Author : Swati Prabhu

Published on Jul 14, 2023 Updated 0 Hours ago
इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भारत: वित्तीय खाई को पाटने की कोशिश!

सतत विकास के लिए वित्तपोषण 2023 विषय पर हाल ही में जारी की गई यूनाइटेड नेशन्स इंटर एजेंसी टास्क  फोर्स रिपोर्ट वर्तमान में दो वजहों से ख़ास तौर पर बेहद प्रासंगिक है. सबसे पहला कारण यह है कि ये रिपोर्ट बड़ी आर्थिक खाई या कहा जाए कि वित्तीय विभाजन की चेतावनी देती है, जो धीरे-धीरे असंतुलित विकास या विकास से जुड़ी खाई में तब्दील होती जा रही है. ज़ाहिर है कि कोरोना महामारी के बाद के हालातों के मद्देनज़र पूरे विश्व में वित्तपोषण और उसकी वजह से सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में ख़ासा अंतर देखा जा रहा है. दूसरा कारण यह है कि ये वित्तीय घाटा संभावित रूप से लंबी अवधि में सतत विकास विभाजन में रूपांतरित हो सकता है. ज़ाहिर तौर पर इसके उचित कारणों में से एक सतत विकास लक्ष्य के लिए पूंजी की मांग और मौज़ूदा वित्त पोषण  तंत्र के बीच बढ़ता असंतुलन है, जैसे कि ऑफिशियल  डेवलपमेंट असिस्टेंस  (ODA) यानी आधिकारिक विकास सहायता. स्थिरता को लेकर लगातार बढ़ती चुनौतियों और लंबे वक़्त से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध के आर्थिक प्रभावों के कारण स्वाभाविक रूप से विकास के लिए वित्तपोषण को नुक़सान झेलना पड़ा रहा है. ऊर्जा और खाद्य पदार्थों की बढ़ती क़ीमतें, घरेलू इनकम में धीमी बढ़ोतरी और डांवाडोल  वित्तीय हालात, वैश्विक अर्थव्यवस्था पर रूस-यूक्रेन युद्ध के कुछ प्रमुख दुष्परिणाम हैं. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के मुताबिक़ एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में भारत और चीन की इकोनॉमी में 2023 में बढ़ोतरी होने की उम्मीद है, जो अगले साल वैश्विक GDP की लगभग तीन-चौथाई वृद्धि होगी. ऐसे परिस्थितियों में आधिकारिक विकास सहायता या फिर विकास साझेदारियां अहम हो जाती हैं. इंडो-पैसिफिक जैसे महत्त्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्रों में साउथ की अगुवाई वाली साझेदारियों को प्रमुखता मिलते देखते हुए, विकास सहयोग को सकारात्मक तरीक़े से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. जैसा कि महसूस किया गया है कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट लंबी अवधि में विकास सहयोग को बढ़ाने पर बल देती है. लेकिन यह सच्चाई है कि संकट के दौर में काउंटरसाइक्लिकल संसाधन के रूप में पहचाने जाने वाले संसाधन यानी ऐसे संसाधन जो उन तौर-तरीक़ों का पालन नहीं करते हैं, जिनका सामान्य परिस्थितियों में पालन किया जाता है, और कमज़ोर समुदायों के लिए विकास सहयोग तक पहुंच हालांकि, सहज नहीं है. यह कोविड-19 महामारी के दौरान ही साफ तौर पर ज़ाहिर हो गया था, जब कई कम विकसित अर्थव्यवस्थाएं (LDCs) ख़राब सामाजिक और संस्थागत स्थितियों की वजह से ऋण ज़ोख़िमों में दोबारा से फंस गईं. आधिकारिक विकास सहायता तक पहुंच के जो मानदंड हैं, उन्हें बदलने की ज़रूरत पर भी बहस चल रही है, इसमें प्रति व्यक्ति आय भी एक पहलू है, लेकिन भेद्यता के परिदृश्य को ध्यान में रखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है.

आधिकारिक विकास सहायता तक पहुंच के जो मानदंड हैं, उन्हें बदलने की ज़रूरत पर भी बहस चल रही है, इसमें प्रति व्यक्ति आय भी एक पहलू है, लेकिन भेद्यता के परिदृश्य को ध्यान में रखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है.

