Author : Apoorva Lalwani

Published on Oct 07, 2022 Updated 24 Days ago

सरकारों पर क़र्ज़ के बढ़ते बोझ के संकट से उबरने के लिए अर्थव्यवस्था की ख़ास तौर से तैयार की गई एक ऐसी व्यापक और दूरगामी नीति की ज़रूरत है, ताकि सामने खड़ी चुनौती से पार पाया जा सके.

भारत की G20 अध्यक्षता और अर्थव्यवस्था की बड़ी चुनौतियां!

2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान G20 देशों ने जिस तरह से आपसी तालमेल के साथ एक वित्तीय और मौद्रिक ढांचा खड़ा किया था, उससे उसे वित्तीय बाज़ार को स्थिर करने में ज़बरदस्त कामयाबी हासिल हुई थी. उस सफलता ने G20 को आर्थिक प्रशासन की एक महत्वपूर्ण वैश्विक संस्था के तौर पर स्थापित किया था. इसी तरह वर्ष 2020 में दुनिया पर महामारी ने हमला बोला और करोड़ों लोगों को ग़रीबी और आपदा की ओर धकेल दिया. बहुत से विकसित और विकासशील देशों ने महामारी के आर्थिक दुष्प्रभावों से निपटने के लिए व्यापकव्यापाक आर्थिक पैकेज लागू किए. उस दौर के बाद आज दुनिया की अर्थव्यवस्था एक साथ कई चिंताओं की शिकार है. जैसे कि सारे देश एक समान गति से संकट से नहीं उबर रहे हैं. बहुत से देश महंगाई की मार झेल रहे हैं. दुनिया के तमाम देशों की सरकारों पर क़र्ज़ का बोझ बढ़ता जा रहा है और महामारी के बाद, रूस और यूक्रेन के युद्ध ने आपूर्ति श्रृंखलाओं में पड़े खलल को और बढ़ा दिया है.

आज ये बात तो एकदम साफ़ है कि मौजूदा संकट के दौरान G20 द्वारा महामारी से पैदा हुई चुनौतियों से निपटने के लिए उठाए गए क़दम कम असरदार साबित हो रहे हैं.

G20 देशों ने क़र्ज़ के बढ़ते बोझ से उबरने में देशों की मदद के लिए डेट सर्विस सस्पेंशन इनिशिएटिव (DSSI) का एलान किया था, जिसका लक्ष्य द्विपक्षीय क़र्ज़ की अदायगी को मुल्तवी करना और क़र्ज़ के भारी बोझ तले दबे देशों पर से क़र्ज़ चुकाने का दबाव कम करना था. DSSI के अलावा G20 ने क़र्ज़ से निपटने के लिए एक साझा रूपरेखा की पहल भी की थी. इसमें पेरिस क्लब और G20 के आधिकारिक द्विपक्षीय क़र्ज़दाता शामिल थे. हालांकि, देशों पर क़र्ज़ का बोझ कम करने के लिए G20 द्वारा उठाए गए ये क़दम उन देशों के हालात की प्रतिक्रिया के रूप में लिए गए, जिन्होंने अपनी क़र्ज़ लौटाने की क्षमता से कहीं ज़्यादा ऋण ले रखा था. ऐसे क़दमों से तेज़ी से बढ़ रहे सरकारी क़र्ज़ में और इज़ाफ़ा रोकने की क्षमता पर पहले से ही सवाल उठ रहे थे. इसीलिए, आज ये बात तो एकदम साफ़ है कि मौजूदा संकट के दौरान G20 द्वारा महामारी से पैदा हुई चुनौतियों से निपटने के लिए उठाए गए क़दम कम असरदार साबित हो रहे हैं.

व्यापक आर्थिक संकेतों के बीच क्या संबंध है?

