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अचानक से ऐसा लगने लगा कि दोनों पड़ोसी लेकिन परस्पर विरोधी सोच वाले देशों के बीच कभी हां कभी ना के ढर्रे पर चलने वाले रिश्तों का ये पुराना सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया है
भारत और पाकिस्तान की फ़ौज के बीच हाल ही में हुए संघर्षविराम समझौते की ख़बर को भारत-पाकिस्तान संबंधों पर नज़दीक से नज़र रखने वाले कई मंझे हुए विशेषज्ञों ने भी जिस तरह सांस रोके, अति-आशावादी नज़रिए से देखने की कोशिश की है, उसपर हमें सहसा विश्वास नहीं होता. इससे भी ज़्यादा अजीब बात तो ये है कि इस समझौते के बारे में बेहद उम्मीदों के साथ ख़बरें लिखी गईं. अचानक से ऐसा लगने लगा कि दोनों पड़ोसी लेकिन परस्पर विरोधी सोच वाले देशों के बीच कभी हां कभी ना के ढर्रे पर चलने वाले रिश्तों का ये पुराना सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया है. इससे पहले कि कोई ये समझ पाता कि असल में दोनों देशों के बीच हुआ क्या है, जो हुआ है वो क्यों हुआ है और क्या संघर्षविराम की ये ताज़ा कोशिश लंबे समय तक टिक भी पाएगी, कुछ लोगों ने यहां तक कयास लगाने शुरू कर दिए कि कैसे अब दोनों देशों के बीच कूटनीतिक रिश्ते सामान्य हो जाएंगे, सम्मेलन और बैठकों का दौर शुरू हो जाएगा, वगैरह वगैरह. कुछ लोगों ने तो ये उम्मीद भी जतानी शुरू कर दी कि जल्दी ही दोनों देशों के बीच आम जनता के स्तर पर संपर्क बहाल होने लगेंगे. इसे विडंबना ही कहेंगे कि एक तरफ़ तो ख़बरों में ये बताया गया कि केवल कुछ मुट्ठीभर शीर्ष नेताओं को ही इस बात की जानकारी थी कि दोनों देशों के बीच असल में चल क्या रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ तथाकथित ‘वरिष्ठ अधिकारियों’ ने- जिनके बारे में लगभग तय है कि वो इस सारी प्रक्रिया से बाहर ही रहे होंगे- दोनों देशों के मृतप्राय द्विपक्षीय रिश्तों की भावी दशा-दिशा पर चिकनी चुपड़ी बातें करनी चालू कर दीं. वैसे तो ऐसा हो भी सकता है कि जितनी बातों की भविष्यवाणियां की जा रही हैं उनमें से कुछ बातें धरातल पर साकार भी हो जाएं. लेकिन फिर भी मूल सवाल अपनी जगह बरकरार है कि क्या शांति की दिशा में उठाया गया ये ताज़ा कदम लंबे समय तक टिकाऊ रह सकता है.
असल में ज़मीन पर क्या बदला है जिससे कुछ लोगों ने ये सोचना शुरू कर दिया है कि भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में लंबे समय से जमी बर्फ़ पिघलनी शुरू हो गई है? संक्षेप में कहें तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. लेकिन इसके बावजूद लोगों में दोनों पड़ोसी देशों के भावी रिश्तों को लेकर कयासबाज़ियों और किस्सागोई की होड़ सी शुरू हो गई है जो ज़मीनी हक़ीक़त से बिल्कुल परे हैं.
