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भारत का बख़्तरबंद भविष्य, गतिशीलता, संरक्षण और स्थायित्व के बीच संतुलन बनाने पर निर्भर करता है- जहां भारी टैंक नहीं, मिले जुले हथियार ही नतीजे तय करेंगे
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इससे पहले एक लेख में इस लेखक ने गतिशीलता की ओर ध्यान आकर्षित किया था और ये बताया था कि भारत के फ्यूचर रेडी कॉम्बैट व्हीकल (FRCV) की डिज़ाइन में इसे ही ज़्यादा तवज्जो दी जानी चाहिए. हालांकि, भविष्य के लड़ाकू वाहन मुख्य युद्धक टैंक में गतिशीलता को शामिल करने की ज़रूरत महत्वपूर्ण तो है, मगर यही पर्याप्त नहीं. भारतीय सेना को FRCV को बाक़ी भारी हथियारों के साथ एकीकृत करना होगा, जिससे वो विकसित होते एकीकृत युद्धक समूहों (IBAs) में दूसरे हथियारों को भी इसके साथ साथ उपयोग में ला सके. वैसे तो ये बात अपने आप में स्पष्ट नज़र आने वाली हो सकती है. लेकिन, इसके भीतर तीन ख़ूबियां आती हैं, जिस पर किसी भी टैंक का डिज़ाइन आधारित होता है- गतिशीलता, संरक्षण/युद्ध में बचने की क्षमता और फायरपावर. इनके साथ साथ रख-रखाव के पहलू का भी ध्यान रखना ज़रूरी है. भारी बख़्तरबंद या कवच की शक्ल में संरक्षण के पहलू का किसी भी टैंक के रख-रखाव के साथ सकारात्मक संबंध होता है. ये बात रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान हमें देखने को मिली है, जिसमें पश्चिमी देशों के टैंकों के सुरक्षा कवच फ़ायदेमंद साबित हुए हैं. इससे भारत को पैंतरेबाज़ी वाले युद्ध में दक्ष और टैंक की गतिशीलता पर केंद्रित इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप के विकास में मदद मिलेगी, जो संयुक्त हथियारों के अभियान में सक्षम हों और भारत के टैंकों की कमज़ोरियों की भरपाई कर सकें और फ़ुर्तीलेपन को बढ़ाने के साथ साथ टैंकों को सुरक्षित भी बना सकें. ऐसे में भारत के युद्ध योजना निर्माताओं को रूस-यूक्रेन युद्ध के इस अहम सबक़ यानी रख-रखाव को सीखना होगा.
लेखक ने पहले भी कहा था कि भारत के भविष्य के भारी टैंकों (FRCV) की डिज़ाइन में फुर्तीले होने को प्राथमिकता तो दी जानी चाहिए. लेकिन, भारत के बख़्तरबंद बलों के पास जो मध्यम वज़न वाले टैंक मौजूद हैं, उनको युद्ध में सुरक्षित रखने की क़ीमत अदा करनी पड़ सकती है.
जैसा कि इस लेखक ने पहले भी कहा था कि भारत के भविष्य के भारी टैंकों (FRCV) की डिज़ाइन में फुर्तीले होने को प्राथमिकता तो दी जानी चाहिए. लेकिन, भारत के बख़्तरबंद बलों के पास जो मध्यम वज़न वाले टैंक मौजूद हैं, उनको युद्ध में सुरक्षित रखने की क़ीमत अदा करनी पड़ सकती है. इसीलिए, संयुक्त हथियारों वाले अभियान ज़रूरी हैं, जिनसे बख़्तरबंद गाड़ियों को जंग में बचाया जा सके और किसी मिशन के ख़ास मक़सद हासिल करने के लिए टैंकों की शक्ति का अधिकतम उपयोग किया जा सके. भारतीय सेना के लिए संयुक्त हथियारों वाले बल FRCV की अभियान के दौरान गतिशीलता भी सुनिश्चित कर सकेंगे. भारत के इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप (IBG) में कवच वाले वाहन अहम भूमिका अदा करेंगे. इस वक़्त भारत दो अलग अलग तरह के एकीकृत युद्ध समूहों (IBG) की या तो योजना बना चुका है, या फिर इसकी योजना बनाई जा रही है. इनमें से एक चीन के मोर्चे के लिए होगा, तो दूसरा पाकिस्तान के मोर्चे से निपटने के लिए होगा. नवंबर 2024 में भारतीय सेना ने IBG की स्थापना के