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नीति निर्माता और इस काम में लगे हुए लोग पूर्वधारणा के मूल रूप से दोबारा मूल्यांकन की ज़रूरत पर उभरती आम सहमति का नेतृत्व कर रहे हैं
हाल के समय से अलग, राष्ट्रीय सुरक्षा परिदृश्य मंथन के दौर से गुज़र रहा है, जिससे उलझनें और नई वास्तविकताएं बन रही हैं. आगे बढ़ते चीन से लेकर जलवायु परिवर्तन के दबाव तक; आतंकवाद निरोधी चुनौतियों से लेकर कभी ख़त्म न होने वाली कोविड-19 महामारी तक, पुरानी व्यवस्था किसी देश के द्वारा नई व्यवस्था के निर्माण की क्षमता के मुक़ाबले ज़्यादा तेज़ी से ख़त्म हो रही है. राष्ट्रीय सुरक्षा पर चर्चा और संवाद धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से लगभग एक क्रांतिकारी परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा है. वैसे तो अकादमिक जगत लंबे समय से राष्ट्रीय सुरक्षा की एक ‘सर्वांगीण’ धारणा की ज़रूरत को लेकर बातचीत कर रहा है लेकिन इस काम में लगे हुए लोगों ने उस बहस को बहुत ज़्यादा गोपनीय समझा था. आज नीति निर्माता और इस काम में लगे हुए लोग ख़ुद राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी सोच के बारे में हमारी पूर्वधारणा के मूल रूप से दोबारा मूल्यांकन की ज़रूरत पर उभरती आम सहमति का नेतृत्व कर रहे हैं.
जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा नीति बनाने की आती है तो अमेरिका के नीति निर्माताओं ने अपने ज्ञान से भरे दृष्टिकोण को बदलना शुरू कर दिया है. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जो प्रक्रिया शुरू की थी, उसे बाइडेन प्रशासन उत्साह के साथ आगे बढ़ा रहा है. दृढ़तापूर्वक ये कहते हुए कि “विदेश नीति घरेलू नीति है और घरेलू नीति विदेश नीति है” अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने बताया कि उनकी टीम का काम “घर और बाहर में हम जिस अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहे हैं यानी महामारी, आर्थिक संकट, जलवायु संकट, तकनीकी रुकावट, लोकतंत्र को ख़तरा, नस्लीय अन्याय और हर रूप में असमानता” को अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए फिर से परिभाषित करना है. उन्होंने दलील दी कि “जो गठबंधन हम फिर से बनाते हैं, जिन संस्थानों का हम नेतृत्व करते हैं, जिन समझौतों पर हम हस्ताक्षर करते हैं, उन सभी पर निर्णय एक मूल सवाल के आधार पर होना चाहिए. क्या वो जीवन को बेहतर, आसान और सुरक्षित बनाने के साथ देश भर के कामकाजी परिवारों के लिए हैं?”
अमेरिका के नीति निर्माताओं ने अपने ज्ञान से भरे दृष्टिकोण को बदलना शुरू कर दिया है. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जो प्रक्रिया शुरू की थी, उसे बाइडेन प्रशासन उत्साह के साथ आगे बढ़ा रहा है. दृढ़तापूर्वक ये कहते हुए कि “विदेश नीति घरेलू नीति है और घरेलू नीति विदेश नीति है
अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भी अपनी टिप्पणियों में इस संदेश को दोहराया कि “मेरे करियर के किसी और समय के मुक़ाबले- शायद मेरी पूरी ज़िंदगी के दौरान- घरेलू और विदेश नीति के बीच अंतर आसानी से मिट गया है” और “दुनिया में हमारी घरेलू शुरुआत और हमारी मज़बूती पूरी तरह घनिष्ठता से जुड़ी हुई है और हम किस तरह से काम करते हैं वो उस वास्तविकता को दिखाएगा.”