महामारी के तमाम बुरे प्रभावों में से एक लंबे समय तक रहने वाला असर दुनिया भर की सरकारों पर क़र्ज़ का बढ़ता बोझ और महंगाई है. आज दुनिया पर सार्वजनिक क़र्ज़ GDP के 256 फ़ीसद के अभूतपूर्व स्तर तक जा पहुंचा है. दुनिया भर में लॉकडाउन लगने से आपूर्ति श्रृंखलाओं में बाधा पड़ी; इसके साथ जब सरकारों ने मदद के लिए फंड का एलान किया, उससे मांग में इज़ाफ़ा हुआ जो महंगाई के रूप में हमारे सामने है. यूक्रेन युद्ध और उससे आपूर्ति श्रृंखलाओं में पड़ी बाधा ने महंगाई में और इज़ाफ़ा कर दिया है. इसके चलते सबसे कम विकसित और विकासशील देश आज अपने पास मौजूद संसाधनों की तुलना में इतनी बड़ी चुनौतियों के शिकार हैं, जिनसे जूझने की क्षमता उनमें नहीं है. बहुत ज़्यादा सरकारी क़र्ज़ और महंगाई, दोनों ही किसी भी अर्थव्यवस्था की विकास के सबसे बड़े रोड़े माने जाते हैं. इससे कोई भी अर्थव्यवस्था ऐसे हालात में पहुंच जाती है, जहां उसका विकास रुक जाता है मगर महंगाई आसमान पर रहती है. इससे सरकार के ऊपर क़र्ज़ का बोझ बढ़ता है जो उसके लिए चुका पाना मुश्किल हो जाता है. बेरोज़गारी बढ़ जाती है, जिससे किसी झटके का सामना करने की अर्थव्यवस्था की ताक़त कम हो जाती है और संस्थाओं के नाकाम हो जाने का ख़तरा बढ़ जाता है. लेकिन, जब महंगाई या क़र्ज़ के बोझ में से एक का चुनाव करना हो, तो देशों को ये फ़ैसला करना पड़ता है कि कौन ज़्यादा बुरा है. ‘विकासशील देशों में सार्वजनिक क़र्ज़ और महंगाई के बीच संबंध: तजुर्बे पर आधारित सबूत’ नाम से किए गए एक अध्ययन में कहा गया था कि अगर हम सार्वजनिक क़र्ज़ से महंगाई के संबंध को देखें, तो महंगाई की तुलना में सार्वजनिक क़र्ज़ हमेशा अधिक होता है. सरकार पर क़र्ज़ का बोझ बढ़ेगा, तो महंगाई बढ़ेगी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कमी आई और आख़िर में विकास रुक जाएगा और महंगाई बढ़ती रहेगी. जबकि अगर महंगाई से सार्वजनिक क़र्ज़ के रिश्ते को देखें तो ये संबंध उल्टा होता है. इसीलिए महंगाई की तुलना में सरकारों पर क़र्ज़ का बोझ ज़्यादा बुरी बात है.

अमेरिका को देखकर, बहुत से विकासशील देशों ने भी ऐसे ही क़दम उठाए हैं, ताकि अपने यहां से पूंजी की भगदड़ रोक सकें. इसी वजह से व्यापक आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए बड़े बड़े वित्तीय पैकेज की उपयोगिता पर आज सवाल उठ रहे हैं.

महामारी की शुरुआत में संकट का सामना करने के लिए बहुत से देशों ने राहत के फंड जारी किए. वित्तीय पैकेज का एलान किया. इनमें से ज़्यादातर ख़र्च अनुत्पादक थे. यानी सरकार को पैसे ख़र्च करने के एवज़ में कुछ हासिल नहीं हो रहा था. आज वही देश तेज़ी से बढ़ रही महंगाई से निपटने के लिए, लगातार ब्याज दरें बढञा रहे हैं. जून 2022 में अमेरिका में महंगाई की दर रिकॉर्ड 9.1 प्रतिशत की दर तक पहुंच गई. महंगाई से निपटने के लिए, अमेरिकी केंद्रीय बैंक ने एक आक्रामक मौद्रिक नीति अपनाई. अमेरिका को देखकर, बहुत से विकासशील देशों ने भी ऐसे ही क़दम उठाए हैं, ताकि अपने यहां से पूंजी की भगदड़ रोक सकें. इसी वजह से व्यापक आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए बड़े बड़े वित्तीय पैकेज की उपयोगिता पर आज सवाल उठ रहे हैं.

हालांकि, अर्थशास्त्री एंथनी जे. मैकिन द्वारा 2019 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, फ्लोटिंग रेट सिस्टम में राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय वित्तीय मदद के पैकेज मोटा-मोटी तब तक बेअसर साबित होते हैं, जब तक वो न्यूनतम टैक्स की दरों को कम नहीं करते या फिर उनका इस्तेमाल मूलभूत ढांचे के उत्पादक निर्माण में नहीं किया जाता. इसी अध्ययन में ये पाया गया था कि ऑस्ट्रेलिया ने 2008 के वित्तीय संकट से ख़ुद को इसलिए बचाने में कामयाबी हासिल की थी, क्योंकि उसने ब्याज दरों में कटौती की. जिससे पूंजी का प्रवाह बढ़ा और एक्सचेंज रेट में गिरावट आई, जिससे ऑस्ट्रेलिया को विश्व बाज़ार में मुक़ाबला कर पाने में मदद मिली. निर्यात बढ़ने से घाटा नियंत्रण में रहा. घटी हुई दरों के चलते निजी निवेश को बढ़ावा मिला और लचीली श्रम नीति ने रोज़गार की दर को बढ़ावा दिया.

