Published on Aug 09, 2023 Updated 0 Hours ago

पड़ोसी देशों में बढ़ते वित्तीय संकट के बीच हालात को और बदतर होने से रोकने के लिए भारत को इन देशों के साथ नए आर्थिक कार्यक्रम शुरू करने होंगे.

सामरिक संबंध: भारत अपने दक्षिण एशियाई दोस्तों की मदद के लिए, एक आर्थिक कार्ययोजना का निर्माण करे!
सामरिक संबंध: भारत अपने दक्षिण एशियाई दोस्तों की मदद के लिए, एक आर्थिक कार्ययोजना का निर्माण करे!

वॉशिंगटन में आयोजित जी-20 के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों (FMCBG) की बैठक को संबोधित करते हुए भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ‘अर्थव्यवस्थाओं की सुरक्षा के लिए पूर्व सक्रियता के साथ सामूहिक प्रयासों‘ पर ज़ोर दिया. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टालिना जियॉर्जिवा के साथ मुलाक़ात के दौरान भी उन्होंने चुनिंदा मसलों पर ऐसा ही रुख़ सामने रखा. वित्त मंत्री सीतारमण ने आर्थिक रूप से अस्थिर हो चुके पड़ोसी देश श्रीलंका के लिए कोष मुहैया कराने के कार्यक्रम में तेज़ी लाने की अपील की. ग़ौरतलब है कि आर्थिक मुसीबतों के चलते श्रीलंका की राजनीतिक स्थिरता के सामने बड़ा ख़तरा पैदा हो गया है. 

श्रीलंका के अलावा नेपाल भी विदेशी मुद्रा भंडार में संभावित संकटों से जूझ रहा है. किसी ज़माने में ‘खस्ताहाल’, लेकिन अब मध्यम दर्जे की अर्थव्यवस्था बन चुके बांग्लादेश ने हाल ही में श्रीलंका को कर्ज़ के तौर पर रकम मुहैया कराई है. हालांकि बांग्लादेश ने भी अपनी अर्थव्यवस्था को लेकर कई तरह की चिंताएं जताई हैं. वैसे उसकी हालत श्रीलंका और नेपाल जैसी नहीं है. भूटान और मालदीव जैसे छोटे देशों के सामने भी इसी तरह की चुनौतियां हैं. हालांकि, वहां अब तक संकट के हालात पैदा नहीं हुए हैं.

कोविड-19 के चलते लगे लॉकडाउन, महामारी से निपटने की क़वायद और उससे जुड़े भारी-भरकम ख़र्चे- आर्थिक मोर्चे पर महसूस की जा रही तकलीफ़ों के दो मुख्य कारक हैं. भारत भी समय-समय पर इन मुसीबतों से दो-चार हो रहा है. श्रीलंका के तजुर्बे से साफ़ है कि आंतरिक मोर्चे पर कई अहम कारकों को दशकों तक जड़ें जमाने और फलने-फूलने की छूट दे दी गई.

कोविड-19 के चलते लगे लॉकडाउन, महामारी से निपटने की क़वायद और उससे जुड़े भारी-भरकम ख़र्चे- आर्थिक मोर्चे पर महसूस की जा रही तकलीफ़ों के दो मुख्य कारक हैं. भारत भी समय-समय पर इन मुसीबतों से दो-चार हो रहा है. श्रीलंका के तजुर्बे से साफ़ है कि आंतरिक मोर्चे पर कई अहम कारकों को दशकों तक जड़ें जमाने और फलने-फूलने की छूट दे दी गई. दरअसल, ये विरासती मसले हैं, जिसमें अबतक की हरेक सरकार ने अपनी ओर से तकलीफ़ों का इज़ाफ़ा किया है. इनमें राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे की अगुवाई वाली मौजूदा सरकार भी शामिल है.

कोविड-19 के चलते लगे लॉकडाउन, महामारी से निपटने की क़वायद और उससे जुड़े भारी-भरकम ख़र्चे- आर्थिक मोर्चे पर महसूस की जा रही तकलीफ़ों के दो मुख्य कारक हैं. भारत भी समय-समय पर इन मुसीबतों से दो-चार हो रहा है. श्रीलंका के तजुर्बे से साफ़ है कि आंतरिक मोर्चे पर कई अहम कारकों को दशकों तक जड़ें जमाने और फलने-फूलने की छूट दे दी गई.

