Published on Jul 22, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत और रूस के द्विपक्षीय रिश्तों में सक्रिय तौर पर किसी तरह का कोई टकराव नहीं है. हालांकि, आगे इन संबंधों पर बाहरी कारकों के प्रभावों को नज़रअंदाज़ करना या कम करके आंकना मुमकिन नहीं है

भारत-रूस संबंध: महामारी से प्रभावित दुनिया में सहयोग और साझीदारी ही बचाएगी दोस्ती

एक ओर दुनिया कोविड-19 महामारी के कुप्रभावों से जूझ रही है, तो दूसरी तरफ़ अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था एक नया आकार ले रही है. संसार के राष्ट्रों की राज्यसत्ता आज एक ऐतिहासिक पड़ाव पर खड़ी है. ऐसे में उनके लिए अनिश्चितता का माहौल और गहरा हो गया है. यूं तो अमेरिका और चीन के बीच की प्रतिस्पर्धा किसी के लिए अचरज की बात नहीं है, बहरहाल, महामारी के चलते इस तनातनी में आई तेज़ी ने दुनिया को दो ध्रुवों वाली संभावित विश्व व्यवस्था की झलक दिखाई है. नई विश्व व्यवस्था के इसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमने के आसार है. 

विश्व पटल पर भारत और रूस दोनों ही अपने आप में अहम किरदार हैं. इसके बावजूद दोनों में से किसी के भी विश्व व्यवस्था में टॉप 2 पायदान पर पहुंचने की कोई संभावना नहीं है. हालांकि, मौजूदा वक़्त में वैश्विक सत्ता संतुलन में जारी बदलावों से विदेश नीति के स्तर पर दोनों देशों के पास उपलब्ध विकल्पों पर असर पड़ना लाज़िमी है. जिस तरीके से अमेरिका के साथ भारत और चीन के साथ रूस के रिश्तों का उभार हुआ है, उसके मद्देनज़र इन दोनों देशों पर मौजूदा बदलावों का कहीं ज़्यादा असर पड़ने के आसार हैं. 

भारत और रूस के द्विपक्षीय रिश्तों में सक्रिय तौर पर किसी तरह का कोई टकराव नहीं है. हालांकि, आगे इन संबंधों पर बाहरी कारकों के प्रभावों को नज़रअंदाज़ करना या कम करके आंकना मुमकिन नहीं है. भारत और रूस के बीच लंबे समय से “बेहद ख़ास और विशेषाधिकारों से भरा” रिश्ता कायम है. मौजूदा वक़्त में वैश्विक राजनीति में जारी बदलावों के मद्देनज़र इन रिश्तों पर पड़ने वाले असर की पड़ताल ज़रूरी है. भारत और रूस दोनों ही इस माहौल में खुद को स्थापित करना चाह रहे हैं.

आज दुनिया में न तो खुले तौर पर दो ध्रुवों वाली व्यवस्था है और न ही साफ़ तौर पर कोई बहुध्रुवीय व्यवस्था ही नज़र आती है. नतीजतन आज विश्व में अस्थिरता का माहौल है. तमाम देश अपने हिसाब से ज़रूरी दांव-पेच अपनाते रहते हैं.

अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा से विश्व व्यवस्था के तितर-बितर होने का ख़तरा बढ़ गया है. भारत और रूस शुरू से ही बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के समर्थक रहे हैं. दोनों देशों को ये ये बात अच्छे से मालूम है कि दो ध्रुवों में बंटे संसार में विदेश नीति से जुड़े उनके विकल्पों के सामने कई तरह की रुकावटें खड़ी होंगी. दोनों ही देश अपनी-अपनी विदेश नीतियों के निर्माण में अपना आज़ाद विकल्प बनाए रखने के पक्षधर हैं. दोनों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी तरह की गुटबाज़ी से दूर रहते हैं. हालांकि, इसका ये मतलब नहीं है कि दोनों ही पक्ष विश्व व्यवस्था को लेकर पूरी तरह से एकमत हैं. हक़ीक़त ये है कि आज दुनिया में न तो खुले तौर पर दो ध्रुवों वाली व्यवस्था है और न ही साफ़ तौर पर कोई बहुध्रुवीय व्यवस्था ही नज़र आती है. नतीजतन आज विश्व में अस्थिरता का माहौल है. तमाम देश अपने हिसाब से ज़रूरी दांव-पेच अपनाते रहते हैं. वो अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करते हुए विभिन्न मसलों पर अपना रुख़ तय करते हैं.  