इसे विडंबना ही कहेंगे कि एक तरफ़ तो ख़बरों में ये बताया गया कि केवल कुछ मुट्ठीभर शीर्ष नेताओं को ही इस बात की जानकारी थी कि दोनों देशों के बीच असल में चल क्या रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ तथाकथित ‘वरिष्ठ अधिकारियों’ ने- जिनके बारे में लगभग तय है कि वो इस सारी प्रक्रिया से बाहर ही रहे होंगे- दोनों देशों के मृतप्राय द्विपक्षीय रिश्तों की भावी दशा-दिशा पर चिकनी चुपड़ी बातें करनी चालू कर दीं
ग़ौरतलब है कि दोनों देशों में संघर्ष-विराम को लेकर सहमति तो नवंबर 2003 में ही बन गई थी. हालांकि, इस पर कोई लिखित समझौता नहीं है. इस सहमति पर दोनों देश कैसे पहुंचे इसके पीछे की कहानी पर कभी आगे बात करेंगे. इस वक़्त इतना कहना ही काफ़ी होगा कि संघर्षविराम पर बनी इसी सहमति ने इस्लामाबाद में सार्क सम्मेलन के दौरान वाजपेयी और मुशर्रफ़ के बीच बैठक का रास्ता साफ़ किया था. इसी बैठक ने 2004 से 2008 तक के कालखंड के दौरान शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाया था और इसे लेकर काफ़ी बढ़ चढ़ के बातें की जाती रही हैं. हालांकि, आगे चलकर जब पाकिस्तानी आतंकवादियों ने मुंबई में 26/11 के हमले को अंजाम दिया तब शांति की ये तमाम कोशिशें हवा हो गईं. नवंबर 2003 से नवंबर 2008 तक दोनों ओर से संघर्षविराम का पूरी तरह से पालन किया गया. 26/11 के बाद संघर्षविराम के उल्लंघन की घटनाएं अक्सर सामने आने लगीं. लेकिन ये 2012-13 का कालखंड था जब इन उल्लंघनों में काफी उछाल देखा गया.
जनवरी 2013 में दोनों देशों के डायरेक्टर जनरल ऑफ़ मिलिट्री ऑपरेशंस (डीजीएमओ) के बीच इस तनाव को कम करने पर रज़ामंदी हुई. लेकिन इस समझौते से कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सका. उसी साल दिसंबर में दोनों डीजीएमओ के बीच एक और समझौता हुआ जिसके तहत ”नियंत्रण रेखा की मर्यादा और संघर्षविराम को बनाए रखने” की बात कही गई. लेकिन 2014 के बाद से ही नियंत्रण रेखा पर तनाव में बढ़ोतरी देखी जाने लगी और संघर्षविराम की गाथा फटेहाली की कगार पर पहुंच गई. 2018 में जब दोनों देशों के बीच तनाव चरम सीमा तक पहुंच गया तो डीजीएमओ के स्तर पर एक बार फिर से एक समझौता हुआ. इसमें “2003 में संघर्षविराम पर बनी सहमति को आगे चलकर पूरी तरह से अमल में लाने और दोनों ही देशों द्वारा भविष्य में इसका उल्लंघन नहीं किया जाना सुनिश्चित करने” की बात कही गई. लेकिन ये रज़ामंदी कुछ महीनों से ज़्यादा टिक नहीं पाई. उसके बाद से संघर्षविराम की घटनाएं लगातार दर्ज की जाती रही हैं. साल 2020 में ऐसी 5 हज़ार से भी ज़्यादा घटनाएं दर्ज की जा चुकी हैं.
संघर्षविराम के इस अतीत के मद्देनज़र ये बात समझ से परे है कि इस ताज़ा रज़ामंदी को कोई इतनी ज़्यादा अहमियत कैसे दे सकता है. हालांकि, बात सिर्फ़ संघर्षविराम के अतीत को लेकर नहीं है कि जिसपर संदेह हो. मुद्दा दरअसल ये है कि इस बात के पक्के तौर पर कोई सबूत नहीं हैं कि- जिससे ये लगे कि दोनों देशों के बीच राजनीतिक या सुरक्षा के मोर्चे पर कोई सकारात्मक पहल हुई है. हालांकि, यहां हम खुले तौर पर सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर अपनी बात रख रहे हैं. और सच्चाई तो ये है कि दोनों देशों के बीच के हालात अभी अपने निम्नतम स्तर पर हैं. पाकिस्तान के ‘मनोनीत’ प्रधानमंत्री इमरान ख़ान द्वारा भारत के प्रधानमंत्री श्री मोदी के ख़िलाफ़ खुले तौर पर सिर्फ़ पंजाबी गालियों का इस्तेमाल करना ही बाक़ी रह गया है. उन्होंने मोदी, उनकी सरकार, उनकी पार्टी और यहां तक कि उनके देश के ख़िलाफ़ भी बेहद भद्दी ज़ुबान का इस्तेमाल किया है. इमरान ख़ान से प्रेरणा लेकर उनकी मंडली के बाक़ी लोग (जिनमें उनकी कैबिनेट के मंत्री भी शामिल हैं) तो उनसे भी एक कदम आगे निकल गए हैं. उन्होंने कूटनीति की तमाम मर्यादाओं, लोक-लाज की भावनाओं, संयम और शराफ़त को हवा में उड़ा दिया है. इसका सबसे ताज़ा उदाहरण तो संघर्षविराम की घोषणा के बस एक दिन पहले सामने आया. द्विपक्षीय मुद्दों की तो छोड़ ही दीजिए, पाकिस्तान तो भारत के घरेलू मसलों में भी खुलकर दखलंदाज़ी करता रहा है. फिर चाहे वो किसानों के विरोध-प्रदर्शन का मामला हो या न्यायिक प्रक्रिया का. आमतौर पर शांति प्रक्रिया की शुरुआत में सबसे पहले इस तरह के शिगूफ़े छोड़े जाने की रफ़्तार में कमी आती है लेकिन इस बार ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है.
