इंडो-पैसिफिक रणनीति के विकास में एक अहम किरदार के तौर पर भारत ने दक्षिण एशिया और उससे आगे चीन के असर का मुक़ाबला करने में ख़ुद को अमेरिका के एक महत्वपूर्ण साझेदार के तौर पर पेश किया है. वैसे तो कई मामलों में भारत और अमेरिका के हित एक जैसे हैं लेकिन चीन को काबू में रखने के लिए नीति सिद्धांतों और उपायों को लागू करने के मामले में मतभेद सामने आए हैं. ये मतभेद ख़ास तौर पर तकनीकी क्षेत्र (टेक सेक्टर) में ज़्यादा हैं.
अमेरिका ने अगस्त 2022 में चिप्स एक्ट को लागू किया और अक्टूबर 2022 में सेमीकंडक्टर सेक्टर में चीन पर अतिरिक्त पाबंदियां लगाई. इसका मक़सद समान विचार वाले देशों को इस बात के लिए तैयार करना था कि वो चीन से जुड़ी पाबंदियों की मुहिम में शामिल हों और साझा तौर पर नेक्स्ट जनरेशन (अगली पीढ़ी) के सेमीकंडक्टर को विकसित करें. जनवरी 2023 में अमेरिका चिप सेक्टर के दो महत्वपूर्ण साझेदारों- जापान और नीदरलैंड के साथ एक समझौते पर पहुंचा. ताइवान की कंपनी TSMC (ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी) को भी बढ़ावा दिया गया कि वो अपना प्रोडक्शन अमेरिका में ले जाए.
हालांकि अगर अमेरिका को चीन के मुक़ाबले ज़्यादा बढ़त हासिल करनी है तो उसे भारत के साथ ज़्यादा असरदार ढंग से भागीदारी करनी चाहिए. भारत का टेक इकोसिस्टम फलता-फूलता और गतिशील (डायनामिक) है. इसमें सेमीकंडक्टर सेक्टर भी शामिल है जिसमें कि बेहद हुनरमंद तकनीकी कामगारों (वर्कफोर्स) और प्रोडक्शन के विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर की ज़रूरत होती है.
इसके अलावा, भारत इस मक़सद में शामिल होने के लिए क्षेत्र के दूसरे देशों को भी आकर्षित कर सकता है. इनमें वो देश भी शामिल हैं जो आम तौर पर लोकतांत्रिक देशों के स्वाभाविक साझेदार माने जाते हैं. मार्च 2023 में अमेरिका की वाणिज्य मंत्री (सेक्रेटरी ऑफ कॉमर्स) जीना रायमोंडो की पांच दिनों की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सेमीकंडक्टर सप्लाई चेन और इनोवेशन पार्टनरशिप की स्थापना के लिए एक मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (MoU या समझौता ज्ञापन) पर दस्तख़त किए. ये भारत-अमेरिका रिश्तों के लिए एक अहम क़दम और दोनों देशों के बीच तकनीकी संवाद (टेक्नोलॉजिकल डायलॉग) में सुधार है.
ये सकारात्मक नतीजा चीन को लेकर नीतियों और कार्रवाई को एक समान करने की पहले की कम सफल कोशिशों से अलग है. चीन को लेकर भारत सरकार के पिछले फ़ैसलों और नीतियों की गहराई से पड़ताल करने पर एक ज़्यादा जवाबी नज़रिए का संकेत मिलता है जबकि एक व्यापक रणनीति अभी भी बहुत दूर है. इसके कई उदाहरण हैं जैसे कि अप्रैल 2020 में पड़ोस के देशों से आने वाले निवेश के लिए सरकार की इजाज़त ज़रूरी करना, जून 2022 में सीमा साझा करने वाले देशों के नागरिकों के लिए भारत में किसी कंपनी का डायरेक्टर बनने के लिए इजाज़त मिलने से पहले सुरक्षा क्लीयरेंस हासिल करना और उसी महीने में चीन के ऐप टिकटॉक पर पाबंदी लगाना जिसके भारत में 20 करोड़ से ज़्यादा यूज़र थे. फिर फरवरी 2023 में भारत ने चीन से जुड़े 232 ऐप और वेबसाइट्स को ब्लॉक करने का आदेश जारी किया.
वैसे तो भारत इनमें से कुछ मामलों में चीन का मुक़ाबला करने में अमेरिका के मुक़ाबले तेज़ था लेकिन भारत के फ़ैसले किसी लंबे समय की रणनीति का हिस्सा नहीं बल्कि चीन के साथ सैन्य संघर्ष का नतीजा थे. इस तरह भारत के इन क़दमों का असर मिला-जुला था. एक तरफ़ तो चीन के निवेश का भारत में स्वागत नहीं है, ख़ास तौर पर तब तक जब तक कि दोनों देश सैन्य संघर्ष में शामिल रहते हैं, दूसरी तरफ़ भारत के द्वारा उठाए गए क़दम द्विपक्षीय व्यापार के लिए रुकावट नहीं बने क्योंकि 2021 के मुक़ाबले 2022 में दोनों देशों के बीच व्यापार में 8.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और ये 136 अरब अमेरिकी डॉलर पर पहुंच गया.