चीन और रूस का उभरता गठबंधन

ये प्रवृति सबसे ज़्यादा एशिया में दिखाई देती है. चीन जैसी उभरती शक्ति का आधार एशिया ही है. यहीं से वो दुनिया की स्थापित महाशक्तियों को चुनौती देता है. यही भूक्षेत्र भारत और रूस के लिए भी अहम है. मौजूदा वक़्त में यही इलाक़ा वैश्विक भू-राजनीति का केंद्र बना हुआ है. भले ही इन दोनों देशों के बीच के द्विपक्षीय संबंध बेहद मधुर रहे हैं लेकिन इसके बावजूद एशिया के बड़े कैनवास पर आपसी तालमेल और सहयोग बढ़ाने में इन दोनों ताक़तों को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. 

2014 के बाद से चीन बाहरी दुनिया में रूस का सबसे बड़ा साथी बनकर उभरा है. अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी जगत के साथ दोनों के रिश्ते तनाव भरे हैं. ऐसे में रूस और चीन में नज़दीकी आना लाजिमी है. रूस के नज़रिए से देखें तो पश्चिम के साथ उसके रिश्तों में आई गिरावट के बावजूद वो “एशिया की धुरी” में खुद को कामयाबी से स्थापित नहीं कर सका है. एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ उसके रिश्तों में बिखराव बना हुआ है. एक बड़ी ताक़त के तौर पर उभरने के बावजूद रूस यूरेशिया क्षेत्र में ‘सत्ता का एक शक्तिशाली केंद्र‘ बनाने में नाकाम रहा है. इतना ही नहीं ख़ुद को एक अहम क्षेत्रीय ताक़त के तौर पर स्थापित करने के लिए ‘पर्याप्त संसाधनों’ का प्रदर्शन कर पाने में भी रूस कामयाब नहीं हो सका है.

वहीं दूसरी ओर भारत की बात करें, तो आक्रामकता से भरे चीन के साथ उसके रिश्तों में लगातार गिरावट आती गई है. लाज़िमी तौर पर नई दिल्ली को चीन के उभार की काट के लिए अमेरिका की ओर मुख़ातिब होने की नीति अपनानी पड़ी है. ज़ाहिर है भारत केवल अपने बूते चीन के ख़िलाफ़ जारी इस खेल के क़ायदे नहीं बना सकता. एक और मायने में ये बात महत्वपूर्ण है. रूस और चीन की भागीदारियों में नज़दीकियां बढ़ रही हैं. लिहाज़ा उभरती विश्व व्यवस्था की परिकल्पना को लेकर भारत और रूस के बीच कुछ बुनियादी मतभेद उभर आए हैं. अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर चीन की बढ़ती ताक़त को संतुलित करने को लेकर भारत और रूस के नज़रिए में फ़र्क आ गया है. अमेरिका-चीन तनातनी और भारत और रूस के साथ उनके अपने-अपने समीकरणों के चलते विदेश नीति के मोर्चे पर गंभीर चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं. इनसे निपटने और आगे बढ़ने के लिए बेहद ऊंचे दर्जे की महारत की दरकार होगी.

