Author : Rahul Rawat

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jun 20, 2024 Updated 0 Hours ago

पीएनई की पचासवीं वर्षगांठ ने एक ज़िम्मेदारर परमाणु शक्ति के रूप में भारत की भूमिका को सामने रखा है जो वैश्विक अप्रसार और निर्यात पर नियंत्रण के पूरी तरह पालन करने और उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है.

भारत की प्रभावी निर्यात नियंत्रण को लेकर ज़िम्मेदार और असाधारण परमाणु नीति

18 मई, 1974 को भारत ने अपने पहले प्लूटोनियम डिवाइस का विस्फोट—पीसफुल न्यूक्लियर एक्सप्लोज़न (पीएनई) किया था. इस पीएनई के ज़रिये भारत में अपने घरेलू प्रभाव पड़े थे जिनमें राष्ट्रीय गौरव की भावना के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लोकप्रियता में बढ़ोतरी करना शामिल था. बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी आलोचना हुई और 48 देशों के समूह ‘लंदन क्लब’, परमाणु तथा दोबारा इस्तेमाल करने वाले तत्वों के निर्यात के मामले में कुछ तय नियमों, जिन्हें एनएसजी गाइडलाइन्स के नाम से जाना जाता है, के पालन के लिए प्रतिबद्ध था. इस समूह ने इसकी निंदा की और वैश्विक रूप से परमाणु टेक्नोलॉजी तक भारत की पहुंच पर प्रतिबंध लगा दिया.

पीएनई में इस्तेमाल किये गये विदेशी पुर्ज़े या घटक: परीक्षण के लिए प्लूटोनियम ट्रॉम्बे के सायरस (CIRUS) रिएक्टर से आया था, जिसकी आपूर्ति कनाडा द्वारा की गई थी और गुरुजल अमेरिका से आयात किये गये परमाणु तकनीक़ के ज़रिये निकाला गया था. उस वक्त वैश्विक स्तर पर ‘परमाणु नस्लभेद’ बरता गया और इससे भारत की परमाणु तकनीक तक पहुँच पर प्रतिबंध लग गया और जिसका नतीजा ये हुआ कि देश के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम पर इसका तुरंत असर पड़ा.

बाद में, 1998 में भारत एटम से जुड़ी टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के प्रति ज़िम्मेदारर दृष्टिकोण के साथ एक प्रत्यक्ष परमाणु शक्ति के रूप में पूरी दुनिया में उभरा. धीरे-धीरे, भारत ने भूमि, वायु और समुद्र आधारित प्रक्षेपकों से परमाणु वॉरहेड दागने की क्षमता भी हासिल कर ली और अपनी परमाणु शक्ति को पूरी तरह से विकसित कर लिया. इसके साथ ही, भारत ने संवेदनशील, रणनीतिक और परमाणु संबंधी तकनीक तक पहुंच के मानदंड भी स्थापित कर लिए. 

इस आलेख में इस बात का आकलन किया गया है कि वर्ष 1974 में भारत का पीएनई कार्यक्रम एक ज़िम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में भारत की उपलब्धि की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई.

इस आलेख में इस बात का आकलन किया गया है कि वर्ष 1974 में भारत का पीएनई कार्यक्रम एक ज़िम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में भारत की उपलब्धि की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई. साथ ही इसने परमाणु तकनीक के इस्तेमाल  और उसके शांतिपूर्ण उपयोग के लिए ज़रूरी निर्यात नियंत्रण विनियमन का रास्ता भी भारत के लिये प्रशस्त किया. 

PNE के बाद और मज़बूत निर्यात नियंत्रण का विकास

लंदन क्लब, शुरू में सात देशों का समूह था, जो बाद में 48-सदस्यीय परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) बन गया और पीएनई के हिस्से के रूप में जब भारत ने 'स्माइलिंग बुद्धा' नामक एक परमाणु विस्फोटक उपकरण का परीक्षण किया तो उसके जवाब में यह अस्तित्व में आया. अमेरिका ने अपने परमाणु-संबंधी निर्यात नियंत्रणों को  नियंत्रित करने और फिर से बातचीत करने के लिए एक संघीय कानून के रूप में 1978 के ऐतिहासिक परमाणु अप्रसार अधिनियम की भी शुरुआत की.