बाक़ी दुनिया की तरह ये तमाम देश भी 21वीं सदी में महामारी जैसे हालात के लिए तैयार नहीं थे. हालांकि 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी और 2015 में नेपाल में आए भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के वक़्त भी इन देशों में किसी तरह की तैयारी नहीं थी. बहरहाल शहरी और ग्रामीण आबादी में सोशल मीडिया की समान रूप से घुसपैठ के चलते इन देशों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का स्तर काफ़ी तेज़ी से बढ़ता चला गया है. नतीजतन तीसरी दुनिया से ताल्लुक़ रखने वाले दक्षिण एशियाई देश कर्ज़ से संचालित भारी-भरकम ख़र्चों वाले रास्ते पर चलने लगे. रोज़गार निर्माण के बग़ैर विकास की इस अधूरी यात्रा ने इन देशों के बुनियादी आर्थिक पैमानों को प्रभावित किया है. सबसे बड़ी बात ये है कि इस पूरी क़वायद में कर्ज़ चुकाने की ताक़त जुटाने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.

इन हालातों की श्रीलंका से बेहतर कोई और मिसाल नहीं हो सकती. पिछली राष्ट्रीय एकता सरकार (2015-19) ने पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे (जिनको हाल ही में प्रधानमंत्री का पद छोड़ना पड़ा है) की अगुवाई और युद्ध जीतने वाली पूर्ववर्ती हुक़ूमत पर विवादित हंबनटोटा बंदरगाह और मट्टाला हवाई अड्डा परियोजनाओं के लिए ग़ैर-टिकाऊ क़िस्म के कर्ज़ लेने का इल्ज़ाम लगाया है. हालांकि राष्ट्रीय एकता सरकार ने भी बुनियादी ढांचे से जुड़ी ऐसी ही परियोजनाओं के लिए चीन से भारी-भरकम कर्ज़ उठाया था. ग़ौरतलब है कि हंबनटोटा परियोजना के लिए श्रीलंका की तत्कालीन राष्ट्रपति चंद्रिका भंडारनायके-कुमारतुंगा की हुक़ूमत के दौरान मूल रूप से भारत से रकम मुहैया कराने का अनुरोध किया गया था. तब भारत की ओर से इसको लेकर इशारों में चिंता जताई गई थी. चंद्रिका भंडारनायके एक समय पार्टी की सर्वोच्च नेता और महिंदा की पूर्ववर्ती थीं.

छोटा आकार कामयाबी की गारंटी नहीं       

जो हालात श्रीलंका में दिख रहे हैं वही भारत के ज़्यादातर पड़ोसी देशों में भी हक़ीक़त बनकर सामने खड़े हैं. इनमें चीन से मिलने वाला अव्यावहारिक कर्ज़ भी शामिल है. यहां एक बात ऐसी है जो भारत को तो पता थी लेकिन इन छोटे-छोटे देशों ने कभी खुले तौर पर स्वीकार नहीं की. दरअसल, इन देशों के पास मध्यम और दीर्घकाल में अपने नागरिकों की कुशलता और अपनी अर्थव्यवस्थाओं की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक ‘आकार’ मौजूद नहीं थी. यहीं पर भारत के भौगोलिक आकार, आबादी और अर्थव्यवस्था की अहमियत सामने आती है. 

अगर भारत के पड़ोसी देशों में सोशल मीडिया पर सक्रिय पीढ़ी की आकांक्षाओं और मांग को पूरा करने की बात हो तो लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया और ‘कल्याणकारी आर्थिक तंत्र’ वाले इनमें से किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में वैसी ताक़त नहीं है. इन देशों का अर्थतंत्र इतने बड़े बोझ को सहने के लिए व्यावहारिक तौर पर कतई तैयार नहीं है. 

