Author : Vinay Kaura

Expert Speak Raisina Debates
Published on May 22, 2025 Updated 0 Hours ago

ट्रंप के तमाशा करने की आदत की एक सीमा है, ये कश्मीर मसले से साफ़ हो गया है. भारत अपनी संप्रभुता के एक मसले को किसी तीसरे पक्ष के नखरों में मोल-भाव की चीज़ नहीं बनने देगा.

भारत का ट्रंप को संदेश: कश्मीर कोई ‘तमाशे’ का मंच नहीं है!

Image Source: Getty

डॉनल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिकी कूटनीति के जो नए अध्याय इन दिनों लिखे जा रहे हैं, उनको देखकर ये बात लगातार स्पष्ट होती जा रही है कि ज़मीनी रणनीति की जगह बड़े बड़े संकेतों ने ली है. ठोस बातों की जगह तमाशे ने ले ली है. ग़ज़ा से काबुल तक, रियाद के चमक दमक भरे माहौल से यमन के दूर-दराज़ के इलाक़ों तक ट्रंप की विदेश नीति में कोई दृष्टिकोण तो क्या ही नज़र आता, बल्कि ये तो जटिलता से बदला लेने की नीति दिखाई देती है. अंतरराष्ट्रीय मामलों की उलझी हुई सच्चाइयों से निपटने का एक ज़िद्दी इनकार नज़र आता है.

ट्रंप ने जिस तरह बड़े अनौपचारिक अंदाज़ में कश्मीर मसले को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की बातें कीं, उनसे भारत में उनकी बातों से दिलचस्पी के बजाय नाराज़गी ज़्यादा पैदा हो गई.

बदक़िस्मती से दुनिया से रिश्तों के मामले में ये उलटबांसी वाला रवैया, बिना आमंत्रण और बिना तैयारी के भारतीय उप-महाद्वीप के दरवाज़े तक आ पहुंचा है. ट्रंप ने जिस तरह बड़े अनौपचारिक अंदाज़ में कश्मीर मसले को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की बातें कीं, उनसे भारत में उनकी बातों से दिलचस्पी के बजाय नाराज़गी ज़्यादा पैदा हो गई. ट्रंप का ये दख़लंदाज़ी भरा रुख़ कोई राजनयिक चतुराई नहीं, बल्कि कूटनीतिक ख़ामख़याली नज़र आता है. अमेरिका ये मानकर नहीं चल सकता कि वो ऐसे मसले में दख़ल दे सकता है, जिसके बारे में न तो उसको इस बात का एहसास है कि दांव पर क्या लगा है और न ही उसके पास मध्यस्थता करने का कोई नैतिक बल है.

कश्मीर कोई कूटनीतिक तमाशा नहीं है. भारत के लिए ये संप्रभुता का एक मुख्य विषय है. एक ऐसा मसला जो इतिहास, संस्कृति, ख़ून और जज़्बात से जुड़ा है. ये कहना कि कोई पश्चिमी ताक़त, वो भी मौजूदा अमेरिकी सरकार जैसी अस्थिर नीति वाला देश इस मसले में एक निष्पक्ष मध्यस्थ की भूमिका अदा कर सकता है, न केवल ख़ामख़याली है, बल्कि अपमानजनक भी है. किसी भी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता से भारत का इनकार कोई माहौल बनाना नहीं, बल्कि देश का सिद्धांत है. और, ये सिद्धांत भारत ने अपने जिये हुए तजुर्बों से बनाया है, जब पश्चिम की ‘निष्पक्षता’ अक्सर पर्दे के पीछे पाकिस्तान की तरफ़ झुकाव वाली और पाकिस्तान द्वारा लगातार आतंकवाद को प्रायोजित करने की हक़ीक़त को देखने की अनिच्छा के रूप में सामने आती रही है. 

ट्रंप की विरोधाभासी नीति

यही नहीं, अगर हम ट्रंप के रिकॉर्ड का संपूर्णता से मूल्यांकन करें तो भारत की चिंताएं कम होने के बजाय और बढ़ जाती हैं.

