Published on Aug 17, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत जैसे विविधता भरे देश में विकास और असरदार प्रशासन के लिए एक मज़बूत संघीय ढांचा होना ही चाहिए.

भारत में संघवाद के 75 साल: एक मज़बूत लोकतंत्र की बुनियाद

ये लेख  India @75: Assessing Key Institutions of Indian Democracy सीरीज़ का हिस्सा है.


भारत जैसे विविधता भरे देश की मशहूर संघीय व्यवस्था, लगातार बदलते हुए राजनीतिक और सामाजिक- आर्थिक आयामों के चलते निरंतर बदलावों की गवाह बनी है. आज जब भारत गणराज्य ने अपने अस्तित्व के 75 वर्ष पूरे कर लिए हैं, तो ये ज़रूरी हो जाता है कि हम भारत की संघीय व्यवस्था के मिज़ाज और उसके कामकाज की गहराई से पड़ताल करें और भारत की लोकतांत्रिक राजनीति और प्रशासन पर इसके प्रभाव का मुआयना करें.

एक अनूठा संघीय ढांचा

अपने मूल रूप में भारत ने एक ऐसी संघीय राजनीतिक व्यवस्था को अपनाया था, जिसमें शासन के दो स्तर थे: राष्ट्रीय स्तर पर और राज्य स्तर पर. 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के बाद इस संघीय प्रशासनिक ढांचे में पंचायतों और नगर निकायों के रूप में एक तीसरी और अहम पायदान भी जोड़ी गई थी. भारत के संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्र भारत में शासन चलाने के लिए एक अनूठे संघीय ढांचे को अपनाया था, जिसे ‘केंद्रीकृत संघवाद’ का नाम दिया गया था. ऐसा इसलिए था क्योंकि अमेरिका या कनाडा जैसे आदर्श संघवाद के उलट, भारत के संविधान में कई मामलों में एक बेहद मज़बूत केंद्र सरकार की परिकल्पना को अनिवार्य बना दिया गया है. भारत गणराज्य के संस्थापकों के इस फ़ैसले के पीछे उस भय को वजह बताया जाता है कि आज़ादी के दौरान, देश के बंटवारे की भयावाह त्रासदी झेलने की विरासत के चलते, भारत के कई हिस्सों में अलगाववादी प्रवृत्तियां पनप रही थीं.

केंद्र सरकार को, राज्यों पर कई मामलों में अधिक अधिकार हासिल हैं. जैसे कि राज्यों की सीमाएं तय करना या उनमें बदलाव करना. संविधान की केंद्रीय सूची में राज्यों की सूची से कहीं अधिक विषय हैं और यहां तक कि समवर्ती सूची में दर्ज कई विषयों में भी राज्यों के क़ानून पर केंद्र के क़ानून को तरज़ीह दी गई है. इसके अलावा, असाधारण परिस्थितियों में देश की संसद राज्यों के विषय में भी क़ानून बना सकती है. सबसे अहम बात ये है कि देश के आर्थिक संसाधनों पर केंद्र का ज़बरदस्त नियंत्रण है और उससे भी विवादित बात ये है कि केंद्र के पास राज्यों में राज्यपाल नियुक्त करने का अधिकार है और केंद्र, उचित समझने पर राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाकर उनकी विधानसभाएं भंग करने का भी अधिकार रखता है. हालांकि ये मान लेना ग़लत होगा कि भारत के संघवाद का पलड़ा पूरी तरह से केंद्र सरकार की तरफ़ झुका हुआ है. भारत की राजनीतिक व्यवस्था में कई अहम और मज़बूत संघीय ख़ूबियां हैं. जैसे कि दोहरी शासन प्रणाली और एक लिखित संविधान में केंद्र और राज्यों के तयशुदा अधिकारों का स्पष्ट रूप से बंटवारा किया गया है. इसके साथ साथ, संविधान के संघीय प्रावधानों में संशोधन की प्रक्रिया बेहद सख़्त है और कोई बदलाव कर पाना तभी मुमकिन है, जब राज्यों का बहुमत किसी बदलाव को मंज़ूरी दे. केंद्र और राज्यों के बीच किसी भी तरह के विवाद की सूरत में फ़ैसले करने के लिए, एक स्वतंत्र न्यायपालिका जैसी संस्थागत सुरक्षा व्यवस्था भी भारत के संविधान में है.