साफ़ तौर पर चीन के साथ व्यापार भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है और सामान्य रूप से इसे बढ़ावा देना चाहिए लेकिन इसके साथ-साथ व्यापार को भारतीय हितों के क्षेत्रों की तरफ़ दिशा देने की ज़रूरत है. भारत को सुरक्षा चिंताओं और एक खुली अर्थव्यवस्था के बीच सही संतुलन की तलाश करने की ज़रूरत है जो चीन के साथ निपटने के लिए एक व्यापक रणनीति की आवश्यकता पर ज़ोर देती है.
एक ज़्यादा सामरिक और व्यवस्थित (सिस्टेमैटिक) नज़रिए को लागू करने के लिए भारत को अपने पुराने पड़ चुके “टू-ट्रैक” निवेश समीक्षा की व्यवस्था को ठीक करना चाहिए और एक मज़बूत फॉरेन इन्वेस्टमेंट स्क्रीनिंग मेकेनिज़्म (विदेश से आने वाले निवेश की परख के लिए व्यवस्था) स्थापित करना चाहिए जो भारत के सामरिक हितों, संवेदनशील तकनीकों और महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे पर ध्यान देगा. वैसे तो ये सुझाई गई व्यवस्था अमेरिका के CIFIUS (कमेटी ऑन फॉरेन इन्वेस्टमेंट इन यूनाइटेड स्टेट्स) की तरह लग सकती है लेकिन इसे पूरी तरह “कॉपी-पेस्ट” नहीं करना चाहिए. साथ ही ये किसी देश के ख़िलाफ़ नहीं होना चाहिए बल्कि इसके बदले सभी विदेशी निवेशकों के लिए साफ़ और बराबर मानदंड (क्राइटेरिया) तय करना चाहिए.
इस तरह की व्यवस्था के पूरी तरह सक्रिय होने से पहले बड़े पैमाने पर सरकारी काम अभी भी करने की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार को तब तक के लिए कई क़दमों पर विचार करना चाहिए. इन क़दमों में शामिल हैं: अलग-अलग ख़तरों जैसे कि जासूसी, विदेशी असर, IP (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी) की चोरी और विदेशी संस्थानों के द्वारा संवेदनशील डेटा तक पहुंच को लेकर सभी सरकारी स्तरों और प्राइवेट सेक्टर में जागरूकता को बढ़ाना. केंद्र सरकार को एक अलग-अलग मंत्रालयों की समीक्षा टीम बनाने की ज़रूरत है जो कि नियमित आधार पर सूचना साझा करेगी और उन निवेश प्रस्तावों पर चर्चा करेगी जो भारतीय अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संभावित रूप से जोखिम हैं. ज़रूरी सूचना केंद्र के स्तर पर नहीं रुकनी चाहिए बल्कि राज्यों तक भी पहुंचनी चाहिए और इसी तरह राज्यों से केंद्र तक भी पहुंचनी चाहिए. समीक्षा टीम सामरिक हितों, संपत्तियों, सेक्टर और तकनीकों की स्पष्ट परिभाषा के आधार पर महत्वपूर्ण निवेश के प्रस्तावों को लेकर अपना आकलन और सिफ़ारिशें मुहैया कराएगी. नियमित तौर पर बैठक करके ये टीम विदेशी निवेशों पर एक राष्ट्रीय डेटा बेस तैयार कर सकती है. इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर मौजूदा रेगुलेटर की चिंताओं को दूर करने में मदद मिलेगी और सेक्टर एवं राज्यों के आधार पर निवेशों के गहराई से विश्लेषण को सुनिश्चित किया जा सकेगा. इसके अलावा भारत सरकार के लिए निवेश के मौजूदा “सरकारी रास्ते” की दिक़्क़तों का समाधान करना महत्वपूर्ण है. संवेदनशील उभरती तकनीकी, सामरिक संपत्तियों और विशेष सेक्टर को प्राथमिकता देकर सरकार काम का बोझ कम कर सकती है और लालफीताशाही को हटा सकती है. इससे बाज़ार में पूंजी निवेश में बेहतरी आएगी.
विकासशील देशों को प्रभावित करना
इस तरह के तालमेल का महत्व सिर्फ़ भारत की संवेदनशील तकनीक और इंफ्रास्ट्रक्चर की सुरक्षा तक सीमित नहीं है बल्कि ये भारत की क्षेत्रीय और वैश्विक ताक़त के प्रदर्शन पर भी असर डाल सकते हैं. चूंकि चीन निवेश और कर्ज़ के ज़रिए अपना असर ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) तक छोड़ता है, ऐसे में भारत को भी चुनौतियों का सामना करने की ज़रूरत है और ख़ुद को एक नेतृत्व करने वाले देश के साथ-साथ लोकतांत्रिक देशों और ग्लोबल साउथ के बीच सेतु के रूप में स्थापित करना होगा. चीन के बारे में एक व्यापक रणनीति इस काम में भारत के लिए मददगार हो सकती है.