पाकिस्तान के ‘मनोनीत’ प्रधानमंत्री इमरान ख़ान द्वारा भारत के प्रधानमंत्री श्री मोदी के ख़िलाफ़ खुले तौर पर सिर्फ़ पंजाबी गालियों का इस्तेमाल करना ही बाक़ी रह गया है. उन्होंने मोदी, उनकी सरकार, उनकी पार्टी और यहां तक कि उनके देश के ख़िलाफ़ भी बेहद भद्दी ज़ुबान का इस्तेमाल किया है.
सुरक्षा के मोर्चे पर तो हालात बद से बदतर होते गए हैं. पाकिस्तानी तो अब खुले तौर पर खालिस्तानी आंदोलन को खड़ा करने की कोशिश करते दिख रहे हैं. जम्मू-कश्मीर में रोज़ नए-नए आतंकी संगठन खड़े हो रहे हैं. इनमें से ज़्यादातर तो पुराने आतंकी संगठनों के ही नए रूप हैं. इनके नाम अब पहले से ज़्यादा ‘सेकुलर’ (जैसे रेसिस्टेंस फ्रंट आदि) रखे गए हैं. लगता यही है कि घाटी में सुरक्षा बल इस बार गर्मियों में एक ‘बेहद तनाव भरे माहौल’ का सामना करने वाले हैं. पाकिस्तानी नए-नए तरीकों से आतंकी गतिविधियों की तकनीक सीख और अपना रहे हैं. इन तकनीकों में ड्रोन का इस्तेमाल करना भी शामिल है. ड्रोन के ज़रिए न सिर्फ़ जम्मू-कश्मीर बल्कि पंजाब में भी हथियार गिराए जा रहे हैं. इनके अलावा आतंकियों की घुसपैठ के लिए खुफ़िया सुरंग बनाने और स्टीकी बमों का इस्तेमाल (इन बमों का अभी हाल के हफ्तों में तबाही मचाने के लिए इस्तेमाल हुआ था) किया जा रहा है. सीधे शब्दों में कहें तो पाकिस्तान की आतंकी फ़ैक्ट्री एक बार फिर सक्रिय हो गई है. इस तरह का माहौल द्विपक्षीय रिश्तों को फिर से पटरी पर लाने की दिशा में शायद ही मददगार साबित हो. अगर वाकई इन गर्मियों में भारत के इस केंद्र शासित प्रदेश में माहौल गरम रहता है तो संघर्षविराम पर इसका सीधा असर पड़ना तय है. लिहाज़ा हम कह सकते हैं कि अगर संघर्षविराम समझौते का मकसद माहौल को ठंडा करना है तो ये इस इलाक़े की उभरती परिस्थितियों की ग़लत समझ पर आधारित है.
