया के डेटासेट से इकट्ठा
2019 में 78 महिलाओं ने लोकसभा का चुनाव जीता- 543 सदस्यों में से– जो कि देश के राजनीतिक इतिहास में महिला नेतृत्व की सबसे ज़्यादा भागीदारी है. लेकिन इस तथ्य के बावजूद अधूरे काम हैं जिसे तालिका 4 में दिखाया गया है. भारत के ज़्यादातर राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है. 15 प्रतिशत से कम महिलाओं का होना ये इशारा करता है कि उचित चुनावी हिस्सेदारी के मामले में वो पीछे हैं.
तालिका 4- राज्यों की विधानसभाओं में निर्वाचित महिलाओं का प्रतिशत
राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों का नाम |
आखिरी विधानसभा चुनाव का साल |
महिलाओं के द्वारा जीती गई सीट का % |
1.आंध्र प्रदेश |
2019 |
8.00 |
2.अरुणाचल प्रदेश |
2019 |
5.00 |
3.असम |
2021 |
4.76 |
4.बिहार |
2020 |
10.70 |
5.छत्तीसगढ़ |
2018 |
14.44 |
6.गोवा |
2022 |
7.50 |
7.गुजरात |
2017 |
7.14 |
8.हरियाणा |
2019 |
10.00 |
9.हिमाचल प्रदेश |
2017 |
5.88 |
10.जम्मू और कश्मीर |
2014 |
2.30 |
11.झारखंड |
2019 |
12.3 |
12.कर्नाटक |
2018 |
3.14 |
13.केरल |
2021 |
7.86 |
14.मध्य प्रदेश |
2018 |
9.13 |
15महाराष्ट्र |
2019 |
8.33 |
16.मणिपुर |
2022 |
8.33 |
17. मेघालय |
2018 |
5.08 |
18. मिज़ोरम |
2018 |
0 |
19. नागालैंड |
2018 |
0 |
20. ओडिशा |
2019 |
8.90 |
21. पंजाब |
2022 |
11.11 |
22. राजस्थान |
2018 |
12.00 |
23. सिक्किम |
2019 |
9.38 |
24. तमिलनाडु |
2021 |
5.13 |
25.तेलंगाना |
2018 |
5.04 |
26.त्रिपुरा |
2018 |
5.00 |
27.उत्तराखंड |
2022 |
11.43 |
28.उत्तर प्रदेश |
2022 |
11.66 |
29.पश्चिम बंगाल |
2021 |
13.70 |
30.राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली |
2020 |
11.43 |
31.पुडुचेरी |
2021 |
3.33 |
स्रोत: विधि एवं न्याय मंत्रालय, भारत सरकार 2022
जैसा कि तालिका 4 में दिखाया गया है, 2018 के चुनाव में मिज़ोरम और नागालैंड में एक भी महिला विधायक चुनकर नहीं आई जबकि वहां महिला साक्षरता की ऊंची दर है- 2011 में भारत की जनगणना के मुताबिक क्रमश: 89.9 प्रतिशत और 76.1 प्रतिशत. ये संकेत देता है कि राजनीतिक माहौल राजनीतिक बर्ताव के लैंगिक ढांचे पर असर डाल सकता है क्योंकि मिज़ोरम की अधिकतर शिक्षित महिलाएं राजनीति को एक साफ-सुथरे करियर विकल्प के तौर पर विचार करने में नाकाम हैं. दूसरी तरफ 2023 में नागालैंड ने इतिहास रचा और राज्य बनने के 60 साल के बाद दो महिलाओं ने विधानसभा का चुनाव जीता.
राज्यसभा में महिलाओं की हिस्सेदारी ख़ास तौर पर बहुत कम है. 2014 में 17.76 प्रतिशत महिलाओं की तुलना में 2020 में ये घटकर 10.33 प्रतिशत हो गई जो कि नीचे की तालिका में दिखाई गई है.
तालिका 5: 2014 से 2020 तक भारत में राज्यसभा में महिलाओं की हिस्सेदारी
स्रोत:- Statista.com
भारत के चुनावी परिदृश्य में महिलाओं की भागीदारी को लेकर अकादमिक चर्चा में लैंगिक नज़रिए से इन दलीलों को दो व्यापक परिप्रेक्ष्य से देखा जा सकता है. संरचनात्मक मानदंड अक्सर राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की पूर्ण भागीदारी में रुकावट बनते हैं; अगर महिलाओं की राजनीतिक आवाज़ कमज़ोर है और उनकी नुमाइंदगी ख़राब है तो ये दशकों तक लैंगिक भेदभाव और सामाजिक रूप से अलग-थलग करने का नतीजा है (अग्रवाल 2006). सामाजिक पूर्वाग्रहों को तब राजनीतिक दल न सिर्फ सीटों के आवंटन के मामले में बल्कि पार्टी के भीतर पदों के मामले में भी आगे ले जाते हैं. राजनीतिक विश्लेषकों ने अक्सर दलील दी है कि इसके बाद जो राजनीतिक क्षेत्र सामने आता है वो महिलाओं के लिए नुकसान तो पुरुषों के लिए फायदेमंद होता है. ये राजनीतिक क्षेत्र संसदीय और राज्य विधानसभा के चुनावों में उम्मीदवार और विजेता के तौर पर महिलाओं के लिए अवसर को सीमित कर देता है. महिलाएं राजनीतिक नेटवर्क के भीतर भी अधिकार वाले पद और असर के मामले में पीछे होती हैं और अगर खानदानी एवं सेलिब्रिटी पृष्ठभूमि नहीं हो तो वो उतनी जानी-पहचानी भी नहीं होती हैं.
