Author : Kavya Wadhwa

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Published on Oct 07, 2025 Updated 0 Hours ago

भारत का साहसी परमाणु प्रयास स्वच्छ ऊर्जा और आत्मनिर्भरता का वादा करता है लेकिन क्या सुधार, प्रतिभा और फंडिंग इस विशाल महत्वाकांक्षा के साथ तालमेल बिठा पाएंगी?

तो भारत के परमाणु सफर को मिल सकेगी गति

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भारत का परमाणु ऊर्जा क्षेत्र महत्वपूर्ण बदलाव के मुहाने पर है जिसका उद्देश्य ऊर्जा स्वतंत्रता और आर्थिक विकास प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना है. परमाणु ऊर्जा की क्षमता के विस्तार को तेज़ करने और निजी क्षेत्र की भागीदारी को सक्षम बनाने के लिए सरकार व्यापक नीतिगत सुधार और अनुसंधान एवं विकास में महत्वपूर्ण निवेश लाने की योजना बना रही है. ये ऐसे कदम हैं जो भारत की ऊर्जा रणनीति में परमाणु शक्ति को आधार बनाने के लिए महत्वपूर्ण है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण में इस महत्वाकांक्षी दृष्टिकोण को उजागर किया जिसके तहत 2047 तक परमाणु ऊर्जा क्षमता में 10 गुना से ज़्यादा बढ़ोतरी का लक्ष्य रखा गया है जिससे इस क्षेत्र को भारत के दीर्घकालिक विकास के लक्ष्यों में प्रमुख जगह हासिल होगी. फिर भी, सतही  आशा के नीचे कई सवाल बने हुए हैं: क्या सुधार का पहिया सच में आगे बढ़ रहा है या नौकरशाही की बाधाएं और विधायी देरी भारत की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को पटरी से उतारने का ख़तरा पैदा कर रही हैं? चूंकि नए कानूनों, नियामक संशोधनों और प्रोत्साहनों का वादा किया जा रहा है, ऐसे में समय ही बताएगा कि परमाणु प्रगति के ये डिब्बे लगातार आगे की तरफ बढ़ेंगे या जड़त्व के कारण रुके रहेंगे.  

  •  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण में इस महत्वाकांक्षी दृष्टिकोण को उजागर किया जिसके तहत 2047 तक परमाणु ऊर्जा क्षमता में 10 गुना से ज़्यादा बढ़ोतरी का लक्ष्य रखा गया है जिससे इस क्षेत्र को भारत के दीर्घकालिक विकास के लक्ष्यों में प्रमुख जगह हासिल होगी.

  • ये एक महत्वपूर्ण नियामक अनुकूलन है जो सुरक्षा आवश्यकताओं को रिएक्टर के आकार और आधुनिक डिजाइन के साथ आनुपातिक रूप से जोड़ता है 

वर्तमान बाधाएं 

हाल की घोषणाओं और बजट में किए गए सुधारों से उत्पन्न आशाजनक माहौल के बावजूद भारत का परमाणु ऊर्जा क्षेत्र अभी भी जटिल बाधाओं का सामना कर रहा है जिसकी वजह से तेज़ प्रगति नहीं हो रही है. विधायी रुकावटें प्रमुख चुनौती बनी हुई है. निजी और विदेशी निवेश को सक्षम बनाने के लिए आवश्यक 1962 के परमाणु ऊर्जा अधिनियम और 2010 के परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम (CLNDA) में महत्वपूर्ण संशोधन अभी भी संसदीय प्रक्रियाओं में उलझे हुए हैं जो हितधारकों के लिए नियामक अनिश्चितता उत्पन्न कर रहे हैं. सप्लायर के जोखिम को सीमित करने और दायित्व की सीमा को स्पष्ट करने के लिए प्रस्तावित संशोधनों पर चल रही चर्चा के बावजूद दायित्व से जुड़ी चिंताएं बनी हुई हैं और सप्लायर की ज़िम्मेदारी एवं “सहायता लेने के अधिकार” के प्रावधानों की व्यापक व्याख्या बड़े बहुराष्ट्रीय विक्रेताओं को रोक रही हैं.  