धरातल पर तमाम नकारात्मक तथ्यों के बावजूद भारत में ऐसे कई लोग हैं जो इस संघर्षविराम के पीछे पाकिस्तानी सेना प्रमुख द्वारा ‘दोस्ती का हाथ बढ़ाया जाना’ देखते हैं. इनमें मीडिया के कई लोग भी शामिल हैं जो शब्दों का हेरफेर करने में महारत रखते हैं. ये लोग पाकिस्तानी सेना प्रमुख की ओर से ‘मनोनीत’ प्रधानमंत्री द्वारा कुछ हफ़्ते पहले कश्मीर एकता दिवस पर अपने शिगूफ़े में नरमी लाने को इसी दिशा का संकेत बता रहे हैं. ये लोग बाजवा और उनके द्वारा मनोनीत किए गए प्रधानमंत्री की बातों का ग़लत आकलन कर उसको बेहद ग़लत तरीके से पेश कर रहे हैं. इससे भी ज़्यादा भयंकर बात ये है कि इन सदाबहार आशावादियों और शब्दों का मकड़जाल बुनने में माहिर कलाकारों ने चुपके-चुपके (अनजाने में ही सही) पाकिस्तान से आ रहे असली संदेशों को अपना मूक अनुमोदन दे डाला है. पाकिस्तान की ओर से आ रहे ये संदेश हैं- कश्मीर छोडने के लिए तैयार रहिए, बातचीत की मेज़ पर आइए ताकि मृतप्राय हो चुके संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को भारत कैसे लागू करे इसपर बातचीत हो सके, और इसके बाद शायद हम आपके साथ अमन-चैन कायम कर सकें-. आख़िरकार, जब बाजवा “जम्मू-कश्मीर की जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप जम्मू-कश्मीर में चले आ रहे पुराने मसले को सुलझाने और इस मानवीय त्रासदी को उसकी तार्किक परिणिति तक लेकर जाने की बात करते हैं“, तब दोस्ती और शांति का हाथ बढ़ाए जाने को लेकर उन्मत्त होने वाले इन लोगों को ये समझ में भी आता है कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख असल में क्या कहना चाह रहे हैं? और बदले में ये लोग किस बात का समर्थन कर रहे हैं?
इसी प्रकार भले ही पीओके में 5फ़रवरी को इमरान खान ने गाली-गलौज वाली भाषा में बात नहीं की लेकिन इसके बावजूद उन्होंने जो कहा वो ये था, “आइये हमारे साथ कश्मीर विवाद सुलझाइए, और इसके लिए जो पहला काम आपको करना होगा वो होगा धारा 370 को फिर से बहाल करना. तब हमसे आकर बात कीजिए और इसके बाद संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के मुताबिक कश्मीरियों को उनका वाजिब हक़ दीजिए.” क्या शब्दों की बाज़ीगरी में माहिर भारतीय मीडिया और अधिकारी वर्ग के लोग, जो इमरान खान के शांति प्रस्तावों और पाकिस्तान द्वारा अपने तेवर में कथित नरमी लाने पर उमंग और उत्साह का प्रदर्शन कर रहे हैं, पाकिस्तान की ओर से कही जा रही इन बातों का अनुमोदन करते हैं?
वैसे तो संघर्षविराम की ओर लौटने में क़ुदरती तौर पर कुछ भी ग़लत नहीं है, लेकिन संघर्ष विराम का ये समझौता बुरी तरह से लिखा गया दस्तावेज़ है. ऐसा लगता है कि इस दस्तावेज़ को उन्हीं लोगों ने लिखा है जो ये समझते हैं कि वाकई बाजवा और इमरान भारत के साथ अमनचैन की बांसुरी बजाने को उत्सुक हैं. ये कतई साफ़ नहीं है कि इस दस्तावेज़ में लिखी उस बात का क्या मतलब निकलता है जहां ये कहा गया है कि “दोनों डीजीएमओ शांति को नुकसान पहुंचाने और हिंसा की ओर ले जाने वाले एक-दूसरे के अहम मुद्दों और चिंताओं पर ध्यान देकर उनका हल करने को लेकर रज़ामंद हैं” क्या ये दस्तावेज़ तैयार करने वाले (ये साफ़ है कि इसे लिखने वाले दोनों डीजीएमओ से ऊपर के लोग हैं) समझते भी हैं कि वो किस बात के लिए तैयार हो रहे हैं ख़ासकर तब जब वो समझौता पत्र में ‘बुनियादी मुद्दों’ की बात शामिल करते हैं? क्या अब दोनों डीजीएमओ पाकिस्तान के लिए ‘बुनियादी मुद्दे’ यानी कश्मीर पर बात करने जा रहे हैं? और उन बातों में “जो शांति भंग कर सकते हैं और हिंसा की ओर ले जा सकते हैं”, इसमें लगभग सारे मसले समा सकते हैं. अगर मकसद सिर्फ़ संघर्षविराम को बहाल करना था तो इस तरह शब्दों के मकड़जाल में उलझने की क्या ज़रूरत थी?
