Published on May 08, 2017 Updated 0 Hours ago

चीन जिस तरह दक्षिण एशिया में अपना दखल बढ़ा रहा है और हिंद महासागर में अपना सिक्का जमा रहा है, उससे भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध किसी भी भारतीय नेता को समस्या हो सकती है।

वैश्विक शक्तियों से भारत के रिश्ते

भारत-चीन के संबंध को ले कर भले ही दवा किया जाता हो कि यह पंचशील (बीजिंग जिसे शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के पांच सिद्धांत कहता है) के मंत्र पर आधारित है मगर कम से कम पिछले एक महीने के दौरान तो यह कतई दिखाई नहीं दिया। हाल के दिनों में नई दिल्ली ने एक नया फार्मूला अपनाया है: सहयोग और मुकाबला या दूसरे शब्दों में कॉपेटीशन (सहयोगात्मक मुकाबला)। यह शब्द युग्म 1913 में रचा गया था और तब से कई बदलाव देख चुका है।

पिछले दिनों एक के बाद एक लगातार आई तीन खबरें भारत और चीन के बीच कड़वाहट बढ़ाने वाली रही हैं। चीन ने अरुणाचल प्रदेश (चीन के नेता जिसे दक्षिण तिब्बत कहना पसंद करते हैं) के छह इलाकों के नए नाम रख कर माहौल गर्माया। चीन ने यह काम दलाई लामा के उस इलाके के दौरे की प्रतिक्रिया में किया था जिसे ब्रिटिश शासन के दौरान के उत्तराधिकार और 1914 के शिमला समझौते के तहत भारत का हिस्सा माना जाएगा।

इस संदर्भ में भारतीय रणनीतिकारों को सुन जू के उस सिद्धांत को ध्यान में रखना होगा जिसके मुताबिक बिना लड़े युद्ध जीतना चाहिए। मास्को ने कोशिश की है कि वह अपने पुराने ‘विशेष रणनीतिक साझेदार’ भारत और अपने अपेक्षाकृत नए दोस्त चीन के बीच विश्वसनीय माहौल बनाने में मदद कर सके, लेकिन चीन ने इस कोशिश को झटका दे दिया है और साथ ही आपसी कड़वाहट में आगे बढ़ गया है।

भारतीय रणनीतिकार सन जू के बिना लड़े युद्ध जीतने के सिद्धांत को ध्यान रखें तो बेहतर होगा।

भारत को चीन की एक और बात ने भड़काया। चीन ने दलाई लामा के दौरे के विरोध में जिस भाषा का इस्तेमाल किया था, वह भारत को रास नहीं आई। हमेशा नपे-तुले शब्दों में प्रतिक्रिया के अभ्यस्त कूटनीतिज्ञों को खास तौर पर यह बहुत नागवार गुजरी। याद दिलाना जरूरी है कि अंग्रेजी के ग्लोबल टाइम्स ने इसे ‘उद्दंड और अभद्र’ तरीका करार दिया। यहां खास बात है कि इस अखबार का इस्तेमाल जोंगनानाहाई के लोग तब करते हैं, जब उनके दूसरे औजार काम नहीं आते। भारत के लिए उनका संदेश बेहद स्पष्ट शब्दों में दिया गया था।

इन तीनों बातों का गंभीरता से आकलन जरूरी है। सबसे पहले दलाई लामा के दौरे को लें। इस सदी के शुरुआती दशक से ही चीन यह दावा करता रहा है कि तावांग मोनेस्ट्री तिब्बत के लोगों के लिए बेहद महत्वपूर्ण आध्यात्मिक स्थल है। पांचवें दलाई लामा ने इसे बनवाया था। लहासा के पोटाला पैलेस के बाद यह आकार में दूसरी सबसे बड़ी मोनेस्ट्री है। साथ ही यह दलाई लामाओं का ठौर रही है। ऐसे में 14वें दलाई लामा के तवांग दौरे को बीजिंग को उनकी तीर्थयात्रा के तौर पर लेना चाहिए था, खास कर जब उसे पता है कि हर तिब्बती के लिए यह कितना अहम है।

तवांग का तिब्बती भाषा में नाम जानना भी दिलचस्प होगा: जैसा कि हैमलेट बारे ने 2001 में अपने एनसाइक्लोपीडिया ऑफ नार्थ इस्ट इंडिया में दर्ज किया है। तिब्बती भाषा में इसका नाम है तवांग गलदान नामग्ये लात्से। यहां ‘त’ का मतलब है ‘घोड़ा’ और ‘वांग’ का ‘चुना हुआ’। दोनों मिला कर ‘तवांग’ यानी ‘घोड़े की चुनी हुई जगह’।

14वें दलाई लामा का 1959 में तवांग मोनेस्ट्री का दौरा। फोटो : सेंड्रो लैकारबोना

इसी तरह नाम के दूसरे शब्दों को देखें तो ‘गलदान’ का मतलब है ‘स्वर्ग’, ‘नामग्ये’ का मतलब है ‘दैवीय’और ‘लात्से’ का अर्थ है ‘अतुल्य’। इस तरह ‘तवांग गलदान नामग्ये लात्से’ का मतलब है ‘घोड़े की चुनी हुई ऐसी जगह जो अतुल्य, दैवीय और स्वर्ग तुल्य हो’।