लिए सरकार से मंज़ूरी मांगी थी, जिसे अभी हरी झंडी मिलने का इंतज़ार है. IBG में मुख्य रूप से मैकेनाइज़्ड इन्फेंट्री, आर्टिलरी, आर्मर, एयर डिफेंस और मानवरहित विमान (UAV) शामिल होंगे. और इनमें से प्रत्येक में 5000 से 6000 के बीच सैनिक होंगे. फिर भी जुलाई 2025 के आख़िर में थल सेना ने दो रूद्र ब्रिगेड के गठन का फ़ैसला किया था, जो मोटे तौर पर प्रस्तावित इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप की संरचना के अनुरूप ही हैं, और जिनको 3000 सैनिकों वाली एक ही हथियार से लैस ब्रिगेड को परिवर्तित करके कई हथियारों वाली इकाइयों में तब्दील किया गया है, औऱ इसमें UAV, इन्फैंट्री, मैकेनाइज़्ड इन्फेंट्री, एंटी टैंक इकाइयां, टैंक, आर्टिलरी और स्पेशल फोर्सेज शामिल हैं. ये रुद्र ब्रिगेड भारत की विशाल थल सीमा के कुछ गिने चुने हिस्सों में तैनात की जाएगी. हालांकि, उपयोगिता के मामले में ये रुद्र ब्रिगेड्स अस्थायी ही कही जाएगी. ये भी हो सकता है कि भविष्य के इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप के लिए ये परीक्षण का भी काम करें. IBG को निश्चित रूप से रुद्र ब्रिगेड के कहीं ज़्यादा बड़े स्वरूप में गठित करना होगा. उनके पास हथियार और संसाधन भी बेहतर होंगे और उनमें शामिल किए जाने वाले सैनिक भी संयुक्त हथियारों वाले अभियान चलाने में सक्षम बनने के लिए कठिन प्रशिक्षण से गुज़ारे जाएंगे, ताकि वो आक्रामक अभियान चला सके. इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप स्थापित करने के लिए मोदी सरकार को कहीं ज़्यादा फ़ुर्ती से आगे बढ़ना होगा.
यही नहीं, IBG भारत की कोल्ड स्टार्ट डॉक्ट्रिन (CSD) का नतीजा हैं. इस सिद्धांत के अस्तित्व को स्वीकार तो किया गया है, लेकिन आधिकारिक रूप से इसकी घोषणा नहीं की गई. ये डॉक्ट्रिन तेज़ी से सैनिकों की तैनाती की बात करती है. इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप का गठन भी इसी मक़सद से किया जाना है. कोल्ड स्टार्ट डॉक्ट्रिन के तहत IBG सैनिकों को मोर्चे पर तैनात करने के समय में कटौती करेंगे. पहले भारतीय सेना की तीन स्ट्राइक कोर को एकजुट करके तैनात करने में काफ़ी समय लगता था. ये तीनों कोर, विशेष रूप से पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारतीय सेना की आक्रमण करने वाली शाखाएं हैं. भारतीय सेना के इन थलीय अभियानों का मक़सद, पाकिस्तान द्वारा सीमा पार आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए दंडित करने या फिर वायुसेना के साथ तालमेल करके पाकिस्तान को अपनी रक्षा के लिए सैनिक तैनात करने से रोकना था, ताकि पाकिस्तान के हमले के बाद यथास्थिति बहाल करने के लिए पाकिस्तान की ज़मीनों पर ठीक उसी तरह क़ब्ज़ा किया जा सके, जिस तरह 1965 के भारत- पाकिस्तान युद्ध के दौरान किया गया था. वहीं दूसरी तरफ़, जो इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप, भारत के एक और शत्रु पड़ोसी चीन को ध्यान में रखकर तैयार किए जा रहे हैं, उनकी बनावट बिल्कुल अलग है. संभावना है कि चीन सीमा के लिए समर्पित IBG में बख़्तरबंद वाहनों जैसे कि वो हल्के युद्धक टैंक (LBT) जिनका विकास किया जा रहा है, उनको शामिल किया जाएगा और साथ ही साथ T-90 और पुराने T-72 टैंक शामिल होंगे. चीन पर केंद्रित IBG के हल्के होने की संभावना है, जिनमें से कुछ के पास हल्के युद्धक टैंक होंगे और उनको हवाई सहायता मिलेगी.