कोई भी ये सवाल उठा सकता है कि ट्रंप की मध्यस्थता कहां पर कामयाब हुई है? ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में मध्य पूर्व में शांति बहाली की कई कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं. ग़ज़ा की बहुप्रचारित ‘रिविएरा योजना’ को जितनी तेज़ी से दुनिया के सामने रखा गया, उतनी ही जल्दी इसका समापन भी हो गया. ‘चौतरफ़ा तबाही मच जाएगी’ वाली ट्रंप की वाहियात क़िस्म की धमकी, किसी विश्व नेता की तरफ़ से सोच-समझकर पेश की गई कूटनीतिक पहल के बजाय बेलगाम जुमलेबाज़ी ज़्यादा नज़र आई. मध्य पूर्व के लिए ट्रंप के दूत लापता हो गए, शांति वार्ता की रफ़्तार टूट गई और इलाक़े में एक बार फिर जंग का दौर लौट आया.

पश्चिमी तट पर अराजकता का राज है. बड़े बड़े वादे करने के बावजूद, ट्रंप कोई ठोस नीति अब तक नहीं पेश कर सके हैं. इज़राइल और सऊदी अरब के रिश्ते सामान्य करने की बहुप्रचारित योजना लड़खड़ा रही है. इसलिए नहीं कि ट्रंप, इज़राइल पर इस बात का दबाव नहीं बना सके कि वो फिलिस्तीनियों को कुछ ठोस रियायतें दे. असल में ये ट्रंप का वास्तविक स्वरूप है. वो सौदेबाज़ी करने के लिए कूटनीति को मौक़ा देने का धैर्य नहीं दिखाते. ट्रंप को लगता है कि उनकी छवि ही संस्थागत ढांचे की जगह लेने के लिए पर्याप्त है.

ईरान के साथ ट्रंप का एक बेहतर परमाणु समझौता करने का बड़बोला बयान कुछ भी हासिल नहीं कर सका है. बात जहां थी, वहीं पर अभी भी अटकी है. प्रतिबंधों और अंदरूनी बग़ावत से जूझता ईरान, समझौता करवा लेने की सबसे अच्छी स्थिति में था. लेकिन, अमेरिका की भारी मांग से लेकर अस्पष्ट रियायतें देने की लगातार बदलती नीति ने कूटनीति करना असंभव बना दिया. जिसे लोग संतुलित तालमेल का मौक़ा मान रहे थे, वो जंगल में भटक जाने और अवसर गंवा देने वाली बात साबित हुई.

ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिकी की सामरिक निष्क्रियता का सबसे बड़ा उदाहरण शायद सीरिया में देखने को मिला. ट्रंप ने सीरिया से ठीक उस वक़्त संवाद बंद कर दिया, जब वहां असद के बाद के दौर में एक अस्थायी व्यवस्था आकार ले रही थी.

ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिकी की सामरिक निष्क्रियता का सबसे बड़ा उदाहरण शायद सीरिया में देखने को मिला. ट्रंप ने सीरिया से ठीक उस वक़्त संवाद बंद कर दिया, जब वहां असद के बाद के दौर में एक अस्थायी व्यवस्था आकार ले रही थी. जहां यूरोप, खाड़ी देशों और तुर्की ने सीरिया में प्रभाव जमाने और उसके पुनर्निर्माण के लिए पहल की, वहीं अमेरिका अपनी वैचारिक जड़ता और संदेह में अंधा होकर निष्क्रिय बनकर खड़ा रहा. इसका नतीजा ये हुआ कि ट्रंप ने काफ़ी देर के बाद जब सीरिया से प्रतिबंध हटाए तो भी इस इलाक़े के बदलते समीकरणों के बीच सबसे अहम मकाम से अमेरिका नदारद दिखा.

ट्रंप की अफ़ग़ान नीति भी वादाख़िलाफ़ी और विरोधाभास की मिसाल है. जिसमें अहंकार और संकुचित सोच साफ़ दिखाई देती है. जहां दक्षिण अफ्रीका के गोरे लोगों को अमेरिका में पनाह मिल रही है. लेकिन, वफ़ादार अफ़ग़ान सहयोगियों को निष्कासित किया जा रहा है. नैतिक रूप से पतित ये क़दम कोई रणनीति नहीं, बल्कि एक सनक है. जिसमें अमेरिका के लिए ख़ून बहाने वालों से पल्ला झाड़ा जा रहा है और इस तरह पहले ही अराजकता की ओर बढ़ रही दुनिया में अमेरिका अपनी विश्वसनीयता और भी गंवाता जा रहा है.

