Published on Feb 08, 2022 Updated 0 Hours ago

जैसा कि केंद्रीय बज़ट अगले 25 वर्षों के लिए विकास का मार्ग प्रशस्त करने वाला है, उपभोग की मांग में गिरावट अभी भी एक चिंता का विषय है. 

भारत का ‘अमृत काल’: 2022 के बजट का सतत् विकास के लिए दृष्टिकोण

भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 में वित्त वर्ष 2022-23 के लिए 8-8.5 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान है जो कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के 9 प्रतिशत वार्षिक विकास दर के अधिक महत्वाकांक्षी पूर्वानुमानों से काफी कम है. इसके बाद भी कि सरकार यह स्वीकार करती है कि वृद्धि दर का यह आंकड़ा कई मान्यताओं पर टिका है जैसे कि भविष्य में कोई बड़ी महामारी- आर्थिक विकास को बाधित नहीं करेगी, अच्छा मानसून बना रहेगा, बढ़ती मुद्रास्फीति दबावों के बीच वैश्विक तरलता (अगर है तो) की वापसी नहीं होगी, ईंधन की कीमतें स्थिर रहेंगी और वैश्विक अनिश्चितताओं में कमी आएगी. वित्त वर्ष 2021-22 के लिए आगे के अनुमान राष्ट्रीय आय (वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद के संदर्भ में) में महामारी से पहले के स्तर तक पूरी तरह से वापसी कर लेने का संकेत देते हैं. इस पृष्ठभूमि के तहत, केंद्रीय बज़ट 2022 भारतीय अर्थव्यवस्था के अगले 25 वर्षों के लिए एक विकास का रास्ता तैयार करता है जिसे भारत का ‘अमृत काल’ कहा जाता है. चार प्रमुख स्तंभोंसमावेशी विकास, उत्पादकता में बढ़ोतरी, ऊर्जा बदलाव और जलवायु संबंधी कार्रवाई, निजी और सार्वजनिक निवेश – पर आधारित इस वर्ष का बज़ट सतत विकास एजेंडा 2030 के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को फिर से स्थापित करने की कोशिश करता है, जो मुख्य रूप से तकनीक द्वारा निर्धारित है.

समावेशी विकास, उत्पादकता में बढ़ोतरी, ऊर्जा बदलाव और जलवायु संबंधी कार्रवाई, निजी और सार्वजनिक निवेश – पर आधारित इस वर्ष का बज़ट सतत विकास एजेंडा 2030 के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को फिर से स्थापित करने की कोशिश करता है, जो मुख्य रूप से तकनीक द्वारा निर्धारित है.

भारत के लिए समग्र विकास एजेंडा@100

सरकार ने कुछ बड़े कदम उठाने का वादा किया है, जैसा कि 2022 के केंद्रीय बज़ट की शुरूआत में बताया गया है. यह बड़े पैमाने पर बुनियादी ढ़ांचे के विकास, लॉजिस्टिक क्षमता बढ़ाने और बिना रोक-टोक के कनेक्टिविटी की वकालत करने वाले पीएम गतिशक्ति जैसे कार्यक्रमों को अधिक प्रोत्साहन दिए जाने से जुड़ा है. इस योजना के तहत राष्ट्रीय मास्टर प्लान विकास के सभी सातों इंजनों को नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन के तहत शामिल कर उत्पादकता को बढ़ाने और लंबे समय में आर्थिक विकास पैदा करने की कोशिश करता है. इसने डिज़िटल रुपए की शुरुआत और पेश करने की मंशा ज़ाहिर की है – सेंट्रल बैंक डिज़िटल करेंसी (सीबीडीसी) – जिसमें ब्लॉकचेन तकनीक का इस्तेमाल किया जाना है, जिससे कि करेंसी प्रबंधन व्यवस्था से जुड़ी हुई लागत को कम किया जा सके और इसकी दक्षता बढ़ाई जा सके.

