Published on Aug 18, 2022 Updated 26 Days ago

आख़िर कैसे भारत अपनी सेना को राजनीति से दूर रखने में कामयाब रहा है और आज़ाद भारत में नागरिक-सैन्य संबंध कैसे रहे हैं?

India@75: आज़ाद हिंदुस्तान में जनता और सेना के बीच के रिश्तों की पड़ताल!

ये लेख इंडिया@75: एसैसिंग की इंस्टीट्यूशंस ऑफ़ इंडियन डेमोक्रेसी सीरीज़ का हिस्सा है.


भारत अपनी आज़ादी के 75 साल पूरे कर चुका है. उपनिवेशवादी दौर के बाद के कालखंड में जीवंत लोकतांत्रिक राज्यसत्ता वाले चंद देशों में हिंदुस्तान का नाम शुमार है. भारत के ज़्यादातर पड़ोसी देश अपनी लोकतांत्रिक पहचान को सहेज कर रखने में नाकाम रहे हैं. इन मुल्कों में लगातार राजनीतिक अस्थिरता का दौर रहा है. राज्यसत्ता के कामकाज में सेना की भूमिका के मामले में यूरोपीय उपनिवेशवाद का हिस्सा रहे तमाम मुल्कों में  भारत एक ख़ास मुकाम बनाए हुए है.

शिक्षा जगत में इसे ‘नागरिक-सैन्य संबंधों’ की परिकल्पना के तौर पर जाना जाता है. इसमें असैनिक कार्यपालिका और सेना के बीच रिश्तों के प्रबंधन पर ध्यान दिया जाता है. ये दोनों राज्यसत्ता के दो अहम अंग हैं. किसी ख़ास लोकतांत्रिक राज्यसत्ता के संदर्भ में दोनों के लिए सत्ता की सीमाएं इसी बुनियादी कार्यकारी सिद्धांत से तय होती है. इसके बावजूद असल ज़िंदगी में इसपर अमल बेहद जटिल साबित हुआ है. भारत के पड़ोसियों समेत दुनिया भर के कई लोकतंत्रों के तजुर्बे से इस बात की तस्दीक़ होती है. इन तमाम देशों में फ़ौजी जनरलों ने तख़्तापलट के ज़रिए असैनिक राज्यसत्ता से सत्ता हड़प ली या फ़ौज राष्ट्रीय राजनीति में बहुत बड़ी भूमिका निभाती रही है. 

भारत में सैन्य बलों पर असैनिक सत्ता की सर्वोच्चता के अनिवार्य सिद्धांत का पालन होता रहा है. इस तरह घरेलू राजनीति में सेना की न के बराबर भूमिका रहती है. संविधान के मुताबिक भारतीय सेना अपने कमांडर-इन-चीफ़ यानी राष्ट्रपति के प्रति जवाबदेह है. व्यावहारिक रूप से इसमें केंद्रीय सरकार अपनी भूमिका निभाती है.

भारत के अनुभव एकदम जुदा रहे हैं. भारत में सैन्य बलों पर असैनिक सत्ता की सर्वोच्चता के अनिवार्य सिद्धांत का पालन होता रहा है. इस तरह घरेलू राजनीति में सेना की न के बराबर भूमिका रहती है. संविधान के मुताबिक भारतीय सेना अपने कमांडर-इन-चीफ़ यानी राष्ट्रपति के प्रति जवाबदेह है. व्यावहारिक रूप से इसमें केंद्रीय सरकार अपनी भूमिका निभाती है. केंद्र सरकार जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से बनती है, जो मंत्रिपरिषद, समितियों और अफ़सरशाही के ज़रिए काम करती है. यही तंत्र सेना के साथ मिलकर काम करता है. 

भारत में सेना एक ताक़तवर किरदार के तौर पर उभरी है और राष्ट्रीय मनोविज्ञान का एक अहम हिस्सा बन गई है. इसके बावजूद देश में ये व्यवस्था बरक़रार रही है. इसने बैरी पड़ोसियों की हरकतों से भारत का बचाव किया है. साथ ही संकट और क़ानून-व्यवस्था से जुड़े गंभीर हालातों में असैनिक सत्ता की भी मदद की है. प्राकृतिक आपदाओं में मदद पहुंचाने में अक्सर सेना ही सबसे पहले सामने आती है. 