मिसाल के तौर पर 5 लाख 80 हज़ार की अनुमानित आबादी वाले मालदीव के पास 90 हज़ार वर्ग किमी में फैले अपने जलीय इलाक़े की हिफ़ाज़त करने के लिए न तो पर्याप्त वित्तीय ताक़त है और न ही ज़रूरी मानव संसाधन. इलाक़े में गहराते आर्थिक संकट के बीच सच्चाई को पूरे ज़ोरशोर से बयां करना ज़रूरी है. अगर भारत के पड़ोसी देशों में सोशल मीडिया पर सक्रिय पीढ़ी की आकांक्षाओं और मांग को पूरा करने की बात हो तो लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया और ‘कल्याणकारी आर्थिक तंत्र’ वाले इनमें से किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में वैसी ताक़त नहीं है. इन देशों का अर्थतंत्र इतने बड़े बोझ को सहने के लिए व्यावहारिक तौर पर कतई तैयार नहीं है. 

30-40 साल पहले तक ये तमाम देश तंगहाली के शिकार थे, लेकिन क्षेत्रीय ताक़त के तौर पर उभरे इन देशों को अब आगे ऐसे माहौल में रहना गवारा नहीं. बहरहाल इन देशों के लिए सिंगापुर या दुबई की तरह समृद्ध आर्थिक मॉडल तैयार करना और भी ज़्यादा अव्यावहारिक है. श्रीलंका ने ऐसा ही कारनामा कर दिखाने की उम्मीद पाली थी. इन मंसूबों के साथ चीन की आर्थिक मदद से चल रही बिना ठोस योजना वाली परियोजनाएं जुड़ी थीं. इससे  पिछले दशक में ‘बग़ैर रोज़गार वाले विकास’ का मॉडल सामने आया. घरेलू मोर्चे पर इन हक़ीक़तों का एहसास होने से श्रीलंका जैसे देश को अब चीनी रकम से चलने वाली परियोजनाओं पर पुनर्विचार करने पर मजबूर होना पड़ेगा. इनमें कोलंबो पोर्ट सिटी (CPC) वित्तीय विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) शामिल है. 

टिकाऊपन, आत्मनिर्भरता और आगे की क़वायद

सवाल उठता है: इन अर्थव्यवस्थाओं को कारगर बनाने के लिए क्या किए जाने की ज़रूरत है? वैसे तो निवेश और सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले ख़र्चे में भारी-भरकम कटौती काग़ज़ पर अच्छी दिखती है लेकिन इसकी सामाजिक-राजनीतिक लागत और नतीजे के तौर पर पैदा हुई क्षेत्रीय अस्थिरता का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता. पहले से ही इस तरह के संकेत दिखने लगे हैं. दरअसल असली इलाज अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने और अपने पांव पर खड़े होकर टिकाऊ बनने के तरीक़े ढूंढने में है. 

सौ बात की एक बात ये है कि इलाक़े की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर खड़ा करने की कोई भी क़वायद भारत को केंद्र में रखकर शुरू की जानी चाहिए. सियासी नहीं बल्कि आर्थिक वजहों से ऐसी पहल की दरकार है. हालांकि इस रास्ते पर चलने के लिए फ़िलहाल पाकिस्तान और तालिबानी क़ब्ज़े वाले अफ़ग़ानिस्तान को इन क़वायदों से बाहर रखना होगा. 

सौ बात की एक बात ये है कि इलाक़े की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर खड़ा करने की कोई भी क़वायद भारत को केंद्र में रखकर शुरू की जानी चाहिए. सियासी नहीं बल्कि आर्थिक वजहों से ऐसी पहल की दरकार है. हालांकि इस रास्ते पर चलने के लिए फ़िलहाल पाकिस्तान और तालिबानी क़ब्ज़े वाले अफ़ग़ानिस्तान को इन क़वायदों से बाहर रखना होगा. ख़ासतौर से अफ़ग़ानिस्तान को इससे दूर रखना बेहद ज़रूरी है. दरअसल इस इलाक़े में सार्क की तरह सियासी गतिरोध का शिकार बन चुके किसी दूसरे तजुर्बे की कोई गुंजाइश नहीं है. दक्षिण/दक्षिण पूर्व एशिया के हाइब्रिड मॉडल के तौर पर बिम्स्टेक भी इस काम के लिए मुनासिब नहीं है. दरअसल इसमें क्षेत्रीय और आर्थिक तवज्जो और रफ़्तार का अभाव है.