यही नहीं, इससे पहले थल सेना ने जो युद्ध लड़े हैं, ख़ास तौर से पाकिस्तान के ख़िलाफ़, उनके अभियानों के अनुभवों उसको साफ़ तौर से ये दिखाया है कि बख़्तरबंद वाहनों के साथ पैंतरे बदलने वाले अभियान काफ़ी हद तक असरदार साबित होते हैं. मिसाल के तौर पर 1971 के युद्ध में बसंतर के मोर्चे को ही लें, जिसमें सेंचुरियन टैंकों से लैस 16 आर्मर्ड ब्रिगेड ने पाकिस्तान के बेहतर माने जाने वाले पैटन टैंकों को तबाह किया था. सेंचुरियन टैंक के साथ तैनात सैनिकों को प्रभावी ढंग से ट्रेनिंग दी गई थी और ब्रिगेड की दूसरी टुकड़ियों से भी उन्हें काफ़ी मदद मिली थी, ख़ास तौर से बारूदी सुरंगों से निपटने में आर्टिलरी और इंजीनियरिंग की रेजिमेंट काफ़ी कारगर साबित हुई थीं. ये संयुक्त हथियारों वाले अभियान का एक मज़बूत उदाहरण है, जिसमें टैंकों की आधारभूत कमज़ोरियों को ढक कर उनको अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग में लाया गया था.
भारतीय सेना संयुक्त हथियारों वाले अभियान की ज़रूरत को रुद्र ब्रिगेड या फिर भविष्य के इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप के माध्यम से जिस एक तरीक़े से पूरा कर सकती है, वो ब्रिटिश सेना के चैलेंजर-3 टैंक जैसे एक भारी युद्धक टैंक के ज़रिए हो सकती है.
भारतीय सेना संयुक्त हथियारों वाले अभियान की ज़रूरत को रुद्र ब्रिगेड या फिर भविष्य के इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप के माध्यम से जिस एक तरीक़े से पूरा कर सकती है, वो ब्रिटिश सेना के चैलेंजर-3 टैंक जैसे एक भारी युद्धक टैंक के ज़रिए हो सकती है. चैलेंजर-3 का वज़न 66.5 टन है, जो अपने पूर्ववर्ती चैलेंजर-2 से तीन टन अधिक भारी है. चैलेंजर टैंक भारी युद्धक टैंक हैं, जिनका वज़न लगभग भारतीय सेना के अर्जुन MkA1 टैंक के बराबर है. चैलेंजर-3 के बारे में कहा जा रहा है कि वो एजैक्स इन्फैंट्री फाइटिंग व्हीकल (IFV) और बॉक्सर फाइटिंग व्हीकल्स से नज़दीकी गोलीबारी की मदद पर निर्भर रहेगा और युद्ध में उससे मैकेनाइज्ड गाड़ियों के बीच दबदबा क़ायम करने की अपेक्षा रहेगी. चैलेंजर-3 जब 2027 में पूरी तरह सक्रिय हो जाएगा, तो उन्हें एडवांस्ड सेंसर से भी लैस किया जाएगा और वो रख-रखाव के लायक़ और मॉड्यूलर भी होंगे. ब्रिटिश सेना ने एक भारी टैंक को इसलिए भी चुना, ताकि टैंक संचालित करने वाले क्रू को सुरक्षित रखा जा सके और उन्हें लंबे वक्त तक चलने वाले युद्ध के मुताबिक़ ढाला जा सके, जहां गतिशीलता के बजाय संरक्षण को प्राथमिकता दी जाती है. चैलेंजर जैसे मुख्य युद्धक टैंक को युद्ध के मैदान से बाहर निकालना और उनकी मरम्मत करना आसान होता है. ज़्यादा संरक्षित होने से टैंक को क्षति होने की सूरत में भी कुशल संचालकों की हिफ़ाज़त होती है. बचे हुए और सुरक्षित सैनिकों को तुरंत ही युद्ध के मैदान में नए टैंकों के साथ भेजा जा सकता है. प्रशिक्षित टैंक संचालकों के युद्ध में मारे जाने या गंभीर रूप से ज़ख़्मी की सूरत में उनकी जगह की भरपाई कर पाना मुश्किल होता है. क्योंकि प्रशिक्षित करने में समय लगता है और कम कुशल क्रू को युद्ध के मैदान में समय से पहले धकेलने से अभियान को नुक़सान पहुंचने का डर होता है. नए टैंक क्रू को ट्रेनिंग देने में अभियान की रफ़्तार सुस्त पड़ने की आशंका होती है, ऐसे में युद्ध के मोर्चे में मिलने वाले अवसरों को भुनाने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे युद्ध लंबा खिंच सकता है, या फिर हार का भी सामना करना पड़ सकता है.
