Published on Aug 19, 2022 Updated 0 Hours ago

हाल के दौर में इसकी इज़्ज़त में कमी भले आई हो, मगर आज भी भारत की संसद लोकतंत्र की गहरी होती जड़ों का आईना बनी हुई है.

क्या भारतीय संसद पिछले 75 सालों में दी गई हर परीक्षा में उत्तीर्ण हुई है?

ये लेख हमारी सीरीज़, इंडिया @75: एसेसिंग की इंस्टीट्यूशंस ऑफ इंडियन डेमोक्रेसी का एक हिस्सा है.


आज की भारतीय संसद उस संस्था के दौर से बहुत अलग है, जब जवाहर लाल नेहरू ने 1947 में, ‘नियति से वादा’ वाला ऐतिहासिक भाषण दिया था. नेहरू के भाषण के लगभग साठ बरस बाद 2008 में उसी भारतीय संसद के भीतर उसके तीन सदस्यों ने एक अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के दौरान नोटों के बंडल लहराए थे, और आरोप लगाया था कि उन्हें सरकार के पक्ष में वोट करने के लिए रिश्वत दी गई है. 1950 के दशक में भारत की संसद उन तमाम देशों के लिए एक मिसाल मानी जाती थी, जिन्होंने हाल ही में ग़ुलामी से छुटकारा पाया था. भारत में पहले आम चुनाव के कुछ ही दिनों बाद 1952 में मैनचेस्टर गार्जियन ने टिप्पणी की थी कि, ‘एशिया में संसदीय लोकतंत्र के लिए वक़्त बहुत अच्छा नहीं रहा है… आज एशिया में जो कुछ भी हो रहा है, उससे दिल्ली में स्थित संसद पर और भी ध्यान केंद्रित हो जाता है. क्योंकि ये अपने तरह की एक ऐसी संस्था है जिसका काम-काज एक शानदार उदाहरण है’. ब्रिटेन के राजनीतिक वैज्ञानिक डब्ल्यू. एच. मॉरिस- जोंस ने 1950 के दशक में प्रकाशित, संसद के अपने अध्ययन में ये कहते हुए निष्कर्ष निकाला था कि, ‘भारतीय संसद की दास्तान यक़ीनी तौर पर एक कामयाबी की कहानी है’. हालांकि, आज उनके नज़रिए शायद मुट्ठी भर लोग ही इत्तिफ़ाक़ रखते होंगे. आज संसद की कार्यवाही में हंगामे के चलते बाधा पड़ना आम बात हो गई है. हाल के वर्षों में संसद के काम-काज के समय और उसके द्वारा पारित किए जाने वाले विधेयकों की तादाद, दोनों में बहुत गिरावट आई है. यही हाल संसद में होने वाली बहस और इसकी समितियों द्वारा की जाने वाली समीक्षा का है.

आज की संसद में भारत के समाज के हर तबक़े की नुमाइंदगी बढ़ी है. इसकी एक वजह अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण भी है. संसद में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व बढ़ने की एक वजह देश में लोकतंत्र की जड़ों का लगातार मज़बूत होना भी है.

वैसे, भारत की संसद की कहानी का एक शानदार पहलू इसका देश की पर्याप्त नुमाइंदगी कर पाना है. आज़ादी के बाद 1952 में देश की संसद में उन वकीलों का दबदबा था, जो आज़ादी के आंदोलन से जुड़े थे और स्वतंत्रता पूर्व की विधायी संस्थाओं में शामिल रहे थे. हालांकि, आज की संसद में भारत के समाज के हर तबक़े की नुमाइंदगी बढ़ी है. इसकी एक वजह अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण भी है. संसद में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व बढ़ने की एक वजह देश में लोकतंत्र की जड़ों का लगातार मज़बूत होना भी है. 1989 में मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर अन्य पिछड़ी जातियों (OBCs) के लिए आरक्षण लागू होने समेत इसके कई कारण हैं. हालांकि, संसद में इस विविधता के बढ़ने के साथ साथ, अल्पसंख्यक समुदायों और ख़ास तौर से मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम भी हुआ है. संसद में सियासी ख़ानदानों के लोगों की संख्या बढ़ी है और इसके साथ साथ आपराधिक रिकॉर्ड वाले और अमीर सांसदों की संख्या में भी इज़ाफ़ा हुआ है. वैसे तो संसद में महिलाओं की तादाद भी बढ़ी है, जो 2019 में रिकॉर्ड संख्या में संसद पहुंची थीं. लेकिन, दुनिया के मानकों के हिसाब से हमारी संसद में अभी भी महिलाओं की संख्या बहुत कम है.

