भारत और सऊदी अरब के बीच मज़बूत होते सैन्य सहयोग
सऊदी अरब के थल सेना प्रमुख, कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल फहद बिन अब्दुल्लाह मुहम्मद अल मुतैर के पहले भारत दौरे ने, दोनों देशों के रक्षा संबंधों को एक नए दायरे की तरफ़ आगे बढ़ाया है. जबकि, अब तक दोनों देशों के बीच सैन्य सहयोग सिर्फ़ सुदूर समुद्र में दोनों देशों की नौसेनाओं के बीच तालमेल से परिभाषित होता रहा था. सऊदी जनरल के भारत दौरे ने खाड़ी देशों के साथ भारत के सामरिक सहयोग बढ़ाने की कोशिशों पर और रौशनी डाली है. हाल ही में भारत ने सऊदी अरब के बेहद क़रीबी सहयोगी, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के साथ व्यापक साझेदारी का आर्थिक समझौता (CEPA) किया था. इससे दोनों क्षेत्रों के बीच सहयोग के विकास का नया मानक गढ़ा गया.
भारत ने सऊदी अरब के बेहद क़रीबी सहयोगी, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के साथ व्यापक साझेदारी का आर्थिक समझौता (CEPA) किया था. इससे दोनों क्षेत्रों के बीच सहयोग के विकास का नया मानक गढ़ा गया.
लेफ्टिनेंट जनरल मुतैर के भारत दौरे से पहले, भारतीय थल सेनाध्यक्ष जनरल एमएम नरवणे ने दिसंबर 2020 में खाड़ी देशों का दौरा किया था. इसके बाद दोनों देशों के बीच अगस्त 2021 में पहला संयुक्त नौसैनिक अभ्यास भी किया गया था. अपनी इस यात्रा के दौरान भारत और सऊदी अरब रक्षा सहयोग बढ़ाने पर सहमत हुए. इसमें ख़रीद-फरोख़्त बढ़ाने और रक्षा उद्योग के क्षेत्र में सहयोग की संभावनाएं तलाशने का काम शामिल है. सच तो ये है कि लेफ्टिनेंट जनरल अल मुतैर और जनरल नरवणे ने सार्वजनिक रूप से इस दौरे की तस्वीरें जारी कीं. दोनों सेनाध्यक्षों के पीछे दीवार पर वो तस्वीर टंगी थी, जब 1971 में पाकिस्तान ने युद्ध में हार के बाद ढाका में आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर दस्तख़त किए थे, और जिसके बाद बांग्लादेश का एक आज़ाद देश के तौर पर उदय हुआ था. ज़ाहिर है, सऊदी अरब ने ये दिखाने की कोशिश की कि बांग्लादेश का निर्माण आज उसके लिए कोई मुद्दा नहीं है. ये तस्वीरें उन बदलावों को दर्शाती हैं, जो पिछले कुछ वर्षों में आए हैं, और भारत और कश्मीर के मसले को लेकर खाड़ी देशों पर पाकिस्तान का असर अब बहुत सीमित हो गया है.
सुपरपॉवर के तौर पर अमेरिका को गफ़लत
रक्षा के मामलों में सऊदी अरब के साथ भारत के लगातार बढ़ते सहयोग के साथ-साथ दोनों देशों के बीच कूटनीति भी चर्चा के केंद्र में है. भारत की ओर से ये सामरिक और रणनीतिक क़दम, उस वक़्त उठाए जा रहे हैं, जब पश्चिमी एशिया (मध्य पूर्व) के क्षेत्र में सुरक्षा के पारंपरिक समीकरण अब नए सिरे से ढाले जा रहे हैं. जहां अमेरिका का रवैया अब उतना आक्रामक नहीं रहा है, जबकि चीन की उपस्थिति लगातार बढ़ती जा रही है और शायद सबसे अहम बात ये कि इस क्षेत्र की तीन सबसे अहम ताक़तों, सऊदी अरब, ईरान और इज़राइल के बीच सामरिक समीकरणों में भी बदलाव आ रहा है. वर्ष 2020 में अब्राहम समझौतों पर दस्तख़त के बाद कुछ अरब देशों और इज़राइल के बीच पर्दे के पीछे चल रहा सहयोग खुलकर सामने आ गया. वैसे तो ताक़त की ये एकजुटता साझा हितों के चलते, यानी ईरान की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं से निपटने आई है. लेकिन, ये समझौता अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के नज़रिए और उनकी कोशिशों की वजह से भी हो सका. क्योंकि ट्रंप चाहते थे कि अमेरिका दुनिया की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी निभाने की अपनी पारंपरिक भूमिका से पीछे हटे. इन बातों का असर पूरे पश्चिमी एशिया पर अब भी महसूस किया जा रहा है. क्योंकि, नीति निर्माता और विद्वान अमेरिकी शक्ति के मध्य पूर्व से ‘पीछे हटने’ के मौजूदा माहौल के असर को समझने की कोशिश कर रहे हैं. जैसा कि पूर्व राजनयिक मार्टिन इंडिक ने सवाल उठाया है कि, ‘अमेरिका के बाद वाला मध्य पूर्व कैसा दिखेगा’? मध्य पूर्व जैसे अपने प्रभाव वाले पारंपरिक इलाक़ों में सुपरपॉवर के तौर पर अपनी भूमिका को लेकर अमेरिका को जो गफ़लत है, उसे सबसे अच्छे तरीक़े से शायद एमोस याल्दिन और असाफ ओरियॉन जैसे विद्वानों ने ही बयां किया है. वो इस वक़्त अमेरिका की स्थिति को ‘बिना छोड़े अनुपस्थित’ के रूप में वर्णित करते हैं यह कहते हुए कि अमेरिका अभी भी प्रभावी तरीक़े से क्षेत्र में मौजूद है. लेकिन, अपनी ताक़त के इस्तेमाल को लेकर उसकी इच्छाशक्ति ‘सीमित है और लगातार कम होती जा रही’ है.