सुलिवान और ब्लिंकन- दोनों को ये सलाह अपने बॉस राष्ट्रपति बाइडेन से मिली है जिन्होंने “मध्य वर्ग के लिए विदेश नीति” पर अभियान चलाया था और जो अमेरिका की ज़रूरत को लेकर अडिग रहे हैं कि “हमारे लोगों में निवेश किया जाए, इनोवेशन में हमारी धार को तेज़ किया जाए, और मध्य वर्ग को बढ़ाने के लिए और असमानता कम करने के लिए दुनिया भर के लोकतंत्रों की आर्थिक ताक़त को एकजुट किया जाए. साथ ही हमारे प्रतिस्पर्धियों और विरोधियों के बेहद कम दाम पर सामान बेचने की चालाकी का मुक़ाबला करने जैसा काम किया जाए.”
आज अमेरिका में इस बात को लेकर दोनों दलों में स्वीकार्यता बढ़ रही है कि अगर शीत युद्ध के दौरान अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा ज़रूरतों को काफ़ी हद तक बमवर्षक विमानों के बेड़े, परमाणु मिसाइलों, एयरक्राफ्ट कैरियर और विदेशी अड्डों से पूरा किया गया तो आज के सामरिक माहौल के लिए अलग जवाब की ज़रूरत है: ऐसा जवाब जो घरेलू औद्योगिक बुनियाद को मज़बूत करे, महत्वपूर्ण तकनीकों में बढ़त को बनाए रखने में मदद करे, महत्वपूर्ण सामानों में सप्लाई चेन को ज़्यादा लचीला बनाए, महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर को साइबर हमलों से बचाए और जलवायु परिवर्तन का जवाब काफ़ी महत्व की भावना के साथ दे.
विदेशी और घरेलू नीतियों के आपस में मज़बूती से जुड़े होने का विचार अनोखा नहीं है. लोकतांत्रिक देशों में सभी गंभीर बड़े रणनीतिक विचार अंत में लोगों के समर्थन पर टिके होते हैं. ट्रंप के उदय और उनके विचारों ने अमेरिकी विदेश नीति के दफ़्तर में उदारवादियों और रूढ़िवादियों- दोनों को चुनौती दी. इसकी वजह ये थी कि ट्रंप के विचारों ने नीतिगत समुदाय और अमेरिका के आंतरिक इलाक़ों में रहने वाले लोगों की सोच के बीच बढ़ती दूरी को रेखांकित दिया. बाइडेन और उनकी टीम ने अपना सबक़ सीख लिया है. सुलिवन राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को व्हाइट हाउस के दूसरे अंगों जैसे राष्ट्रीय आर्थिक परिषद, घरेलू नीति परिषद, विज्ञान और तकनीकी नीति के कार्यालय के साथ जोड़ने की दिशा में काम कर रहे हैं. ऐसा करने से अपरिहार्य रूप से चुनौतियां खड़ी होंगी लेकिन इस नई वास्तविकता से कोई संकोच नहीं करना चाहिए.
विदेशी और घरेलू नीतियों के आपस में मज़बूती से जुड़े होने का विचार अनोखा नहीं है. लोकतांत्रिक देशों में सभी गंभीर बड़े रणनीतिक विचार अंत में लोगों के समर्थन पर टिके होते हैं. ट्रंप के उदय और उनके विचारों ने अमेरिकी विदेश नीति के दफ़्तर में उदारवादियों और रूढ़िवादियों- दोनों को चुनौती दी.
विदेशी और घरेलू नीतियों के आपस में मज़बूती से जुड़े होने का विचार अनोखा नहीं है. लोकतांत्रिक देशों में सभी गंभीर बड़े रणनीतिक विचार अंत में लोगों के समर्थन पर टिके होते हैं. ट्रंप के उदय और उनके विचारों ने अमेरिकी विदेश नीति के दफ़्तर में उदारवादियों और रूढ़िवादियों- दोनों को चुनौती दी.
