Author : Ajay Bisaria

Expert Speak Raisina Debates
Published on Sep 10, 2024 Updated 0 Hours ago

शांति बहाली की कूटनीति में भारत ने ज़्यादा सक्रिय और जोखिम से नहीं बचने वाली नीति अपनाई है, जो आदर्श निरपेक्षता से आगे की बात है.

भारत की शांति बहाल करने की ‘कूटनीति’ कितना कारगर साबित होगा?

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भारत की कूटनीति एक ऐसे नए रुख़ को अपनाने का प्रयोग कर रही है, जो दुनिया के संघर्षों को लेकर सधी हुई निरपेक्षता से आगे बढ़ते हुए शांति बहाली के लिए सक्रिय कोशिशें करने वाली है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यूरोप के बीचो-बीच एक सक्रिय युद्ध क्षेत्र का दौरा करना एक साहसिक और जोखिम भरा कूटनीतिक मिशन था. ये पहली बार था जब भारत के किसी नेता ने शांति बहाल करने की वकालत करते हुए किसी युद्ध क्षेत्र का दौरा किया था. भारत के इस कूटनीतिक रुख़ को हमें मोदी के तीसरे कार्यकाल की शुरुआत में जून में इटली में हुए G7 सम्मेलन के दौरान इन देशों के नेताओं के साथ बैठक, जुलाई में पुतिन के साथ शिखर सम्मेलन और अगस्त में यूक्रेन का दौरा करने और उसके बाद, अपने यूक्रेन दौरे के नतीजों के बारे में पुतिन और जो बाइडेन को जानकारी देने के संदर्भ में देखने के साथ साथ सितंबर में अमेरिका में होने वाले सम्मेलन और अक्टूबर में रूस में होने जा रहे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के चश्मे से भी देखना चाहिए. 

भू-राजनीतिक तौर पर संतुलन बनाने की ये कोशिश बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि, इस युद्ध में शामिल दोनों पक्षों यानी अमेरिका और रूस के साथ भारत के काफ़ी सारे हित जुड़े हुए हैं.

भू-राजनीतिक तौर पर संतुलन बनाने की ये कोशिश बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि, इस युद्ध में शामिल दोनों पक्षों यानी अमेरिका और रूस के साथ भारत के काफ़ी सारे हित जुड़े हुए हैं. भारत के सामरिक, सुरक्षा, ऊर्जा और तकनीकी ज़रूरतों के लिए ये दोनों वैश्विक ताक़तें बहुत अहम हैं. भारत की मौजूदा विदेश नीति के सिद्धांत में सभी ताक़तों के साथ बहुआयामी संपर्क बनाए रखने की एक केंद्रीय भूमिका है. लेकिन, मध्य यूरोप से संपर्क बनाने के भारत के हालिया प्रयास साफ़ तौर पर इस भू-राजनीति संतुलन साधने से आगे जाते हैं और एक साथ कई अहम लक्ष्यों को साधने की कोशिश लगते हैं.

 

पोलैंड के साथ साझेदारी

 

22 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी के पोलैंड दौरे ने मध्य यूरोप में भारत की उपस्थिति में प्रभावी तरीक़े से इज़ाफ़ा किया है. पोलैंड , यूरोपीय संघ (EU) का पांचवां सबसे बड़ा देश है, और एक जनवरी 2025 से वो यूरोपीय संघ की अध्यक्षता संभालेगा. मोदी के इस दौरे के दौरान भारत और EU के बीच सामरिक साझेदारी की रूप-रेखा के तहत, भारत और पोलैंड के रिश्तों का दर्जा बढ़ाक ‘सामरिक साझेदारी’ में तब्दील किया गया. ये इस सच्चाई पर लगी एक कूटनीतिक मुहर है कि राजनीतिक, रक्षा और आर्थिक क्षेत्र में भारत और पोलैंड के हित एक दूसरे से काफ़ी मिलते जुलते हैं. आज भारत ने 40 देशों के साथ सामरिक साझेदारियां की हैं. ऐसे में भारत के सामरिक संबंधों में कोई ठोस क़दम उठाने से ज़्यादा अहम कूटनीतिक संकेत देने का है. हालांकि, भारत और पोलैंड ने एक दूसरे के यहां कामगारों की आवाजाही आसान बनाने के लिए सामाजिक सुरक्षा के एक समझौते पर दस्तख़त भी किए.

