Published on Jun 07, 2021 Updated 0 Hours ago

आरसीईपी पर हस्ताक्षर न करने की नीति की सफलता का आकलन करने के लिए हमें हमारी विदेश व्यापार नीति के लक्ष्यों का ‘आत्मनिर्भर भारत’ के साथ तालमेल बिठाने की हमारी क्षमताओं पर ध्यान देना होगा.

आरसीईपी में शामिल होने से भारत की आनाकानी- दीर्घकाल में वरदान या अभिशाप?

8 वर्षों से चली आ रही वार्ताओं के बाद चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड समेत एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 15 देशों और दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संगठन आसियान के 10 सदस्य देशों ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) समझौते को अंतिम रूप दिया. 15 नवंबर 2020 को वियतनाम के हनोई में 37वें आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान इसपर हस्ताक्षर को लेकर एक वर्चुअल समारोह का आयोजन किया गया. इस समझौते के दायरे में दुनिया की एक तिहाई आबादी (2 अरब लोग) और वैश्विक जीडीपी का करीब एक तिहाई हिस्सा (28.9%) आ गया है. आरसीईपी के तहत हुई वार्ताओं में अन्य बातों के अलावा वस्तुओं, सेवाओं के व्यापार और निवेश; बौद्धिक संपदा अधिकार और आसियान के अपेक्षाकृत कम विकसित सदस्यों के लिए अलग प्रकार के और विशेष व्यवहार से जुड़े मुद्दे शामिल हैं. इस समझौते से सीमा शुल्क से जुड़ी प्रक्रियाएं और देशों के बीच उद्गम स्रोत से जुड़े नियम-कायदे आसान होंगे. इसका मकसद क्षेत्रीय आपूर्ति श्रृंखला के लिए फ़र्मों और देशों के लिए नियामकों के स्तर पर टकरावों की संभावनाओं को कम करना है. मिसाल के तौर पर इस समझौते से पहले वियतनाम में बनी वस्तु में चीनी सामान का इस्तेमाल होने पर आसियान मुक्त व्यापार क्षेत्र के कुछ हिस्सों में अधिक सीमा शुल्क देना पड़ता था. आरसीईपी के सदस्य देशों में उद्गम को लेकर साझा नियम कायदे होने से इस पूरे इलाक़े में वस्तुओं के आवागमन में सुगमता आ सकेगी. साथ ही सदस्य देशों को अपनी आपूर्तियों के लिए इसी क्षेत्र की ओर मुखातिब होने की प्रेरणा मिलेगी. 

पर्यावरण और श्रम से जुड़े मुद्दों को इस समझौते में नज़रअंदाज़ किया गया है. हालांकि इनसे जुड़े तमाम मसलों को महामारी के बाद की वैश्विक व्यवस्था में व्यापार के ज़रूरी और निर्णायक घटकों के तौर पर देखा जा रहा है. 2017 में ट्रंप ने ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) समझौते से अमेरिका को अलग करने का फ़ैसला किया था. अर्थशास्त्रियों के मुताबिक फ़िलहाल आरसीईपी दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार समूह है. एशियाई बाज़ार को प्रभावी तरीके से संगठित करने में इसकी बहुत बड़ी भूमिका है. टीपीपी से अमेरिका के निकल जाने के बाद बाक़ी बचे सदस्य देशों ने ख़ुद को एक सूत्र में बांधते हुए ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौता (सीपीटीपीपी) किया. हालांकि आरसीईपी समझौते के प्रभावी होने के बाद ये दुनिया का सबसे बड़ा निर्यात आपूर्तिकर्ता और आयातों के मामले में दूसरा सबसे बड़ा गंतव्य स्थान बन जाएगा.

आरसीईपी के सदस्य देशों ने भारत के लिए अपने दरवाज़े खुले रखे हैं ताकि वो अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार कर सके.