भारत में भी हमने घरेलू कमज़ोरियों से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को लेकर ज़्यादा मान्यता देखी है. कोविड-19 महामारी के महत्वपूर्ण नतीजों में से एक है, जिसे ख़ुद पीएम मोदी ने रेखांकित किया है, कि इस बात का ख़ुलासा हुआ कि महत्वपूर्ण चीज़ों की आपूर्ति के मामले में भारत कितने गहरे रूप से चीन के उत्पादन पर निर्भर है. जिस वक़्त भारतीय सशस्त्र बल वास्तविक नियंत्रण रेखा के उस पार पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का सामना कर रहे थे, उस वक़्त भारत को एक नई समझ का एहसास हुआ कि विदेशी सप्लाई चेन पर निर्भरता सबसे बड़ी राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौती है, ऐसी चुनौती जिसे अब और ज़्यादा नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. इस चुनौती से अवगत होने के बाद भारत महत्वपूर्ण क्षेत्रों में घरेलू क्षमता बढ़ाने की तरफ़ बढ़ा है. साथ ही भारत ने नये दृष्टिकोण से मुक्त व्यापार समझौतों की तरफ़ देखना शुरू किया है.
भारतीय सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवणे ने भी अपनी टिप्पणी में साफ़ कर दिया है कि इस देश में सैन्य नेतृत्व का दृष्टिकोण भी विकसित हो रहा है. उन्होंने दलील दी कि “राष्ट्रीय सुरक्षा में सिर्फ़ युद्ध और रक्षा ही शामिल नहीं हैं बल्कि सूचना सुरक्षा के अलावा वित्तीय सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा और पर्यावरण सुरक्षा भी हैं.” उन्होंने सुझाव दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा को “मुख्य रूप से सशस्त्र संघर्ष के दृष्टिकोण से देखने के बदले इस बात की ज़रूरत है कि सुरक्षा की तरफ़ पूरे सरकारी नज़रिए से देखा जाए.”
जिस वक़्त भारतीय सशस्त्र बल वास्तविक नियंत्रण रेखा के उस पार पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का सामना कर रहे थे, उस वक़्त भारत को एक नई समझ का एहसास हुआ कि विदेशी सप्लाई चेन पर निर्भरता सबसे बड़ी राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौती है, ऐसी चुनौती जिसे अब और ज़्यादा नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.
महामारी के बाद की दुनिया में, जहां राष्ट्रीय संसाधनों पर गंभीर दबाव है, नीति निर्माताओं के लिए महत्वपूर्ण होगा कि वो नागरिक और सैन्य क्षेत्र के बीच तालमेल पर बल दें. सेना प्रमुख ने सही ढंग से उन स्पष्ट और अस्पष्ट तरीक़ों के बारे में बताया है जिनके ज़रिए सशस्त्र बलों में निवेश राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान देता है जैसे रक्षा ख़रीद का स्थानीयकरण, देसी उद्योगों को प्रोत्साहन मुहैया कराना, नागरिक प्रशासन या मानवीय सहायता और आपदा राहत के अभियान में मदद, इंफ्रास्ट्रक्चर की रक्षा, सशस्त्र बलों के द्वारा हाई-टेक सैन्य उत्पादों की मांग के ज़रिए पूरे उद्योग को बढ़ावा, और आपातकाल के समय में सशस्त्र बलों की परिवहन एवं साजो-सामान की क्षमता का सरकार की ताक़त बढ़ाने के काम आना.
सेना के नेतृत्व ने प्रमुख रूप से युद्ध लड़ने पर ध्यान देने के बदले राष्ट्रीय सुरक्षा की एक व्यापक धारणा को बनाए रखने में सशस्त्र बलों की भूमिका को साबित करने में अच्छा काम किया है. जैसे-जैसे दुनिया भर के देश अपने लक्ष्य, तरीक़े और साधनों को संतुलित करने के लिए सामरिक प्राथमिकता को फिर से परिभाषित करेंगे, वैसे-वैसे संसाधनों के आवंटन का सवाल और भी ज़्यादा विवादास्पद हो जाएगा और नीति निर्माताओं को शासन कला के अलग-अलग औज़ारों की भूमिका के बारे में और भी रचनात्मक तरीक़े से सोचने की ज़रूरत पड़ेगी. राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में विचार बदलाव के दौर से गुज़र रहा है. भारत इसमें पीछे नहीं रह सकता.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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