 

ट्रेन से युद्ध क्षेत्र का सफ़र

 

पोलैंड, एक नए यूरोप के चेहरे से कहीं आगे बढ़कर है; वो नैटो का पूर्वी मोर्चा है और यूक्रेन को सामानों की आपूर्ति श्रृंखला की एक अहम कड़ी है. अमेरिका से नज़दीकी बढ़ाने की उसकी उत्सुकता को देखते हुए पोलैंड को कई बार अमेरिका का 51वां राज्य भी कहा जाता है. मोदी के यूक्रेन दौरे में भी पोलैंड ने काफ़ी अहम भूमिका निभाई. क्योंकि युद्ध की वजह से यूक्रेन की हवाई सीमा बंद है. मोदी, पोलैंड के ट्रांस कार्पेथियन रेज़ेसज़ोव सूबे से उसकी बुलेट प्रूफ ट्रेन ‘रेल फोर्स वन’ में दस घंटे का सफ़र करके कीव पहुंचे. उनका ये दौरा शांति के लिए भारत द्वारा उठाए गए तमाम जोखिमों में से एक था. इससे पहले 2015 में मोदी ने लाहौर का सौहार्द बढ़ाने वाला दौरा किया था, जब वो पाकिस्तान के हेलीकॉप्टर में बैठक तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के ख़ानदान की एक शादी में शरीक़ होने लाहौर पहुंचे थे.

मोदी, पोलैंड के ट्रांस कार्पेथियन रेज़ेसज़ोव सूबे से उसकी बुलेट प्रूफ ट्रेन ‘रेल फोर्स वन’ में दस घंटे का सफ़र करके कीव पहुंचे. उनका ये दौरा शांति के लिए भारत द्वारा उठाए गए तमाम जोखिमों में से एक था.

जुलाई महीने में मोदी ने एक सक्रिय युद्ध के बीच रूस का दौरा भी किया था. हालांकि, इस बार भारत के प्रधानमंत्री युद्ध के बीच में उस वक़्त पहुंचे थे, जब जंग ख़तरनाक ढंग से काफ़ी तेज़ हो गई थी. यूक्रेन ने रूस के कुर्स्क क्षेत्र में ‘घुसकर हमला’ किया था, वहीं रूस भी यूक्रेन के डोनेत्स्क क्षेत्र में बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ता जा रहा है. मोदी के कीव पहुंचने से पहले हवाई हमले के सायरन बजे थे. 30 महीने से चल रहे युद्ध में ऐसा लग रहा था कि दोनों ही पक्ष अपने अपने क़ब्ज़े वाले इलाक़ों में बढ़ोत्तरी करने पर ज़ोर दे रहे थे, ताकि भविष्य में होने वाली किसी भी शांति वार्ता में अपनी स्थिति को मज़बूत बना सकें, और भारत के प्रधानमंत्री के कीव से लौटने के बाद ख़ून-ख़राबा और भी बढ़ गया.

 

वैसे तो निश्चित रूप से मोदी का यूक्रेन दौरा भू-राजनीतिक संतुलन बनाने और पश्चिमी साझीदारों को ख़ुश करने की नीयत से किया गया था. लेकिन, दौरा सिर्फ़ इसी मक़सद तक सीमित नहीं था. वैसे तो यूक्रेन और रूस के रुख़ में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है और दोनों देशों के नेता एक दूसरे को सख़्त नापसंद करते हैं. फिर भी, आज जब दुनिया के गिने चुने नेता होंगे जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य हों और उनका भरोसा रखते हों, और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद निष्क्रिय है. ऐसे में ये बात तसल्लीबख़्श है कि रूस और यूक्रेन मोदी के साथ युद्ध पर चर्चा करने को इच्छुक थे.