भारत का परमाणु विनिर्माण इकोसिस्टम मज़बूत है लेकिन ये अभी भी परिष्कृत रिएक्टर के घटकों और सामग्रियों के लिए आयात पर बहुत अधिक निर्भर है जिससे लागत में बढ़ोतरी होती है और सप्लाई में रुकावट की आशंका बढ़ जाती है.

वैसे तो नियामक अस्पष्टता कुछ मामलों में कम हो रही है लेकिन ये अभी भी चुनौती बनी हुई है. परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड (AERB) नए स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर (SMR) समेत सभी रिएक्टर के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानक की सुरक्षा और संरक्षा प्रोटोकॉल लागू कर रहा है. ध्यान देने की बात है कि सरकार ने स्पष्ट किया है कि आगामी SMR डिज़ाइन (जैसे कि 55 मेगावाट के मॉड्यूलर रिएक्टर और भारत स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर यानी BSMR-200) के लिए निषेध क्षेत्र बड़े परमाणु प्लांट के लिए पारंपरिक 1 किमी के मानक की तुलना में ‘प्लांट की सीमा के आगे नहीं’ या ‘महत्वपूर्ण रूप से कम’ होंगे. ये एक महत्वपूर्ण नियामक अनुकूलन है जो सुरक्षा आवश्यकताओं को रिएक्टर के आकार और आधुनिक डिज़ाइन के साथ आनुपातिक रूप से जोड़ता है और सीधे तौर पर पूर्व की उन अनिश्चितताओं का समाधान करता है कि क्या पारंपरिक निषेध के मानदंड SMR के इस्तेमाल में बाधा डालेंगे. लेकिन AERB ने अभी तक ये संकेत नहीं दिया है कि क्या वो SMR के लिए एक विशेष नियामक इकाई का गठन करेगा. वैसे इस तरह के सभी डिज़ाइन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप कठिन सत्यापन और सुरक्षा समीक्षा से गुज़रना पड़ता है. 

इस नियामक प्रगति के बावजूद भारत अभी भी बुनियादी ढांचे के विकास और भूमि अधिग्रहण में महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रहा है जो स्थानीय विरोध और कानूनी लड़ाई की वजह से अक्सर और भी बढ़ जाती है. इसके कारण जैतापुर और कोवाडा जैसी प्रमुख साइट में और देरी हुई है. वैसे तो भारत का परमाणु विनिर्माण इकोसिस्टम मज़बूत है लेकिन ये अभी भी परिष्कृत रिएक्टर के घटकों और सामग्रियों के लिए आयात पर बहुत अधिक निर्भर है जिससे लागत में बढ़ोतरी होती है और सप्लाई में रुकावट की आशंका बढ़ जाती है. 

इन चुनौतियों के अलावा वित्तीय क्षमता और बाज़ार से जुड़े जोखिम इस क्षेत्र पर और बोझ बढ़ाते हैं. परमाणु परियोजनाएं पूंजी प्रधान होती हैं और लागत वसूलने में लंबा समय लगता है. टैरिफ, ऊर्जा ख़रीद समझौतों और ग्रिड एकीकरण को लेकर अनिश्चितताओं के कारण निवेश से जुड़ी रुचि सीमित हो जाती है. अंत में, तेज़ विस्तार की महत्वाकांक्षाओं को कुशल परमाणु इंजीनियरों, नियामकों और प्रोजेक्ट मैनेजर की कमी से जुड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि शिक्षा और प्रशिक्षण का बुनियादी ढांचा अभी भी विकसित हो रहा है. ये सभी बाधाएं मिलकर सवाल खड़ा करती हैं कि क्या आगामी सुधार और पहल पर्याप्त रूप से प्रगति को गति प्रदान करेंगी या उलझी हुई चुनौतियां भारत की परमाणु ऊर्जा की महत्वाकांक्षाओं की गति कम करेगी और उसे अनिश्चित बना देगी. 