इस बज़ट दस्तावेज़ में कृषि क्षेत्र में समावेशी विकास के दृष्टिकोण को भी रेखांकित किया गया है, जो ग्रामीण स्टार्टअप को फ़ंड मुहैया कराने के सह-निवेश मॉडल द्वारा समर्थित है; शहरों के विकास जिसमें टियर 2 और टियर 3 शहरों के विकास पर ध्यान दिया गया है; क्रेडिट सुविधा और कौशल विकास सुनिश्चित करने के लिए उद्योग, ई-श्रम आदि जैसे प्रमुख मंचों को आपस में जोड़ना; शिक्षा और स्वास्थ्य की सर्वसुलभता –  जिसमें मानसिक स्वास्थ्य पर ख़ास फ़ोकस हो – और  इन्हें डिज़िटल अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनाया जा सके, इस पर ध्यान दिया गया है. इस बजट में पर्यावरण संबंधी कार्रवाई और ऊर्जा बदलावों की कोशिशों के लिए भी आवंटन किया गया है, जिसे सोलर पीवी मॉड्यूल को प्रोत्साहन देकर, कार्बन शून्य अर्थव्यवस्था की तरफ बदलाव करने के साथ सर्कुलर अर्थव्यवस्था के लिए व्यापार के मौके पैदा कर साकार किया जा रहा है.

इस बजट में पर्यावरण संबंधी कार्रवाई और ऊर्जा बदलावों की कोशिशों के लिए भी आवंटन किया गया है, जिसे सोलर पीवी मॉड्यूल को प्रोत्साहन देकर, कार्बन शून्य अर्थव्यवस्था की तरफ बदलाव करने के साथ सर्कुलर अर्थव्यवस्था के लिए व्यापार के मौके पैदा कर साकार किया जा रहा है.

हालांकि, ये सभी स्वागत योग्य कदम हैं लेकिन सरकार को अंतर्निहित ट्रेड-ऑफ़ और चुनौतियों को संतुलित करने के लिए सावधानी से कदम बढ़ाना होगा. इसके साथ ही यह निश्चित रूप से एक सवाल भी पैदा करता है – क्या हम कोरोना महामारी की आर्थिक बाधाओं से अब पूरी तरह उबर चुके हैं?  अगर नहीं, तो क्या सरकार द्वारा उठाए गए नए कदम इन चुनौतियों के बीच प्रस्तावित विकास के एजेंडे को आगे बढ़ा पाएंगे? क्या ऐसी कोई कड़ियाँ हैं जो विकास के रास्ते में आगे बढ़ने के दौरान सरकार को उसका सामना करना होगा?

लड़खड़ाती उपभोग की मांग-  वित्तीय ‘एनिमल स्पिरिट’ की दरकार

कई सालों में देखे गए सबसे ख़राब दौर से अब भारतीय अर्थव्यवस्था उबर चुकी है. फिर भी इस मंदी का काराण कोरोना महामारी को अकेले देना गलत होगा. करोना महामारी से पहले भारत की विकास दर 3.7 प्रतिशत थी , जो 2016-17 की 8.2 प्रतिशत की दर से काफी कम है. जैसा कि कई अर्थशास्त्रियों ने भी माना है, देश में निजी अंतिम उपभोग मांग वृद्धि में निरंतर हो रही गिरावट ही आर्थिक मंदी के पीछे की सबसे बड़ी वजह है. आरबीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार, निजी अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई) 2021-22 में 9.4 प्रतिशत की दर से बढ़ा, जो मुख्य रूप से रुकी हुई बाज़ार की मांग में आई तेजी के बाद ही संभव हो सका. हालांकि यह अभी तक कोरोना महामारी से पहले के स्तर तक नहीं पहुंच पाया है. जबकि बाज़ार की अपर्याप्त मांग, बदले में व्यापार आय और जनता के रोजगार पर सीधा असर डालती है. यह निम्न-आय स्तरों और बाज़ार की मांग में ज़्यादा गिरावट के ज़रिए संकट को और बढ़ावा देता है.

