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Published on Sep 10, 2025 Updated 13 Days ago

मलक्का जलडमरूमध्य को पार करने की चीन की सारी कोशिशें नाकाम हो गई है. ऐसे में अब वो हिंद महासागर के कमज़ोर अवरोधक बिंदुओं पर और ज़्यादा निर्भर हो गया है.

मलक्का दुविधा और हिंद महासागर: चीन की बढ़ती निर्भरता और नौसैनिक विस्तार

हिंद महासागर के संकरे समुद्री रास्ते लंबे समय से चीन के व्यापार की जीवनरेखा रहे हैं, और साथ ही ये उसकी रणनीतिक कमज़ोरी के स्रोत भी रहे हैं, विशेषरूप से मलक्का जलडमरूमध्य. इन अवरोधक बिंदुओं पर कोई भी व्यवधान चीनी अर्थव्यवस्था को गहरा झटका दे सकता है, फिर चाहे वो संघर्ष हो, समुद्री डकैती या भू-राजनीतिक उथल-पुथल. चीन ने खुद 2003 में इस ज़ोखिम को स्वीकार किया था और इसे 'मलक्का दुविधा' नाम दिया था. तब से, इस दुविधा ने हिंद महासागर में चीन के विस्तारवादी रुख को आकार दिया है. इस ख़तरे को कम करने के लिए, चीन ने कई विकल्प अपनाए हैं, फिर भी मूल सवाल अभी भी अनसुलझे हैं. क्या पिछले दो दशकों में बीजिंग की इन अवरोधक बिंदुओं पर निर्भरता कम हुई है या गहरी हुई है? क्या यही कमज़ोरी हिंद महासागर में चीन की बढ़ती नौसैनिक उपस्थिति और पूरे क्षेत्र में सैन्य पैर जमाने की उसकी कोशिश के पीछे की वजह है? और सबसे बड़ा सवाल, चीन की नागरिक और सैन्य पहल किस हद तक इस दुविधा की रणनीतिक चिंता से प्रेरित है?

मलक्का जलसंधि पर निर्भरता: 2010 बनाम 2024

सबसे पहले ये समझना ज़रूरी है कि जलडमरूमध्य या जलसंधि क्या है? दरअसल किसी भी समुद्र या महासागर में ज़मीनी क्षेत्र के बीच एक संकरा जलमार्ग होता है, इसे ही जलडमरूमध्य कहते हैं. 2000 के दशक की शुरुआत में, मलक्का जलडमरूमध्य पर चीन की निर्भरता बहुत ज़्यादा थी, क्योंकि 1993 में चीन एक शुद्ध ऊर्जा आयातक बन गया था. 2010 तक, जैसा कि चित्र 1 में दिखाया गया है, उसके ऊर्जा आयात का लगभग 77 प्रतिशत मलक्का जलसंधि से होकर गुज़रता था. चीन का अफ्रीका, मध्य पूर्व और यूरोप के साथ भी ज़्यादातर व्यापार इसी संकरे रास्ते से होता था, जिससे ये अमेरिकी नौसैनिक प्रभुत्व के लिए एक अहम रास्ता बन गया था. अमेरिका, भारत और ऑस्ट्रेलिया इस इलाके में मालाबार सैन्य अभ्यास के ज़रिए अपने नौसैनिक सहयोग का विस्तार करते थे. इससे भी चीन की बेचैनी और बढ़ गई. पहले ऑस्ट्रेलिया और उसके बाद भारत द्वारा क्वाड से हटने के बाद भी, इन देशों के बीच फिर से गठबंधन की संभावना बनी हुई है. इसने ये सुनिश्चित कर दिया है कि चोकपॉइंट की कमज़ोरियों को लेकर चीन को डर अभी बना रहेगा.