भारत आरसीईपी से जुड़ी वार्ताओं का एक प्रमुख भागीदार रहा है. नवंबर 2019 तक इससे जुड़े नीति-निर्देशक सिद्धांतों पर भारत ने सहमति भी जताई थी. आगे चलकर इन वार्ताओं से भारत के बाहर निकल जाने के पीछे ढेर सारे आर्थिक और भू-राजनीतिक कारण हैं. विश्लेषकों का तर्क है कि आरसीईपी पर दस्तख़त न करने के भारत के अंतिम फ़ैसले के पीछे ज़ाहिर तौर पर चीन के साथ उसका मौजूदा तनाव ही प्रमुख वजह है. भारत के नीति-निर्माताओं को डर था कि शुल्कों की समाप्ति से घरेलू बाज़ार में आयातित वस्तुओं की बाढ़ सी आ जाएगी. इससे भारत सस्ते आयातित वस्तुओं, ख़ासतौर से चीनी सामानों के कूड़ेदान में तब्दील हो जाएगा. इससे स्थानीय उत्पादकों के हितों को भारी नुकसान पहुंचेगा. मौजूदा वक़्त के हिसाब से भारत सरकार का रक्षात्मक दृष्टिकोण जायज़ लगता है. हालांकि जापान और ऑस्ट्रेलिया ने चीन के साथ जारी भू-राजनीतिक तनावों के बावजूद आरसीईपी की ओर कदम बढ़ाने का फ़ैसला किया. इन दोनों देशों का फ़ैसला आगे चलकर भारतीय नीति-निर्माताओं के लिए अपने फ़ैसले की समीक्षा करने का आधार बन सकता है. आरसीईपी पर हस्ताक्षर न करके भारत ने एक विशाल राष्ट्रीय व्यापार सौदे का हिस्सा बनने का मौका गंवा दिया है. इस सौदे से भविष्य में आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा देकर व्यापार के क्षेत्रीय प्रतिरूपों को नया आकार देने की अपार संभावनाएं पैदा हुई हैं. आरसीईपी के सदस्य देशों ने भारत के लिए अपने दरवाज़े खुले रखे हैं ताकि वो अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार कर सके. जापान और इंडोनेशिया ने तो मौजूदा व्यवस्था में अपनी आर्थिक ताक़त के बूते चीन की दूसरों के मुक़ाबले वज़नदार मौजूदगी की काट के तौर पर भारत से इस समझौते से जुड़ने का बार-बार अनुरोध किया है. 

भारत के बच निकलने या पीछे हटने की वजहें

जैसा कि पहले बताया गया है भारत के इस व्यापार समझौते से किनारा कर लेने के पीछे कई आर्थिक और भू-राजनीतिक कारण रहे हैं. आरसीईपी के ज़्यादातर सदस्य देशों के साथ मौजूदा परिस्थितियों में भारत का व्यापार घाटा बरकरार है. भारत द्वारा रखी गई मांगों पर आरसीईपी में असहमति रही. इसके अलावा समझौते पर दस्तख़त न करने के पीछे चीन-केंद्रित वजहों का भी प्रभाव रहा है. 

व्यापार समझौते आमतौर पर सभी संबद्ध पक्षों के पारस्परिक लाभ के लिए किए जाते हैं. उपलब्ध तथ्य बताते हैं कि भारत के संदर्भ में मुक्त व्यापार समझौतों (एफ़टीए) का लाभ दूसरे भागीदार देशों को भारत की अपेक्षा ज़्यादा होता रहा है. इससे भारत का व्यापार संतुलन और बिगड़ता चला गया है. वैसे तो पिछले दो दशकों में वैश्विक पैमाने पर भारतीय निर्यात अधिक प्रतिस्पर्धी बन गए हैं, लेकिन मुक्त व्यापार समझौतों की वजह से निर्यात के मुक़ाबले आयात में अधिक बढ़ोतरी देखी गई है. फ़िलहाल भारत 14 क्षेत्रीय व्यापार समझौतों (आरटीए) के साथ सक्रियता से जुड़ा है. करीब दर्ज़न भर ऐसे ही समझौतों के लिए अभी बातचीत का दौर जारी है. एफटीए से जुड़कर व्यापार के क्षेत्र में भारत के प्रदर्शन को लेकर नीति आयोग की एक रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया है कि एफटीए से जुड़े देशों को भारत का निर्यात दुनिया के बाकी देशों को होने वाले भारतीय निर्यातों के मुक़ाबले आगे नहीं निकल सका है. अतीत में आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ भारत के एफटीए से व्यापार घाटे में तेज़ गति से इज़ाफ़ा देखा गया. वित्त वर्ष 2019 में भारत ने आरसीईपी के 11 सदस्य देशों के साथ व्यापार घाटा दर्ज किया. ज़ाहिर है कि व्यापार समझौते का अर्थ सिर्फ़ दूसरे देशों में मौजूद बाज़ार तक पहुंच पाना ही नहीं है बल्कि इसका मतलब अपने घरेलू बाज़ार तक भागीदार देशों को पहुंच प्रदान करना भी है. एफ़टीए में भारत का अबतक का प्रदर्शन काफ़ी लचर रहा है. अतीत में व्यापार सौदों में संतुलन लाने से जुड़ी वार्ता प्रक्रियाओं में मज़बूती से अपना पक्ष रखने में भारत नाकाम रहा है. ऐसे में आरसीईपी पर हस्ताक्षर करने से भारतीय नीति-निर्माताओं को व्यापार घाटे के हालात के और बिगड़ने की आशंका थी. 