बदलते संघीय संबंध

बदलते हुए समय के साथ साथ, केंद्र और राज्यों के रिश्तों में भी बदलाव देखने को मिला है. ये परिवर्तन अक्सर अलग अलग समय में बदली राजनीतिक व्यवस्था से संचालित होता रहा है. भारत का संघवाद अपनी शुरुआत के समय से ही केंद्र और राज्यों के राजनीतिक किरदारों के बीच पेचीदा संवाद से संचालित होता रहा है. अलग अलग राजनीतिक दल और पहचान व संसाधनों की राजनीति इस संवाद में ख़लल डालती रही है. देश की आज़ादी से लेकर अब तक, भारत में संघवाद के आयाम को अस्थायी तौर पर चार चरणों में बांटा जा सकता है. एक दलीय संघवाद (1952-1967); अभिव्यक्तिवादी संघवाद (1967-1989); बहुदलीय संघवाद (1989-2014) और एकदलीय प्रभुत्व वाले संघवाद की वापसी (2014 से अब तक). 

पहला चरण

पहले चरण में आज़ादी दिलाने वाले राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस को मुकम्मल राजनीतिक प्रभुत्व हासिल था. फिर चाहे केंद्र सरकार हो या राज्यों की सत्ता. रजनी कोठारी जैसे राजनीति वैज्ञानिकों ने इसे ‘कांग्रेस व्यवस्था’ का नाम दिया था. इस दौर में, वैसे तो राष्ट्रीय राजनीति पर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ज़बरदस्त असर था. मगर, उनके साथ साथ कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं और मुख्यमंत्रियों का भी काफ़ी राजनीतिक दबदबा और उन्हें जनता का भी भारी समर्थन हासिल था. केंद्र और राज्यों के बीच बड़े संघीय मतभेद, कांग्रेस पार्टी के भीतर ही सुलझा लिए जाते थे. इससे संघवाद के आम सहमति वाले ‘अंतर्दलीय मॉडल’ का ढांचा तैयार हुआ. इसके कुछ बड़े अपवाद, नेहरू सरकार द्वारा 1959 में केरल की कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई वाली राज्य सरकार को बर्ख़ास्त करना रहा था, जो केंद्र द्वारा राज्यों पर अपने अधिकार को लागू करने के शुरुआती संकेत थे. हालांकि इसी दौरान जनता की इलाक़ाई मांग के दबाव में आकर केंद्र द्वारा भाषाई आधार पर राज्यों का गठन करना और ग़ैर हिंदी भाषी राज्यों द्वारा, केंद्र के हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के प्रस्ताव के कड़े विरोध को हम सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने की शुरुआती क्षेत्रीय अभिव्यक्ति के रूप में भी देख सकते हैं. राज्यों की इस शक्तिशाली अभिव्यक्ति ने राष्ट्र निर्माण के केंद्रीकृत और एकरूपी मॉडल विकसित करने को चुनौती दी. 

दूसरा चरण

1967 के बाद संघवाद के दूसरे दौर में कांग्रेस तो केंद्र में अभी भी सत्ता में थी लेकिन कई राज्यों में सत्ता उसके हाथ से निकल गई थी. इन राज्यों में बहुत से क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस विरोधी पार्टियों की अगुवाई वाली गठबंधन सरकारें बनाई गई थीं. इसके अलावा, 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में ख़ुद कांग्रेस एक हाईकमान आधारित तानाशाही पार्टी बन गई थी. कांग्रेस के कई क्षेत्रीय नेताओं और संगठनात्मक ढांचे ने अपनी स्वायत्तता गंवा दी थी. वैसे तो कांग्रेस ने इंदिरा गांधी की लोकप्रियता की मदद से राष्ट्रीय चुनाव (1977 के आम चुनावों को छोड़ दें तो) जीते. लेकिन, निचले स्तर पर संगठन के कमज़ोर होने के चलते, कांग्रेस का सामाजिक जनाधार बिखरने लगा था. इसका नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने अपने विवेकाधीन अधिकार का इस्तेमाल करते हुए राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को बर्ख़ास्त करना शुरू कर दिया. यहां तक कि जब कांग्रेस को हराकर, 1977 में केंद्र में जनता पार्टी ने सरकार बनाई, तो उसने भी केंद्र के ऐसे तानाशाही रवैये को बरक़रार रखते हुए राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को अस्थिर करना जारी रखा. जम्मू और कश्मीर, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में मज़बूत क्षेत्रीय नेता उभरे जिन्होंने केंद्र के तानाशाही तरीक़े से अधिकार जताने का विरोध करना शुरू किया. इसके चलते, इस दौरान टकराव वाला संघवाद देखा गया. 1970 के आख़िरी दशक और 1980 के शुरुआती दशक में असम, पंजाब, कश्मीर और मिज़ोरम में बड़े पैमाने पर राजनीतिक संकट देखने को मिला. इसकी एक बड़ी वजह केंद्र सरकार की अपना शिकंजा कसने वाली नीतियां रही थीं. हालांकि, केंद्र में राजीव गांधी की सरकार बनने के बाद, वैसे तो केंद्र ने संघवाद की वही नीति जारी रखी. मगर, राजीव सरकार ने असम, पंजाब और मिज़ोरम में पहचान पर आधारित मांगों और राजनीतिक संकटों से निपटने के लिए सुलह समझौते का रास्ता अपनाया और विरोधियों के लिए अपने कुछ राजनीतिक अधिकार छोड़े.  