चित्र 1: चीन की मलक्का दुविधा का मानचित्र 2009

Indian Ocean Chokepoints Is China Still Vulnerable

स्रोत: डेनियल ब्रुटलाग


इसीलिए, चीन ने लगातार इस कमज़ोरी का मुकाबला करने के लिए रणनीति बनाने की कोशिश की. इसी का नतीजा है कि चीन नए समुद्री मार्ग खोज रहा है, जहां वो अपने शिप को मोड़ सके. दक्षिण पूर्व एशिया में सुंडा, लोम्बोक और ओम्बाई-वेटर जलडमरूमध्य के माध्यम से ज़्यादातर समुद्री यातायात को मोड़ने की कोशिश हो रही है. आर्कटिक में उत्तरी समुद्री मार्ग (एनएसआर) की खोज, रूस और मध्य एशिया से तेल और गैस पाइपलाइनों और यूरोप और एशिया के गंतव्यों के लिए ज़मीनी व्यापार मार्गों और रेलवे पटरियों की सहायता लेने की संभावना बढ़ गई है.

चीन ने लगातार इस कमज़ोरी का मुकाबला करने के लिए रणनीति बनाने की कोशिश की. इसी का नतीजा है कि चीन नए समुद्री मार्ग खोज रहा है, जहां वो अपने शिप को मोड़ सके. दक्षिण पूर्व एशिया में सुंडा, लोम्बोक और ओम्बाई-वेटर जलडमरूमध्य के माध्यम से ज़्यादातर समुद्री यातायात को मोड़ने की कोशिश हो रही है. 

इसके अलावा, चीन ने विदेशी तेल और गैस पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए जलविद्युत, परमाणु ऊर्जा, सौर ऊर्जा, बैटरी और स्वच्छ ऊर्जा के दूसरे माध्यमों में अरबों डॉलर का निवेश किया है. फिर भी, दो दशकों की कोशिशों के बावजूद दूसरे देशों पर ऊर्जा निर्भरता बनी हुई है, और ऊर्जा के लिए चीन की भूख बढ़ती जा रही है. 2024 में, चीन का ऊर्जा आयात बढ़कर 390 अरब डॉलर हो गया, और इसका करीब 80 प्रतिशत, यानी 312 अरब अमेरिकी डॉलर, मलक्का जलडमरूमध्य के रास्ते आया.

जैसे-जैसे चीन अपने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) इंजनों को शक्ति प्रदान करने के लिए विशाल डेटा केंद्र बना रहा है, वैसे-वैसे वो रोबोटिक्स, निर्माण सुविधाओं, सटीक निर्माण और प्रोसेसिंग पर फोकस कर रहा है. इसके लिए चीन महत्वपूर्ण खनिजों, रसायनों, प्लास्टिक, उर्वरकों, और अन्य ऊर्जा-गहन उद्योगों के उत्पादन पर दोगुना ज़ोर दे रहा है. ज़ाहिर है, इस सबके लिए बिजली चाहिए और बिजली की मांग बढ़ने से ऊर्जा आयात भी बढ़ेगा. घरेलू विकल्प बहुत कम राहत देते हैं: तारिम बेसिन में तेल निकालना बहुत महंगा है, जबकि रूसी पाइपलाइन से होने वाली आपूर्ति राष्ट्रीय खपत का सिर्फ छोटा सा हिस्सा ही पूरा कर पाती है. इसकी तुलना में, मध्य पूर्वी से कच्चे तेल का आयात कहीं अधिक सस्ता और ज़रूरी बना हुआ है. चीन का रणनीतिक पेट्रोलियम भंडार, जो लगभग 90 से ज़्यादा दिनों के लिए पर्याप्त है, भी इस समीकरण को मौलिक रूप से नहीं बदलता. ये भी इस वास्तविकता को रेखांकित करता है कि चीन की चरम ऊर्जा मांग अभी आगे आनी है, पीछे नहीं.