दस्तावेज़ में क्या लिखा गया है इस बात को परे रख दें तो इस समझौते से शायद जो एक अच्छी बात निकल कर सामने आई है वो ये है कि भारत की नागरिक प्रशासन व्यवस्था और पाकिस्तान के फ़ौजी हुक़्मरानों के बीच पर्दे के पीछे बातचीत का एक ज़रिया खुला है.
दस्तावेज़ में क्या लिखा गया है इस बात को परे रख दें तो इस समझौते से शायद जो एक अच्छी बात निकल कर सामने आई है वो ये है कि भारत की नागरिक प्रशासन व्यवस्था और पाकिस्तान के फ़ौजी हुक़्मरानों के बीच पर्दे के पीछे बातचीत का एक ज़रिया खुला है. इमरान ख़ान के विशेष सहायक मोईद युसूफ द्वारा भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से किसी मुलाक़ात की बात को ख़ारिज किया जाना अगर वाकई में सच है तो इसका मतलब यही निकलता है कि भारत की बातचीत पाकिस्तानी फ़ौजी व्यवस्था के किसी शीर्षस्थ शख्स़ से हो रही थी. क्या वो शख्स़ बाजवा थे या उनका कोई टॉप जनरल ये अभी मालूम नहीं है.
लंबे समय तक भारत में ये एक बड़ा मिथक रहा है कि पाकिस्तान फ़ौज के साथ सीधे संपर्क से कामयाबी के दरवाज़े खुल सकते हैं जो वहां की नागरिक प्रशासन के साथ बातचीत से शायद कभी संभव नहीं हैं. हालांकि, जितनी जल्दी ये मिथक टूट जाए भारत के लिए ये उतना बेहतर होगा. हक़ीक़त ये है कि अतीत में पाकिस्तानी फ़ौज के साथ भारत ने कई बार बातचीत की है लेकिन इससे कुछ भी ख़ास हासिल नहीं हो पाया. 2003 का संघर्षविराम और उसके बाद की शांति प्रक्रिया भारत की नागरिक व्यवस्था और पाकिस्तान के फ़ौज के बीच ही हुई थी. लेकिन ये समझौता मुशर्रफ़ के राज में टिक नहीं सका. अमेरिकियों ने तो हमेशा ही पाकिस्तानी फ़ौज से ही बात की है और शायद इसी वजह से उनके पास अफ़ग़ानिस्तान के मोर्चे पर दिखाने के लिए शायद ही कुछ बाकी बचा है. ऐसे में ये एक रहस्य से कम नहीं है कि भारत के लोगों को ये भरोसा कैसे है कि जिस रास्ते पर चलकर अमेरिकी नाकाम रहे हैं उसपर चलकर भारत को कामयाबी मिल जाएगी.