इन बातों का असर पूरे पश्चिमी एशिया पर अब भी महसूस किया जा रहा है. क्योंकि, नीति निर्माता और विद्वान अमेरिकी शक्ति के मध्य पूर्व से ‘पीछे हटने’ के मौजूदा माहौल के असर को समझने की कोशिश कर रहे हैं.
खाड़ी देशों के साथ भारत के मज़बूत होते रक्षा संबंधों को हमें मध्य पूर्व के सुरक्षा ढांचे में आ रहे इन बुनियादी बदलावों के साथ संरेखित करना जरूरी है. फ़ारस की खाड़ी के समुद्री मार्ग लगातार दबाव में आ रहे हैं. इसके जवाब में भारत ने 2021 में ऑपरेशन संकल्प चलाया था, जब अमेरिका और ईरान के बीच बढ़ी तनातनी के बीच भारतीय नौसेना के जंगी जहाज़ों को ये ज़िम्मेदारी दी गई थी कि वो भारत के झंडे लगे जहाज़ों को फ़ारस की खाड़ी के इलाक़े से सुरक्षित निकलने में मदद करें. रिपोर्ट्स के मुताबिक़, उस दौरान भारतीय जंगी जहाज़ों ने हर रोज़ लगभग 16 व्यापारिक जहाज़ों को उस क्षेत्र से सुरक्षित निकाला था. ये वो समुद्री मार्ग है, जो भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद अहम है. क्योंकि, भारत अपनी तेल और गैस की ज़रूरतों का लगभग पूरा हिस्सा आयात करता है. एशिया के अन्य आयातक देश जैसे कि चीन और दक्षिण कोरिया ने भी ऐसी ही तैनाती करने के वादे किए थे. अगस्त 2021 में अफ़ग़ानिस्तान के पतन के बाद से तो, मध्य पूर्व में अमेरिका द्वारा प्रदान किए जाने वाले सुक्षा कवच को लेकर अनिश्चितता और भी बढ़ गई है. अमेरिकी सुरक्षा कवच के साए तले अपनी गतिविधियां चलाने वाले देशों को, इन घटनाओं के चलते अपने सामरिक नज़रिए को नए सिरे से ढालना पड़ा है. इन देशों में भारत भी शामिल है. अमेरिका द्वारा दिए जाने वाले सुरक्षा कवच का एक और अहम नतीजा भी निकला था जिसकी चर्चा बहुत कम होती है. ये असर इस क्षेत्र की इस्लामिक राजनीति के अधिक नरमपंथी और वैश्विक विचारधारा को बढ़ाने वाला था. इसके कुछ रंग हमें संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब में देखने को मिलते हैं. आज सऊदी अरब अपने सुधारवादी एजेंडे को लेकर आगे बढ़ रहा है और विश्व अर्थव्यवस्था से और मज़बूती से एकीकृत हो रहा है. अपने सुधारवादी एजेंडे के तहत सऊदी अरब ने राजनीति और समाज में पारंपरिक भूमिकाओं में बदलाव लाने की कोशिश की है. हालांकि, अभी ये देखना बाक़ी है कि लंबी अवधि में ये सुधार कितने असरदार साबित होते हैं.