इसी तरह, इन अवरोध बिंदुओं के रास्ते पिछले दो दशकों में व्यापार तेज़ी से बढ़ा है. अफ्रीका, मध्य पूर्व और यूरोपीय संघ के साथ चीन का वस्तुओं का व्यापार बहुत व्यापक है, जैसा कि तालिका 1 में दर्शाया गया है. कुल मिलाकर, ऊर्जा और माल प्रवाह का यह संकेंद्रण हिंद महासागर के उन अवरोध बिंदुओं पर बीजिंग की गंभीर जोखिमपूर्ण निर्भरता को उजागर करता है, जिन पर उसकी निर्भरता टिकी हुई है.

तालिका 1: चीन का अफ्रीका, मध्य पूर्व और ईयू-27 के साथ वस्तुओं का व्यापार (2010–2024) (वाणिज्यिक व्यापार; निर्यात + आयात; अमेरिकी डॉलर में अरब)

Year

Africa

Middle East

EU-27

2010

106

210

710

2011

120

235

760

2012

135

255

790

2013

145

275

820

2014

150

290

840

2015

170

320

820

2016

165

305

800

2017

175

335

880

2018

185

380

980

2019

192

420

1,030

2020

176

360

920

2021

205

450

1,050

2022

230

507

1,140

2023

262

287

1,070

2024(Provisional)

275

400

1,100

Total Trade: 2024 – US$1,775 billion

स्रोत: लेखक

विकल्प क्या हैं?

मलक्का जलसंधि के अन्य निकटवर्ती जलडमरूमध्य, विशेष रूप से सुंडा, लोम्बोक और ओम्बाई-वेटार जलडमरूमध्य, वैकल्पिक मार्ग प्रदान करते हैं. हालांकि, सुंडा जलसंधि की कुछ सीमाएं हैं. इसके संकरे और उथले जलक्षेत्र, विशेष रूप से मध्य भाग में, नौवहन संबंधी कई ख़तरे हैं. रेत के टीले, तेज़ धाराएं और जावा द्वीप पर अपतटीय तेल कुओं जैसी मानव निर्मित बाधाओं की उपस्थिति के कारण, आमतौर पर 100,000 डेडवेट टनेज (डीडब्ल्यूटी) से अधिक वजन वाले बड़े जहाज सुंडा जलडमरूमध्य से पार नहीं जा सकते. दूसरा विकल्प, लोम्बोक जलडमरूमध्य, गहरा, चौड़ा और कम भीड़-भाड़ वाला होने के कारण, सुपर टैंकरों और अल्ट्रा-लार्ज बल्क कैरियर्स के लिए एक पसंदीदा मार्ग बना हुआ है. जो जहाज़ लोम्बोक जलडमरूमध्य का विकल्प चुनते हैं, वे अपनी आगे की यात्रा के लिए मकास्सर जलडमरूमध्य से होकर गुज़रते हैं. हालांकि, सुंडा और लोम्बोक, दोनों ही रास्तों पर जाने से जहाजों को  क्रमशः 1,787 किमी और 2,963 किमी अतिरिक्त दूरी तय करनी होती है. इससे उन्हें चीनी बंदरगाहों तक पहुंचने में 2.5 से 4.8 दिन अतिरिक्त लग जाते हैं.

जो जहाज़ लोम्बोक जलडमरूमध्य का विकल्प चुनते हैं, वे अपनी आगे की यात्रा के लिए मकास्सर जलडमरूमध्य से होकर गुज़रते हैं. हालांकि, सुंडा और लोम्बोक, दोनों ही रास्तों पर जाने से जहाजों को  क्रमशः 1,787 किमी और 2,963 किमी अतिरिक्त दूरी तय करनी होती है. इससे उन्हें चीनी बंदरगाहों तक पहुंचने में 2.5 से 4.8 दिन अतिरिक्त लग जाते हैं.