पिछला बज़ट मांग के इस संकट को कम करने के लिए सीधे आय के स्तर को बढ़ाने में अहम भूमिका निभा सकता था. इसके बजाय, इसने इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश के ज़रिए आपूर्ति की कमियों को संबोधित करने पर ध्यान दिया और स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा दोनों क्षेत्रों में प्राथमिकता निर्धारण करने में नाकाम रहा, जिसे दुनिया भर की सरकार परंपरागत तौर पर मंदी और मुद्रास्फीति से निपटने के लिए लक्षित करती है. 2021 का केंद्रीय बज़ट आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए एक टॉप-डाउन दृष्टिकोण था – जिसमें अधिक श्रम-केंद्रित कृषि क्षेत्र के बजाए, औद्योगिक क्षेत्र पर फ़ोकस किया गया था. आज भारतीय अर्थव्यवस्था एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी है- और एक साथ सापेक्षिक आर्थिक मंदी और मुद्रास्फीति के दबावों से निपटने की कोशिश कर रही है. साल 2022-23 में निजी उपभोग की मांग में 7.2 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी का अनुमान है, जो कृषि और बुनियादी ढांचे जैसे रोज़गारपरक क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश के बाद ही संभव है. इसके अलावा 2022 के केंद्रीय बज़ट ने प्रयोग में लाई जा सकने वाली आय के स्तर को बढ़ाने और रोज़गार सृजन के लिए निजी निवेश करने के लिए कॉर्पोरेट्स और सहकारी समितियों को प्रोत्साहित करने के लिए डाइरेक्ट टैक्स में कई तरह की रियायतें दी हैं. विकलांग लोगों के माता-पिता को ख़ास तौर पर कर में रियायतें दी गई हैं. सहकारी समितियों के लिए भी कर में कटौती की घोषणा की गई: सहकारी समितियों द्वारा भुगतान की जाने वाली वैकल्पिक न्यूनतम कर की दर को भी पिछले 18.5 प्रतिशत से घटाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया है.

पिछला बज़ट मांग के इस संकट को कम करने के लिए सीधे आय के स्तर को बढ़ाने में अहम भूमिका निभा सकता था. इसके बजाय, इसने इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश के ज़रिए आपूर्ति की कमियों को संबोधित करने पर ध्यान दिया और स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा दोनों क्षेत्रों में प्राथमिकता निर्धारण करने में नाकाम रहा

वित्त मंत्री ने प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव्स (पीएलआई) योजना की सफलता की काफी तारीफ़ की है – ‘जिसमें ‘आत्मनिर्भर भारत’ की दृष्टि को साकार करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए – रोज़गार सृजन की इसकी क्षमता पर प्रकाश डाला है.  इसमें अगले पांच वर्षों में 6 मिलियन नई नौकरियों को जोड़ने का अनुमान लगाया गया है. क्रेडिट गारंटी फ़ंड ट्रस्ट फ़ॉर माइक्रो एंड स्माल इंटरप्राइजेज़ (सीजीटीएमएसई) जिसे साल 2000 में संयुक्त रूप से एमएसएमई मंत्रालय और सिडबी द्वारा स्थापित किया गया, जिससे सूक्ष्म और लघु उद्योगों (एमएसई) में संस्थागत ऋण के प्रवाह को बढ़ावा दिया जा सके. इसे लेकर कहा जा रहा है कि इसमें बदलाव किए गए हैं, वित्त मंत्री के मुताबिक़ “इसके तहत सूक्ष्म और लघु उद्यमों को 2 ट्रिलियन के अतिरिक्त ऋण की सुविधा और रोज़गार के अवसरों का विस्तार करना लक्ष्य रखा गया है”. दूसरी ओर, मनरेगा के लिए बज़टीय आवंटन में पिछले वर्ष के 980 बिलियन रुपए से घटाकर 730 बिलियन रुपए कर दिया गया है. इसके साथ ही, वित्त वर्ष 2021-22 के लिए आयकर स्लैब में कोई बदलाव की घोषणा नहीं की गई है. एकमात्र राहत यह है कि करदाता, घोषणा के दो साल के भीतर अपना आयकर रिटर्न (आईटीआर) दाख़िल कर सकेंगे. मुद्रास्फीति के मौजूदा स्तर को देखते हुए मानक कटौती (स्टैंडर्ड डिडक्शन) में भी कोई बढ़ोतरी नहीं की गई.