1947 के बाद सैन्य सुधार

भारत में नागरिक-सैन्य रिश्तों का एक औपनिवेशिक इतिहास रहा है. लॉर्ड किचनर ने लॉर्ड कर्ज़न के ख़िलाफ़ अफ़सरशाही की लड़ाई जीती थी. इसी के नतीजे के तौर पर भारत में कमांडर-इन-चीफ़ को सेना प्रमुख के बराबर के दर्जे के साथ-साथ रक्षा मंत्री की दोहरी भूमिका मिली. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कई सुधारवादी उपाय लागू किए जिससे ये औपनिवेशिक विरासत पीछे छूट गई और नागरिक-सैन्य रिश्ते नए सांचे में ढल गए.

इनमें से पहला सुधार कमांडर-इन-चीफ़ के पद को लेकर था. 1946 की पहली अंतरिम सरकार के दौरान नेहरू ने कमांडर-इन-चीफ़ को कैबिनेट से बाहर कर दिया. उन्होंने साफ़ कर दिया कि इससे जुड़े तमाम संचार असैनिक माध्यमों से रक्षा मंत्रालय के ज़रिए होंगे. नेहरू ने सेना के शीर्ष प्रबंधन में सुधार करते हुए वायु सेना और नौसेना के लिए भी कमांडर-इन-चीफ़ के पदों का निर्माण किया. इससे थल सेना का कमांडर-इन-चीफ़ “तीनों नामित प्रमुखों में से एक” बन गया. एक ही झटके में नेहरू ने सेना में सत्ता के केंद्र का ख़ात्मा कर दिया. इससे असैनिक सरकार का दबदबा स्थापित हो गया. 

नेहरू ने भारतीय सेना की नस्लीय बनावट को बदलने की क़वायद भी शुरू की. उस वक़्त तक भारतीय थल सेना में पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत और दूसरे परंपरागत ‘लड़ाका’ समूहों का दबदबा था. नेहरू इस आधार को व्यापक बनाना चाहते थे ताकि भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की झलक मिल सके. 

इसके बाद लॉर्ड माउंटबेटन के क़रीबी जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स इसमे की मदद से सरकार ने त्रिस्तरीय व्यवस्था तैयार की. इनमें कैबिनेट की रक्षा समिति (जिसमें सरदार बलदेव सिंह ने भारत के पहले रक्षा मंत्री की ज़िम्मेदारी निभाई), रक्षा मंत्री की समिति (तीनों कमांडर-इन-चीफ़, रक्षा सचिव और वित्तीय सलाहकार) और सेना प्रमुखों की समिति (तीनों सेनाओं के प्रमुखों समेत) शामिल थी. बाद के वर्षों में इस ढांचे का स्वरूप बढ़ता-घटता रहा. उस समय की अफ़सरशाही तीनों सेना प्रमुखों के लिए “कमांडर-इन-चीफ़” की पदवी हटाने में कामयाब रही. इस तरह तीनों प्रमुखों को महज़ थल सेना, वायु सेना और नौसेना के अध्यक्ष का ही पद दिया गया. इससे राजनीतिक व्यवस्था के लिए एक ही स्थान से सैन्य मशविरा हासिल करने की क्षमता में गिरावट आ गई. 

दूसरे, सभी वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को वरिष्ठता सूची में निर्वाचित मंत्रियों और सिविल सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों के नीचे स्थान दिया गया. मिसाल के तौर पर भारत सरकार के किसी सचिव का दर्जा 1947 से पहले लेफ़्टिनेंट जनरल से नीचे होता था, उसकी रैंक अब पूर्ण जनरल के बराबर की हो गई. तीसरे, नेहरू ने भारतीय सेना की नस्लीय बनावट को बदलने की क़वायद भी शुरू की. उस वक़्त तक भारतीय थल सेना में पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत और दूसरे परंपरागत ‘लड़ाका’ समूहों का दबदबा था. नेहरू इस आधार को व्यापक बनाना चाहते थे ताकि भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की झलक मिल सके. नेहरू को भरोसा था कि ऐसी क़वायद के बाद ही भारत के नए-नवेले लोकतांत्रिक ढांचे की फ़ौजी दख़लंदाज़ियों से सुरक्षा हो सकेगी. आख़िरकार घरेलू सुरक्षा ज़िम्मेदारियों के लिए अर्द्धसैनिक बलों की स्थापना से ये सुनिश्चित हो गया कि आंतरिक विरोध-प्रदर्शनों या नागरिक असंतोष से जुड़ी घटनाओं से सेना का कोई वास्ता ही ना रहे.