तालिका 2: इंडोनेशिया के पास जलडमरूमध्य में नौवहन की स्थिति

Straits

Malacca Strait

Sunda Strait

Lombok Strait

Ombai-Wetar Strait

Location

Malay Peninsula, Sumatra Island

Indonesian islands between Java and Sumatra

Indonesian islands between Bali and Lombok

Between the islands of Alor and Timor

Administrated by

Singapore, Indonesia, Malaysia

Indonesia

Indonesia

Indonesia

Min width

 2.8 km at the Southeast end

26 km

20 km

27 km

Max width

250 km

110 km

40km

35km

Min depth

 > 25 m

20 m

150 m

150 m

Max depth

200m

<1,100 m

 250 m

>1600 m

Types of vessels and submarines

Tankers, containers, bulk cargo and warships, nuclear submarines

Ferries, Cargo ships, small bulks and submarines.

Fast boats, cargo ships, fishing vessels, warships and submarines.

Tankers, LNG carriers, bulk carriers, ferries, warships, submarines

Extra Distance

-

1787 km (2.5 days)

2963 km (4.5 days)

Substantial Delay

स्रोत: लेखकों द्वारा संकलित

तीसरा विकल्प, ओम्बाई-वेटर जलडमरूमध्य, इससे भी अधिक पूर्व में स्थित है, इस समुद्री मार्ग पर बहुत बड़े जहाजों, टैंकरों के लिए पर्याप्त गहराई है और ये आसानी से वहां से गुज़र सकते हैं. ये अमेरिकी परमाणु पनडुब्बियों के लिए एक गुप्त राजमार्ग के रूप में भी काम करता है, जिससे ये जलडमरूमध्य मलक्का के बाद वाशिंगटन के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है. संक्षेप में कहें तो, इनमें से कोई भी जलडमरूमध्य चीन को रणनीतिक भरोसा नहीं देता. ये सभी रास्ते अमेरिकी और उसके सहयोगी देशों के नौसैनिक प्रभुत्व के लिए खुले रहते हैं.

चित्र 2: सुंडा, लोम्बोक और ओम्बाई-वेत्तर समुद्री मार्ग

Indian Ocean Chokepoints Is China Still Vulnerable

स्रोत: Bara Maritim

चीन की मलक्का दुविधा

चीन भी जलडमरूमध्य को लेकर अपनी कमज़ोरियों को समझता है, इसलिए उसने ज़मीनी स्तर पर भी वैकल्पिक रास्ते तलाशे हैं. बेल्ट एंड रोड पहल के ज़रिए, उसने पाकिस्तान और म्यांमार होते हुए ग्वादर और क्याउकफ्यू में व्यापारिक गलियारे बनाए हैं. इन गलियारों के ज़रिए चीन की कोशिश है कि वो इन समुद्री अवरोधों को दरकिनार कर सके. हालांकि कागज़ों पर, ये गलियारे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी तक पहुंच का वादा करते हैं, लेकिन व्यवहारिक नज़रिए से देखें तो ये महंगे, असुरक्षित और रणनीतिक रूप से नाज़ुक बने हुए हैं.

रणनीति स्पष्ट है: पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में एक समुद्री सुरक्षा कवच बनाएं और हिंद महासागर में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करें, जहां अभी भी अमेरिकी और भारतीय नौसेनाओं का प्रभुत्व कायम है.

बीजिंग ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) और ग्वादर को ये कहकर प्रचारित किया कि, इसकी परिकल्पना झिंजियांग को अरब सागर और उसके आगे मध्य पूर्व से जोड़ने वाले प्रवेश द्वार के रूप में की गई है, लेकिन असलियत में देखें तो ये गलियारा, भूगोल, राजनीति और उग्रवाद के बोझ तले ढह गया है. ग्वादर बलूचिस्तान में स्थित है, जो अलगाववादी हिंसा और चीनी परियोजनाओं के प्रति गहरी स्थानीय शत्रुता से ग्रस्त प्रांत है. बलूच समुदाय चीनी परियोजनाओं का कड़ा विरोध करता है. झिंजियांग से आने वाला ज़मीनी मार्ग दुर्गम भूभाग और संघर्ष से प्रभावित क्षेत्रों से होकर गुज़रता है. यही वजह है कि इस रास्ते से रसद लाने के लिहाज से ये एक दुःस्वप्न बन जाता है. यहां तक कि बंदरगाह का भी कम उपयोग हुआ है. 2020 में इस बंदरगाह पर सिर्फ 22 जहाजों का ही आवागमन हुआ, जो इसका अब तक का सबसे व्यस्त साल रहा. 

