अफ़गानिस्तान को लेकर पश्चिमी देशों, पाकिस्तान, चीन और रूस को उम्मीद थी कि जिस तरह की जीत तालिबान को मिली है, वहां स्थिरता काफ़ी जल्दी आ सकती है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब वहां जिस तरह के हालात बन रहे हैं, उसे देखते हुए अंतरराष्ट्रीय चिंता बढ़ती जा रही है. वहां मानवीय संकट पैदा हो रहा है, लोगों के पास खाने को अनाज नहीं है. इसलिए दुनिया और खासकर अफ़गानिस्तान के पड़ोसी देश सोच रहे हैं कि इसका समाधान क्या हो. इस पर रूस और ईरान अपनी बैठक कर चुके हैं. भारत भी अपना समिट करने वाला है.
भारत का दिलचस्प रोल
अफ़गानिस्तान की ज़मीनी हक़ीकत न सिर्फ़ बड़ी तेज़ी से बदली है, बल्कि ऐसी दिशा में चली गई है कि इसे अभी काबू में ना किया गया, तो आने वाले समय में, खासकर सर्दियों में हालत और ख़राब होने की उम्मीद है. अगर वहां मानवीय संकट बढ़ता है तो न सिर्फ पड़ोसी देशों की परेशानी बढ़ेगी, बल्कि पश्चिमी देशों पर भी काफ़ी दबाव बनेगा. रोम में हुए जी-20 और बाकी सम्मेलनों को इसी लिहाज से समझना होगा. हर कोई चाहता है कि उसका तालिबान में स्टेटस बढ़े, लेकिन इसमें किसी को कोई खास फ़ायदा नहीं हो रहा है. वहां जैसी मानव आपदा दिख रही है, उसके चलते आतंकवाद और शरणार्थियों की समस्या बढ़ेगी.
इसे काबू में करने के लिए रूस, चीन, अमेरिका और पाकिस्तान के बीच एक मीटिंग हुई थी. इसके बाद मॉस्को में मीटिंग हुई, जिसमें भारत भी शामिल हुआ. 27 अक्टूबर को तेहरान में मीटिंग हुई और इसी महीने भारत में भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की मीटिंग होनी है. अब भारत दो चीजें कर रहा है. एक तो वह बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है. दूसरे, वह इस मसले पर खुद की मीटिंग बुला रहा है. यह काफी रोचक है, क्योंकि पहले भारत कहता था कि हम दूर बैठकर बस हालात देखेंगे.
भारत के रूस या ईरान से बदलते रिश्तों का भी इस मामले में प्रभाव पड़ रहा है. शुरू में हमने देखा कि रूस ने चीन और पाकिस्तान को मजबूती से सपोर्ट किया. इसके बाद हालात बदले तो रूस को लगा कि भारत के साथ मेलजोल बहुत ज़रूरी है. वहीं ईरान की शिया-सुन्नी वाली समस्या काफ़ी जहरीली है. अफ़गानिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हमलों पर ईरान ने काफ़ी कड़ी प्रतिक्रिया दी थी. उसने 27 तारीख़ वाली मीटिंग में भारत को न्योता नहीं दिया था. माना जा सकता है कि क्वाड समिट को लेकर ईरान अपनी नाराजगी जाहिर कर रहा है. उधर, अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते मजबूत हो रहे हैं. नब्बे के दशक से तुलना करें तो आज दोनों देशों के रिश्ते बिलकुल अलग हैं. पहले अमेरिका तालिबान समर्थक रुख दिखा रहा था, लेकिन पिछले डेढ़ महीने में वह भारत के रुख का समर्थन कर रहा है. यह नया विकास है और इसका प्रभाव नई नीतियों पर पड़ रहा है.