इसके साथ साथ संसद की सियासी बनावट में भी काफ़ी परिवर्तन आ गया है. एक दौर में जहां संसद में कांग्रेस का दबदबा रहा करता था. वहीं, 1977 में पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनी और उसके बाद तो कई अल्पसंख्यक और गठबंधन सरकारों का गठन किया गया. देश की सियासत के एक दल के दबदबे वाली व्यवस्था से बहुदलीय व्यवस्था में तब्दील होने के बाद अब एक बार फिर देश में एक ही पार्टी के प्रभुत्व वाले दौर की शुरुआत हुई है. इन बदलावों ने संसद में नुमाइंदगी से लेकर संवाद तक में बुनियादी तब्दीली लाने का काम किया है.

संसदीय समितियों की व्यवस्था की अहमियत

भारत की संसद को लेकर उम्मीद की एक और वजह, इसकी संसदीय समितियों के काम-काज से बनती है. संसदीय समितियां बहुत शुरुआत से ही संसद का हिस्सा रही हैं. 1990 के दशक के बाद से तो इनकी महत्ता और भी बढ़ गई है. वैसे तो संसद के काम-काज का ज़्यादातर विश्लेषण सदन के भीतर होने वाली कार्यवाही के आधार पर किया जाता है. लेकिन संसद का अहम विधायी काम असल में संसदीय समितियों में होता है. वित्तीय समितियों के अलावा, अब तमाम विभागों से जुड़ी संसद की 24 स्थायी समितियां (DRSCs) हैं. इनके अलावा अन्य स्थायी और अस्थायी संसदीय समितियां भी हैं. जिस तरह की विरोध वाली राजनीति की तस्वीर हम सदन के भीतर देखते हैं, उसके ठीक उलट संसदीय समितियों में सभी दलों के सांसद शामिल होते हैं. उनसे ये उम्मीद की जाती है कि वो पार्टी लाइन के उलट जाकर तालमेल के साथ काम करें. इसके अलावा, राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों की जांच के लिए गठित, संयुक्त संसदीय समितियों (JPCs) के कारण, संसद की समिति व्यवस्था का काम-काज और भी जनता की नज़रों में आ गया है. तफ़्तीश के लिए संसदीय समितियों के गठन का चलन 1987 में बोफोर्स घोटाले की पड़ताल के लिए बनाई गई संसदीय समिति से शुरु हुआ था. इसकी एक और मिसाल, 2G स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाले की जांच के लिए बनी संयुक्त संसदीय समिति (JPC) है. जिसके बारे में ये माना जाता है कि वो भारत में भ्रष्टाचार के सबसे बड़े घोटालों में से एक था. हालांकि, संसदीय समितियों के काम-काज, उनकी पारदर्शिता और कुशलता को लेकर सवाल तो अभी भी बने हुए हैं.

भारत की संसद को लेकर उम्मीद की एक और वजह, इसकी संसदीय समितियों के काम-काज से बनती है. संसदीय समितियां बहुत शुरुआत से ही संसद का हिस्सा रही हैं. 1990 के दशक के बाद से तो इनकी महत्ता और भी बढ़ गई है.

मौजूदा दशक की चुनौतियां

हालांकि, 1980 के दशक से ही संसद के भीतर कार्यवाही में ख़लल, हंगामे और विरोध प्रदर्शन बढ़ गए हैं. इसकी वजह से संसद के क़ायदों में भी बदलाव देखने को मिल रहा है. वैसे तो बहुत से जानकार कार्यवाही में बाधा डालने और हंगामे की इन घटनाओं को अकुशल और काम-काज में नाकाम संसद की मिसाल बताया है. लेकिन, हमें संसद की कार्यवाही में पड़ रही इन बाधाओं को उसके बदलते सामाजिक और सियासी प्रतिनिधित्व के हवाले से भी देखा जा सकता है. 2006 से संसद की पूरी कार्यवाही के सीधे प्रसारण के चलते भी हंगामों में इज़ाफ़ा हुआ है. क्योंकि इससे सभी दलों को सीधे जनता सामने ये दिखाने का मौक़ा मिलता है कि वो संसद के भीतर कितने सक्रिय हैं और उनके मुद्दों को लेकर शोर मचा रहे हैं. सदन के भीतर विरोध प्रदर्शनों के साथ सांसदों का हंगामे वाला बर्ताव शायद आम लोगों और सामंतवादी वर्गों के बीच टकराव की भी मिसाल है. इसने ब्रिटिश संसद के रिवाजों को नीचा दिखाया है. ये हंगामे और विरोध प्रदर्शन, सड़क की सियासत और राजनीतिक मंच के संसद तक पहुंच बनाने का भी प्रतीक हैं. इनके चलते अक्सर संसद की परिचर्चाओं और विधायी कार्यों पर बुरा असर पड़ा है.