बड़ा सवाल यही है कि संघर्ष विराम के इस समझौते को ठीक-ठीक किस बात से हवा मिली. एक थ्योरी तो यही है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही आमने-सामने वाले हालात को रोकना चाह रहे थे. हालांकि, ये थ्योरी रणनीतिक तौर पर अनाड़ी सोच वाली मालूम होती है. देखा जाए तो ये संघर्षविराम तब सामने आया है जब चीन के साथ भारत के तनाव भरे हालात में नरमी आती दिख रही है. ऐसे वक़्त में सच्चाई ये है कि भारत के सामने पाकिस्तान के साथ तनाव कम करने की कोई तात्कालिक ज़रूरत नहीं थी. दूसरा, अगर आगे कभी भी भारत और चीन के बीच शत्रुता का माहौल और गरम होता है तो पाकिस्तान तुरंत ही चीन के पक्ष में तलवार भांजे खड़ा हो जाएगा. कोई भी समझौता और ख़ासतौर से एक हवा-हवाई संघर्षविराम समझौता भारत की मुश्किलों का लाभ उठाने से पाकिस्तान को रोक नहीं पाएगा. हालांकि, ये बात चीन के साथ लागू नहीं होती. भारत और पाकिस्तान के बीच हालात बिगड़ने की दशा में ये कोई ज़रूरी नहीं है कि चीन पाकिस्तान के हक़ में खड़ा हो ही जाए. हालांकि, पाकिस्तान के मामले में ये बात बिल्कुल तय है कि वो आमने-सामने जंग के हालात को टालना चाहेगा लेकिन फिर भी उसकी ये कोशिश भारत के साथ सामरिक हितों के समझौते की क़ीमत पर नहीं होगी. हक़ीक़त यही है कि किसी भी लिहाज़ से आमने-सामने वाले हालात पाकिस्तान के लिए उतने चिंताजनक भी नहीं होंगे जितने भारत में कुछ लोग सोच या समझ रहे हैं. ऐसे में आमने-सामने जंग की संभावना टालने वाली थ्योरी कोई बहुत ज़्यादा समझदारी वाली नहीं लगती.
एक और थ्योरी जिसकी चर्चा है वो है हर ओर मौजूद ‘अमेरिकी दबाव’. वैसे तो दूर-दूर तक सार्वजनिक तौर पर ऐसी कोई बात दिखाई नहीं देती जो दोनों में से किसी भी देश के ऊपर अमेरिकी ‘दबाव’ की तरफ़ इशारा करती हो. हां, ऐसा हो सकता है कि दोनों ही देश अपनी ओर से बाइडेन प्रशासन के साथ कूटनीति की शुरुआत के तौर पर इस तरह के कदम उठाने पर सहमत हुए हों. अगर सच में यही मामला हो तो ऐसा लगता है कि ये फिलहाल काम कर गया है. अमेरिकी विदेश विभाग ने इस समझौते का स्वागत किया है. इसके साथ ही दोनों देशों से ‘सीधे बातचीत की प्रक्रिया को जारी रखने’ और पाकिस्तान को ‘आतंकवादियों को नियंत्रण रेखा पार कर भारत के ख़िलाफ़ सीधे हमले करने से रोकने’ को कहा है. संघर्षविराम पर राज़ी होकर पाकिस्तान ने ये संकेत देने का प्रयास किया है कि वो जम्मू-कश्मीर में आतंकियों को नहीं भेज रहा. ऐसा कर वो अमेरिका की ओर से किसी भी तरह के दबाव को रोकने में कामयाब होता दिख रहा है. भारत के हिसाब से देखें तो संघर्षविराम से यह स्पष्ट होता है कि वो पाकिस्तान के साथ तनाव कम करने के ख़िलाफ़ नहीं है. इसके साथ ही ये संघर्षविराम जम्मू-कश्मीर के एक परमाणु टकराव वाला क्षेत्र बनने के पाकिस्तानी दावे की भी हवा निकाल रहा है. पाकिस्तान अक्सर इस तरह के दावे करते हुए कहता रहता है कि दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव से परमाणु शक्ति संपन्न दो पड़ोसियों के बीच आसानी से एक बड़ी जंग छिड़ने जैसे हालात बन सकते हैं. इस संघर्षविराम से भारत अमेरिका की ओर से आने वाले ऐसे किसी दबाव की भी पहले से ही काट कर पाया है. काल्पनिक तौर पर देखें तो भारत पर दबाव डालते हुए अमेरिका ये कह सकता था कि भारत को पाकिस्तान के साथ तनाव कम करना चाहिए ताकि वो पश्चिमी मोर्चे यानी अफ़ग़ानिस्तान पर अपना ध्यान केंद्रित कर सके जहां अमेरिका के हित सीधे तौर पर शामिल हैं.