सरकार क्या संकेत दे रही है: घोषणाएं, इशारा और अगले कदम 

सरकार परमाणु ऊर्जा में अपनी गंभीर रुचि का संकेत दे रही है. केंद्रीय बजट 2025-26 ने “विकसित भारत के लिए परमाणु ऊर्जा मिशन” की शुरुआत की जिसके तहत SMR में अनुसंधान एवं विकास (R&D) के लिए 20,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया. रोडमैप के हिस्से के रूप में 2033 तक कम-से-कम पांच स्वदेशी रूप से डिज़ाइन किए गए काम-काजी SMR स्थापित करने और 2047 तक परमाणु ऊर्जा की क्षमता वर्तमान के 8.88 गीगावॉट (GW) से बढ़ाकर 100 GW करने का लक्ष्य रखा गया है. 2031-32 तक 22.48 GW का अंतरिम लक्ष्य हासिल करने की दिशा में काम चल रहा है. इसके तहत छह राज्यों में 10 रिएक्टर का निर्माण हो रहा है और कोवाडा में मुख्य भारत-अमेरिका प्लांट बनाने की योजना है. 

सुधारों को तेज़ करने के लिए समितियों का गठन किया गया है जिसमें परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE), AERB, नीति आयोग और विधि एवं न्याय मंत्रालय के सदस्य शामिल हैं.

विधायी मोर्चे पर सरकार ने सार्वजनिक-निजी साझेदारी की रूप-रेखा को अनुमति देने के लिए परमाणु ऊर्जा अधिनियम में संशोधन किया है. इसके साथ-साथ CLNDA में 11 से ज़्यादा संशोधन होने वाले हैं जिनमें “सहायता के अधिकार” में बदलाव और विक्रेता के दायित्व की स्पष्ट सीमा शामिल है जो भारत को वैश्विक सुरक्षा और निवेश के मानकों के अनुरूप ले आएंगे. 

सुधारों को तेज़ करने के लिए समितियों का गठन किया गया है जिसमें परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE), AERB, नीति आयोग और विधि एवं न्याय मंत्रालय के सदस्य शामिल हैं. ये समितियां अधिनियमों में संशोधनों पर चर्चा करेंगी और प्रस्ताव देंगी जिससे परमाणु क्षेत्र के भीतर निजी पक्षों की भागीदारी को सुगम बनाया जा सकेगा. 

कम आंकी गई चुनौतियां

इन महत्वाकांक्षाओं के लिए एक महत्वपूर्ण लेकिन अक्सर नज़रअंदाज़ की जाने वाली बाधा है देश के भीतर परमाणु इंजीनियरिंग के लिए घटती शैक्षणिक रुचि और संस्थागत क्षमता. बढ़ते नीतिगत समर्थन और महत्वाकांक्षी क्षमता के लक्ष्यों के बावजूद शैक्षणिक इकोसिस्टम विपरीत दिशा में आगे बढ़ रहा है. साल 2010 और 2020 के बीच कम-से-कम आठ भारतीय विश्वविद्यालयों ने परमाणु इंजीनियरिंग में एम टेक कार्यक्रम की शुरुआत की थी. 

लेकिन आज एमिटी यूनिवर्सिटी और जादवपुर यूनिवर्सिटी को छोड़कर लगभग सभी विश्वविद्यालयों ने इस विशेष पाठ्यक्रम को बंद कर दिया है. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) मद्रास, IIT बॉम्बे, जवाहरलाल नेहरू टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी (JNTU), पंडित दीनदयाल एनर्जी यूनिवर्सिटी (PDEU, पूर्व में PDPU), UPES देहरादून और मोदी यूनिवर्सिटी ने इसे बंद कर दिया है. DAE से संबद्ध संस्थाओं के बाहर शैक्षणिक संस्थानों का व्यापक रूप से पीछे हटना एक परेशान करने वाले रुझान का संकेत देता है: गैर-DAE विश्वविद्यालय परमाणु इंजीनियरिंग के कार्यक्रमों को बंद कर रहे हैं जिससे नीतिगत आकांक्षाओं और पर्याप्त संख्या में योग्य तकनीकी प्रतिभा के बीच की दूरी बढ़ रही है. 