बड़े सहयोग के अवसर
जहां तक द्विपक्षीय संबंधों की बात है, तो सऊदी अरब अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक निवेश के लिए खोल रहा है. इसमें भारत के लिए भी बहुत से अवसर हैं. ख़ास तौर से निजी कंपनियों द्वारा रक्षा तकनीक के क्षेत्र में निवेश के. अब जबकि सऊदी अरब तेल पर अपनी आर्थिक निर्भरता को कम करने की कोशिश कर रहा है, तो भी उसे इन प्रयासों की कामयाबी के लिए एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में तेल की भारी खपत से मदद की दरकार है. हाल ही में भारत ने संयुक्त अरब अमीरात से जो आर्थिक समझौता (CEPA) किया है, उसके तहत भारत के 1 लाख 40 हज़ार बेहद कुशल कामगारों को वीज़ा देना शामिल है. सऊदी अरब और भारत के बीच ऐसी ही सहमति बनने से दोनों देशों के बीच तकनीक और रक्षा तकनीक के सहयोग के बड़े अवसर निकल सकते हैं. हालांकि, यहां पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस मामले में मुक़ाबला बहुत कड़ा है. खाड़ी देश पारंपरिक रूप से हथियारों के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भर रहे हैं और हालांकि मिस्र जैसे देशों ने रूस से मिग 29 लड़ाकू विमान ख़रीदे और संयुक्त अरब अमीरात, चीन में बने विंग लूंग ड्रोन का संचालन कर रहा है. मगर इस मामले में भारत के पास देने के लिए कुछ ख़ास नहीं है. ख़बर है कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने रूस और भारत द्वारा मिलकर विकसित की गई ब्रह्मोस मिसाइल सिस्टम में दिलचस्पी ज़रूर दिखाई है. लेकिन, इस दिशा में कोई ख़ास प्रगति अब तक तो नहीं हुई है और विशेषज्ञों को संदेह है कि भारत खाड़ी देशों को ये मिसाइल बेच पाएगा, क्योंकि इसमें रूस भी शामिल है. भारत और सऊदी अरब के बीच कार्बाइन राइफलों का सौदा भी हाल ही में नाकाम हो गया, क्योंकि 2020 में लद्दाख में शुरू हुई चीन के साथ तनातनी के बाद से भारत लगातार ‘आत्मनिर्भर भारत’ पर ज़ोर दे रहा है.
हाल ही में भारत ने संयुक्त अरब अमीरात से जो आर्थिक समझौता (CEPA) किया है, उसके तहत भारत के 1 लाख 40 हज़ार बेहद कुशल कामगारों को वीज़ा देना शामिल है. सऊदी अरब और भारत के बीच ऐसी ही सहमति बनने से दोनों देशों के बीच तकनीक और रक्षा तकनीक के सहयोग के बड़े अवसर निकल सकते हैं.
इस वक़्त खाड़ी देशों के साथ भारत का रक्षा सहयोग व्यापार, ऊर्जा सुरक्षा और आबादी के क्षेत्र पर केंद्रित है और ऐसा होना भी चाहिए. भारत की स्वदेशी रक्षा तकनीक में कम से कम आज की तारीख़ में तो ऐसा कुछ नहीं है, जो खाड़ी देशों के पास मौजूद विकल्पों से बेहतर हो. न ही भारत के पास देने के लिए पश्चिमी देशों या फिर यहां तक कि रूस या चीन से बेहतर चीज़ें उपलब्ध हैं. इसके बावजूद, रक्षा तकनीक और निर्माण में सहयोग को बढ़ाने की उम्मीद पालना अच्छी बात है. लेकिन, फ़ौरी तौर पर हितों को सुरक्षित करने की राह ही आने वाले समय में सामरिक सहयोग बढ़ाने की बुनियाद बन रही है. भारत को चाहिए कि वो खाड़ी देशों को भविष्य के लिए ख़ुद का टिकाऊ सुरक्षा ढांचा बनाने में सहयोग करे, जिससे कि इस क्षेत्र को किसी तीसरे पक्ष द्वारा दिए जाने वाले ‘सुरक्षा कवच’ पर निर्भर न होना पड़े. इस मक़सद के लिए भारत की अर्थव्यवस्था और बाज़ार ख़ुद को अंतर्क्षेत्रीय रक्षा तकनीक केंद्र के विकास में सहयोग की मुख्य भूमिका निभाने के लिए पेश कर सकते हैं. इससे, सऊदी अरब जैसे देशों को अपने सुधारवादी मक़सद हासिल करने में काफ़ी मदद मिलेगी.
ओआरएफ हिन्दी के साथ अब आप Facebook, Twitter के माध्यम से भी जुड़ सकते हैं. नए अपडेट के लिए ट्विटर और फेसबुक पर हमें फॉलो करें और हमारे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें. हमारी आधिकारिक मेल आईडी [email protected] के माध्यम से आप संपर्क कर सकते हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.