ज़मीनी तौर पर इन्हीं क़दमों ने आने वाले दशकों के लिए भारत में नागरिक-सैन्य रिश्तों की कार्यकारी शर्तों की बुनियाद रखी. इससे तख़्तापलट जैसी घटनाओं से भारतीय लोकतंत्र का बचाव मुमकिन हो सका. हालांकि शुरुआती दौर में फ़ौजी अधिकारियों ने उनके क्रियाकलापों पर असैनिक नियंत्रण को लेकर अपनी नाख़ुशी का इज़हार किया था. असैनिक अधिकारियों में फ़ौजी ज्ञान के अभाव का हवाला देते हुए उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी निर्णय प्रक्रिया में फ़ौजी पक्ष की भूमिका को सीमित कर दिए जाने पर असंतोष जताया था.

व्यवहार में असैनिक सत्ता की सर्वोच्चता

आने वाले वर्षों में फ़ौज पर असैनिक सत्ता की सर्वोच्चता का और विस्तार होता चला गया. 1952 के एक नियम के तहत सैन्य मुख्यालयों को रक्षा मंत्रालय के “संबद्ध कार्यालयों” का दर्जा दिया गया. 1961 में सरकार ने एक नई कार्य आवंटन और संचालन नियमावली (AOBR और TOBR) लागू की. इस नियमावली के मुताबिक रक्षा मंत्रालय का असैनिक सचिव ही मंत्रालय के “सही तरीक़े से कार्यसंचालन” के लिए ज़िम्मेदार होगा. इनमें “युद्ध काल में रक्षा और तमाम संबंधित तैयारियां, उनका क्रियान्यवयन और युद्ध की समाप्ति के बाद सेना का प्रभावी निस्तारण” शामिल हैं.    

1962 का भारत-चीन जंग ऐसी ही एक चुनौती थी. उस वक़्त असैनिक अधिकारियों पर फ़ौजी मसलों में दख़लंदाज़ी करने के आरोप लगे थे. कुछ लोगों ने नेहरू सरकार पर कुख्य़ात ‘फ़ॉरवर्ड पॉलिसी’ को अमल में लाने का इल्ज़ाम भी लगाया. इस नीति ने चीन की आक्रामक करतूतों का जवाब देने में भारतीय फ़ौज की क्षमता को कमज़ोर कर दिया.

बाद के कालखंड में भारतीय राज्यसत्ता को सुरक्षा के मोर्चे पर कई चुनौतियों से जूझना पड़ा. ऐसे में अनेक तनावपूर्ण घटनाओं के दौरान इस व्यवस्था को इम्तिहान से गुज़रना पड़ा.

1962 का भारत-चीन जंग ऐसी ही एक चुनौती थी. उस वक़्त असैनिक अधिकारियों पर फ़ौजी मसलों में दख़लंदाज़ी करने के आरोप लगे थे. कुछ लोगों ने नेहरू सरकार पर कुख्य़ात ‘फ़ॉरवर्ड पॉलिसी’ को अमल में लाने का इल्ज़ाम भी लगाया. इस नीति ने चीन की आक्रामक करतूतों का जवाब देने में भारतीय फ़ौज की क्षमता को कमज़ोर कर दिया. जवाब में कुछ अन्य लोगों की दलील थी कि भारतीय फ़ौज ने चीनी पक्ष की ओर से अपनाए जाने वाले तमाम तरह के हथकंडों का जवाब देने के लिए सही ढंग से तैयारी नहीं की थी. इस जंग में भारत की फ़ौजी विफलता ने सैन्य मसलों में असैनिक सत्ता के ज्ञान के अभाव और कार्यकारी मसलों से परहेज़ करने की उसकी फ़ितरत को बेपर्दा कर दिया. नतीजतन असैनिक राज्यसत्ता ने जंगी मसलों को सेना के हवाले कर दिया. 1965 के युद्ध में ये बात पुरज़ोर तरीक़े से दिखाई दी. भारत-पाकिस्तान के बीच इस जंग में सेना ही पूरी तरह से अपनी भूमिका निभाती नज़र आई. हालांकि इस तौर-तरीक़े की भी अपनी दिक़्क़तें सामने आईं. इनमें युद्धविराम की घोषणा भी शामिल है. ये एलान उस वक़्त किया गया जब पाकिस्तान हार की कगार पर पहुंच गया था. 