इस तरह की शैक्षणिक गिरावट क्षमता निर्माण की महत्वपूर्ण प्रक्रिया को कमज़ोर करती है जो कि अनुमानित कई गुना विस्तार के समय में सुरक्षित और बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा के विकास के लिए आवश्यक है. कम ग्रैजुएट का अर्थ है रिएक्टर संचालन, नियामक भूमिका और आपातकालीन तैयारी के लिए कम उम्मीदवारों का उपलब्ध होना जिससे वैश्विक सुरक्षा और प्रशिक्षण मानकों को बनाए रखने के प्रयासों में रुकावट आती है. इस बढ़ते अंतर को भरने के लिए लक्षित अनुदान और प्रोत्साहन के साथ अलग-अलग विश्वविद्यालयों में परमाणु इंजीनियरिंग के कार्यक्रमों को बहाल करना अनिवार्य है. 

इसके बावजूद, जोखिम और संसाधन प्रबंधन के लिए मज़बूत संस्थागत ढांचे का निर्माण करने के समानांतर प्रयासों के बिना अकेले प्रतिभा से इस क्षेत्र को बनाए नहीं रखा जा सकता है, विशेष रूप से उस समय जब निजी और विदेशी कंपनियां अपनी हिस्सेदारी का विस्तार कर रही हैं. इस उद्योग का सामर्थ्य न केवल तकनीक और कुशल विशेषज्ञता पर निर्भर करता है बल्कि वित्तीय सुरक्षा के उपायों पर भी जो बुनियादी ढांचे और लोगों की रक्षा करते हैं. इस संबंध में परमाणु बीमा का पुल प्रमुख भूमिका निभाता है जो प्लांट के दायित्व की कवरेज और कामगारों की स्थिरता- दोनों को सहारा देता है. हालांकि विधायी ध्यान जहां काफी हद तक सप्लायर के जोखिम को सीमित करने के लिए CLNDA को संशोधित करने पर केंद्रित रहा है, वहीं निजी निवेशकों को अधिक विस्तार वाले तौर-तरीकों की आवश्यकता है जो उनकी पूंजी को भी सुरक्षित करें और व्यापक बीमा कवरेज प्रदान करे. इसलिए इस क्षेत्र के सुरक्षा जाल में दुर्घटना, दायित्व और क्षतिपूर्ति बीमा को जोड़ना आवश्यक है ताकि विश्वास जगाया जा सके और लगातार निवेश आकर्षित किया जा सके. 

ये मुख्य चुनौतियां हैं: परमाणु इंजीनियरिंग के घटते कार्यक्रम, आयात पर निर्भर कमज़ोर सप्लाई चेन और निवेश को जोखिम से मुक्त करने के लिए नई वित्त व्यवस्था एवं मज़बूत बीमा की तत्काल आवश्यकता.

संचालन के दृष्टिकोण से सप्लाई चेन का प्रबंधन और देरी को न्यूनतम करना एक और ऐसी बाधा है जिसे आम तौर पर कम करके आंका जाता है. NPCIL के 700 मेगावॉट के प्रेशराइज्ड हैवी वाटर रिएक्टर (PHWR) प्लांट की 2 इकाइयों की निर्माण रणनीति में लगभग 25 बड़े सप्लाई पैकेज, 10 इंजीनियरिंग ख़रीद एवं निर्माण पैकेज (EPC) और 4 बड़े साइट कॉन्ट्रैक्ट को शामिल किया गया है ताकि विक्रेता के दायित्वों को लेकर स्पष्टता बरकरार रखा जा सके और ख़रीदारी को सुव्यवस्थित किया जा सके. वैसे तो देश में एक मज़बूत घरेलू निर्माण की बुनियाद मौजूद है लेकिन भारी निर्माण, बड़ी पाइप, अधिक सटीक वाल्व और विकिरण प्रतिरोधी उपकरण जैसे विशेष घटकों के लिए भारत अभी भी आयात पर निर्भर है. नकद प्रवाह की बाधाएं, प्रतिभा की कमी से गुणवत्ता संबंधी मुद्दे और ठेकेदारों की वित्तीय कमज़ोरी जैसी चुनौतियां परियोजनाओं की गति को धीमा कर सकती हैं और लागत बढ़ा सकती हैं. 