पिछले कुछ समय से भारत का यही मानना रहा है कि अफ़गानिस्तान को मानवीय सहायता मिलनी चाहिए. हालांकि, वह यह मदद तालिबान के जरिये नहीं करना चाहता है. उसका तर्क है कि मानवीय सहायता देने के लिए हमारे पास स्वायत्त तंत्र होना चाहिए. भारत ने यह बात पहले भी कही है कि तालिबान को योजना बनानी होगी और बताना होगा कि राहत सामग्री का वितरण वह कैसे करेगा. जहां तक मानवीय सहायता का सवाल है, वह तालिबान को न देकर इंटरनेशनल एजेंसियों को दी जाए और तालिबान इन्हें बांटने के लिए एजेंसियों को रास्ता दे.
भारत ने इस मुद्दे को फ्रेम किया है और सारे देश इसके लिए तैयार हैं. कोई नहीं चाहता कि तालिबान के जरिए इसे बांटा जाए क्योंकि इससे दो चीजें हो सकती हैं. एक तो तालिबान को लगेगा कि उसे मान्यता मिल रही है. दूसरे, वह राहत सामग्री का इस्तेमाल अपने एजेंडे को बढ़ाने के लिए करेगा, न कि इसे जरूरतमंदों तक पहुंचाएगा. आने वाली बैठकों में तय हो सकता है कि किस तरह से अंतरराष्ट्रीय समुदाय मदद देगा.
हालांकि, अभी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जिस तरह का बिखराव है. पाकिस्तान के साथ चीन है और पश्चिमी देश एक तरफ़ हैं. ऐसे में यह संभावना कम हो जाती है कि इसे लेकर कोई वैश्विक सहमति बनेगी. अमेरिका आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के लिए पाकिस्तान में ठिकाना चाहता है. वहीं, पाकिस्तान ने उसके साथ ऐसे किसी समझौते से इनकार किया है. पाकिस्तान बार-बार कह रहा है कि अफ़गानिस्तान की मदद होनी चाहिए और तालिबान को वैधता मिलनी चाहिए, जिसे मानने वाले देश बहुत कम हैं. चीन और रूस भी, जिन्होंने शुरू में पाकिस्तान को समर्थन दिया था, वे भी अभी इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं हैं.
जिस तरह से तालिबानी सत्ता में आए और जिस तरह का शासन वे चला रहे हैं, अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसे देखते हुए तालिबान को मान्यता देने को लेकर आश्वस्त नहीं है. वहीं दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने यह भी समस्या है कि जितनी इसमें देर लग रही है, उतनी ही वहां की हालत खराब होती जा रही है. भारत का जोर इस पर है कि जिस तरह की मान्यता या वित्तीय मदद आज तालिबान को चाहिए, उसे काफी सोच-विचार कर देना होगा, जिससे अफ़गानिस्तान के भविष्य में अंतरराष्ट्रीय समुदाय अपना योगदान पूरी तरह दे पाए. अगर ऐसा नहीं होगा तो तालिबान को मान्यता भी मिल जाएगी और अंतरराष्ट्रीय समुदाय जो बदलाव चाहता है, वे भी नहीं होंगे.
ऐसे में भारत किस तरह से रूस, अमेरिका, इटली, स्पेन सहित बाकी देशों के साथ अपने संबंधों को लेकर एक सामूहिक रणनीति बनाता है, यह देखने लायक बात होगी. अपने पिछले जी-20 संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि अफ़गानिस्तान में एक सर्वमान्य सरकार होनी चाहिए. अगर तालिबान को मानवीय मदद चाहिए तो उसे एक जिम्मेदार सहयोगी के रूप में काम करना होगा. इस सम्मेलन में भी प्रधानमंत्री ने कई देशों से मिलकर अफगानिस्तान की बात उठाई है, लेकिन फ़िलहाल अफ़गानिस्तान में जिस तरह से खाद्य और मानवीय समस्या बढ़ती नज़र आ रही है, वह बहुत जल्द यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने चुनौती खड़ी करेगी.
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