हैरानी की बात है बीजिंग ने भले ही दावा किया हो कि उसने अरुणाचल प्रदेश की छह जगहों के नाम को तिब्बत की प्राचीन परंपरा के मुताबिक बदला है और उसका रोमनीकरण कर दिया है। लेकिन इसने तवांग मोनेस्ट्री के लिए चीन की पिनयिन का इस्तेमाल नहीं किया। 14वें दलाई लामा ने पिछले महीने जब इसका दौरा किया और तीन दिन वहां ठहरे तो उन्होंने इसके तिब्बती नाम का उल्लेख नहीं किया। चीन की पिनयिन लिपि का इस्तेमाल चीन की चित्रलिपि को आसान बनाने के लिए किया जाता है ताकि पश्चिम के लोगों को आसानी हो और वे इसे अपने मुताबिक फिर रोमन में बदल सकें।

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14वें दलाई लामा का 1959 में तवांग मोनेस्ट्री का दौरा। फोटो: सेंड्रो लैकारबोना

तुलनात्मक रूप से देखें तो यह भारत के साथ सीमा विवाद को बढ़ावा देने वाला एक कदम है और नई दिल्ली की ओर से इस पर अनुकूल जवाब दिया जाएगा। या कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत इस समय ज्यादा तनातनी बढ़ाने की बजाय इसे दूर करने के रास्ते तलाश रहा हो?

लेकिन इस सहयोगात्मक प्रक्रिया में चीन लगातार बाधा साबित होता रहा है। जिस तरह से यह दक्षिण एशिया में अतिक्रमण करता जा रहा है और हिंद महासागर में अपना दखल बढ़ा रहा है उसे देख कर भारत के राष्ट्रीय हितों की चिंता करने वाले किसी भी राष्ट्रीय नेता की भवें तन सकती हैं। कई अंतरराष्ट्रीय रणनीतिकारों का कहना है कि बलूचिस्तान के ग्वादर पोर्ट का उपयोग चीन इसलिए करना चाहता है ताकि उसे मलक्का स्ट्रेट्स से नहीं गुजरना पड़े और भारत के भौगोलिक-सामरिक बढ़त से पीछा छुड़ा सके।

इनका मानना है कि ग्वादर पूरी तरह तैयार है और चीन अपनी आपूर्ति इससे कर सकता है जिसमें पश्चिम एशिया से आने वाला तेल भी शामिल है। साथ ही वह इसे बेहद चर्चित चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) के जरिए आगे भी ले जा सकता है। चीन ने यह चाल इसलिए चली है कि भारत को रणनीतिक बढ़त नहीं हासिल हो। यानी रणनीतिक शतरंज के शह और मात के खेल में दोनों पक्ष एक के बाद एक दाव चल रहे हैं। इन सब के बीच भारत और अमेरिका के रिश्ते बराक ओबामा के प्रशासन के दौरान काफी मजबूत हो रहे थे तो इसके पीछे चीन का भय भी एक वजह था।

इसके बावजूद ट्रंप प्रशासन का संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मुद्दे को उठाने का शुरुआती कदम दक्षिण एशिया नीति के लिहाज से एक छोटा कदम प्रतीत होता है। इस प्रक्रिया में यह भारत को भी यह चेतावनी देता है कि सीरिया में इसका आक्रामक रवैया सिर्फ वहीं तक सीमित नहीं रहेगा और ऐसा ही रवैया वह दूसरी जगहों पर भी आजमा सकता है।

उस तरह से देखें तो ट्रंप प्रशासन के इस्लाम-विरोधी रवैये से भारत बहुत निर्भर नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें पाकिस्तान के लपेटे में आने की संभावना तो है जो भारत की रणनीतिक चुनौतियों में सबसे अहम है, लेकिन ट्रंप की विदेश नीति के और पहलू भी हैं।

आखिर में बात कर लें रूस की। भारत के समकालीन इतिहास में वैश्विक शक्तियों के साथ इसके रिश्तों को देखें तो यह देखना दिलचस्प होगा कि ‘इसने रूस को खो दिया’। देखा जाए तो रूस अब भी भारत की पाकिस्तान और चीन से तनातनी के मामले में अपने को दूर ही रखे है लेकिन यह स्थिति उस माहौल से बिल्कुल अलग है जब नई दिल्ली को भरोसा होता था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस का वीटो हमेशा उसके पक्ष में ही आएगा।

ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि क्षेत्रीय और संभवतः वैश्विक बढ़त साबित करने की अपनी इच्छा को पूरा करने के चक्कर में भारत अनावश्यक टकराव के अनंत जाल में तो नहीं फंस रहा? टकराव का ऐसा जाल जो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को बेहद पसंद रहा है।

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