अंत में, परमाणु परियोजना का वित्तपोषण इस क्षेत्र के विकास समीकरण में एक महत्वपूर्ण आधार बना हुआ है जिसे अक्सर कम करके आंका जाता है. परमाणु प्लांट के लिए भारी मात्रा में अग्रिम पूंजी की आवश्यकता होती है, लंबे समय तक इनका निर्माण होता है और इनमें जटिल नियामक, टैरिफ एवं बाज़ार से जुड़े जोखिम शामिल होते हैं. वैसे तो वर्तमान में ज़्यादातर परियोजनाओं की फंडिंग सरकारी पैसे से होती है लेकिन निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के लिए नए प्रकार के वित्तीय तौर-तरीकों की आवश्यकता है. इनमें परमाणु ऊर्जा की समय-सीमा के अनुरूप लंबी अवधि, कम ब्याज वाले कर्ज़; वायबिलिटी गैप फंडिंग (VGF) या हरित बॉन्ड जैसे जोखिम साझा करने वाले साधन; और निर्माण में देरी, आपूर्ति में रुकावट एवं कामगारों से जुड़े जोखिम को साझा करने वाले व्यापक बीमा फंड शामिल हैं. निश्चित राजस्व की गारंटी देने वाले स्पष्ट, पारदर्शी नियामक ढांचे और ऐसे पूंजी प्रधान उपक्रमों के लिए अनुकूल मज़बूत वित्तीय बुनियादी ढांचे के बिना सबसे आशाजनक परियोजनाओं को भी निवेश हासिल करने के लिए जूझना पड़ सकता है.   

भारत की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को साकार करना न केवल विधायी सुधारों को पारित करने पर निर्भर करता है बल्कि इसके लिए शैक्षणिक क्षमता में ऊर्जा भरना, व्यापक बीमा सुरक्षा तैयार करना, सप्लाई चेन की मज़बूती को बढ़ावा देना और अनुकूल वित्तीय समाधानों को विकसित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है. आपस में एक-दूसरे से जुड़ी इन चुनौतियों में से किसी एक को भी अनदेखा करने से नीतिगत गति के बावजूद परमाणु ऊर्जा के डिब्बे के थमने का ख़तरा है. 

निष्कर्ष 

परमाणु महत्वाकांक्षा की दिशा में भारत का नए सिरे से ज़ोर स्वच्छ ऊर्जा के लिए एक साहसी दृष्टिकोण का संकेत है जिस पर महत्वपूर्ण बजट आवंटन किया गया है, महत्वाकांक्षी क्षमता का लक्ष्य रखा गया है और ऐतिहासिक नियामक सुधार किए गए हैं. सरकार की प्रतिबद्धता (जो SMR जैसी नई तकनीकों और निजी किरदारों के लिए इस क्षेत्र को खोलने पर आधारित है) अंतत: ऊर्जा सुरक्षा, कम कार्बन वाले विकास और तकनीकी आत्मनिर्भरता के लिए आवश्यक गति दे सकती है. फिर भी विधायी देरी, अनसुलझे दायित्व के ढांचे, नियामक अनिश्चितताओं और बुनियादी ढांचे की बाधाओं के कारण प्रगति अधर में है. इसमें ये मुख्य चुनौतियां हैं: परमाणु इंजीनियरिंग के घटते कार्यक्रम, आयात पर निर्भर कमज़ोर सप्लाई चेन और निवेश को जोखिम से मुक्त करने के लिए नई वित्त व्यवस्था एवं मज़बूत बीमा की तत्काल आवश्यकता. 

इसलिए भारत की परमाणु यात्रा एक चौराहे पर खड़ी है: दूरदर्शी नीति और व्यावहारिक कार्यान्वयन के बीच, वादे और परिवर्तन की ज़िद्दी जटिलता के बीच. सुधार और विकास के डिब्बे आगे बढ़ सकते हैं लेकिन इसके लिए गति बरकरार रखना और बाधाओं को व्यवस्थित तरीके से दूर करना आवश्यक है. भारत की स्वच्छ ऊर्जा का भविष्य न केवल योजना पर बल्कि क्रियान्वयन पर भी निर्भर करता है. 


काव्य वाधवा परमाणु ऊर्जा के समर्थक और नीति विश्लेषक हैं जो सतत ऊर्जा समाधानों को बढ़ावा देने एवं नीतिगत सुधारों को आगे बढ़ाने के काम में लगे हुए हैं. 

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Kavya Wadhwa

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Kavya Wadhwa is a nuclear energy advocate and policy analyst dedicated to promoting sustainable energy solutions and driving policy reforms. His research primarily focuses on ...

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