इसके अलावा सियासी तबक़े में जिस तरह से आपराधिक पृष्ठभूमि और भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, वो भी संसद की वैधानिकता और जवाबदेही के सामने बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं. संसद सदस्यों पर भ्रष्टाचार के आरोप तो 1951 की अस्थायी संसद के दौर से ही लगते रहे हैं, जब एक सदस्य एच. जी. मुद्गल पर आरोप लगे थे कि वो संसद में सवाल पूछने और संशोधन प्रस्ताव लाने के लिए पैसे ले रहे थे. बहुत साल बाद 2008 के नोट के बदले वोट कांड ने भी सांसदों के बर्ताव और उनकी जवाबदेही पर सवालिया निशान लगाए थे. इससे ये सवाल भी उठा कि क्या सांसदों को मिले विशेषाधिकार उनकी जवाबदेही तय करने की राह में रोड़े बनने लगे हैं और कहीं सांसदों के विशेषाधिकारों की रक्षा करने के लिए बनाए गए संस्थागत उपायों का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा है.

संसद की एक और परेशान करने वाली बात बड़ी संख्या में सांसदों के ख़िलाफ़ दर्ज आपराधिक मामलों की बढ़ती तादाद है. 17वीं लोकसभा के कम से कम 43 प्रतिशत सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक केस लंबित थे. इसके चलते सुप्रीम कोर्ट को ये कहने के लिए मजबूर होना पड़ा था कि, ‘आज तो क़ानून तोड़ने वाले ही क़ानून निर्माता बन गए हैं’. ये तो जनहित याचिकाएं हैं, जिनके ज़रिए अदालतों ने एक से ज़्यादा बार, चुनाव के उम्मीदवारों की योग्यता और उनके लिए पारदर्शिता का स्तर तय करने को लेकर फ़ैसले दिए हैं. इन बातों के चलते राजनेताओं के ख़िलाफ़ माहौल बना है. नागरिक समूहों के कार्यकर्ताओं जैसे कि अन्ना हजारे ने जनता के बीच नेताओं के ख़िलाफ़ फैली ऐसी ही भावनाओं का लाभ उठाकर, भ्रष्टाचार निरोध के लिए लोकपाल के लिए कामयाबी से आंदोलन चलाया. जबकि लोकपाल की नियुक्ति का पहला प्रस्ताव 1960 के दशक में ही आया था. जनता के प्रतिनिधि होने की नैतिकता या ‘भ्रष्टाचार’ का एक मुद्दा, दल बदल और 1985 के दल-बदल निरोध क़ानून के असर का है. भ्रष्टाचार को लेकर लगातार जारी इस परिचर्चा से संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव की भूमिका भी तैयार होती है- जो भारतीय राजनीति का एक स्थायी मुद्दा बन चुका है.

निष्कर्ष

पिछले 75 वर्षों के दौरान, जनता के बीच बढ़ती अलोकप्रियता के बाद भी, भारत की संसद के नाम कई उपलब्धियां दर्ज हुई हैं. संसद, देश में लोकतंत्र की गहरी होती जड़ों की नुमाइंदगी करती है और इसका असर उसके काम-काज पर भी पड़ता है. हालांकि इसके चलते ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था और आज़ादी के बाद संविधान सभा द्वारा चुनी गई प्रक्रियाओं को बिल्कुल ही नए सिरे से ढाल दिया है. इसके साथ साथ संसद, नए क़ानूनों पर चर्चा करने, उन्हें बनाने और सरकार की जवाबदेही और पारदर्शिता तय करने जैसी देश की उम्मीदों पर बहुत मामूली स्तर पर ही खरी उतर पायी है.

हाल के वर्षों में जहां संसद की उत्पादकता में इज़ाफ़ा हुआ है, वहीं इसके सामने कई चुनौतियां भी खड़ी हैं. संसदीय परंपरा के पतन के कुछ संकेत इस तरह से हैं; संसदीय समितियों को विश्लेषण के लिए भेजे जाने वाले विधेयकों की तादाद में लगातार कमी आ रही है; विपक्ष के लिए गुंजाइश कम होती जा रही है; सरकार क़ानून लागू करने के लिए अध्यादेश का सहारा ज़्यादा लेने लगी है; और कई अहम मामलों में संसद की पूरी तरह से अनदेखी की जा रही है.

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