भारी बख़्तर वाले टैंक के इन फ़ायदों के बावजूद ऐसे टैंकों के साथ भारत का अनुभव मिला-जुला या फिर नाकामी वाला ही रहा है. मिसाल के तौर पर अर्जुन जैसे भारी टैंकों को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ तीव्र अभियान वाले मोर्चे पर तैनात नहीं किया गया है. अगर अर्जुन को पाकिस्तान की सीमा पर तैनात किया भी जाता, तो उनको वहां बनाए रखना और लॉजिस्टिक सहायता देना काफ़ी भारी पड़ता. अर्जुन टैंक में इस्तेमाल किए गए हेवी इक्विपमेंट ट्रांसपोर्टर (HET) की वजह से इनको मोर्चे पर तैनात किए जाने में कई तरह की दिक़्क़तें देखने को मिली हैं. भारतीय सेना को किसी असली युद्ध में अर्जुन टैंक इस्तेमाल करने का कोई अनुभव नहीं है. इसके अलावा, अर्जुन की गतिशीलता की जो कमज़ोरियां हैं, वो राजस्थान के रेगिस्तानी इलाक़े में रक्षात्मक इस्तेमाल के दौरान भी काफ़ी महंगी पड़ सकती हैं, जहां उसे तैनात किए जाने की कुछ संभावना दिखती है. अर्जुन टैंक के मामले में अपर्याप्त लॉजिस्टिक्स मदद और युद्ध में होने वाले नुक़सान की मरम्मत चुनौतियों से भरी होगी. ये बात शांतिकाल में अर्जुन टैंक की तैनाती के दौरान देखने को मिली भी है, जब इसके कल-पुर्ज़े हासिल करने में क़िल्लत देखी गई थी और मरम्मत में परेशानियों का सामना करना पड़ा था. चूंकि इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप वाली रणनीति के तहत भारत, तेज़ रफ़्तार अभियान चलाने को लेकर प्रतिबद्ध है. ऐसे अभियानों में अर्जुन टैंक की कोई वास्तविक भूमिका होने की संभावना न के बराबर है. पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध में किसी बख़्तरबंद अभियान में अर्जुन टैंक का इस्तेमाल लॉजिस्टिक के लिहाज से तभी टिकाऊ होगा, जब उसे, तो दुश्मन के आक्रमण को रोकने के लिए ही किया जाएगा, ठीक उसी तरह जैसे ब्रिटेन के चैलेंजर या फिर अमेरिका के अब्राम्स टैंकों का उपयोग किया जाता है. ये दोनों टैंक भी अर्जुन के बराबर वज़न वाले ही हैं. दोनों टैंकों का इस्तेमाल इराक़ युद्ध के दौरान मित्र देशों के वास्तविक अभियान की शुरुआत से पहले सऊदी अरब पर इराक़ का हमला रोकने के लिए किया गया था, जिसका समापन कुवैत की आज़ादी के साथ हुआ था. हथियारों, ईंधन और कल-पुर्ज़ों की सूरत में लॉजिस्टिक और स्थायी उपयोग का जो बोझ होता है, वो आक्रामक अभियानों के दायरे के मुताबिक़ काफ़ी अधिक था. यही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन के आक्रामक अभियान इसलिए भी सफल हुए थे, क्योंकि उन्हें इराक़ की तरफ़ से सीमित प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ा था. पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत को ये बढ़त हासिल होने की उम्मीद कम ही है.