घातक संघर्षों को ख़त्म करने के ट्रंप के वादे अपनी पीठ थपथपाने के खोखले वादों से ज़्यादा कुछ नहीं साबित हुए हैं. क्योंकि उनमें बयानबाज़ी के बाद कूटनीतिक प्रयासों और ठोस संरचनात्मक उपायों का नितांत अभाव रहा है. इसके बावजूद वो कश्मीर मसले पर मध्यस्थ की भूमिका निभाने को हक़ीक़त मान कर चल रहे हैं.

भारत की चिंता

भारत के नज़रिये से सिर्फ़ यही मसला नहीं है कि ट्रंप के पास विश्वसनीयता का अभाव है. असल में उनको मसलों की समझ ही नहीं है. उनकी विदेश नीति चाहे मध्य पूर्व की हो या फिर दक्षिण एशिया की, उसमें क्षेत्रीय इतिहासों, सांस्कृतिक संदर्भों या फिर बरसों से जड़ें जमाए बैठे सत्ता के असंतुलन को समझने को लेकर सोचा समझा इनकार नज़र आता है. कश्मीर कोई मोल-भाव का पत्ता नहीं है. ये भारत की संप्रभु ज़िम्मेदारी है. जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की तुलना एक ऐसे देश से की जाए, जो लगातार इस्लामिक आतंकवाद को अपनी राष्ट्रीय नीति के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता रहा है, तो ये एक बुनियादी भू-राजनीतिक हक़ीक़त से मुंह मोड़ना है.

यही नहीं, भारत लंबे समय से ये कहता आया है कि भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में तब तक कोई अर्थपूर्ण प्रगति नहीं हो सकती, जब तक पाकिस्तान को सीमा पार आतंकवाद को संरक्षण देने के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जाता. अमेरिका वैसे तो कभी कभार इस सच्चाई को स्वीकार करता रहा है. लेकिन, उसने कभी भी पाकिस्तान पर इसका दायित्व डालने के लिए कोई निर्णायक क़दम नहीं उठाया है. पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की नीति कभी उसे पुचकारने तो कभी हिकारत भरी रही है. कड़े लफ़्ज़ों का इस्तेमाल तो हुआ, मगर नतीजे बहुत हल्के रहे. जब तक अमेरिका पाकिस्तान को समस्या के बजाय अपरिहार्य साझीदार के तौर पर देखता रहेगा, तब तक वो एक निरपेक्ष मध्यस्थ वाली विश्वसनीयता का दावा नहीं कर सकता है.

पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की नीति कभी उसे पुचकारने तो कभी हिकारत भरी रही है. कड़े लफ़्ज़ों का इस्तेमाल तो हुआ, मगर नतीजे बहुत हल्के रहे. जब तक अमेरिका पाकिस्तान को समस्या के बजाय अपरिहार्य साझीदार के तौर पर देखता रहेगा, तब तक वो एक निरपेक्ष मध्यस्थ वाली विश्वसनीयता का दावा नहीं कर सकता है.

