आज से लगभग डेढ़ साल पहले भारत के स्टार्टअप जगत के दो जाने-माने नाम फ्लिपकार्ट के सचिन बंसल और ओला के भाविश अग्रवाल ने सरकार के समक्ष अपनी बातें रखते हुए उससे ऐसी नीतियां बनाने की गुजारिश की थी जो देश में ही विकसित स्टार्टअप्स को अपने विदेशी प्रतिद्वंद्वियों या कंपनियों का मुकाबला करने में सक्षम बनाए। दरअसल, फ्लिपकार्ट और ओला दोनों को ही उस समय भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा था क्योंकि अमेरिका की दिग्गज कंपनियों अमेजन और उबर ने आक्रामक कारोबारी रुख अख्तियार करके उनका चैन छीन लिया था।
स्टार्टअप्स के लिए सरकार से ‘भारत-केंद्रित दृष्टिकोण’ अपनाने का आग्रह करते हुए ये दोनों ही कारोबारी दिग्गज उन दिनों मुख्यत: चीनी मॉडल की तर्ज पर देश में एक ऐसा कारोबारी परितंत्र या माहौल बनाने की वकालत करते रहे थे जो घरेलू स्तर पर उद्यमिता को काफी बढ़ावा देगा और भारत में ‘ज्यादा मूल्यवान’ स्टार्टअप्स के उद्भव में मददगार साबित होगा। इसमें कोई शक नहीं है कि चीन स्पष्ट रूप से अपनी संरक्षणवादी नीति से जमकर लाभ उठा रहा है जिसका सबसे अच्छा उदाहरण बैदू, अलीबाबा और टेनसेंट की डिजिटल तिकड़ी’ को निरंतर मिल रही शानदार सफलता है और जिन्हें सामूहिक रूप से ‘बैट’ के रूप में जाना जाता है।
चीन के स्टार्टअप्स पर वहां की सरकार की इस कृपादृष्टि के परिणामस्वरूप वर्ष 2014 से लेकर वर्ष 2016 तक की अवधि के दौरान 77 अरब डॉलर का भारी-भरकम उद्यम पूंजी (वेंचर कैपिटल या वीसी) निवेश हुआ। वर्तमान में चीन की सरकार समस्त उद्योगों में नवाचार को बढ़ावा देने के लिए शुरुआती चरण वाले स्टार्टअप्स में जमकर पैसा लगा रही है, ताकि दुनिया भर में प्रचलित इस आम धारणा को दूर किया जा सके कि चीनी नवाचार मुख्यत: विभिन्न वैश्विक उत्पादों की नकल वाले प्रतिरूप (कॉपीकैट) तैयार करने एवं जालसाजी पर निर्भर है।
चीन की सरकार ने शुरुआती चरण में वित्त पोषण करने के उद्देश्य से अपनी ‘मेड इन चाइना 2025’ योजना के तहत वर्ष 2015 से लेकर अब तक 1 अरब डॉलर से भी अधिक राशि का निवेश किया है, ताकि युवा अथवा नए स्टार्टअप्स को वाणिज्यिक हैसियत हासिल करने में मदद मिल सके। कई भारतीय स्टार्टअप उद्यमी भी अपने हित में सरकार की ओर से इसी प्रकार के कदम उठाए जाने की अपेक्षा रखते हैं। भाविश अग्रवाल के वक्तव्य से इसकी पुष्टि होती है। दरअसल, भाविश ने विशेष जोर देते हुए कहा कि असली लड़ाई नवाचार के बजाय पूंजी को लेकर है। यहां तक कि उन्होंने किसी भी ठेठ या विशिष्ट ‘भारतीय’ कंपनी को उसकी पूंजी (कैपिटल) के मूल देश के बजाय उसके उद्यमी एवं प्रबंधन टीम की राष्ट्रीयता के मानदंड के आधार पर परिभाषित कर दिया। यह वास्तव में उनकी दलील को सही ठहराने वाली एक सुविधाजनक परिभाषा है, लेकिन आलोचक तो अवश्य ही किसी भी कंपनी के स्वामित्व को उसमें लगी पूंजी के मूल देश से ही जोड़ कर देखेंगे।
चीन की सरकार ने शुरुआती चरण में वित्त पोषण करने के उद्देश्य से अपनी ‘मेड इन चाइना 2025’ योजना के तहत वर्ष 2015 से लेकर अब तक 1 अरब डॉलर से भी अधिक राशि का निवेश किया है, ताकि युवा अथवा नए स्टार्टअप्स को वाणिज्यिक हैसियत हासिल करने में मदद मिल सके। कई भारतीय स्टार्टअप उद्यमी भी अपने हित में सरकार की ओर से इसी प्रकार के कदम उठाए जाने की अपेक्षा रखते हैं।