आरसीईपी के ज़्यादातर सदस्य देशों के साथ फ़िलहाल भारत का व्यापार घाटे में चल रहा है. भारत के घरेलू विनिर्माण क्षेत्र का प्रदर्शन भी कमज़ोर रहा है. ऐसे में भारत ने आरसीईपी के सदस्य देशों के साथ शुल्कों में कमी लाने के लिए त्रिस्तरीय रुख़ अपनाने का प्रस्ताव रखा था.

आरसीईपी के ज़्यादातर सदस्य देशों के साथ फ़िलहाल भारत का व्यापार घाटे में चल रहा है. भारत के घरेलू विनिर्माण क्षेत्र का प्रदर्शन भी कमज़ोर रहा है. ऐसे में भारत ने आरसीईपी के सदस्य देशों के साथ शुल्कों में कमी लाने के लिए त्रिस्तरीय रुख़ अपनाने का प्रस्ताव रखा था. आसियान के साथ भारत ने शुल्क सीमा के तहत शुल्कों में 80 फ़ीसदी कमी लाने की योजना बनाई थी. जापान और दक्षिण कोरिया के साथ भारत का पहले से ही मुक्त व्यापार समझौता है. आरसीईपी के तहत इन दोनों देशों के लिए भारत ने शुल्क सीमा में 65 फ़ीसदी राहत देने का प्रस्ताव रखा था. आख़िर में जिन देशों के साथ भारत का फ़िलहाल कोई व्यापार समझौता नहीं है उनके लिए शुल्क सीमा में 42.5 फ़ीसदी के प्रावधान का एलान किया गया था. इन देशों में चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड शामिल हैं. बहरहाल आरसीईपी के सदस्य देशों के लिए टैरिफ़ लाइन में और अधिक कमी (90 प्रतिशत तक कमी का लक्ष्य) लाने की ज़रूरत बताई गई थी. ऐसे में सदस्य देशों ने भारतीय प्रस्ताव को नज़रअंदाज़ कर दिया. 

2019 में बैंकॉक में चल रही वार्ताओं के दौरान भारत ने ऑटो ट्रिगर और स्नैपबैक प्रावधानों को शामिल करने का प्रस्ताव रखा था. इसका मकसद सस्ते आयातित सामानों में निरंतर हो रही बढ़ोतरी से घरेलू उद्योगों की रक्षा करना था. किसी देश से होने वाले आयात के एक निर्धारित स्तर को पार कर लेने के बाद उस देश के साथ ये प्रावधान स्वत: प्रभावी हो जाएंगे ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था को किसी भी तरह के नुकसान से बचाया जा सके. भारत का ये प्रस्ताव प्राथमिक तौर पर चीन से होने वाले विनिर्मित सामानों के आयातों को लेकर था. हालांकि ये प्रस्ताव ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड से डेयरी उत्पादों और आसियान से वानिकी उत्पादों के आयात पर भी लागू होता. हालांकि भारत और आरसीईपी के सदस्य देश इस बारे में किसी समझौते पर नहीं पहुंच सके. 