मौजूदा वक्त में, एक परमाणु शक्ति के रूप में भारत उन्नत तकनीकों और दोहरे उपयोग वाली वस्तुओं और सामानों के स्वामित्व के साथ आने वाली ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह से स्वीकार करता है. भारत ने वैधानिक, विनियामक और संस्थागत उपायों की शुरुआत करके दशकों से निर्यात नियंत्रण का एक व्यापक नेटवर्क तैयार किया और उसे बनाये रखा है. परमाणु अप्रसार संधि (NPT) के ढांचे से बाहर होने के बावजूद ये उपाय भारत के नाभिकीय टेक्नोलॉजी और ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग और परमाणु अप्रसार व्यवस्थाओं के विभिन्न समूहों के साथ एकजुटता के लिए इसके बहुपक्षीय दृष्टिकोण के रूप में बेहद स्पष्ट है. अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता से परे, भारत परमाणु आतंकवाद के कृत्यों के दमन के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (ICSANT), परमाणु सामग्री के भौतिक संरक्षण पर सम्मेलन (CPPNM) और इसके संशोधनों, रासायनिक हथियार सम्मेलन (CWC) और जैविक तथा विषैले हथियार सम्मेलन (BWC), संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद संकल्प 1540 और 1373 का एक पक्ष है जो कानूनी रूप से सभी देशों के लिए बाध्यकारी है. इनका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय सहयोग सुनिश्चित करना तथा संवेदनशील सामग्रियों और नाभिकीय तकनीक को आतंकवादियों के हाथों में पड़ने से रोकने के लिए विनियमन में सहयोग देना है.

इसके साथ ही, भारत ने रणनीतिक वस्तुओं और सामानों के विनियमन और लाइसेंसिंग को सुनिश्चित करने के लिए, 1995 में पहली नियंत्रण सूची बनाई, जिसका ब्योरा विशेष सामग्री, उपकरण और टेक्नोलॉजी (SMET) के रूप में दिया गया, जो बाद में 2001 में एक अधिक व्यापक विशेष रसायन, जीव, सामग्री, उपकरण और प्रौद्योगिकियां (SCOMET) में तब्दील हो गई और 2023 में एक बार फिर से उसको अपडेट किया गया. इस सूची को समय के साथ तथा उभरते खतरों के लिहाज़ से दोहरे उपयोग वाली वस्तुओं, परमाणु-संबंधित वस्तुओं और सॉफ्टवेयर और प्रौद्योगिकी सहित सैन्य वस्तुओं को नियंत्रित करने के उपायों के हिसाब से संशोधित किया जाता रहेगा. 

लाइसेंसिंग वाले भाग की सख्त़ निगरानी की जाती है, जिसमें दुर्भावनापूर्ण मैन्युफैक्चरिंग और संभावित रूप से आतंकवादी समूहों को सामग्री भेजने पर रोक लगाने के लिए व्यापक दिशा-निर्देश और प्रक्रियाएं शामिल हैं. प्रवर्तन की निगरानी एजेंसियों द्वारा की जाती है, जिसमें मुख्य रूप से विदेश व्यापार महानिदेशालय (DGFT) में अंतर-मंत्रालयी कार्य समूह (IMWG) का काम होता है और जिसमें दंडात्मक प्रावधान और जोख़िम प्रबंधन प्रणाली शामिल है. घरेलू स्तर पर, भारत द्वारा 2005 में सामूहिक विनाश के हथियार (WMD) अधिनियम पारित करना, मौजूदा कानूनों के ढांचे में एक व्यापक कदम के रूप में आया ताकि सामग्रियों और तकनीक़ की एक विस्तृत श्रृंखला पर नियंत्रण हासिल किया जा सके. इसमें निर्यात हस्तांतरण, पुनः हस्तांतरण और ट्रांसशिपमेंट का रेगुलेशन शामिल है, जो परमाणु अप्रसार के मुख्य एजेंडे को पूरा करता है, फिर चाहे भले ही भारत एनपीटी का हस्ताक्षरकर्ता न हो. इसके अतिरिक्त, वर्ष 1992 का विदेशी व्यापार (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, साल 2000 का रासायनिक हथियार अभिसमय अधिनियम, 1986 का पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1884 का विस्फोटक अधिनियम आदि भी इसमें शामिल हैं. इन प्रावधानों का उद्देश्य अनाधिकृत निर्यात और निर्यातकों की रोकथाम, पता लगाना और उन्हें दंडित करना है.

इस प्रकार, भारत के घरेलू कानून और प्रथाएं वैश्विक व्यवस्थाओं, मानदंडों और परंपराओं के मुताबिक ही है. 

 

निर्यात संबंधी नियंत्रण की व्यवस्थाओं के साथ एकीकरण के ज़रिए प्रतिबद्धता

वैश्विक स्तर पर, भारत की कूटनीति ने 2005 में अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु समझौते के ज़रिए सफलतापूर्वक गैर-एनपीटी छूट हासिल कर ली, जिसने 2008 में एनएसजी छूट के साथ अपनी अंतिम बाधा भी पार कर ली, इसके ज़रिए भारत के लिए अपवादस्वरूप व्यवहार किया गया. बाद में, इसने साल 2016 में MTCR, 2017 में वासेनार अरेंजमेंट और 2018 में ऑस्ट्रेलिया ग्रुप (AG) की स्वीकृति और सदस्यता के संबंध में भारत के लिए एक दरवाज़ा भी खोल दिया. भारत को वैश्विक अप्रसार व्यवस्था में स्वीकार किया गया है और उसे वैधता प्रदान की गई है, तथा इस सफलता का श्रेय वैश्विक अपेक्षाओं के प्रति उसके अनुपालन तथा साझा अप्रसार चुनौतियों से निपटने के उद्देश्य से निभाये जा रहे ज़िम्मेदाराना व्यवहार को दिया जा सकता है.