बहरहाल, इस वक़्त तक एक और रुझान दिखाई देने लगा. वो था- असैनिक सत्ता द्वारा फ़ौज से सलाह-मशविरा कर उन्हें राजनीतिक मसलों की जानकारी देना. हालांकि इस मसले में ख़ास कार्यकारी ब्योरों पर फ़ैसले की ज़िम्मेदारी सेना पर ही छोड़ दी गई. इस व्यवस्था के तहत 1971 में बांग्लादेश युद्ध के दौरान कामयाब नतीजे देखने को मिले. हालांकि पंजाब (1984) में ऑपरेशन ब्लूस्टार और श्रीलंका (1987) में ऑपरेशन पवन के दौरान यही व्यवस्था विनाशकारी साबित हुई.   

1999 के कारगिल युद्ध से नागरिक-सैन्य रिश्तों के बेहतर संचालन के लिए काफ़ी प्रयास किए गए हैं. 2001 में राष्ट्रीय सुरक्षा पर बने मंत्रिसमूह ने रक्षा मंत्रालय में सैनिक और असैनिक खंडों को एकीकृत कर चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ (CDS) के पद का निर्माण करने की सिफ़ारिश की थी.

बहरहाल भारत में असैनिक राज्यसत्ता की सर्वोच्चता स्थापित किए जाने का कुछ आलोचकों ने विरोध किया. उनकी दलील थी कि इस व्यवस्था से सेना के प्रभाव को झटका लगा है. उनके पारस्परिक जुड़ाव में नतीजों से ज़्यादा प्रक्रिया पर ज़ोर दिया गया. भले ही 1962 में चीन के साथ सरहद पर हुए युद्ध के बाद किसी और जंग में भारत को हार नहीं मिली हो, लेकिन उसके कार्यकारी प्रदर्शन में सुधार की गुंजाइश हमेशा बरक़रार रही है. एक और अहम बात ये है कि इस व्यवस्था ने असैनिक-सैन्य कलह या ‘संवादहीनता’ को जन्म दिया. इसके तहत दोनों ही पक्षों में राष्ट्रीय सुरक्षा के अहम लक्ष्यों को लेकर मतभेद सामने आए. मिसाल के तौर पर 2003-2007 के बीच तत्कालीन सरकार पाकिस्तान के साथ अमन-चैन की नीति को बढ़ावा दे रही थी, जबकि सेना कोल्ड स्टार्ट जैसे सिद्धांत को अमली जामा पहनाने में मशगूल थी. इससे परस्पर विरोधी संकेत सामने आए.   

नागरिक-सैनिक संबंध मज़बूत करना

1999 के कारगिल युद्ध से नागरिक-सैन्य रिश्तों के बेहतर संचालन के लिए काफ़ी प्रयास किए गए हैं. 2001 में राष्ट्रीय सुरक्षा पर बने मंत्रिसमूह ने रक्षा मंत्रालय में सैनिक और असैनिक खंडों को एकीकृत कर चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ (CDS) के पद का निर्माण करने की सिफ़ारिश की थी. बहरहाल इस प्रक्रिया का इकलौता अंजाम तीनों सेनाओं के मुख्यालयों के नाम में परिवर्तन के तौर पर सामने आया. थल सेना, नौसेना और वायु सेना के मुख्यालयों को “एकीकृत मुख्यालय” का नाम दे दिया गया. हालांकि, ज़मीन पर कोई वास्तविक एकीकरण देखने को नहीं मिला. इस बीच राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय में सैन्य/रक्षा शाखा की स्थापना से राष्ट्रीय सुरक्षा चिंतन और निर्णय प्रक्रिया में सेना की भागीदारी के लिए एक और अवसर तैयार हुआ. 

मोदी सरकार ने अलग-अलग क़वायदों वाले दो ख़ास क़दमों के ज़रिए इस मसले से निपटने की कोशिश की है. इन दोनों उपायों का मक़सद असैनिक-सैन्य संबंधों को बढ़ावा देना है. हालांकि इन उपायों का रुख़ शीर्ष से नीचे की ओर प्रवाह वाला है. इस सिलसिले में एक ओर रक्षा योजना समिति (DPC) तैयार की गई. इसके मुखिया राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल हैं. “रक्षा मसलों पर समग्र और एकीकृत योजनाओं को आसान” बनाने के लिए इसमें तीनों सेना प्रमुखों को शामिल किया गया है. DPC विदेश नीति की अनिवार्यताओं, कार्यकारी दिशानिर्देशों, सामरिक और सुरक्षा सिद्धांतों और रक्षा ख़रीद और बुनियादी ढांचे जैसे मसलों में योजनाओं का विश्लेषण करती है. इंटीग्रेटेड डिफ़ेंस स्टाफ़ को इसके सचिवालय के तौर पर नियुक्त किया गया. इससे ये असमंजस पैदा हो गया कि क्या इस प्रणाली के ज़रिए CDS की कोई हाइब्रिड व्यवस्था तैयार हो गई है!