चीन की महत्वाकांक्षी योजना अगली आर्थिक महाशक्ति बनने की है. चीन सदस्य देशों पर आरसीईपी से जुड़ी वार्ता प्रक्रियाओं को जल्द से जल्द पूरा करने का दबाव बना रहा था. चीन के पास ज़्यादातर क्षेत्रों में ज़बरदस्त विनिर्माण क्षमता मौजूद है. उसके साथ बग़ैर किसी व्यापार समझौते के ही भारत का व्यापार बेहद असंतुलित अवस्था में है. भारत के कुल व्यापार घाटे का आधा हिस्सा चीन के साथ है. नतीजतन पहले घरेलू मोर्चे पर मौजूद चिंताओं को सुलझाए बिना और बुनियादी सुविधाओं को मज़बूत किए बगैर भारत चीन को अपने घरेलू बाज़ार पर चढ़ाई करने की छूट नहीं दे सकता था. चीन की कामयाबी भारत के लिए व्यापार घाटे की और बदतर स्थिति का सबब बन जाती. विनिर्माण क्षेत्र के उलट सेवा क्षेत्र के व्यापार में भारत को सापेक्षिक लाभ हासिल है लेकिन इस बारे में आरसीईपी ने खोखले प्रावधान बनाए हुए हैं. स्टील और कृषि क्षेत्रों के हित समूहों द्वारा डाले जा रहे दबावों के चलते भारत सरकार ने फ़िलहाल आरसीईपी से कन्नी काटने का रास्ता अपनाया. 

भारत को क्यों आरसीईपी पर दस्तख़त कर देना चाहिए था

आरसीईपी की ये कमियां अपनी जगह हैं लेकिन भारत को इस पर दस्तख़त कर देना चाहिए था. इससे भारत के पास क्षेत्रीय व्यापार की संस्थागत नीतियों को प्रभावित कर पाने की क्षमता रहती. भले ही अल्पकालिक तौर पर इसके चलते भारत को कुछ क़ीमत चुकानी होती लेकिन आगे चलकर इसी से क्षेत्रीय व्यापार का आकार तय होगा. आरसीईपी का सदस्य बन जाने पर भारत क्षेत्रीय और वैश्विक मूल्य श्रृंखला के बराबर आ जाता. इतना ही नहीं एक स्थापित व्यापारिक तंत्र के ज़रिए भारत के पास अपने आर्थिक विकास को और मज़बूत करने का अवसर भी होता. दुनिया भर में राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद की लहरों के दौरान भी पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएं गतिशील बनी रही हैं. ये देश अब भी प्राथमिकता आधारित व्यापार पर अपना भरोसा बनाए हुए हैं और विशाल क्षेत्रीय समझौतों से जुड़े हैं. उत्तर पूर्व और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में उत्पादन और आपूर्ति की ठोस श्रृंखलाएं मौजूद हैं. ऐसे में आरसीईपी के सदस्यों के बीच क्षेत्रीय मूल्य श्रृंखलाओं के बेहद संगठित होने की उम्मीद है. भारत के प्रवेश और व्यापार और गैर-व्यापारिक बाधाओं में और कमी आने से इस इलाक़े का आर्थिक एकीकरण और सघन तरीके से हो सकता था. इससे सभी सदस्य देशों को लाभ होता. आर्थिक पहलुओं के अलावा आरसीईपी पर दस्तख़त के साथ राजनीतिक और भूराजनीतिक महत्व भी जुड़े हुए हैं. भारत द्वारा इस समझौते पर दस्तख़त कर देने से ऐन महामारी के बीच व्यापारिक उदारीकरण और क्षेत्रीय एकीकरण के प्रति भारत की प्रतिबद्धता ज़ाहिर होती. 

भारत के कुल व्यापार घाटे का आधा हिस्सा चीन के साथ है. नतीजतन पहले घरेलू मोर्चे पर मौजूद चिंताओं को सुलझाए बिना और बुनियादी सुविधाओं को मज़बूत किए बगैर भारत चीन को अपने घरेलू बाज़ार पर चढ़ाई करने की छूट नहीं दे सकता था.