तीसरा चरण

भारत में संघवाद के तीसरे चरण को दौरान बहु-दलीय संघवाद का दौर कहा जाता है. इस दौरान भारत की राजनीति के समीकरण नए सिरे से बने-बिगड़े और फिर इससे राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्रीयकरण हुआ. पहले तो राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का दबदबा बहुत हद तक कम हो गया था. लेकिन भारतीय जनता पार्टी अभी उसके इकलौते विकल्प के तौर पर नहीं उभरी थी. लेकिन, कांग्रेस के कमज़ोर होने के चलते बहुत सी ताक़तवर क्षेत्रीय पार्टियों और नेताओं के लिए जगह बनी. इन क्षेत्रीय दलों ने केंद्र में गठबंधन सरकारें बनाने में राष्ट्रीय भूमिका अदा करके राष्ट्रीय राजनीति पर भी असर डाला. इस दौर में बहुत से क्षेत्रीय नेताओं को राष्ट्रीय सत्ता में हिस्सेदारी का मौक़ा मिला क्योंकि कोई भी राष्ट्रीय दल संसद में पूर्ण बहुमत हासिल कर पाने में नाकाम रहा था. चूंकि क्षेत्रीय दल अब कांग्रेस की अगुवाई वाले (UPA) या BJP की अगुवाई वाले (NDA) के राष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा बनकर, राष्ट्रीय राजनीति में भी भूमिका अदा कर रहे थे, तो इस दौरान केंद्र और राज्यों के बीच टकराव कम हो गया. यही नहीं, बदलते राजनीतिक समीरणों और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले (SR बोम्मई बनाम भारत सरकार का फ़ैसला, 1994) के चलते, केंद्र सरकार द्वारा संविधान की धारा 356 का बेलगाम इस्तेमाल भी दुर्लभ बात हो गई. इसके अलावा, इस दौर में भारत की अर्थव्यवस्था का उदारीकरण भी किया गया. इससे राज्यों की सरकारों को काफ़ी स्वायत्तता हासिल हो गई. अब राज्यों के मुख्यमंत्री अपने यहां कारोबार बढ़ाने और विदेशी निवेश लाने के लिए काफ़ी हद तक आज़ाद हो गए. इसका नतीजा ये हुआ कि अब राज्यों के मुख्यमंत्री विकास और तरक़्क़ी के नाम पर अपनी अलग राजनीतिक पहचान बना सकते थे. 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के पास होने के बाद ज़मीनी स्तर पर स्थानीय स्वशासन को भी मज़बूती मिली. सही मायनों में, भारत में संघवाद के इस तीसरे चरण में केंद्र और राज्यों के बीच विवाद और मोल-भाव से वास्तविक संघवाद के दरवाज़े खुले.

चौथा चरण

2014 से शुरू हुए इस मौजूदा दौर में बीजेपी के उभार के साथ ही ‘ताक़तवर दल’ के दबदबे वाले संघवाद की वापसी हुई है. गठबंधन सरकारों के तीन दशकों का दौर ख़त्म करते हुए 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने संसद में बहुमत हासिल कर लिया. इसके साथ साथ बीजेपी ने कई राज्यों में भी सत्ता हासिल की है. इसके चलते बीजेपी ने आज लगभग ‘कांग्रेस व्यवस्था’ की तर्ज पर अपना दबदबा क़ायम कर लिया है.