अगर पाकिस्तान ने लंबी अवधि में चीन की मदद से युद्ध के मैदान में भारी बख़्तरबंद वाहन उतारा, तो ये भारत के लिए बड़ा जोखिम साबित होगा. यूक्रेन में रूस ने भारी नुक़सान तो उठाया है. मगर भारत अपने मौजूदा और भविष्य के बलों को T-72, T-90, हल्के युद्धक टैंक और भविष्य के मध्यम दर्जे के लड़ाकू बख़्तरबंद वाहन (FRCV) के इर्द गिर्द गठित करने से बच नहीं सकता है.
इसलिए, 68.5 टन के भारी वज़न वाले अर्जुन MkA1 टैंक के मामले में रख-रखाव और स्थायित्व की चुनौतियां बहुत अधिक हैं. ये अभी विकसित किए जा रहे ब्रिटिश चैलेंजर-3 टैंक से भी दो टन भारी है. किसी भी स्थिति में, ख़ास तौर से भविष्य के लिए विकसित किए जा रहे बख़्तरबंद वाहन (FRCV) के मामले में भारत के पास संरक्षण के ऊपर गतिशीलता को तरज़ीह देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. तभी वो सेना की लैंड वारफेयर डॉक्ट्रिन (LWD) की शर्तों और बख़्तरबंद इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप के लिए निर्धारित सीमित सैन्य लक्ष्यों मुताबिक़ असरदार और फ़ुर्तील आक्रामक सैन्य अभियानों में अच्छा प्रदर्शन कर सकेगा. चैलेंजर-3 के उदाहरण का एक प्रमुख सबक़ रख-रखाव की अहमियत को दिखाता है. किसी वास्तविक युद्ध में भारत के लिए मौजूदा T-90 और T-72 टैंकों का रख-रखाव मुश्किल नहीं होगा. थल सेना की आर्मर्ड कोर के पास यही टैंक ज़्यादा हैं और इनको मुख्य रूप से गतिशीलता के लिए बनाया गया है, न कि सुरक्षा के दृष्टिकोण से. यूक्रेन में चल रहे युद्ध के दौरान रूस के T-90 टैंकों को बहुत भारी नुक़सान उठाना पड़ा है. इसकी एक वजह तो इन टैंकों के पास हवा या ज़मीन से होने वाले हमलों से बचाव की व्यवस्था का न होना है. वहीं, एक वजह उनका ख़राब रख-रखाव भी है. फिर भी मध्यम दर्जे के बख़्तरबंद वाहन होने की वजह से ये टैंक लॉजिस्टिक के लिहाज से अपने भारी समकक्षों की तुलना में कहीं ज़्यादा टिकाऊ साबित हुए हैं और भारत के किसी भी दुश्मन- फिर चाहे वो चीन हो या पाकिस्तान- वो युद्ध में भारी बख़्तरबंद बल तैनात नहीं करने वाले हैं. और जैसा कि कुछ विश्लेषकों ने इशारा किया है कि ऐसा करने वाले पक्ष को कहीं भारी नुक़सान युद्ध में उठाना पड़ सकता है. हां, अगर पाकिस्तान ने लंबी अवधि में चीन की मदद से युद्ध के मैदान में भारी बख़्तरबंद वाहन उतारा, तो ये भारत के लिए बड़ा जोखिम साबित होगा. यूक्रेन में रूस ने भारी नुक़सान तो उठाया है. मगर भारत अपने मौजूदा और भविष्य के बलों को T-72, T-90, हल्के युद्धक टैंक और भविष्य के मध्यम दर्जे के लड़ाकू बख़्तरबंद वाहन (FRCV) के इर्द गिर्द गठित करने से बच नहीं सकता है. वहीं दूसरी ओर, थल सेना और हथियारों के विकास में उसके साझीदार रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान (DRDO) ने कम से कम पाकिस्तान के ख़िलाफ़, शायद संयुक्त हथियारों के अभियानों में भारी कवच के इस्तेमाल के लाभ का आकलन करने का अवसर शायद गंवा दिया हो, या फिर इसका अंदाज़ा भी न लगा सके हों. अब मुख्य युद्धक अर्जुन टैंक के अपेक्षा से कम अच्छे प्रदर्शन की वो इसकी भरपाई भी नहीं कर सकते हैं. रूस-यूक्रेन युद्ध का ये भी एक बड़ा सबक़ है.
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Kartik is a Senior Fellow with the Strategic Studies Programme. He is currently working on issues related to land warfare and armies, especially the India ...
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