संरचनात्मक मानदंड अक्सर राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की पूर्ण भागीदारी में रुकावट बनते हैं; अगर महिलाओं की राजनीतिक आवाज़ कमज़ोर है और उनकी नुमाइंदगी ख़राब है तो ये दशकों तक लैंगिक भेदभाव और सामाजिक रूप से अलग-थलग करने का नतीजा है
बैलट बॉक्स तक की लंबी दूरी: भारत में महिलाओं के मताधिकार की राह ढूंढना
महिलाओं की चुनावी भागीदारी को बढ़ाने वाले इनमें से कुछ फैसले आसानी से नहीं हुए हैं. इनकी शुरुआत बंगाल में स्वदेशी आंदोलन (1905-08) के दौरान ही हो गई थी जो कि राष्ट्रीय संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी का आरंभ था. 1988 में महिलाओं के लिए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना में सभी निर्वाचित निकायों में 30 प्रतिशत कोटा शुरू करने की मांग की गई. इसका नतीजा 1993 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन को अपनाने के लिए राष्ट्रीय सर्वसम्मति के रूप में निकला जिसने आख़िर में स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण को मंज़ूरी दी.
1995 से संसद में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीट रिज़र्व करने के उद्देश्य से संविधान संशोधन बिल की मांग की जा रही थी. लेकिन 1998, 1999, 2008 और फिर 2010 में संसद में बिल को पेश करने के बावजूद इसको लेकर कोई राष्ट्रीय आम राय नहीं बन पाई और तत्कालीन सरकार के सत्ता से हटने के साथ ही विधेयक बेअसर हो गया. हालांकि 1957-2019 के बीच के आंकड़ों को इकट्ठा करने पर एक उल्लेखनीय रुझान देखा जा सकता है- लोकसभा चुनाव में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की जीत की दर ज़्यादा रही है. इसे तालिका 6 में देखा जा सकता है.
तालिका 6: लोकसभा चुनावों में पुरुषों और महिलाओं की जीत का प्रतिशत, 1957-2019
स्रोत: द वायर 2020
बिल से आगे की राह
दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षा के उच्च स्तर, राजनीतिक जागरूकता और रोज़गार के बावजूद महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की रफ्तार कम रही है. इसकी मुख्य वजह ये है कि समाज के एक बड़े हिस्से ने अपनी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बरकरार रखा है. लेकिन इस अंतर को भरने के लिए अवसर पैदा हो रहे थे जिन्हें संसद के विशेष सत्र में वास्तविकता में बदला गया. महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण के कई फायदे हैं; ये उन तौर-तरीके के मुताबिक काम कर सकते हैं जिन्हें राजनीतिक दल चलाते हैं और अपनी भर्ती की प्रक्रिया में इस्तेमाल करते हैं (क्रूक) [1]. राजनीतिक दलों को तब ये फायदेमंद लगेगा कि वो महिलाओं को अपना अभियान चलाने में संसाधन तक पहुंच की पेशकश करें और उन्हें जीतने की स्थिति में रखकर सुरक्षित काम-काज की जगह, संरक्षण और प्रशिक्षण मुहैया कराएं.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के पहरेदार के रूप में राजनीतिक दलों को अब ये सुनिश्चित करना चाहिए कि वो बदलाव की गति को तेज़ करने के लिए एक समावेशी और लैंगिक तौर पर संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाएं. ऐसा दृष्टिकोण जो शासन व्यवस्था और नेतृत्व में महिलाओं की पकड़ को मज़बूत करे. राजनीतिक पार्टियों को सांकेतिक या वंशवादी राजनीति के दुष्चक्र में फंसे बिना पर्याप्त संख्या में महिलाओं को टिकट आवंटित करने के बारे में सोच-विचार की शुरुआत करनी चाहिए. दुनिया भर में इस बात के कई उदाहरण हैं जहां महिला प्रतिनिधियों को किसी देश की विधायिका में लैंगिक मुख्यधारा की प्रक्रिया की वकालत करने की कोशिशों से फायदा हुआ है जैसे कि क्यूबा, मेक्सिको, निकारागुआ, रवांडा, संयुक्त अरब अमीरात और न्यूज़ीलैंड.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के पहरेदार के रूप में राजनीतिक दलों को अब ये सुनिश्चित करना चाहिए कि वो बदलाव की गति को तेज़ करने के लिए एक समावेशी और लैंगिक तौर पर संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाएं. ऐसा दृष्टिकोण जो शासन व्यवस्था और नेतृत्व में महिलाओं की पकड़ को मज़बूत करे.
पुराने पड़ चुके महिला आरक्षण बिल को पास करना महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए महत्वपूर्ण है. अगर बिल की एक बार और कुर्बानी दे दी जाती तो ये पुराने दिनों की तरफ लौटने की तरह होता जिसके बारे में इंडियन फ्रेंचाइज़ी कमेटी की 1932 की रिपोर्ट में कहा गया है कि “जब तक महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान नहीं किया जाता तब तक ये असंभव लगता है कि कुछ को छोड़कर महिलाएं हमारे प्रस्ताव से ज़्यादा सीटों पर अधिक महिला मतदाताओं के बाद भी पहली विधायिका का चुनाव जीतने में सक्षम होंगी. इसकी वजह ये है कि महिलाओं के द्वारा सार्वजनिक जीवन में हिस्सा लेने के ख़िलाफ़ भारत में अभी भी पूर्वाग्रह मौजूद है.”
अरुंधति बिस्वास ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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