ग्लोबल साउथ के कई देश महाशक्तियों के बीच बढ़ते मुक़ाबले, रूस-यूक्रेन संघर्ष और वैश्विक राजनीति में सामान्य तौर पर बंटवारे की वजह से भयंकर तौर पर प्रभावित हुए हैं. इनमें से ज़्यादातर देश किसी एक का पक्ष लेने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं और वो अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने का तरीक़ा तलाश कर रहे हैं. चीन इन देशों को “बिना किसी शर्त” की मदद की पेशकश कर इस स्थिति का फ़ायदा उठा रहा है.
चीन पहले से ही श्रीलंका का सबसे बड़ा विदेशी वित्तीय मददगार है. साथ ही श्रीलंका में राजनीतिक और सुरक्षा के स्तर पर उसका बहुत ज़्यादा असर है. चीन के पास 99 साल के लिए लीज़ पर हंबनटोटा पोर्ट का होना ग्लोबल साउथ के देशों के साथ उसके ग़ैर-बराबरी वाले संबंध को दिखाता है. लेकिन इसके बावजूद श्रीलंका कोलंबो पोर्ट को लेकर चीन के साथ इसी तरह के एक और समझौते को अंतिम रूप देने से नहीं रुका. कोलंबो पोर्ट दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा लॉजिस्टिक कॉम्प्लेक्स है. पिछले दिनों चीन ने शिनजियांग से पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट को जोड़ने वाले महत्वाकांक्षी रेल प्रोजेक्ट को भी फिर से शुरू किया है जिसकी लागत 58 अरब अमेरिकी डॉलर है. नेपाल भी चीन के निवेश के निशाने पर है. इसका मक़सद तिब्बत पर चीन के अधिकार को जताना और नेपाल के साथ भारत की भागीदारी का मुक़ाबला करना है. चीन ने निवेश के लिए बांग्लादेश पर भी निशाना साधा है. चीन ने बांग्लादेश को कई इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए कर्ज़ मुहैया कराया है और पिछले कुछ समय से ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि एक परमाणु प्लांट के लिए रूस को भुगतान करने में बांग्लादेश चीन की करेंसी युआन का इस्तेमाल करेगा. फिर भी बांग्लादेश एक तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है जो कई सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण राष्ट्रीय इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को विकसित कर रहा है और वो चीन पर निर्भरता से अभी काफ़ी दूर है. साथ ही बांग्लादेश दूसरे देशों जैसे कि जापान से भी फंड आकर्षित करने में सफल रहा है.
इन आर्थिक और भू-सामरिक वास्तविकताओं के समय में ये उम्मीद करना कि ग्लोबल साउथ इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में चीन की पहुंच को सीमित करे या चीन के निवेश पर पाबंदी लगाए तो ये सोच ठीक नहीं है. इसके बदले भारत इन देशों को अमेरिका के पूरी तरह या कुछ भी नहीं के नज़रिए या चीन की आर्थिक रूप से लाचार करने वाली सोच का विकल्प मुहैया करा सकता है.
चूंकि भारत का असर लगातार बढ़ रहा है, ऐसे में उसे एक ज़्यादा संतुलित और व्यावहारिक नज़रिया अपनाना चाहिए. साथ ही पारस्परिक हितों पर आधारित सहयोग को बढ़ाना चाहिए. भारत को ग्लोबल साउथ के फ़ायदे वाली साझा परियोजनाओं के लिए दूसरे इंडो-पैसिफिक साझेदारों को भी जोड़ने में सक्षम होना चाहिए. नये क्षेत्रीय संगठन जैसे कि I2U2- जिसमें भारत, इज़रायल, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका शामिल हैं- अलग-अलग क्षेत्रों के बीच जोड़ने वाले और एक धुरी के रूप में भारत की भूमिका के लिए एक ढांचा मुहैया करा सकते हैं. अमेरिका को ग्लोबल साउथ और उससे भी आगे भारत के लिए इस तरह की नेतृत्व करने वाली भूमिका का स्वागत और समर्थन करना चाहिए. एक सक्रिय और स्वतंत्र भारत तेज़ी से बदलते वैश्विक परिदृश्य में एक अहम भूमिका निभा सकता है.
जोसफ़ रोज़ेन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, एशिया मामलों और राष्ट्रीय सुरक्षा के विशेषज्ञ हैं. वो इज़रायल की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के APAC (एशिया-पैसिफिक) और यूरोप-एशिया मामलों के डायरेक्टर रह चुके हैं.
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