म्यांमार के क्याउकफ्यू बंदरगाह को अक्सर बीजिंग के बंगाल की खाड़ी के प्रवेश द्वार के रूप में देखा जाता है, फिर भी ये मलक्का की दुविधा का कोई समाधान नहीं देता. युन्नान में तेल और गैस पहुंचाने के लिए डिज़ाइन किया गया 15 अरब डॉलर का चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा गृहयुद्ध, उग्रवाद और चीन के दख़लअंदाज़ी वाले रवैये से कमज़ोर पड़ गया है. ऑपरेशन 1027 ने सुरक्षा गश्त और ड्रोन निगरानी की चीन की कोशिशों के बावजूद संघर्ष वाले क्षेत्रों से होकर गुज़रने वाली पाइपलाइनों और सड़कों की कमज़ोरी को उजागर किया है. पूरी क्षमता पर काम करने के बाद भी ये पाइपलाइनें चीन की मांग का बमुश्किल 5-8 प्रतिशत ही पूरा कर पाएंगी, जो कि बहुत थोड़ी सी भरपाई है. इतना ही नहीं, क्याउकफ्यू बंदरगाह में आने वाला कोई भी जहाज भारतीय नौसेना की नज़र में रहेगा. इसलिए, भौगोलिक परिस्थिति, अस्थिरता और भू-राजनीति ने चीन के कथित 'मलक्का पलायन' को एक महंगे भ्रम में बदल दिया है.

 नए आर्कटिक शिपिंग लेन से लेकर चीन के यूरोप के साथ रेल संपर्क तक जैसे विकल्प भी हैं, लेकिन ये अभी भी बहुत सीमित और अविकसित हैं. इनकी वजह से कोई वास्तविक बदलाव नहीं आ पा रहा है. जैसा कि ऊपर बताया गया है, 2023 में चीन के तेल और गैस आयात का लगभग 80 प्रतिशत अभी भी मलक्का जलडमरूमध्य से होकर गुज़रेगा. ये इस बात की याद दिलाता है कि हिंद महासागर को लेकर चीन की रणनीतिक कमज़ोरियां अभी बनी हुई हैं.

निष्कर्ष

जैसे-जैसे दुनिया बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ रही है और अमेरिका पीछे हट रहा है, मलक्का जलडमरूमध्य और उसके आस-पास के रास्ते अब सिर्फ़ क्षेत्रीय गतिरोध बिंदु नहीं रह गए हैं. ये महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के केंद्र बन गए हैं. चीन की इन रास्तों पर निर्भरता कम नहीं हुई है, और इसका जवाब हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी सैन्य शक्ति को और बढ़ाना है. चीन अपनी नौसेना को पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र से बहुत आगे तक बढ़ा रहा है. उसने जिबूती में एक स्थायी अड्डे से लेकर ग्वादर, श्रीलंका, चटगांव और शायद कंबोडिया में पैर जमाने की कोशिश की है. दक्षिण चीन सागर के द्वीपों पर वो पहले से ही मज़बूत है. रणनीति स्पष्ट है: पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में एक समुद्री सुरक्षा कवच बनाएं और हिंद महासागर में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करें, जहां अभी भी अमेरिकी और भारतीय नौसेनाओं का प्रभुत्व कायम है. सबक स्पष्ट है: एक बहुध्रुवीय दुनिया में, समुद्री रास्ते ही शक्ति का निर्धारण करते हैं.


अतुल कुमार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.

अनन्या वेल्लोर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में रिसर्च असिस्टेंट हैं.

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