वैसे तो, कांग्रेस के कमज़ोर होने के कारण, केंद्र में बीजेपी बेहद शक्तिशाली राजनीतिक दल है. लेकिन राज्यों के चुनाव में अगर बीजेपी को कुछ हद तक चुनौती मिली है, तो ये क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने ही दी है. इस चरण के दौरान केंद्र और विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों के बीच कई बड़े संघीय टकराव देखने को मिले हैं, और विपक्ष शासित राज्यों ने केंद्र की सत्ताधारी पार्टी पर दूसरे दलों को तोड़ने और राज्यपाल के पद का दुरुपयोग करने, विपक्षी दलों को डराने और राज्य सरकारों को अस्थिर करने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसियों का इस्तेमाल करने जैसे कई आरोप लगाए हैं. जहां तक प्रशासन की बात है, तो शुरुआत में GST क़ानून पारित करने, नीति आयोग और GST परिषद के गठन करने, फंड में राज्यों की भागीदारी बढ़ाने की वित्त आयोग की सिफ़ारिश को स्वीकार करे जैसे मुद्दों पर केंद्र और राज्यों के बीच आम सहमति देखने को मिली थी. लेकिन, ग़ैर बीजेपी शासित राज्य, CAA, कृषि क़ानूनों, BSF के अधिकार क्षेत्र, GST के मुआवज़े और कोविड-19 महामारी के भयंकर दौर में, केंद्र से मदद जैसे मुद्दों पर केंद्र सरकार के साथ टकराते रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 ख़त्म करने और CAA जैसे राष्ट्रवादी मुद्दों पर केंद्र सरकार भी विपक्ष शासित कई राज्यों को अपने साथ ला पाने में कामयाब रही है, जिसे ‘राष्ट्रवादी संघवाद’ का नाम दिया गया है. हालांकि कोविड-19 के अभूतपूर्व संकट के बाद के दौर में केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य की आपात स्थिति जैसे मुद्दों पर विकेंद्रीकृत और स्थानीय प्रशासन की अहमियत को स्वीकार किया और राज्यों को इस संकट से निपटने के लिए स्वायत्तता दी, जबकि ख़ुद केंद्र ने समन्वय की भूमिका अपनाई. संक्षेप में कहें तो बीजेपी के प्रभुत्ववादी उभार के साथ एक दल के दबदबे वाला दूसरा दौर भले आ गया हो, कई क्षेत्रीय नेताओं की अगुवाई में राज्यों की तरफ़ से केंद्रीकृत संघवाद का लगातार विरोध हो रहा है.

निष्कर्ष

वैसे तो भारत की संघीय व्यवस्था में केंद्र के प्रति बुनियादी तौर पर पक्षपात है. लेकिन, पहचान, स्वायत्तता और विकास को लेकर विभिन्न क्षेत्रों की विविधता भरी स्थानीय आकांक्षाओं की मांग ने देश की राजनीति को कई मामलों में ताल-मेल बिठाने पर मजबूर किया है. सभी चार चरणों के दौरान केंद्र के ज़्यादा अधिकार हासिल करने और एकरूपता लाने की कोशिशों का क्षेत्रीय ताक़तों द्वारा विरोध किया गया है, जिससे मूल संघीय ढांचे की सुरक्षा हो सकी है. तीसरे स्तर के स्थानीय स्वशासन के जुड़ जाने से भारत में संघवाद का एक और मज़बूत स्तंभ खड़ा हुआ है. इसके चलते प्रशासन के निचले स्तर तक सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ है. हालांकि, संघीय सहयोग बढ़ाने की राह में दो बड़े रोड़े हैं. पहला, भारत में संघीय रिश्ते राजनीतिक दल के मतभेद की चिंताओं से प्रभावित होते हैं. क्योंकि चुनावी मुक़ाबले के साथ साथ केंद्र और राज्यों में विरोधी दल होने से आपस में अविश्वास की भावना रहती है. इससे आम सहमति बनाने और राजनीतिक संवाद की राह दुश्वार होती है. दूसरा राजनीतिक मतभेद के रिसते ज़ख़्म और शक-ओ-शुबहा के कारण केंद्र और राज्यों के बीच सरकारी संस्थानों जैसे अंतरराज्यीय परिषद, GST परिषद, नीति आयोग और क्षेत्रीय परिषद जैसे मंच अभी भी प्रशासन के अहम मसलों में केंद्र और राज्यों, और राज्यों के आपसी मतभेद कम करने के लिए पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं किए जा रहे हैं. इसके अलावा, जैसा कि हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद माना था कि कोविड-19 महामारी ने एक बार फिर से देश में एक मज़बूत संघीय ढांचे की ज़रूरत को दोहराया है, जिससे भारत जैसे विविधता भरे देश का विकास हो सके और अच्छा प्रशासन दिया जा सके.

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