भारत दक्षिण एशिया के दोस्ताना मुल्कों के साथ एक नए आर्थिक और मौद्रिक संघ पर विचार कर सकता है, जिसकी परिकल्पनाएं और कार्ययोजनाएं स्पष्ट हों. एक लंबे अर्से से श्रीलंका और मालदीव सार्क मौद्रिक संघ और एक साझा करेंसी की मांग उठाते रहे हैं. ईरान पर अमेरिकी पाबंदियों के बाद दोनों ही देश वहां से तेल आयात के लिए भारतीय रुपए में भुगतान करना चाहते थे. ख़ुद भारत ने भी उस वक़्त यही विकल्प चुना था. 

कार्यक्रम और संस्थाएं

कार्यक्रमों और संस्थाओं के हिसाब से कथनी के मुक़ाबले करनी कहीं ज़्यादा मुश्किल है. सबसे पहली बात तो यही है कि भारत को ये फ़ैसला करना होगा कि वो ऐसी किसी क़वायद का हिस्सा बनना चाहता है या नहीं. उसके बाद सवाल आता है कि क्या वो औपचारिक या अनौपचारिक रूप से ऐसा क्षेत्रीय मंच चाहता है या फिर एक क्षेत्रीय स्वरूप वाले ढांचे के तहत द्विपक्षीय क़वायदों को ही आगे बढ़ाना पसंद करता है. हो सकता है कि भारत ‘छोटे देशों की गुटबंदी’ वाली क़वायद से परहेज़ करना चाहे क्योंकि यही कारक सार्क के लिए अभिशाप बन गया है.

बहरहाल, इन देशों में अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में एक-दूसरे के यहां निवेश की ज़रूरत और संभावनाएं मौजूद हैं. इसे अर्थव्यवस्थाओं को खोलने की क़वायद के ज़रिए हासिल किया जा सकता है. इस कड़ी में भारत को अपने श्रम बाज़ार भी खोलने होंगे. हालांकि ऐसी किसी क़वायद से पहले या उसके साथ-साथ कौशल के स्तर को ऊंचा उठाने की पहल की भी दरकार होगी. मिसाल के तौर पर श्रीलंका ने युद्ध के बाद के कालखंड में कौशल विकास की जुगत लगाई थी लेकिन भारत की बड़ी आईटी कंपनियों और कृषि विज्ञानियों द्वारा अपने प्रस्ताव वापस ले लिए जाने से श्रीलंका की ये पहल नाकाम हो गई. दरअसल दक्षिणी तमिलनाडु (जहां इन तमाम कंपनियों के अपने-अपने कारोबारी हित हैं) में प्रतिकूल राजनीतिक प्रतिक्रिया के चलते इन कंपनियों ने ये फ़ैसला लिया था. हालांकि अब परिस्थितियां बदल गई हैं. 

भारत के पास इन क्षेत्रीय देशों के विनिर्माण, कृषि और सेवा क्षेत्र के उत्पादों/वस्तुओं की खपत के लिए बाज़ार मौजूद है. हालांकि 1998 के द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते (FTA) के प्रतिकूल प्रभावों से सबक़ लेते हुए इन तमाम देशों को ऐसे विपरीत हालातों के लिए पहले से तैयारी कर लेनी होगी.

भारत के पास इन क्षेत्रीय देशों के विनिर्माण, कृषि और सेवा क्षेत्र के उत्पादों/वस्तुओं की खपत के लिए बाज़ार मौजूद है. हालांकि 1998 के द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते (FTA) के प्रतिकूल प्रभावों से सबक़ लेते हुए इन तमाम देशों को ऐसे विपरीत हालातों के लिए पहले से तैयारी कर लेनी होगी. मिसाल के तौर पर श्रीलंका की चाय, रबर और नारियल तेल के लिए भारतीय बाज़ारों को खोल दिए जाने से तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों में सामाजिक-आर्थिक तूफ़ान खड़ा हो गया था. हालांकि इन प्रतिक्रियाओं को कभी भी खुलकर स्वीकार नहीं किया गया.