 

दिल्ली में ग्लोबल साउथ के शिखर सम्मेलन की ताज़ा ताज़ा मेज़बानी करने के बाद मोदी बड़े भरोसे के साथ इस युद्ध के वैश्विक खाद्य, ऊर्जा और स्वास्थ्य सुरक्षा पर पड़ रहे तकलीफ़देह असर को लेकर चर्चा कर सकते थे. क्योंकि ये युद्ध ग़रीब देशों को कई गुना महंगा पड़ रहा है. ग्लोबल साउथ के लिए मोदी का ‘वैश्विक विकास के समझौता’ को शायद ‘वैश्विक शांति के समझौते’ की भी आवश्यकता है. मतलब, ऐसे युद्धों का पुरज़ोर विरोध जो लड़ते तो अमीर देश हैं, पर जिनका खामियाज़ा ग़रीब देश भुगतते हैं.

 

सिर्फ़ नैतिकता की कूटनीति नहीं

 

भारत के लिए शांति को लेकर ये सक्रियता केवल बुद्ध और गांधी के देश द्वारा दिया जाने वाला नैतिक सबक़ मात्र नहीं है. इसने एक साथ कई व्यवहारिक लक्ष्यों को भी साधने का काम किया. इससे भारत के तमाम ताक़तों के साथ संपर्क बनाए रखने के लिए कूटनीतिक स्थान निर्मित हुआ. इसकी मदद से भारत, रूस और अमेरिका, दोनों के साथ अपने लाभ के लिए दोस्ताना संबंध बनाए रख सकेगा; इस दौरे से भारत की छवि एक शांति पसंद करने वाले एक ज़िम्मेदार उभरती ताक़त की बनी, जो चीन से बिल्कुल अलग है; संघर्षों की वजह से अपने आर्थिक सफ़र की राह में आ रहे रोड़ों को दूर करना; और ग्लोबल साउथ की आवाज़ बनकर इन देशों के बीच अपने नेतृत्व को मज़बूती प्रदान करना.े

 

भारत की कूटनीति के लिए ये भी आवश्यक है कि वो दक्षिण एशिया की तमाम समस्याओं में ही न उलझा रहे, बल्कि एक विश्व दृष्टि अपनाए और अपने व्यापक हितों की रक्षा कर सके. मोदी सिर्फ़ नाम के लिए यूक्रेन के दौरे पर नहीं गए थे, उन्होंने अपने इस दौरे को काफ़ी गंभीरता से लिया था. उनके साथ विदेश नीति और सुरक्षा के मामले देखने वाले आला पदाधिकारी भी थे, जिनमें विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शामिल थे.

मोदी ने यूक्रेन में कहा कि दोनों ही पक्षों को साथ बैठना होगा और इस संकट से निकलने का रास्ता तलाशना होगा. उन्होंने यूक्रेन को भरोसा दिया कि वो निजी रूप से ‘एक दोस्त के तौर पर’ भारत देश ‘शांति बहाली के किसी भी प्रयास में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए तैयार है.

मोदी ने यूक्रेन में कहा कि दोनों ही पक्षों को साथ बैठना होगा और इस संकट से निकलने का रास्ता तलाशना होगा. उन्होंने यूक्रेन को भरोसा दिया कि वो निजी रूप से ‘एक दोस्त के तौर पर’ भारत देश ‘शांति बहाली के किसी भी प्रयास में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए तैयार है.’ दोनों पक्षों ने भारत और यूक्रेन के साझा बयान पर भी रज़ामंदी बना ली. ये हैरानी की बात है क्योंकि यूक्रेन पर रूस के हमले को लेकर दोनों देशों के रुख़ में काफ़ी अंतर है. हो सकता है कि निजी बातचीत में ज़ेलेंस्की ने पुतिन के ख़िलाफ़ तीखी बयानबाज़ी की हो. लेकिन, यूक्रेन के राष्ट्रपति ने रूस के राष्ट्रपति को लेकर सार्वजनिक आलोचना को मोदी के दौरे के बाद की प्रेस कांफ्रेंस तक रोके रखा, जहां ज़ेलेंस्की ने पुतिन पर बदनीयत और उससे भी बुरा होने का इल्ज़ाम लगाया. भारत ने संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के सिद्धांतों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया. भारत के पारंपरिक प्रतिद्वंदियों चीन और पाकिस्तान के साथ ऐतिहासिक टकराव और हालिया घुसपैठ को देखते हु काफ़ी अहम हो जाता है. इन सिद्धांतों को रेखांकित करने के साथ साथ युद्ध के लिए रूस की आलोचना नहीं करने और उस पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का हिस्सा नहीं बनते हुए, भारत ने पिछले एक दशक, या फिर कम से कम 2014 में क्राइमिया पर रूस के क़ब्ज़े के दौरान अपनाए गए रुख़ को मज़बूती से दोहराया है.