विडंबना यह है कि इस घटनाक्रम के एक साल से भी अधिक समय बाद अमेरिका की दिग्गज रिटेल कंपनी वालमार्ट ने फ्लिपकार्ट का अधिग्रहण करने की खातिर उसकी 77 फीसदी हिस्सेदारी हासिल कर ली है और सचिन बंसल अब फ्लिपकार्ट को बाय-बाय कह रहे हैं। यहां तक कि वालमार्ट द्वारा अधिग्रहण करने से पहले भी यदि फ्लिपकार्ट के शेयरधारिता (शेयरहोल्डिंग) पैटर्न पर त्वरित नजर डालें तो यह कटु तथ्य सामने आता है कि उसमें 72 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सेदारी विदेशी बहुराष्ट्रीय वीसी फर्मों एवं अन्य कंपनियों के पास थी, जबकि सह-संस्थापकों की इस कंपनी में हिस्सेदारी लगभग 10.8 प्रतिशत ही थी। इसमें जापान के सॉफ्टबैंक और अमेरिकी हेज फंड टाइगर ग्लोबल की क्रमशः 20.8 प्रतिशत और 20.6 प्रतिशत हिस्सेदारी थी।
दरअसल, भारतीय स्टार्टअप्स में फंडिंग या वित्त पोषण का रुख कुल मिलाकर एक जैसा ही है। वर्ष 2017 की नैसकॉम स्टार्टअप परितंत्र या परिदृश्य रिपोर्ट के अनुसार, अकेले शीर्ष दस वित्तपोषण सौदे समग्र वित्त पोषण मूल्य में लगभग 30 फीसदी का योगदान करते हैं। इससे यह पता चलता है कि ज्यादातर फंडिंग आम तौर पर बड़े स्टार्टअप्स, विशेषकर यूनिकॉर्न्स [i] के खाते में चली जाती है लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिकांश फंडिंग विदेशी बहुराष्ट्रीय स्रोतों — वीसी और प्राइवेट इक्विटी (पीई) फंडों की ओर से सृजित होती है।
भारत में सक्रिय निवेशकों की कुल संख्या में विदेशी निवेशकों की 44 प्रतिशत हिस्सेदारी आंकी गई और सक्रिय विदेशी वीसी की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा रही। वर्ष 2017 में 95 भारतीय वीसी की तुलना में 125 विदेशी वीसी सक्रिय थे। इससे यह पता चलता है कि विदेशी वीसी बड़े और अधिक सफल भारतीय स्टार्टअप का वित्तपोषण करने में ज्यादा रुचि रखते हैं। सरल शब्दों में, एक सफल भारतीय स्टार्टअप में विशुद्ध रूप से भारतीय वित्त पोषण स्रोतों की तुलना में विदेशी बहुराष्ट्रीय वित्त पोषण निकायों या संस्थाओं द्वारा आगे वित्त पोषण किए जाने की अधिक संभावना रहती है।
ऐसे में यह महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक प्रश्न उभर कर सामने आता है: ये तथाकथित भारतीय स्टार्टअप आखिरकार कितने या किस हद तक ‘भारतीय’ हैं?
हालांकि, या तो इस तथ्य की अक्सर अनदेखी की गई है या इसे सही ढंग से समझा नहीं जा सका है कि किसी भी ठेठ या विशिष्ट स्टार्टअप में वित्तीय संसाधन जुटाने का तरीका अन्य परम्परागत उद्योगों में वित्त जुटाने के ढंग से थोड़ा अलग रहता है। विनिर्माण या सेवा सेक्टर की कोई भी मानक कंपनी आम तौर पर बैंकों या वित्तीय संस्थानों से ऋण लेकर और कुछ मामलों में, प्राथमिक बाजारों (प्राइमरी मार्केट) से धन जुटाकर अपने परिचालन एवं आकार का विस्तार करती है।
वहीं, दूसरी ओर एक मानक स्टार्टअप कंपनी अपनी हिस्सेदारी या स्वामित्व की पेशकश करके वित्त जुटाती है। अत: किसी स्टार्टअप में हर बार निवेश बढ़ने का लगभग हमेशा तात्पर्य यही होता है कि उस कंपनी में नए निवेशकों के स्वामित्व में वृद्धि हुई है और इसके परिणामस्वरूप उसमें मूल मालिकों या संस्थापकों की हिस्सेदारी घट गई है। अत: एक मानक स्टार्टअप में पैसा या पूंजी दरअसल ऋणों के रूप में नहीं आती है, बल्कि यह भविष्य में बहुत अधिक रिटर्न मिलने की उम्मीद के साथ प्रत्यक्ष निवेश के रूप में आती है। ठीक इसी तरह से एक सफल स्टार्टअप अपनी निवल या शुद्ध संपत्ति (नेटवर्थ) को तेजी से बढ़ाता है। ध्यान देने योग्य एक महत्वपूर्ण बात यह है कि भले ही किसी भी स्टार्टअप को भारतीय संस्थापकों द्वारा शुरू किया गया हो, लेकिन उसमें जैसे ही किसी भी रूप में विदेशी वित्त पोषण होता है, तो उसकी स्वामित्व पूंजी का स्वरूप इसके बाद बदल जाता है और वह ‘भारतीय’ नहीं रह पाता है।
