-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
कई पश्चिमी देश भी जी-7 और क्वाड जैसे मंचों के माध्यम से भारत के साथ अपने सहयोग को और गहरा करना चाहते हैं. वो कम पश्चिमीकृत दुनिया में अपने लिए और ज़्यादा साझेदार चाहते हैं.
8 जुलाई को जब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन मास्को में भारतीय प्रधानमंत्री का गर्मजोशी से स्वागत कर रहे थे, तो उन तस्वीरों को देखकर पश्चिमी देशों में कुछ अविश्वास का भाव था. वो लोग इस बात पर विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि ऐसे वक्त पर जब रूस ने अपने पड़ोसी देश यूक्रेन पर हमला किया है, वैसे समय में मोदी कैसे पुतिन को गले लगा सकते हैं? कैसे रूस के साथ व्यापार की बात कर सकते हैं?
लेकिन पीएम मोदी ने रूस में जो कहा, वो भारत के उसी रुख के मुताबिक था, जो भारत ने रशिया-यूक्रेन युद्ध के बाद से ही अपना रखा है. मोदी ने कहा कि “युद्ध किसी भी समस्या को नहीं सुलझा सकता. युद्धक्षेत्र में कोई समाधान नहीं खोजे जा सकते”. अब जो नई परिस्थितियां उभर रही हैं, जो वास्तविकताएं सामने आ रही हैं, उसे देखते हुए भारत के इस स्टैंड पर और अधिक विचार करने की आवश्यकता है.
युद्ध शुरू होने के बाद मोदी ने फरवरी 2022 में राष्ट्रपति पुतिन और राष्ट्रपति जेलेंस्की से बात की थी. इन नेताओं की बातचीत को लेकर जो आधिकारिक जानकारी दी गई, उसके मुताबिक मोदी ने पुतिन से कहा था कि "रूस और NATO के बीच जो मतभेद और विवाद हैं, उन्हें ईमानदार और गंभीर बातचीत के ज़रिए ही हल किया जा सकता है". फरवरी 2022 यानी युद्ध शुरू होने के बाद से ही कई गैर पश्चिमी देशों ने रूस और यूक्रेन से युद्ध ख़त्म करने के लिए बातचीत की वक़ालत करते हुए अपना रुख स्पष्ट किया है. इंडोनेशिया से लेकर ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका ने इन युद्धरत देशों से बातचीत करने की अपील की है. सच्चाई तो ये है कि दुनिया के ज़्यादातर देश बातचीत के ज़रिए ही इस युद्ध को ख़त्म करने की बात कर रहे हैं क्योंकि यही सबसे व्यावहारिक विकल्प है. अब हम वक्त के उस दौर में पहुंच गए हैं, जहां अमेरिका भी रूस-यूक्रेन युद्ध को ख़त्म करने के लिए इस रुख को अपनाने वाला है. हालांकि ऐसा करने के पीछे अमेरिका की मज़बूरी अपनी घरेलू राजनीति है.
अब हम वक्त के उस दौर में पहुंच गए हैं, जहां अमेरिका भी रूस-यूक्रेन युद्ध को ख़त्म करने के लिए इस रुख को अपनाने वाला है. हालांकि ऐसा करने के पीछे अमेरिका की मज़बूरी अपनी घरेलू राजनीति है.
इस साल नवंबर में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप के जीतने की ज़्यादा संभावना है. पेंसिल्वेनिया में चुनावी भाषण के दौरान एक हत्यारे की गोली से बाल-बाल बचे ट्रंप की राजनीतिक स्थिति और मज़बूत हो गई है. अगर ट्रंप चुनाव जीतते हैं तो वो यूक्रेन पर दबाव डालकर रशिया-यूक्रेन युद्ध को ख़त्म करवाने की कोशिश करेंगे. ऐसा करने की ट्रंप की अपनी सियासी मज़बूरी है. वो अपने वोटरों को खुश करना चाहते हैं. ट्रंप और उनके रिपब्लिकन रनिंग मेट (उप राष्ट्रपति उम्मीदवार) जेडी वेंस नहीं चाहते कि रूस के हमले के ख़िलाफ यूक्रेन के रक्षात्मक युद्ध को अमेरिका लगातार फंड करता रहे. ज़ाहिर है अगर ट्रंप राष्ट्रपति बनते हैं तो यूक्रेन को रूस के साथ समझौता करने के लिए मज़बूर होना पड़ सकता है. अगर ऐसा होता है तो भारत के पास अपने कहे पर अमल करने और रूस-यूक्रेन युद्ध समाप्त करने में हर मुमकिन मदद करने का मौका होगा. हालांकि यूक्रेन और रूस से भारत एक महाद्वीप दूर है, लेकिन रूस का बड़ा व्यापारिक साझेदार होने के नाते भारत कूटनीतिक माध्यम से मास्को पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकता है और इस क्षेत्र में स्थिरता लाने में मदद कर सकता है. उदाहरण के लिए भारत पुतिन को इस बात के लिए प्रोत्साहित कर सकता है कि यूक्रेन के साथ जो भी समझौता हो, वो उसका पालन करें.