क्या ये उपाय काफी हैं?

हालांकि बज़ट में पूंजीगत व्यय में संभावित वृद्धि का प्रावधान किया गया है लेकिन यह अकेले मांग को प्रोत्साहित करने में मदद नहीं करेगा और तो और पीएलआई योजना और संशोधित सीजीटीएमएसई आपूर्ति पक्ष को लेकर सबसे बड़ी रुकावट है.  हालांकि इन घोषणाओं का स्वागत है फिर भी इस पर कोई स्पष्टता या आश्वासन नहीं दिया गया है कि इससे रोज़गार कैसे पैदा होंगे. यहां तक कि सहकारी समितियों के लिए कर में रियायतें एमएसएमई के वित्तीय समावेशन को लेकर  एक सही कदम है, जो लंबे समय में दक्षता और हिस्सेदारी के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अहम है.

हालांकि, इन उपायों को बाज़ार की मांग को बढ़ाने के लिए और तेजी से बढ़ावा दिया जाना चाहिए. यह जानते हुए कि कोरोना महामारी ने बड़े पैमाने पर नौकरियों को ख़त्म कर दिया है, ऐसे में कमज़ोर तबका मौजूदा समय में अपनी सीमित आय को वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करने में ख़र्च कर रही है. इसके चलते पर्याप्त आपूर्ति के बावजूद उपभोग की मांग में धीमी गति से तेजी आई है. इस मामले में, रोज़गार सृजन कार्यक्रम का प्रभाव तत्काल राहत प्रदान कर सकता है. मनरेगा के बज़टीय आवंटन में बढ़ोतरी और शहरी क्षेत्रों में इसके विस्तार से निश्चित रोज़गार के मौके तो पैदा किए ही जा सकते थे.

मौजूदा मुद्रास्फीति जनित मंदी से निपटने और नई/अपडेटेड योजनाओं के प्रभावी कार्यान्वयन का समर्थन करने के लिए, निजी आख़िरी ख़पत को पर्याप्त रूप से बढ़ावा देने के लिए मज़बूत छोटे से लेकर मध्यम उपायों की सबसे ज़्यादा आवश्यकता है.

इसके साथ ही, मध्यम और निम्न-आय वाले समूहों के लिए कर में कटौती से उन लोगों की इस्तेमाल में लाई जा सकने वाली आय में बढ़ोतरी हो सकती है जो स्वेच्छा से अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा उपभोग की ज़रूरतों पर ख़र्च करते हैं, जबकि ऐसे लोगों के मुकाबले धनी लोग उपभोग की आवश्यकताओं पर ज़्यादा ख़र्च नहीं करते. यह विशेष रूप से एमएसएमई क्षेत्र में कारोबारी भावनाओं को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम की कामयाबी के लिए अहम है. इस वर्ग के लोगों के लिए आय का स्तर बढ़ाना एमएसएमई क्षेत्र के उत्पादों के लिए बाज़ार की मांग को सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीक़ा हो सकता है.

इस प्रकार, पहले चर्चा किए गए चार स्तंभों पर विचार करने का फायदा लंबे समय में ही मिल सकेगा. हालांकि, मौजूदा मुद्रास्फीति जनित मंदी से निपटने और नई/अपडेटेड योजनाओं के प्रभावी कार्यान्वयन का समर्थन करने के लिए, निजी आख़िरी ख़पत को पर्याप्त रूप से बढ़ावा देने के लिए मज़बूत छोटे से लेकर मध्यम उपायों की सबसे ज़्यादा आवश्यकता है. फिर भी लोगों के हाथों में सीधा पैसा डालने का सबसे प्रभावी तरीका प्रत्यक्ष रोज़गार स्कीम जैसे मनरेगा या मध्यम वर्ग के लिए आयकर छूट जैसी योजनाएं ही हो सकती हैं.


लेखक इस लेख पर अपने शोध इनपुट के लिए एनएलएसआईयू बैंगलोर में डेबोरा सुआरेस का आभार व्यक्त करते हैं.

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