रूस और चीन की भागीदारियों में नज़दीकियां बढ़ रही हैं. लिहाज़ा उभरती विश्व व्यवस्था की परिकल्पना को लेकर भारत और रूस के बीच कुछ बुनियादी मतभेद उभर आए हैं. अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर चीन की बढ़ती ताक़त को संतुलित करने को लेकर भारत और रूस के नज़रिए में फ़र्क आ गया है. 

भारत और रूस के बीच “बेहद ख़ास और विशेषाधिकारों से भरे रिश्तों” के बावजूद ऐसे संकेत मिलने लगे हैं कि ये एक बेहद पेचीदा यात्रा होगी. रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने भारत को पश्चिम की नीतियों का ‘मज़मून‘ बताया था. उनका कहना था कि पश्चिमी जगत अपनी ‘चीन-विरोधी चालों के लिए हिंद-प्रशांत रणनीतियों को बढ़ावा देने’ के मकसद से भारत को अपने साथ जोड़ रहा है. भारत के विदेश मंत्रालय ने रूस के इस बयान पर दो टूक प्रतिक्रिया जताई. सार्वजनिक तौर पर रूस के ख़िलाफ़ भारत ने अपनी नापसंदगी का इस तरह पहले शायद ही कभी इज़हार किया है. हो सकता है कि इस मामले में रूस का रुख़ अमेरिका के साथ उसके मतभेदों से प्रभावित रहा हो. बहरहाल, अगर आगे भी ऐसा ही होता रहा तो रूस द्वारा हिंद-प्रशांत क्षेत्र की स्थानीय शक्तियों की चिंताओं की अनदेखी का ख़तरा बढ़ता चला जाएगा. इस क्षेत्र में रूस के संपर्क अब भी बेहद लचर हैं. लिहाज़ा यहां अपनी कूटनीति की कलाबाज़ियां दिखाने के लिए उसके पास बेहद कम अवसर मौजूद है. 

माना कि रूस हिंद-प्रशांत क्षेत्र की परिकल्पना का समर्थन नहीं करता है मगर इसके बावजूद यहां यही सवाल खड़ा होता है कि भारत जैसे भागीदार देश को ख़ुद से जुदा या पराया कर देने से क्या यूरेशिया का मज़बूत ताक़त बनने के उसके प्रयासों में मदद मिलेगी. रूस किसी ज़माने में महाशक्ति था. हो सकता है महाशक्ति रहने की उसकी हनक अब भी उसके मन में बरकरार हो. 21वीं सदी में उसका प्रभाव फिर से उभर रहा है. इसके बावजूद उभरती विश्व व्यवस्था में चतुराई भरे दांव-पेच अपनाने के रास्ते में किसी किस्म के अभिमान को आ़ड़े नहीं आने देना चाहिए. विश्व पटल पर भारत और आसियान जैसे किरदार रूस जैसी आज़ाद ताक़त का स्वागत करेंगे. इसके लिए रूस को एक संतुलित रुख़ दिखाना होगा. उसे ये सुनिश्चित करना होगा कि उसकी छवि चीन के जूनियर पार्टनर की न बन जाए.

भारत-रूस की सामरिक सहभागिता 

रूस हमेशा से दुनिया में किसी भी ताक़त का पिछलग्गू बनने के विचार का विरोधी रहा है. लिहाजा भारत के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र समेत मध्य एशिया, पश्चिम एशिया और अफ़ग़ानिस्तान में भी उसके द्विपक्षीय सहयोग की संभावनाएं बरकरार हैं. हक़ीक़त तो ये है कि हिंद-प्रशांत और यूरेशिया की परिकल्पना आपस में अलग-थलग नहीं हैं, बल्कि इसके उलट ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. 