सोचिए ये कितना बड़ा बदलाव होगा. उस स्थिति की कल्पना करके देखिए: पूर्वी यूरोप में छिड़ा युद्ध एक ऐसे शांति समझौते से ख़त्म हो गया, जो मुख्य रूप से अमेरिका में सरकार बदलने से प्रेरित है. लेकिन ये एक ऐसा शांति समझौता होगा, जिसका दुनिया भर में स्वागत होगा और समर्थन मिलेगा, उन देशों द्वारा भी जो लंबे वक्त से इस युद्ध को समाप्त करने की वक़ालत कर रहे थे और जिनके रूस के साथ मज़बूत संबंध हैं.
इस पूरे परिदृश्य में सबसे ज़्यादा नुकसान यूक्रेन का होगा. वो अपना एक बड़ा क्षेत्र गंवा देगा. इसमें वो तटीय इलाके भी शामिल हैं, जिन पर रूसी सेना ने कब्ज़ा किया हुआ है. पश्चिमी देशों ने ज़ेलेंस्की के साथ मज़बूती से खड़े होने का वादा किया था. ज़ेलेंस्की की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इन पश्चिमी देशों ने उनके समर्थन की बात कही थी. ये भरोसा दिलाया था कि अगर यूक्रेन यूरोपियन यूनियन और NATO में शामिल होता है तो वो उसकी रक्षा करेंगे, लेकिन अब उन्हें अपना रुख नरम करने पर मज़बूर होना पड़ सकता है. ऐसी स्थिति में ब्रिटेन, फ्रांस, पौलेंड और कुछ अन्य सरकारें यूक्रेन की मुख्य गारंटर होंगी क्योंकि अमेरिका और भारत से लेकर बाकी प्रमुख वैश्विक शक्तियों की पहली प्राथमिकता युद्ध को ख़त्म करने की होगी.
ये परिदृश्य अब संभव लग रहा है. सबसे ख़ास बात ये है कि इसकी अहमियत उससे ज़्यादा होगी, जो दिख रहा है. इससे मिले सबक का असर रशिया-यूक्रेन युद्ध से बहुत आगे तक दिखेंगे. जिस तरह से ये युद्ध ख़त्म होगा (अगर ट्रंप जीतते हैं तो) ये आने वाले दशकों में वैश्विक मामलों में पश्चिमी देशों की बदलती भूमिका का पूर्वाभास दे सकता हैं.
जैसा कि इस लेखक ने अपनी नई किताब वेस्टलेसनेस: द ग्रेट ग्लोबल रीबैलेंसिग (हॉडर एंड स्टॉटन, जुलाई 2024) में लिखा है कि पश्चिमी देश अब भी वैश्विक मामलों में महत्वपूर्ण स्तंभ बने हुए हैं. लेकिन हमारी आंखों के सामने ‘पश्चिम’ का राजनीतिक चरित्र बदल रहा है. अमेरिका में ही नहीं बल्कि यूरोप के कई देशों में भी लोकलुभावन राजनीति करने वाले नेता ‘राष्ट्र प्रथम’ की नीति अपनाते हैं. बाद में यही नेता पश्चिमी देशों की विदेश नीति को भी प्रभावित करेंगे. ट्रंप और हंगरी के राष्ट्रपति विक्टर ओरबान जैसे लोकलुभावन नेता ‘दुनिया का दारोगा’ बनने वाली भूमिका को प्राथमिकता नहीं देते जबकि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से अमेरिका की अगुवाई में पश्चिमी देश ‘वर्ल्ड पुलिसिंग’ के लिए जाने जाते थे.
अमेरिका में ही नहीं बल्कि यूरोप के कई देशों में भी लोकलुभावन राजनीति करने वाले नेता ‘राष्ट्र प्रथम’ की नीति अपनाते हैं. बाद में यही नेता पश्चिमी देशों की विदेश नीति को भी प्रभावित करेंगे.
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि अब कई गैर पश्चिमी देशों का भी तेज़ी से उदय हो रहा है. ये ना सिर्फ आर्थिक रूप से समृद्ध हो रहे हैं बल्कि रणनीतिक तौर पर भी स्वायत्त हो रहे हैं. सामूहिक तौर पर ये सभी घटनाएं मिलकर दुनिया के मामलों को निर्णायक रूप में नए सिरे से परिभाषित कर रही हैं. भू-अर्थशास्त्र, जनसांख्यिकीय और दूसरे कई कारकों के ये बदलते रुझान मिलकर दुनिया को नए सिरे से संतुलित कर रहे हैं. इसमें पश्चिमी देशों की भूमिका मौजूद तो रहेगी, लेकिन वो अमेरिका के पीछे उस तरह से एकजुट नहीं रहेंगे, जैसे पहले रहते थे. इसके अलावा उनका उतना प्रभाव भी नहीं रहेगा. इसके नतीजे आने वाले कुछ दशकों में दिखेंगे और हम देखेंगे कि विश्व का संतुलन निर्णायक रूप से बदल जाएगा.