एक मानक स्टार्टअप कंपनी अपनी हिस्सेदारी या स्वामित्व की पेशकश करके वित्त जुटाती है।
इसके अलावा, जब भी किसी स्टार्टअप को किसी अन्य विदेशी निकाय या कंपनी के हाथों बेचा जाता है, तो उसके पूंजीगत अधिकार स्पष्ट रूप से उस विदेशी कंपनी को हस्तांतरित हो जाते हैं, जैसे कि अब वालमार्ट के पास ही फ्लिपकार्ट के पूंजीगत अधिकार रहेंगे। निवेश पर सरकार की नीतिगत सीमा के कारण कुछ क्षेत्रों (सेक्टर) में एफडीआई रूट के जरिए निवेश कुछ हद तक सीमित रहता है, लेकिन स्टार्टअप्स में वीसी या पीई के निवेश के लिए ऐसी कोई सीमा तय नहीं है। यह सच है कि स्टार्टअप में निवेश बहुत जोखिम के साथ आता है, लेकिन सफल स्टार्टअप्स के मामलों में रिटर्न भी काफी अधिक मिलता है। यह फ्लिपकार्ट सौदे से काफी हद तक जगजाहिर हो जाता है जिसमें पैसा लगाने वाले विदेशी निवेश फंड जैसे कि सॉफ्टबैंक और टाइगर ग्लोबल अच्छा-खासा मुनाफा कमाने जा रहे हैं।
ठीक इसी प्रकार की बातें स्टार्टअप्स के उत्पादों, प्रक्रियाओं और सेवाओं से जुड़े बौद्धिक संपदा अधिकारों (आईपीआर) के लिए भी सच हैं। बेहद लंबी भारतीय मंजूरी प्रक्रिया में होने वाली देरी के कारण कुछ स्टार्टअप्स सिंगापुर, अमेरिका एवं ब्रिटेन जैसे अन्य देशों में आवेदन करने और फिर वहां से ही आवश्यक पेटेंट तथा कॉपीराइट प्राप्त करने का विकल्प चुनते हैं। ‘आरंभिक पहल करने वालों को बढ़त मिलने’ के नजरिए से इस तरह के कदम को किसी भी स्टार्टअप के लिए काफी हद तक उचित ठहराया जाता है, लेकिन लगभग हर बार स्टार्टअप के पूंजीगत स्वामित्व के हस्तांतरण के साथ-साथ इस तरह के पेटेंट और कॉपीराइट का भी हस्तांतरण हो जाता है, चाहे वह पेटेंट भारत या विदेश में कहीं भी लिया गया हो।
अपने देश में उद्भव होने वाले स्टार्टअप्स को नीतिगत संरक्षण देने की मांग में राष्ट्रवादी अपील है और कुछ लोग इसका समर्थन करने के लिए इसके एक ‘नवजात या प्रारंभिक उद्योग’ होने की दलील भी प्रस्तुत कर सकते हैं, लेकिन स्टार्टअप परितंत्र या परिदृश्य की कटु सच्चाई यही है कि एक देसी स्टार्टअप को एक विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी के स्वामित्व वाले व्यवसाय में तब्दील होने में ज्यादा समय नहीं लगता है, जैसा कि फ्लिपकार्ट-वालमार्ट सौदे में देखा गया है। अत: इस तरह का संरक्षण पाने के लिए दी जाने वाली मौलिक दलील में कोई दम नहीं है क्योंकि सरकार को किसी भी ऐसी कंपनी का संरक्षण नहीं करना चाहिए जिसे बाद में किसी विदेशी स्वामित्व वाली कंपनी को हस्तांतरित किया जा सकता है और इसके साथ ही इस प्रक्रिया में भारतीय मूल के एक ऐसे व्यक्ति को समृद्ध किया जा सकता है जिसने महज एक अंतरराष्ट्रीय निवेशक या संस्थान के लिए किसी मूल्यवान स्टार्टअप का सृजन किया है। अत: नीतिगत कदमों या उपायों की तुलना में बाजार तंत्र अथवा बाजार की ताकतें ही संभवत: इन स्टार्टअप्स के अस्तित्व और सफलता में ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
[i] 1 अरब डॉलर या उससे अधिक मूल्य के स्टार्टअप को आम तौर पर ‘यूनिकॉर्न’ कहा जाता है।
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