इन जज़्बात को ट्रंप की वैश्विक कूटनीति को लेकर ग़लत तरीक़े का समग्र मिज़ाज और भी रेखांकित करता है. ट्रंप की विदेश नीति अक्सर ठोस क़दमों के बजाय तमाशे पर केंद्रित रही है. भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता का उनका प्रस्ताव कोई सोची समझी पहल दिखने के बजाय, अचानक दिखाया गया दंभ ज़्यादा नज़र आता है, जिसका मक़सद कोई स्थायी नतीजा हासिल करने से ज़्यादा ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (MAGA) के घरेलू हुजूम में जोश भरकर अपनी तारीफ़ में ताली पिटवाने का है. ये ट्रंप की विदेश नीति के एक पैटर्न की ही झलक है: कूटनीतिक की तल्ख़ सच्चाइयों से परे, बड़े बड़े दावे करना. ट्रंप ने दावा किया था कि वो 24 घंटे में यूक्रेन युद्ध ख़त्म करा देंगे और कुछ हमले करने के बाद उन्होंने ये भी दम भर लिया था कि यमन के हूतियों ने आत्मसमर्पण कर दिया है. ट्रंप बार-बार समय से पहले ही जीत की घोषणा कर देते हैं. लेकिन, जब उनका सामना जटिलताओं और वास्तविक शांति स्थापित करने के लिए ज़रूरी लंबे समय के प्रयासों से पड़ता है, तो उनकी पहलें हवा में उड़ जाती हैं. इससे उनकी कूटनीति के छिछले स्तर का पता चलता है, जो ट्रंप के इरादों से ज़्यादा उनकी छवि पर केंद्रित है.

वैसे तो ट्रंप कहते हैं कि वो अमेरिकी सेनाओं को वापस बुलाएंगे. लेकिन, ट्रंप प्रशासन अपने दूसरे कार्यकाल में ऐसी भाषा का इस्तेमाल और कई बार ऐसा बर्ताव भी कर रहा है, जो साम्राज्यवादी नज़र आता है. मेक्सिको में सैन्य दख़ल की धमकियां वो, पनामा नहर पर दोबारा क़ाबिज़ होने के ऐतिहासिक ख़्वाब को पूरा करने की बात हो या फिर कनाडा या ग्रीनलैंड को अमेरिका में शामिल करने की ख़ामख़याली भरी बातें हों. इनसे अमेरिकी विदेश नीति के ऐसे रुख़ का पता चलता है, जिसका न कोई सिर नज़र आता है, न पैर. कभी आगे बढ़ने तो कभी पीछे हटने का ये विचित्र तमाशा सहयोगियों को हैरान करता है और दुश्मनों के हौसले बढ़ाता है. इससे लोगों की ये सोच बनती है कि हम ‘एलिस इन वंडरलैंड’ की स्थिति में फंस गए हैं. 

दुनिया में बहुत से लोगों के लिए ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका की छवि एक महाशक्ति के बजाय एक कारोबारी गणराज्य की बनती जा रही है. जो ठेकों के लिए अपने दबदबे का इस्तेमाल करता है. संसाधनों तक पहुंच हासिल करने के लिए गठबंधन करता है. तारीफ़ के लिए सिद्धांतों से समझौते करता है. पूरे खाड़ी क्षेत्र में हाल के दिनों में ट्रंप परिवार की कारोबारी गतिविधियों में बढ़ोत्तरी- जिसमें सऊदी अरब, क़तर और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) शामिल हैं- वो किसी भी कूटनीतिक पहल पर एक बहुत बड़ा ग्रहण लगाते हैं. जिस देश की विदेश नीति निजी वित्तीय हितों से अटूट रूप से जुड़ी हो, क्या वो दक्षिण एशिया में निष्पक्षता का दावा कर सकता है? ये सवाल ही अपने आप में जवाब है.

यही नहीं, ये देखकर भी भारत की असहजता बढ़ी है कि ट्रंप प्रशासन पूरे क्षेत्र में असमान रूप से दबाव बनाता है. पाकिस्तान को पुचकारा जा रहा है. अमेरिका इन दिनों तुर्की को दुलार रहा है और अफ़ग़ानिस्तान को लेकर तो उसका रुख़ लगातार तब्दील हो रहा है. इस परिदृश्य में एक लोकतांत्रिक देश होने, अपने आर्थिक दबदबे और लगातार पश्चिम के साथ अपने हितों का तालमेल करने के बावजूद भारत को बहुत कम ठोस समर्थन या फिर सामरिक रणनीति में स्थान मिलता है. ये दोहरे मानक भरोसे को कमज़ोर करते हैं और भारत के उस ऐतिहासिक संदेह को मज़बूत बनाते हैं, जो उसने पश्चिमी कूटनीति से बार बार मोह भंग होने की वजह से महसूस किया है.