श्रीलंका की एक के बाद एक तमाम सरकारों ने युद्ध काल के बाद 2012 के समझौते पर कोई क़दम नहीं उठाया. इस समझौते में पूर्वी त्रिंकोमाली में भारतीय दवा उद्योग के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र की स्थापना की बात थी. साफ़ है कि अगर ये क़वायद कामयाब हो जाती तो श्रीलंका में ज़बरदस्त विदेशी मुद्रा संकट के चलते आयातित दवाइयों की किल्लत से जुड़े मौजूदा हालात टाले जा सकते थे. इतना ही नहीं ये आयातित दवाइयों के मुक़ाबले बेहद सस्ती दरों पर उपलब्ध होतीं. साथ ही स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार के अवसर भी पैदा होते. 

श्रीलंका को भी इसी तरह की शिकायतें रही हैं. दरअसल उनके कारोबारियों और निवेशकों को भारत में केंद्र और संबंधित राज्यों के दोहरे स्तरों पर अनेक एजेंसियों से निपटना होता है. कुछ मामलों में उनके तजुर्बों और ज़्यादातर काल्पनिक आशंकाओं के चलते द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते का दर्जा ऊंचा उठाकर उसे CEPA (2008) और ECTA (2016) में तब्दील करने की क़वायदों को बार-बार बीच रास्ते में ही छोड़ना पड़ा है. इन वर्षों में श्रीलंका में अलग-अलग सरकारों का दौर रहा. इत्तेफ़ाक़ की बात है कि ECTA पर वार्ताएं उस कालखंड में आयोजित हुई थीं जब निर्मला सीतारमण वाणिज्य मंत्रालय का कामकाज संभाल रही थीं. 

जी का जंजाल

बहरहाल, भारत की क़वायद चुनिंदा पड़ोसी देशों पर केंद्रित औपचारिक या अनौपचारिक आर्थिक और मौद्रिक संघ की योजना बनाने या उसके प्रारूप (जैसे द्विपक्षीय या बहुराष्ट्रीय) पर फ़ैसला करने के साथ ही ख़त्म नहीं होगी. दरअसल, इनमें से हरेक देश के घरेलू सियासी समीकरण में भारत-विरोधी पटकथाओं के कारक शामिल हैं. इन शिगूफ़ों में मौजूदा क़वायदों को आज या कल बेपटरी करने की क्षमता मौजूद है. 

भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ अस्थिर आर्थिक रिश्तों को लेकर आगे नहीं बढ़ सकता. न ही वो अपने पड़ोसियों की दिक़्क़तों को अवास्तविक बताकर इन हक़ीक़तों को झुठला सकता है.

मालदीव में ये क़िस्सा साफ़-साफ़ दिखाई देता है. वहां पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की अगुवाई वाले विपक्षी कुनबे के ‘इंडिया आउट‘ अभियान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियां बटोरी हैं. श्रीलंका में गहराते  ज़बरदस्त आर्थिक संकट के बीच भी विपक्ष की अलग-अलग पार्टियों ने भारत की आर्थिक मदद से चल रही परियोजनाओं पर सवाल उठाने से गुरेज़ नहीं किया. नेपाल और भूटान में भी हालात इससे अलग नहीं हैं. बांग्लादेश में भारत को मध्यम और दीर्घकाल के लिए योजना बनानी है. वहां प्रधानमंत्री शेख़ हसीना की दोस्ताना सरकार से आगे के कालखंड के लिए भारत को अभी अपनी योजना तैयार करनी है. 

भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ अस्थिर आर्थिक रिश्तों को लेकर आगे नहीं बढ़ सकता. न ही वो अपने पड़ोसियों की दिक़्क़तों को अवास्तविक बताकर इन हक़ीक़तों को झुठला सकता है. इसके पीछे हमेशा आर्थिक कारक ही नहीं होते. घरेलू मोर्चे पर अनिश्चित राजनीतिक परिस्थितियों के चलते द्विपक्षीय आर्थिक रिश्तों का स्वभाव अस्थिर बना रहता है. आने वाले सालों और दशकों में पड़ोसी देशों के लिए उनकी सरज़मीं पर या भारत के अंदर रकम मुहैया कराने, परियोजनाएं चलाने या नौकरियां उपलब्ध कराने की बजाए ये तमाम परेशानियां भारत की चिंताओं का सबब बनी रहेंगी. 

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