ऊपर जिन चुनौतियों की चर्चा की गई है उनका ये मतलब नहीं है कि भारत और रूस को अपना करीबी जुड़ाव छोड़ देना चाहिए. दरअसल होना तो इसके ठीक उलट चाहिए. बदलावों से भरे मौजूदा दौर में दोनों देशों को अपने ‘ख़ास और विशेषाधिकारों वाली सामरिक सहभागिता’ को और बढ़ाते हुए मल्टी-वेक्टर विदेश नीति के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए. दोनों देशों के बीच के आपसी रिश्तों की सबसे अहम सीख यही है कि दोनों ही एक-दूसरे को अमेरिका, चीन और दूसरी ताक़तों से निपटने के लिए सामरिक और रणनीतिक ज़मीन प्रदान करते हैं. 

भारत-रूस तनातनी के नतीजे क्या होंगे? रूस पहले से ही पश्चिम के साथ अपने रिश्तों के बुरे दौर से गुज़र रहा है. अगर भारत से भी उसके रिश्तों में तल्ख़ी आती है तो चीन के अलावा दुनिया की कोई और बड़ी ताक़त उसके रणनीतिक भागीदार के तौर पर नहीं बच जाएगी. इसका मतलब ये होगा कि रूस के लिए यूरेशिया में ‘भू-राजनीतिक संतुलन को ख़तरा’ पैदा हो जाएगा. रूस की खस्ता हालत के मद्देनज़र ये बेहद चिंताजनक हालात होंगे. भारत के लिहाज से देखें तो रूस-चीन की जोड़ी बन जाना एक बुरे सपने जैसा होगा. अगर ऐसा होता है तो एशिया में चीन का दबदबा हो जाएगा. ऐसे माहौल में भारत पश्चिमी दुनिया के साथ ऐसे ही रिश्ते गांठने के लिए मजबूर हो जाएगा. ये हालात भारत की मौजूदा नीतियों से बिल्कुल अलग होंगे. फ़िलहाल भारत हर परिस्थिति में पूरी तरह से ‘समान हित‘ न होने के बावजूद ‘विभिन्न पक्षों’ के साथ जुड़ाव बनाने का इच्छुक रहता है. भारत हमेशा से ही बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था का पक्ष लेता रहा है जहां उसकी रणनीतिक स्वायत्तता बरकरार रहे. रूस के साथ तनाव भरे हालातों का भारत के कूटनीतिक इरादों पर नकारात्मक असर पड़ेगा.

भारत हमेशा से ही बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था का पक्ष लेता रहा है जहां उसकी रणनीतिक स्वायत्तता बरकरार रहे. रूस के साथ तनाव भरे हालातों का भारत के कूटनीतिक इरादों पर नकारात्मक असर पड़ेगा.

ख़ुलकर बातचीत करें दोनों देश

ऐसे किसी हालात को रोकने के लिए पहले क़दम के तौर पर भारत-रूस द्विपक्षीय एजेंडे में एक बार फिर जान फूंकनी पड़ेगी. इस सिलसिले में कूटनीतिक तौर पर गुपचुप तरीक़े से कई क़दम उठाने होंगे. मसलन, पिछले साल भारत और चीन के बीच सीमा पर टकराव भरे हालातों के दौरान रूस ने दोनों देशों को बातचीत की मेज़ पर लाने की कोशिश की थी. इस तरह के उपाय आपसी भरोसा कायम करने के लिए अहम हैं. सार्वजनिक मंचों पर आपसी मतभेदों को ज़ाहिर करने के मुक़ाबले चुपचाप किए जाने वाले ये उपाय कहीं ज़्यादा प्रभावी होते हैं. इसके साथ ही आर्थिक एजेंडे को भी फिर से खड़ा करना ज़रूरी है. फ़िलहाल भारत और रूस के आर्थिक संबंधों में रक्षा और ऊर्जा से जुड़े क्षेत्रों का ही दबदबा है. आगे चलकर भी इन्हीं दोनों सेक्टरों का बोलबाला रहने की संभावना है. हालांकि, वक़्त का तकाज़ा है कि आर्थिक मामलों में इस जुड़ाव के दायरे को और व्यापक बनाया जाए.