लाजमी तौर पर ये बात समझ में आती है कि जब मौजूदा मुक्त व्यापार समझौते से ही अगर किसी का व्यापारिक संतुलन बिगड़ता है तो उसके लिए उन्हीं पक्षों के साथ अलग से किसी ऐसे समझौते पर दस्तख़त करना कठिन हो जाता है. हालांकि आर्थिक रूप से परस्पर निर्भर दुनिया में व्यापार नीति को लेकर पारंपरिक रुख़ अपनाने से भारत को फ़ायदा होने की ही संभावना ज़्यादा रहेगी. ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की शुरुआत विनिर्माण क्षेत्र की क्षमताओं को बढ़ाने के लक्ष्य से की गई थी. हालांकि असलियत ये है कि इस मकसद के ठीक विपरीत विनिर्माण क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में संकुचन देखने को मिला है. चलिए मान लेते हैं कि 2021-22 में जीडीपी महामारी से पहले के स्तर (2019-2020 की जीडीपी) यानी 204 लाख करोड़ रु. पर पहुंच सकती है. इसके आगे ये भी मान लेते हैं कि अर्थव्यवस्था में 6 प्रतिशत सालाना की बढ़ोतरी होती है. ऐसे में 2030 तक विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा जीडीपी के 25 प्रतिशत तक पहुंचने के लिए आने वाले सालों में इस क्षेत्र में 14 प्रतिशत से भी ज़्यादा की वृद्धि दर बनाए रखने की ज़रूरत पड़ेगी. भारतीय विनिर्माण क्षेत्र ने पहले कभी ऐसी विकास दर हासिल नहीं की है. इस दिशा में आयात प्रतिस्थापन की भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. हालांकि अगर हम ये मान भी लें कि इसी कालखंड में आयात होने वाले सामानों के 10 प्रतिशत हिस्से को हम घरेलू विनिर्माण से हासिल वस्तुओं से प्रतिस्थापित कर भी देते हैं तो भी भारतीय विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए ये अपेक्षाकृत बहुत छोटा उपाय होगा. आरसीईपी में शामिल न होकर भारत ने ख़ुद को इस बड़े व्यापारिक समूह से अलग कर लिया है. ये व्यापारिक गुट भारतीय निर्यात के लिए एक विशाल बाज़ार बन सकता था. नतीजतन हमारी विनिर्माण क्षेत्र की संभावनाओं का पूरी तरह से इस्तेमाल भी सुनिश्चित हो सकता था. 

आरसीईपी से भारत के बाहर रहते क्षेत्रीय एकीकरण का इसका लक्ष्य कभी पूरा नहीं हो सकता. ऐसे में सदस्य देशों ने भारत को अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने का समय दिया है. भारत दक्षिण एशिया का इकलौता ऐसा देश है जो दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार समझौते (एसएफ़टीए) से जुड़ा है. आसियान के साथ भी भारत का मुक्त व्यापार समझौता है. ऐसे में बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के ज़रिए भारत आरसीईपी के दूसरे सदस्य देशों के लिए दक्षिण एशियाई क्षेत्र का प्रवेश द्वार बन सकता था. फ़िलहाल अभी हक़ीक़त यही है कि भारत ने उत्तरी और दक्षिण पूर्व एशियाई बाज़ारों के एक बड़े हिस्से तक अपनी पहुंच बनाने का मौका खो दिया है. इन देशों को भी भारतीय बाज़ार तक पहुंच से वंचित रहना पड़ रहा है. आरसीईपी पर हस्ताक्षर न करने की नीति की सफलता का आकलन करने के लिए हमें हमारी विदेश व्यापार नीति (2021-25) के लक्ष्यों का ‘आत्मनिर्भर भारत’ के साथ तालमेल बिठाने की हमारी क्षमताओं पर ध्यान देना होगा. हमें मेक इन इंडिया पर ज़ोर देते हुए आने वाले वर्षों में आरसीईपी के सदस्य देशों के साथ व्यापार घाटे को प्रगतिशील तरीके से कम करना होगा. 


लेखक ओआरएफ में रिसर्च इंटर्न हैं.

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