दो अलग अलग अध्ययनों, जॉन लुई मनालो, मार्क विलामिएल और एलोइसा डेला क्रुज़ की स्टडी, ‘मैक्रोइकॉनमिक डेटरमिनेंट्स ऑफ़ पब्लिक डेट इन फिलीपाइंस’ और नग्यूयेन वान बोन द्वारा किए गए अध्ययन, ‘द रिलेशनशिप बिटवीन पब्लिक डेट ऐंड इन्फ्लेशन इन डेवेलपिंग कंट्रीज़: एंपिरिकल एविडेंस बेस्ड ऑन डिफरेंस पैनल GMM’ में इस बात का अनुभव के आधार पर परीक्षण का गया कि सार्वजनिक क़र्ज़ जितना बढ़ता है उतना ही विदेशी निवेश घटता है. वहीं, जितनी महंगाई बढ़ती है उतना ही खुले व्यापार में कमी आती है. इसलिए आज दुनिया के सामने जो बड़ी आर्थिक चुनौतियां खड़ी हैं उनसे निपटने के लिए विश्व स्तर पर तालमेल और तजुर्बे पर आधारित आर्थिक नीति की ज़रूरत है.

भविष्य की राह

इंडोनेशिया के अध्यक्ष रहने के दौरान G20 ने जिस वित्तीय रास्ते को अपनाया है, उसकी समीक्षा से पता चलता है कि व्यापक आर्थिक नीति हर देश की अपनी महंगाई दर की स्थिति और उससे उबरने के स्तर के हिसाब से अलग अलग होनी चाहिए. बहुत से देशों की श्रम नीतियां बहुत सख़्त और महंगाई दर का अंदाज़ा बहुत ऊंचा होता है. ऐसे देशों को सख़्त मौद्रिक नीति अपनानी चाहिए. जिन अर्थव्यवस्थाओं में श्रमिक नीतियां नरम हों और महंगाई से निपटने की क्षमता भी अच्छी हो, वो धीरे-धीरे क़दम उठा सकते हैं. आख़िर में, चीन जैसी जिन अर्थव्यवस्थाओं को ये डर हो कि आर्थिक गतिविधियां कम होने से अधिक नुक़सान हो सकता है, उन्हें नरम मौद्रिक नीति अपनाना चाहिए.

बहुत से देशों की श्रम नीतियां बहुत सख़्त और महंगाई दर का अंदाज़ा बहुत ऊंचा होता है. ऐसे देशों को सख़्त मौद्रिक नीति अपनानी चाहिए. जिन अर्थव्यवस्थाओं में श्रमिक नीतियां नरम हों और महंगाई से निपटने की क्षमता भी अच्छी हो, वो धीरे-धीरे क़दम उठा सकते हैं.

जहां तक वित्तीय नीति का सवाल है, तो जिन देशों की उबरने की रफ़्तार धीमी और GDP के अनुपात में सरकारी क़र्ज़ ज़्यादा है, वहां पर वित्तीय सख़्ती यानी ख़र्च रोकने के क़दम उठाने बेहद ज़रूरी हो जाते हैं. इसके लिए प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के लिए लक्ष्य आधारित मदद वाले बजट आवंटन और सही लक्ष्य के मुताबिक़ न दी जाने वाली सब्सिडी को घटाने की ज़रूरत होती है. जो अर्थव्यवस्थाएं संकट से उबर रही हैं उन्हें वित्तीय पैकेज ख़त्म कर देने चाहिए. इसके अलावा जैसा कि नोट में कहा गया है कि ‘विकास बढ़ाने वाले सुधार जो संसाधनों को विकसित हो रहे क्षेत्रों में आवंटित करके संकट से उबरने की गति तेज़ कर सकते हैं’. शिक्षा, महिला श्रमिकों की अर्थव्यवस्था में भागीदारी नई कंपनियों के कारोबार शुरू करने को आसान बनाने और उन्हें व्यापार मदद करने जैसे क़दम महामारी के बुरे असर और नुक़सान को कम कर सकते हैं.