इस प्रकार, 1974 के बाद परमाणु संपन्न देशों ने नाभिकीय ‘यथास्थिति’ बनाए रखने के लिए परमाणु नस्लभेद के ज़रिये भारत को प्रौद्योगिकी देने से इनकार करने की जो राजनीति अपनाई थी, उस पर अब काबू पा लिया गया है. यह बहुपक्षीय जुड़ाव और व्यापक निर्यात नियंत्रण नेटवर्क द्वारा सुनिश्चित किए गए ज़िम्मेदार अप्रसार ट्रैक रिकॉर्ड के रूप में स्पष्ट है. भारत ने अपने निर्यात नियंत्रण ढांचे में सुरक्षा, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के तीन एजेंडा लक्ष्यों को एकीकृत करके खुद को एक ज़िम्मेदार खिलाड़ी साबित किया है. यह दार्शनिक आधार ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के अनुरूप है और इसने भारतीय उद्योग जगत के खिलाड़ियों के लिए उच्चस्तरीय प्रौद्योगिकी व्यवसायों और  आदान-प्रदान के साथ ज़िम्मेदारी के साथ डील करने के अवसरों का झरोखा खोल दिया है. निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं के साथ पूर्ण एकीकरण की दिशा में भारत के रास्ते में एनएसजी सदस्यता एक अधूरा एजेंडा है, जो इसे अधिक ज़िम्मेदार और  वैश्विक परमाणु कारोबार के लिए नियम बनाने वाला खिलाड़ी बनने के मौके मुहैया कराता है.

भारत की आगे की राह

भारत की परमाणु यात्रा में पीएनई के पहले और उसके बाद, दोनों ही पहले से मौजूद परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) व्यवस्था के प्रति कड़े प्रतिरोध और परमाणु हथियार संपन्न देशों के नेतृत्व में परमाणु यथास्थिति की राजनीति के प्रति विरोध का एक मुखर रूप है. हालांकि, एनएसजी की सदस्यता अभी भी एक मसला है, लेकिन भारत ने वैश्विक अप्रसार और निर्यात नियंत्रण व्यवस्था के साथ मेल करके अपने प्रतिरोध पर काबू पा लिया है. एनएसजी को छोड़कर सभी अप्रसार और निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं के साथ भारत के एकीकरण का इतिहास यह दर्शाता है कि एनएसजी में सदस्यता भारत के इरादों और अनुपालन के सिद्ध ट्रैक रिकॉर्ड की तुलना में सदस्यता से इनकार करने की राजनीति के बारे में अधिक है.

भारत को अपने अप्रसार ट्रैक रिकॉर्ड और अंतरराष्ट्रीय मामलों में बढ़ती पावर प्रोफ़ाइल के आधार पर समूह के लिए अपनी प्रासंगिकता के बारे में चीन को लगातार याद दिलाते रहना चाहिए.

पीएनई की 50वीं वर्षगांठ एक ज़िम्मेदार परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप में भारत के पूरी तरह से विकसित हो चुके कद की याद दिलाती है, जिसका दृष्टिकोण परमाणु अप्रसार और निर्यात नियंत्रण के वैश्विक एजेंडे को आगे बढ़ाने के प्रति पूरे अनुपालन और निरंतरता वाला है.

खुद को एनएसजी व्यवस्था के साथ एकीकृत करके परमाणु टेक्नोलॉजी की आपूर्ति से जुड़ी निर्णय-प्रक्रिया का हिस्सा बनना भारत की कूटनीति के लिए चुनौती बनी हुई है. यह कूटनीति, नतीजों से कहीं अधिक, नतीजों की दिशा में एक निरंतर प्रक्रिया के बारे में है. इस प्रकार, भारत को अपने अप्रसार ट्रैक रिकॉर्ड और अंतरराष्ट्रीय मामलों में बढ़ती पावर प्रोफ़ाइल के आधार पर समूह के लिए अपनी प्रासंगिकता के बारे में चीन को लगातार याद दिलाते रहना चाहिए.


राहुल रावत डिप्लोमेसी ऐंड डिसआर्ममेंट डिवीजन, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी के उम्मीदवार हैं.

 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.