इंडो-पैसिफिक में एसडीजी वित्तपोषण की ज़रूरत

देखा जाए तो वैश्विक अर्थव्यवस्था तेज़ी से इंडो-पैसिफिक रीजन के आसपास सिमट रही है, ऐसे में एक ठोस विकास एजेंडे के निर्माण पर चर्चा-परिचर्चाओं में इस क्षेत्र में स्थित छोटे द्वीपीय विकासशील देशों (SIDS) को शामिल करने की सख़्त ज़रूरत है. विकास से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण  चुनौतियों से निपटने में उपायों की कमी और ये कमज़ोर समुदाय, महामारी के बाद के समय में स्थाई रिकवरी सुनिश्चित करने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं. इकोनॉमिक एंड सोशल कमीशन फॉर एशिया एंड दि पैसिफिक (ESCAP) 2019 के अनुमान के मुताबिक़ महामारी से पहले के समय में इस क्षेत्र की SDG से संबंधित निवेश की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सालाना 1.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर या फिर प्रति वर्ष जीडीपी के क़रीब 5 प्रतिशत के बराबर राशि का अनुमान लगाया गया था. हालांकि कोरोना महामारी ने इन आंकड़ों को प्रभावित करने का काम किया, क्योंकि सामाजिक सुरक्षा, हेल्थ केयर , रोज़गार और ग़रीबी से निपटने आदि में सरकारी ख़र्च पर दबाव काफ़ी बढ़ गया था. नतीज़तन सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी के साथ-साथ सरकारी राजस्व में व्यापक गिरावट दर्ज़ की गई.

सच्चाई यह है कि कोविड-19 महामारी ने इन मौज़ूदा चुनौतियों को और बढ़ा दिया है. कोरोना महामारी ने सभी महाद्वीपों में वैश्विक आबादी के ज़्यादातर हिस्से को प्रभावित किया है और यहां स्थित देशों की सरकारें एवं संस्थाएं इसके विनाशकारी सामाजिक व आर्थिक दुष्प्रभावों से निपटने के लिए संघर्ष कर रही हैं.

हिंद-प्रशांत क्षेत्र भौगोलिक विस्तार के रूप में दुनिया के आर्थिक एवं भू-राजनीतिक केंद्र के तौर पर उभरा है. इस क्षेत्र में विश्व की लगभग 65 प्रतिशत आबादी निवास करती है. इतना ही नहीं इस क्षेत्र की वैश्विक GDP में हिस्सेदारी 63 प्रतिशत और विश्व व्यापार में हिस्सेदारी लगभग दो-तिहाई है. हालांकि इस पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र को अपने आकार एवं भूगोल की वजह से विभिन्न प्रकार की साझा विकास चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन आमतौर पर देखा जाए तो जब भी इंडो-पैसिफिक को लेकर चर्चा होती है, तो सिर्फ़ यहां के सुरक्षा हालातों को लेकर ही बात की जाती है, अन्य मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं की जाती है. सच्चाई यह है कि कोविड-19 महामारी ने इन मौज़ूदा चुनौतियों को और बढ़ा दिया है. कोरोना महामारी ने सभी महाद्वीपों में वैश्विक आबादी के ज़्यादातर हिस्से को प्रभावित किया है और यहां स्थित देशों की सरकारें एवं संस्थाएं इसके विनाशकारी सामाजिक व आर्थिक दुष्प्रभावों से निपटने के लिए संघर्ष कर रही हैं. इतना ही नहीं, महामारी के बाद उपजे हालातों ने सतत विकास लक्ष्यों की प्रगति को भी पीछे धकेल दिया है. इस क्षेत्र के लिए अहम आपूर्ति श्रृंखलाओं की लंबे समय तक रक्षा करना, द्वीप समुदायों के बीच लचीलापन स्थापित करने की बढ़ती ज़रूरत, ऊर्जा की बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा में संक्रमण आदि कुछ महत्त्वपूर्ण विकास लक्ष्य हैं.