भारत इस बात को कई दूसरे देशों की तुलना में बेहतर रूप से समझ रहा है और उसी हिसाब से अपनी नीतियां बना रहा है. मोदी की मॉस्को यात्रा की पश्चिमी देशों के कई क्षेत्रों में काफी आलोचना हुई. वो नहीं चाहते थे कि यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस को किसी भी तरह का कूटनीतिक या राजनीतिक लाभ मिले, लेकिन हमें ये बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि मोदी इसी साल जून में इटली में हुई जी-7 की बैठक में मौजूद थे. जी-7 की बैठक में मोदी का शामिल होना इस बात का संकेत है कि भारत अपने मूल्यवान पश्चिमी सहयोगियों से मुंह नहीं मोड़ रहा है. भारत चाहता है कि ये संबंध हर क्षेत्र और हर तरफ से विकसित हों.
कई पश्चिमी देश भी जी-7 और क्वाड जैसे मंचों के माध्यम से भारत के साथ अपने सहयोग को और गहरा करना चाहते हैं. वो कम पश्चिमीकृत दुनिया में अपने लिए और ज़्यादा साझेदार चाहते हैं. 2022 में जब मोदी जर्मनी में आयोजित जी-7 की बैठक में गए थे, तब हर्ष पंत ने इस बात को बहुत शानदार ढंग से परिभाषित किया था. उन्होंने कहा था कि “भारत उन कुछ गिने-चुने देशों में से एक है, जो कुछ ही दिनों में जी-7 और ब्रिक्स से जुड़ सकता है”. ये एक बहुत ही अच्छी स्थिति है और 2020 के मध्य में वैश्विक मामलों के लिए ये आदर्श है.
हालांकि ब्रिक्स जैसे गैर पश्चिमी मंच से ज़्यादा से ज़्यादा व्यापारिक समझौते हासिल करना और अमेरिका के साथ तेज़ी से बढ़ता व्यापार और तकनीकी मदद प्राप्त करना अलग बात है और रूस-यूक्रेन युद्ध जैसी वैश्विक समस्या पर सक्रिय और सहायक कदम उठाना अलग बात है. भारत पिछले दो साल से इस युद्ध को ख़त्म करने की वक़ालत कर रहा है. लेकिन लगता है अब जल्द ही इस आह्वान पर सक्रिय प्रतिक्रिया देने का वक्त आने वाला है.
ये सही है कि यूरोप में चल रहे इस युद्ध को ख़त्म कराने में प्रत्यक्ष भूमिका निभाना भारत का दायित्व नहीं है, लेकिन वैश्विक कूटनीति का माहिर खिलाड़ी होने के नेता भारत को ये याद रखना चाहिए कि अगर ट्रंप युद्ध से ग्रस्त पूर्वी यूरोप में यूक्रेन की कीमत पर स्थिरता लाते हैं तो फिर इसके बाद उनका अगला फोकस चीन के साथ चल रही अमेरिका की रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता पर होगा. भारत जानता है कि दोनों देशों की इस प्रतियोगिता में उसे किसी एक पक्ष को चुनने पर मज़बूर नहीं किया जा सकता. एशिया के मामलों में भारत ख़ुद एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी है, जिसकी अपनी स्वायत्त नीति है. विश्व व्यवस्था के मामले में हम एक ऐसी दिलचस्प परिस्थितियों के निर्माण की उम्मीद कर सकते हैं, जहां पश्चिमी देशों का दबदबा कम हो रहा है और हम एक बहुध्रुवीय विश्व के चरण में प्रवेश कर रहे हैं. जो देश पहले प्रमुख शक्तियां हुआ करते थे, उन्हें अब झटके लग रहे हैं.
विश्व व्यवस्था के मामले में हम एक ऐसी दिलचस्प परिस्थितियों के निर्माण की उम्मीद कर सकते हैं, जहां पश्चिमी देशों का दबदबा कम हो रहा है और हम एक बहुध्रुवीय विश्व के चरण में प्रवेश कर रहे हैं. जो देश पहले प्रमुख शक्तियां हुआ करते थे, उन्हें अब झटके लग रहे हैं.
पश्चिमी देशों के कम प्रभुत्व वाली दुनिया कैसे होगी, इसका आकार कैसा होगा. ये अभी दिखना शुरू ही हुआ है, लेकिन इसकी कुछ स्पष्ट रूप रेखा साफ नज़र आने लगी है.
समीर पुरी वेस्टलेसनेस: द ग्रेट ग्लोबल रीबैलेंसिग (हॉडर एंड स्टॉटन, जुलाई 2024) के लेखक हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Dr Samir Puri holds affiliations with King’s College London and Chatham House. He is the author of Westlessness: The Great Global Rebalancing (Hodder & Stoughton, ...
Read More +