संघर्षविराम पर राज़ी होकर पाकिस्तान ने ये संकेत देने का प्रयास किया है कि वो जम्मू-कश्मीर में आतंकियों को नहीं भेज रहा. ऐसा कर वो अमेरिका की ओर से किसी भी तरह के दबाव को रोकने में कामयाब होता दिख रहा है. भारत के हिसाब से देखें तो संघर्षविराम से यह स्पष्ट होता है कि वो पाकिस्तान के साथ तनाव कम करने के ख़िलाफ़ नहीं है.
वैसे ये बात निश्चित है कि अमेरिका के नज़रिए को भारत और पाकिस्तान ने संघर्षविराम की ताज़ा कोशिशों के दौरान ध्यान में रखा होगा, लेकिन संभवत: यही इस फैसले के पीछे का मुख्य निर्धारक नहीं है. बिना लाग-लपेट के कहें तो अमेरिका के दबाव और प्रभाव की बात अक्सर बढ़ा चढ़ाकर की जाती है. अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की दग़ाबाज़ी के चलते अपने हज़ारों सैनिक गंवा देने वाला अमेरिका जब पाकिस्तान जैसे फटेहाल देश से अपनी बात नहीं मनवा सकता तो वो भारत के संदर्भ में, जिसके साथ पाकिस्तान की शुरू से दुश्मनी रही है, पाकिस्तान पर कुछ ख़ास दबाव डालने की हालत में नहीं दिखता. इसी तरह भारत पर अमेरिका कितना दबाव डाल सकता है इसकी भी एक सीमा है, ख़ासकर तब जब दोनों देशों के बीच सामरिक हित साधने के लिए एक दूसरी बड़ी मछली मौजूद है.
जब तक कि दोनों देशों के बीच पर्दे के पीछे कोई बड़ी सौदेबाज़ी न हुई हो- और जिसकी संभावनाएं काफ़ी कम हैं- तब तक ऐसा नहीं लगता कि ये संघर्षविराम दोनों देशों के फौरी तौर पर उठाए कए सामरिक कदम से इतर कुछ भी अलग है. इसके लंबे समय तक चलने या टिकाऊ बने रहने के आसार काफ़ी कम हैं. भारत के नज़रिए से देखें तो वो संघर्षविराम के इस वक़्त का इस्तेमाल अपने सुरक्षा तंत्र को और शक्तिशाली बनाने में कर सकता है. इसके साथ ही वो अपने बंकरों को और मज़बूत कर सकता है और नियंत्रण रेखा की निगरानी के मोर्चे पर मौजूदा कमियों को दूर सकता है. और तो और ऐसा करते हुए भारत अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से वाहवाही भी हासिल कर सकता है. भारत को इस संघर्षविराम से असल में कोई नुकसान भी नहीं है. भारत जानता है कि ये सिर्फ़ कुछ समय की बात है कि जब पाकिस्तान अपनी उन्हीं पुरानी चालबाज़ियों पर उतर जाएगा और ये ताज़ा संघर्षविराम भी ताश के पत्तों की तरह ढह जाएगा. जब कभी ऐसा होगा तब कोई भी भारत की ओर ऊंगली नहीं उठा सकेगा.
भारत के लिए संघर्षविराम से जुड़ा एकमात्र कमज़ोर पक्ष है इस समझौते से जुड़ी शब्दावली से निकलता संदेश. इसकी लिखावट भारत की पाकिस्तान नीति और लंबे समय से चले आ रहे उसके लचर स्वभाव की ओर इशारा करती है. पाकिस्तानी ये समझते हैं कि भारत के पास दीर्घकाल तक शत्रुतापूर्ण रुख़ बरकरार रखने की ताक़त नहीं है और देर सवेर पाकिस्तान भारत को बातचीत की मेज़ तक लाने में कामयाब हो ही जाएगा. इस अर्थ से देखें तो ये संघर्षविराम हमें फिर से उसी स्थान की ओर धकेल रहा है जहां से हमने चलना शुरू किया था.
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Sushant Sareen is Senior Fellow at Observer Research Foundation. His published works include: Balochistan: Forgotten War, Forsaken People (Monograph, 2017) Corridor Calculus: China-Pakistan Economic Corridor & China’s comprador ...
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