 

23 अगस्त को एक बयान में भारत ने सभी पक्षों के बीच ईमानदार और व्यवहारिक बातचीत की ज़रूरत को भी दोहराया, ताकि कुछ ऐसे नए समाधान तलाशे जा सकें, जो सबको स्वीकार्य हों और जल्दी से जल्दी शांति बहाल हो सके. मोटे तौर पर इस बात का मतलब यही है कि भारत की नज़र में शांति की कोई भी प्रक्रिया तब तक सफल नहीं हो सकती, जब तक रूस बातचीत की मेज़ पर नहीं आता. ये स्विटज़रलैंड के बर्गेनस्टॉक क़स्बे में यूक्रेन को लेकर ‘शांति सम्मेलन’ के प्रयास से उलट है, जिसमें भारत आधिकारिक तौर पर तो शामिल हुआ था, पर उसने सम्मेलन के बारे में जारी बयान पर दस्तख़त नहीं किए थे.

 

भारत ने समझदारी दिखाई कि उसने स्विटज़रलैंड, चीन और तुर्की की तरह अपनी तरफ़ से यूक्रेन के लिए किसी ‘शांति योजना’ का प्रस्ताव नहीं रखा. लेकिन, भारत के संकेत बिल्कुल साफ़ थे कि वो शांति के प्रयासों में भूमिका निभाने के लिए तैयार है, बशर्ते दोनों पक्ष और विशेष रूप से अमेरिका इसके लिए कहे. एक पल के लिए भारत ने ज़ेलेंस्की को ये याद दिलाया कि वो बातचीत के रास्ते पर चलने के बारे में भी सोचें. इसके साथ साथ भारत ने ये भी माना कि युद्ध समाप्त होने से पहले और बढ़ सकता है. भारत ने यूक्रेन को मानवीय सहायता देने और युद्ध के बाद पुनर्निर्माण में सहयोग के लिए तैयार होने का भी संकेत दिया. हो सकता है कि कूटनीति प्रयासों के लिए भारत की वकालत, यूक्रेन के मौजूदा समीकरणों में बहुत अहमियत न रखती हो. पर, इसमें कोई शक नहीं कि इन सारे क़दमों को लेकर रूस, अमेरिका और यूरोप के अन्य क़रीबी देशों के साथ पहले चर्चा ज़रूर हुई होगी.

 

रास्ता बहुत लंबा है

 

यूरोप में युद्ध को लेकर भारत की कूटनीति के इन प्रयासों के नीत स्पष्ट निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. पहला, भारत ने शांति बहाली की कूटनीति को लेकर ज़्यादा सक्रिय और जोखिम लेने वाली ऐसी भूमिका को अपनाया है, जो आदर्श निरपेक्षता के स्टैंड से आगे जाती है. इस तरह भारत ने ये संकेत दिया है कि वो शांति बहाली के प्रयासों में सक्रिय रूप से शामिल होने के लिए तैयार है. ये पहली बार था जब भारत के प्रधानमंत्री, सुदूर देश में किसी युद्ध क्षेत्र के दौरे पर गए थे. मोदी ने इस नज़रिए को एक नई ब्रांडिंग दी है. उन्होंने ये संकेत दिया है कि भारत कभी निरपेक्ष नहीं रहा, बल्कि वो हमेशा शांति के पक्ष में रहा है.