इंडो-पैसिफिक में भारत की विकास साझेदारियां

यह देखते हुए कि किस प्रकार से विकास सहयोग ने हाल-फिलहाल में वैश्विक स्तर पर ज़बरदस्त ध्यान आकर्षित किया है, इंडो-पैसिफिक रीजन में कई साझेदारियां अस्तित्व में आई हैं या फिर तमाम साझेदारियों होने वाली हैं. इसको ‘डेवलपमेंट डिप्लोमेसी’ यानी ‘विकास कूटनीति’ के दृष्टिकोण से भी समझा जा सकता है. इस बात को ‘मानव-केंद्रित वैश्वीकरण’ प्राप्त करने के नज़रिए से सहयोगी विकासशील देशों के साथ विकास के अनुभवों को साझा करने के एक माध्यम के रूप में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बार-बार दोहराया है. ज़ाहिर है कि एक विकासशील देश के रूप में भारत का विकास साझेदारी मॉडल पश्चिमी देशों की तुलना में अलग है. ‘साझा समृद्धि’ और ‘पारस्परिक विकास’ की अवधारणा पर चलते हुए, भारत की साझेदारियां भागीदार देशों की ज़रूरतों के प्रति ज़्यादा संवेदनशील हैं. इससे इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में संभावित रूप से एजेंडा 2030 के लिए अतिरिक्त निवेश की ज़रूरत को पूरा करने में सहायता मिल सकती है.

भारत अपनी G20 अध्यक्षता कार्यकाल का आधा सफर पूरा कर चुका है, उसे सतत विकास लक्ष्य वित्तपोषण की खाई को पाटने के लिए इंडो-पैसिफिक रीजन में अपनी संलग्नता बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए.

इंडो-पैसिफिक में देखा जाए तो भारत का विकास सहयोग पैसिफिक आइलैंड  देशों (PICs) की ओर काफ़ी मज़बूती के साथ झुका हुआ है. फोरम फॉर इंडिया-पैसिफिक आइलैंड्स कोऑपरेशन (FIPIC) की तीसरी समिट की सह-मेजबानी के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी की पापुआ न्यू गिनी की हाल ही में हुई यात्रा इसका एक प्रमुख उदाहरण है. विकास सहयोग को प्रोत्साहित करते हुए भारत ने हेल्थ केयर  एवं फार्मास्यूटिकल्स , डिजिटल टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देने, SME सेक्टर को बढ़ावा देने, क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण के क्षेत्रों में सहयोग प्रदान करते हुए 12-स्टेप की कार्य योजना शुरू की है. त्रिकोणीय सहयोग के प्रावधानों के अंतर्गत फिज़ी में क्षमता निर्माण एवं हेल्थकेयर को प्रोत्साहित करने के लिए भारत अमेरिका के साथ मिलकर कार्य कर रहा है. वर्ष 2019 में शुरू किए गए इंडो-पैसिफिक ओसीन्स इनीशिएटिव्स (IPOI) के ज़रिए भारत का मकसद ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर आपदा ज़ोख़िम कम करने एवं प्रबंधन के क्षेत्रों में काम करने का है. इसके साथ ही कनेक्टिविटी, व्यापार और समुद्री परिवहन एवं क्षमता निर्माण और संसाधन साझाकरण आदि क्षेत्रों में भी ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर काम करना है. ज़ाहिर है कि ऐसे में जबकि भारत अपनी G20 अध्यक्षता कार्यकाल का आधा सफर पूरा कर चुका है, उसे सतत विकास लक्ष्य वित्तपोषण की खाई को पाटने के लिए इंडो-पैसिफिक रीजन में अपनी संलग्नता बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए. इसके अलावा, इंडो-पैसिफिक में भविष्य के विकास मार्गों का निर्माण करना, भारत की विकास सहयोग सूची में सम्मलित होना चाहिए. वास्तव में देखा जाए तो भारत के लिए अपनी एक्ट ईस्ट पॉलिसी पर दोबारा से विचार करने और इसे एक्ट इंडो-पैसिफिक पॉलिसी में बदलने का अनुकूल वक़्त आ गया है.


 स्वाति प्रभु ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमी (CNED) में एसोसिएट फेलो हैं.

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