निष्कर्ष

अगर भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को आगे बढ़ाना है, तो इसकी शुरुआत अमेरिका के बजाय इस्लामाबाद और रावलपिंडी से करनी होगी और इसके लिए आतंकवाद से पूरी तरह नाता तोड़ने के साथ साथ क्षेत्रीय सच्चाइयों को स्वीकार करना होगा. जब तक अमेरिका पाकिस्तान को उसके दुरंगापन के लिए दंड देने को तैयार नहीं होता और सज़ा देने के बजाय आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में सहयोग की आड़ में उससे गलबहियां डालकर मिलता है, तो अमेरिका की कोई भी भूमिका बिना आमंत्रण वाली और दख़लंदाज़ी मानी जाएगी.

मध्य पूर्व और यूरोप में ट्रंप के दांव और अब दक्षिण एशिया में उनकी पहल सिर्फ़ ग़लत क़दम नहीं हैं. वो चतुर कूटनीति की आड़ में पेश की गई ख़तरनाक नासमझी है. ये हमें याद दिलाते हैं कि कूटनीति कोई तमाशा नहीं, बल्कि अनुशासन है. ये अहंकार नहीं, दूरदृष्टि है. सौदेबाज़ी नहीं बल्कि स्थायी क़दम है.

इतिहास केवल घटनाओं का ब्योरेवार वृत्तांत नहीं है बल्कि इस बात का सबक़ भी है कि क्या ग़लतियां की गईं. मध्य पूर्व और यूरोप में ट्रंप के दांव और अब दक्षिण एशिया में उनकी पहल सिर्फ़ ग़लत क़दम नहीं हैं. वो चतुर कूटनीति की आड़ में पेश की गई ख़तरनाक नासमझी है. ये हमें याद दिलाते हैं कि कूटनीति कोई तमाशा नहीं, बल्कि अनुशासन है. ये अहंकार नहीं, दूरदृष्टि है. सौदेबाज़ी नहीं बल्कि स्थायी क़दम है.

भारत की दृष्टि में इसका जवाब स्पष्ट है. क्षेत्रीय शांति का मार्ग हड़बड़ी में बुलाई गई बैठकों या फिर मीडिया के तमाशे से नहीं, बल्कि ख़ामोशी और बिना तमाशे के साबित की जाने वाली जवाबदेही, भरोसा क़ायम करने और सामरिक स्पष्टता के ज़रिये निकलेगा. जब तक ट्रंप प्रशासन पाकिस्तान से सख़्त सवाल करने, अपने सैन्य तंत्र के दुस्साहस पर लगाम लगाने और भारत के साथ हिंद प्रशांत में एक वास्तविक साझीदार के तौर पर व्यवाहर करने के लिए तैयार नहीं होता, तब तक उसको दख़लंदाज़ी से बचना चाहिए.

सीमा पार आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत का मज़बूत और सोचा समझा अभियान ऑपरेशन सिंदूर, रणनीतिक संयम और स्पष्ट इच्छाशक्ति का उदाहरण है. पाकिस्तान पर इन हमलों ने किसी देश द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत की लक्ष्मण रेखा को रेखांकित किया है और सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान के उस जिहादी मूलभूत ढांचे का पर्दाफ़ाश कर दिया है, जो लंबे समय से पल्ला झाड़ लेने के पर्दे के पीछे छुपा हुआ था. फिर भी ट्रंप की उठा-पटक वाली विदेश नीति और आक्रांता और पीड़ित को समानता के झूठे नज़रिए से देखना एक ऐसा संतुलन है, तो ख़तरनाक और मार्ग से भटकी हुई है. ऐसे नैतिक संतुलन बनाना सामरिक रूप से ख़ुद को ही धोखा देना है.

ट्रंप का मिज़ाज लेन-देन वाला है. किसी विषय में उनकी दिलचस्पी भी वक़्ती या कुछ समय के लिये ही होती है और दुनिया को लेकर उनका दृष्टिकोण तथ्यों से ज़्यादा चापलूसी से ज़्यादा बनता है. कश्मीर कोई ऐसी छोटी चीज़ या मसला नहीं है जिसे ट्रंप की कूटनीतिक तमाशे का शिकार बनने दिया जाए.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.