 

दूसरा, भारत ने शांति बहाली की कोशिशें पहले ही शुरू कर दी हैं और उन्होंने दोनों पक्षों को एक दूसरे की चिंताओं से अवगत करा दिया है. ज़ेलेंस्की को निजी तौर पर जुलाई में मोदी और पुतिन के बीच हुई बातचीत की जानकारी दी गई. इसी तरह रूस को भी ज़ेलेंस्की के साथ मोदी की बातचीत की पूरी जानकारी दी गई होगी. सच तो ये है कि मोदी ने इस दौरे के बाद ख़ुद पुतिन से बात की थी. उन्होंने यूक्रेन से लौटने के बाद इस युद्ध के पीछे की मुख्य पश्चिमी ताक़त अमेरिका के राष्ट्रपति से भी बात की थी. ये सभी वार्ताएं शांति बहाली के विश्वसनीय प्रयास को दिखाती हैं, भले ही तेज़ी से बढ़ रहे युद्ध पर अभी इसका कोई असर न दिखे. लेकिन, अग़र अवसर मिलता है तो भारत के पास शांति प्रक्रिया के लिए प्रस्ताव तैयार करने के लिए पर्याप्त मौक़ा होगा.

 

तीसरा, आने वाले ख़ुशनुमा भविष्य में भारत सभी भागीदारों को शांति के प्रयास करने का एक निरपेक्ष मंच भी मुहैया करा सकता है. भारत इस युद्ध को ख़त्म करने के लिए वैश्विक शांति सम्मेलन की मेज़बानी भी कर सकता है. हालांकि, ये कब हो सकता है, ये बता पाना बहुत मुश्किल है; हो सकता है कि इस युद्ध के ख़ात्मे के लिए नवंबर में अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव हो जाने का इंतज़ार करना पड़े. मौजूदा हालात में ट्रंप चुनाव जीते तो युद्ध के जल्दी ख़त्म होने की संभावना दिखती है. लेकिन, ट्रंप जीतें या फिर कमला हैरिस, शांति प्रक्रिया में अब भारत पूरी मज़बूती से एक भागीदार बन चुका है.

भारत चाहेगा कि वो धैर्य से ऐसा वक़्त आने का इंतज़ार करे, जब रूस और अमेरिका दोनों ही टकराव से निजात पाने के लिए आतुर हों, जब वो युद्ध विराम करें और बातचीत के लिए राज़ी हों. हो सकता है कि वो समय अमेरिका में नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के बाद आ जाए.

दुनिया यही उम्मीद लगा सकती है कि यूक्रेन के संघर्ष की वजह से यूरोप में कोई और विश्व युद्ध या परमाणु युद्ध न छिड़ जाए. इसके बजाय अगर ये संघर्ष समाधान की ओर पढ़ता है, तो ये स्पष्ट नहीं है कि यूक्रेन में जंग का ख़ात्मा युद्ध विराम के तौर पर होगा, लंबे समय तक यथास्थिति बनाए रखने वाला होगा या आपसी बातचीत से शांति समझौता लागू होगा. भारत ने इस संघर्ष को ख़त्म करने के लिए कूटनीति का रास्ता अपनाने की वकालत बार बार की है. लेकिन, युद्ध क्षेत्र में जितना ही ख़ून बहेगा, भू-राजनीति में संतुलन बनाना उतना ही दुश्वार होता जाएगा. भारत ने अभी तो अपने लिए स्वायत्त चुनाव करने के लिए गुंजाइश बनाए रखी है; मौजूदा कूटनीतिक प्रयासों ने रूस और पश्चिम दोनों तरफ़ से भारत पर दबाव कम किया है. भारत, लगातार दोनों पक्षों से हथियार ख़रीद रहा है; अभी तो भारत को रूस से तेल और पश्चिमी देशों से तकनीक का प्रवाह बना हुआ है. भारत चाहेगा कि वो धैर्य से ऐसा वक़्त आने का इंतज़ार करे, जब रूस और अमेरिका दोनों ही टकराव से निजात पाने के लिए आतुर हों, जब वो युद्ध विराम करें और बातचीत के लिए राज़ी हों. हो सकता है कि वो समय अमेरिका में नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के बाद आ जाए. भारत को उस हालात में शांति बहाली में बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार रहना चाहिए. अगर भारत अपनी तरफ़ से कोई ‘शांति योजना’ न भी देना चाहे तो शायद उसे ‘वैश्विक शांति सम्मेलन’ की मेज़बानी का प्रस्ताव तो पेश करना ही चाहिए.

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