Published on Sep 08, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत-यूरोपीय संघ सहयोग की बढ़ती गहराई के साथ ही यह बेहद जरूरी है कि दोनों पक्ष व्यापक मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय क्षेत्र के साथ अपने रिश्ते पुनर्जीवित करे

भारत-यूरोपीय संघ का सहयोग: मध्य एवं पूर्वी यूरोप की अनदेखी का त्याग

शीतयुद्ध के कालखंड में, भारत और मध्य एवं पूर्वी यूरोप (सीईई) में ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध थे. भारत और पूर्वी सोवियत संघ की नज़दीकियों की वजह से, साम्यवादी शासन वाले मध्य एवं पूर्वी यूरोप के समाजवाद पर यकीन रखने वाले भारत के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते थे. सीईई देशों द्वारा भारत को सैन्य उपकरणों की आपूर्ति, इस्पात कारखानों और बिजली संयंत्र के निर्माण में सहयोग और राजनीतिक समर्थन देने से यह बात प्रत्यक्ष भी हो जाती है. सोवियत संघ के विघटन के बाद, भारत और सीईई के बीच व्यापारिक और राजनीतिक संबंधों में नया मोड़ आया क्योंकि भारत का फोकस पश्चिमी यूरोप की तरफ ज्य़ादा हो गया. हालांकि, पिछले दो दशकों में, भारत ने यूरोप में निवेश और व्यापारिक संबंधों को बढ़ाने के प्रयास किये हैं.

भारत की कार्यप्रणाली में सुधार

शीतयुद्ध के समय के बाद, जब भारत ने यूरोप के साथ कार्य शुरू किया, तो उसमें महाद्वीप का पश्चिमी उपक्षेत्र प्रमुख था. इसमें फ्रांस, जर्मनी और यूके जैसे ‘पुराने यूरोप’ के ताकतवर देशों के साथ ही ब्रसेल्स केंद्रित यूरोपीय संघ शामिल था. भारत ने लंबे समय तक, मध्य एवं पूर्वी यूरोप के साथ बेहतर रिश्तों की व्यापक संभावनाओं को नजरअंदाज़ किया. इस चूक का एक बड़ा कारण सोवियत संघ के विघटन के अलावा यह भी था कि 1990 की शुरुआत में भारत उदारवादी बाजार अर्थव्यवस्था ओर चल पड़ा था. हालांकि- 21वीं सदी के अवसरों के बीच, भारत और विसेग्राड समूह ने, जिसे वी- 4 देशों के नाम से भी जाना जाता है (चेक गणराज्य, पोलैंड, हंगरी, स्लोवाकिया), अपने संबंधों को दोबारा बेहतर किया है. आखिरकार यह वो देश हैं जो यूरोपीय संघ में सबसे तेज़ उभरने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं. कुल 529 बिलियन यूरो जीडीपी के साथ पोलैंड, यूरोपीय संघ की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. साल 1992-2019 के बीच, इस देश की विकास की रफ्त़ार निरंतर रूप से सालाना 4.2 प्रतिशत रही.  2020 के यूरोपीय संघ आयोग के आर्थिक विकास अनुमान के मुताबिक, पोलैंड, हंगरी, चेक गणराज्य और स्लोवाकिया का विकास, 4.1 प्रतिशत, 4.6 प्रतिशत, 2.7 प्रतिशत और 2.5 प्रतिशत की दर से होने की उम्मीद है.

भारत ने लंबे समय तक, मध्य एवं पूर्वी यूरोप के साथ बेहतर रिश्तों की व्यापक संभावनाओं को नजरअंदाज़ किया. इस चूक का एक बड़ा कारण सोवियत संघ के विघटन के अलावा यह भी था कि 1990 की शुरुआत में भारत उदारवादी बाजार अर्थव्यवस्था ओर चल पड़ा था. 

सीईई में, वी-4 पर केंद्रित भारतीय दृष्टिकोण ने, न सिर्फ़ व्यापारिक संपर्कों का दोबारा आकलन किया, बल्कि इस क्षेत्र में हुई कम यात्राओं की गलती सुधारने के भी प्रयास किये. 2019 में 32 साल के लंबे अंतराल के बाद भारतीय विदेश मंत्री ने वॉरसॉ का दौरा किया. उन्होंने बुडापेस्ट की यात्रा भी 6 साल बाद की थी. हालांकि, इस उपक्षेत्र के परिवर्तन का मतलब न सिर्फ़ राजनीतिक और व्यापारिक लेन-देन का विस्तार था, बल्कि भारत और सीईई के बीच तालमेल को विभिन्न स्तर पर नवीकृत करना भी था. उदाहरण के लिए वी-4 और पूर्वी यूरोपियन देशों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के लिए स्थायी सीट का स्पष्ट रूप से समर्थन किया है. विसेग्राड समूह ने भी नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह (न्यूक्लीयर सप्लायर ग्रुप) में भारत की सदस्यता का समर्थन किया है.