भविष्य को ध्यान में रखते हुए बनने वाले किसी भी आर्थिक एजेंडे में हाइटेक सेक्टर, बायोटेक्नोलॉजी, नैनोटेक्नोलॉजी, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, अंतरिक्ष, स्टार्ट-अप और इन्नोवेशन, दवाइयों, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में सहयोग को शामिल किया जाना चाहिए. इससे सही तौर पर दोनों देशों की क्षमताओं का लाभ उठाया जा सकेगा. द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग में छोटे और मध्यम आकार वाले उपक्रमों को शामिल करना भी इस दिशा में एक बड़ा क़दम होगा. इसके अलावा रूस के सुदूर पूर्व और आर्कटिक क्षेत्र में द्विपक्षीय और बहुपक्षीय तरीके का सहयोग बढ़ाना भी दोनों के लिए फ़ायदेमंद रहेगा. 

इसमें कोई शक़ नहीं कि बहुपक्षीय मंचों पर भारत और रूस के बीच हमेशा से ही जुड़ाव का वातावरण रहा है. रूस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में उसके प्रवेश का समर्थन किया है. 

इसमें कोई शक़ नहीं कि बहुपक्षीय मंचों पर भारत और रूस के बीच हमेशा से ही जुड़ाव का वातावरण रहा है. रूस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में उसके प्रवेश का समर्थन किया है. दोनों देशों ने ब्रिक्स, शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन और यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन जैसी बहुपक्षीय व्यवस्थाओं में भी सहयोग का रुख़ दिखाया है. अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएनएसटीसी) का विचार भी बहुपक्षीय जुड़ाव के तौर पर ही सामने आया है. कनेक्टिविटी से जुड़ी इस परियोजना के साथ आर्थिक और भूराजनीतिक मकसद जुड़े हैं. ऐसी ही समझ चेन्नई से व्लाडिवोस्टोक के बीच प्रस्तावित सामुद्रिक गलियारे को लेकर भी है. इसके ज़रिए रूस के सुदूर पूर्वी हिस्से के साथ भारत के व्यापारिक संबंध मज़बूत हो सकेंगे. इतना ही नहीं भारतीय पक्ष को ये भी लगता है कि ये संपर्क मार्ग भारत और यूरेशियन यूनियन के बीच पुल का काम करेगा. इसके साथ ही ये हिंद-प्रशांत क्षेत्र में और अधिक खुलापन लाकर अपना आज़ाद और समावेशी प्रभाव छोड़ेगा. इसके साथ ही भारत, ईरान और रूस के बीच अफ़ग़ानिस्तान के मसले पर तालमेल को फिर से पटरी पर लाने की चर्चा करना भी उपयोगी साबित होगा. 

आने वाले समय में न तो भारत-चीन रिश्तों और न ही अमेरिका-रूस संबंधों के सुधरने की आस है. ऐसे हालात में भारत के लिए अमेरिका और रूस के लिए चीन अहम साझीदार बने रहेंगे. लिहाज़ा भारत और रूस के बीच हर मुद्दे पर ‘मुक्त और बेबाक’ चर्चाओं को तेज़ करना समझदारी वाला क़दम होगा. इसके साथ ही एक-दूसरे के अहम मुद्दों पर तटस्थता बरकरार रखकर द्विपक्षीय रिश्तों में मज़बूती की कोशिशें करना भी वक़्त की मांग है. 

कोशिश ये सुनिश्चित करने की होनी चाहिए कि निरंतर होने वाले बदलावों और अनिश्चितता से भरी मौजूदा विश्व व्यवस्था में दूसरी शक्तियों के साथ भारत और रूस के जुड़ाव पारस्परिक द्विपक्षीय रिश्तों की क़ीमत पर न हों. इसके साथ ही दोनों पक्षों को ये ध्यान रखना होगा कि अपने राजनीतिक, आर्थिक, रक्षा और सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत करने के लिए वो एक-दूसरे को अवसर प्रदान करें. 

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