इस मामले में भारत की G20 अध्यक्षता के सामने संतुलन बनाने की भारी चुनौती होगी. भारत को जिन क्षेत्रों को प्राथमिकता देनी चाहिए उनमें सरकारों पर क़र्ज़ के बढ़ते बोझ और महंगाई से निपटने के साथ साथ, स्वास्थ्य, डिजिटल परिवर्तन, हरित बदलाव और कुल मिलाकर व्यापक आर्थिक तालमेल के इंडोनेशिया वाले एजेंडे को आगे बढ़ाना शामिल है. कोई फौरी नज़रिया अपनाने के बजाय, भारत की अध्यक्षता में G20 को एक ऐसा दूरगामी, सुधारवादी और संरचनात्मक रवैया अपनाना चाहिए, जिसका सुझाव G20 के सर्विलांस नोट में दिया गया है.

डिजिटल परिवर्तन और हरित बदलाव के लिए किए गए वादे के मुताबिक़ हर साल 100 अरब डॉलर की रक़म जुटाने के लिए बहुपक्षीय विकास बैंकों (MDBs), केंद्रीय बैंकों और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना बहुत ज़रूरी है. ‘बहुपक्षीय विकास बैंकों की निवेश क्षमता बढ़ाना’ नाम की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि बहुपक्षीय विकास बैंकों का प्रभाव बढ़ाने के लिए पांच क्षेत्रों में सुधार लाया जाना चाहिए. रिपोर्ट में कहा गया है कि जोखिम सहने की क्षमता, वापसी की अधिक संभावना वाले क्षेत्रों को अधिक क़र्ज़ देने, क़र्ज़ के जोखिमों को इच्छुक लोगों के हवाले करने जैसे नए वित्तीय क़दमों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने और विकास संबंधी वित्त की ज़रूरत पूरी करने के लिए वित्तीय बाज़ारों को स्रोत के तौर पर विकसित करने जैसे उपाय करने की ज़रूरत है. इसके अलावा रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा बहुपक्षीय विकास बैंकों की वित्तीय ताक़त के मूल्यांकन और रेटिंग एजेंसियों और भागीदारों को MDB के डेटा तक पहुंच देने जैसे क़दम भी उठाए जाने चाहिए. डेटा की उपलब्धता बढ़ाने से बहुपक्षीय विकास बैंकों की पूंजी का बेहतर मूल्यांकन हो सकेगा और उनके वित्तीय मॉडल को भी बेहतर बनाया जा सकेगा. बहुपक्षीय विकास बैंकों की निवेश की क्षमता बढ़ाने से ज़रूरत के क्षेत्रों के लिए अधिक पूंजी जुटाई जा सकेगी और कम आमदनी वाले देशों पर से कुछ दबाव भी कम हो सकेगा.

कोई फौरी नज़रिया अपनाने के बजाय, भारत की अध्यक्षता में G20 को एक ऐसा दूरगामी, सुधारवादी और संरचनात्मक रवैया अपनाना चाहिए, जिसका सुझाव G20 के सर्विलांस नोट में दिया गया है.

इससे भी अहम बात ये है कि महामारी के दो साल से ज़्यादा वक़्त बीत जाने के बाद भी दुनिया की 30 फ़ीसद से ज़्यादा आबादी को अब तक कोरोना का टीका नहीं लग सका है. टीकाकरण के मामले में अफ्रीकी देश सबसे पीछे हैं, जिससे दुनिया में भारी असमानता की तल्ख़ हक़ीक़त उजागर होती है. ये विकसित देशों की नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से पैसे लेने के अपने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करके ग़रीब देशों को टीके उपलब्ध कराएं. इसके अलावा, G20 की अपनी अध्यक्षता के दौरान भारत को चाहिए कि वो विश्व व्यापार संगठन जैसे सर्वोच्च संगठनों में व्यापार और निवेश संबंधी पाबंदियां हटाने के लिए पुरज़ोर कोशिश करे. ज़्यादा व्यापार और निवेश से महंगाई भी काबू में रहेगी और सार्वजनिक क़र्ज़ भी. आख़िर में सबसे अहम तो ये है कि आपसी तालमेल वाली एक ऐसी पारदर्शी मौद्रिक नीति अपनाने की ज़रूरत है, जिससे दुनिया का तेज़ गति से विकास हो न कि केवल महंगाई की फौरी चुनौती से निपटने के प्रयास ही किए जाएं. इन क़दमों से उभरती हुई और सबसे कम विकसित अर्थव्यवस्थाओं को क़र्ज़ लेने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और सरकारों पर क़र्ज़ का बोझ भी क़ाबू में रहेगा.

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