कुछ अर्से बाद ही दूसरा क़दम सामने आया. वो था 2019 में जनरल बिपिन रावत की पहले CDS के तौर पर नियुक्ति. इसके साथ ही AOBR और TOBR की परेशानियों को दूर करने के लिए उन्हें रक्षा मंत्रालय में नवगठित सैन्य मसलों के विभाग (DMA) का सचिव भी नियुक्त किया गया. 1952 के बाद पहली बार सशस्त्र बलों को सरकार के शीर्षस्थ ढांचे के तहत लाया गया.

बहरहाल, रक्षा से जुड़े ख़तरों के बदलते परिदृश्य से निपटने के लिए बेहतर जानकारी से लैस नेतृत्व की दरकार है. ख़ासतौर से परमाणु ख़तरे के माहौल में राजनीतिक नेतृत्व के लिए ऐसी क़वायद ज़रूरी है.

 

DMA तीनों सशस्त्र सेनाओं, सशस्त्र बलों के एकीकृत मुख्यालयों और टैरिटोरियल आर्मी का संचालन करती है. इसके अलावा तीनों सेनाओं से जुड़े क्रियाकलापों, पूंजीगत अधिग्रहण को छोड़कर बाक़ी तमाम ख़रीदों और मिलिट्री कमांड के पुनर्गठन जैसे मसले भी इसके दायरे में आते हैं. इन तमाम बातों को दिसंबर 2019 में AOBR में संशोधन के ज़रिए सामने रखा गया. ये कई मायनों में असंगत लगती है. आज भी रक्षा सचिव ही भारत की रक्षा से जुड़े मसलों के लिए जवाबदेह हैं. 1961 के AOBR की पुरानी भाषा में “रक्षा नीति सहित” शब्द जोड़ दिया गया है. इसके साथ ही सरकार ने साफ़ कर दिया कि पूंजीगत अधिग्रहणों के लिए भी रक्षा सचिव ही जवाबदेह बने रहेंगे. बहरहाल असैनिक नियंत्रण को ढीला कर और सैन्य मसलों में अफ़सरशाही की दख़लंदाज़ियों में कटौती कर सरकार ने शीर्ष ढांचे में सेना (जो रक्षा से जुड़ा कमकाज संभालती है) के रुतबे को ऊंचा उठाने का प्रयास किया है. इस दिशा में एक चुनौती अब भी जस की तस है: कार्यकारी मसलों में असैनिक जुड़ावों का अभाव, जैसा 1960 और 1970 के दशकों के तजुर्बों से सामने आया है. बहरहाल, रक्षा से जुड़े ख़तरों के बदलते परिदृश्य से निपटने के लिए बेहतर जानकारी से लैस नेतृत्व की दरकार है. ख़ासतौर से परमाणु ख़तरे के माहौल में राजनीतिक नेतृत्व के लिए ऐसी क़वायद ज़रूरी है. ग़ौरतलब है कि सिर्फ़ राजनीतिक नेतृत्व ही परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का अधिकार दे सकता है. ऐसे में कार्यकारी मसलों में उसका और ज़्यादा जुड़ाव ज़रूरी है. देशहित में नागरिक और सैन्य संबंधों का बेहतरीन संचालन आवश्यक है. लिहाज़ा कार्यकारी मसलों में असैनिक नेतृत्व और सैन्य अधिकारियों के बीच की दीवार को ढहाना निहायत ज़रूरी हो जाता है. 

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Authors

Manoj Joshi

Manoj Joshi

Manoj Joshi is a Distinguished Fellow at the ORF. He has been a journalist specialising on national and international politics and is a commentator and ...

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Sameer Patil

Sameer Patil

Dr Sameer Patil is Director, Centre for Security, Strategy and Technology at the Observer Research Foundation.  His work focuses on the intersection of technology and national ...

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