नया तालमेल और सहयोग

चेक गणराज्य के साथ व्यापारिक रिश्तों में तब और भी तेज़ी आयी जब भुगतान को फ्रीली कन्वर्टिबल करेंसी या सुगमता से बदले जाने वाली मुद्रा में बदला गया.  ऐसा 1996 में द्विपक्षीय निवेश संवर्धन समझौते (बीआईपीए) पर हस्ताक्षर के बाद हुआ है. चीन के साथ उभरते मतभेद, रूसी संघ के साथ अनुमोदन और वैश्विक स्तर पर भारत के बढ़ते प्रभाव के कारण, हाल ही में प्राग ने भारत को भी उन 12 देशों में शामिल किया है जिनके साथ रिश्ते गहरे करना उसकी प्राथमिकता है. इससे भी बढ़कर, भारत और चेक गणराज्य रक्षा क्षेत्र में अपने संबंधों को बढ़ा रहे हैं. नई दिल्ली ने प्राग की रक्षा कंपनियों को, नेक्स्ट जेनरेशन टेक्नोलॉजी में एक महत्वपूर्ण पार्टनर के तौर पर संयुक्त उद्यम स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया है. इसके अलावा, चेक गणराज्य स्थित पीबीएस ने 2020 में भारत में विमान इंजन के उत्पादन के अनुबंध पर हस्ताक्षर किये. विभिन्न क्षेत्रों की प्रमुख भारतीय कंपनियां चेक गणराज्य में अपनी छाप छोड़ने में सफल रही हैं. इंफोसिस, अशोक लीलैंड, ग्लेनमार्क फार्मास्यूटिकल्स और लॉयड इलेक्ट्रिक और इंजीनियरिंग लिमिटेड कंपनियां इसके कुछ उदाहरण हैं.

1947 के बाद, हंगरी वॉरसॉ पैक्ट के उन अग्रणी देशों में शामिल था जिसने भारत के साथ राजनीतिक और व्यापारिक रिश्तों पर ज़ोर दिया. हालांकि, व्यावसायिक संबंधों को घनिष्ठ करने की कोशिशें कई अवसरों पर विफल हो गईं

1947 के बाद, हंगरी वॉरसॉ पैक्ट के उन अग्रणी देशों में शामिल था जिसने भारत के साथ राजनीतिक और व्यापारिक रिश्तों पर ज़ोर दिया. हालांकि, व्यावसायिक संबंधों को घनिष्ठ करने की कोशिशें कई अवसरों पर विफल हो गईं. भारत में आर्थिक उदारीकरण और हंगरी में लोकतांत्रिक परिवर्तन के बाद ही दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों को प्रोत्साहन मिल सका. साल 2015 तक, हंगरी के विदेश और व्यापार मंत्री इस बात को लेकर आश्वस्त हुए कि द्वीपक्षीय आर्थिक सहयोग, विकास के बेहद गतिशील चरण में प्रवेश कर सकेगा और इस भरोसे की वजह हंगरी में भारतीय कंपनियों की मजबूत उपस्थिति थी और बुडापेस्ट ने नई दिल्ली को प्राथमिकता वाला भागीदार करार दिया. नई दिल्ली-बुडापेस्ट के बीच व्यापारिक संबंध लगातार नई ऊंचाइयां छू रहे हैं (जो 2020 में 750 मिलियन यूएस डॉलर आंकी गई) और भारतीय कंपनियां जैसे टीसीएस, जेनपैक्ट, सन फार्मा, क्रॉम्पटन ग्रीव्स, एसएमआर और ओरियॉन हंगरी में प्रमुख निवेशक हैं. 2014-2015 के बीच, अपोलो टायर्स और एसएमपी समूह भी हंगरी की ग्रीनफील्ड परियोजनाओं में सबसे बड़े निवेशक थे.

इसी तरह, भारत ने 1954 की शुरुआत में पोलैंड के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किये. हालांकि, 2014 में इस रिश्ते को नई उपलब्धि हासिल हुई जब नई दिल्ली और वॉरसॉ ने अपने राजनयिक संबंधों की 60वीं वर्षगांठ मनाई. पोलैंड ने चीन के बाद भारत को अपनी प्राथमिकता वाला गैर-यूरोपीय देश माना है. 2017 में नई दिल्ली और वॉरसॉ के बीच व्यापार सात गुना बढ़कर तीन बिलियन यूएस डॉलर से अधिक हुआ. इसके अलावा, 2018 में पोलिश इंवेस्टमेंट एंड ट्रेड एजेंसी का विदेश व्यापार का दफ्तर मुंबई में खोला गया, जिसके बाद 2019 में पोलिश एयरलाइंस एलओटी ने नई दिल्ली और वॉरसॉ के बीच सीधी उड़ानों की शुरुआत की.

भविष्य में, सहयोग के नए क्षेत्र के ज़रिये भारत और पोलैंड के संपूर्ण व्यापारिक रिश्तों को और भी बढ़ावा मिल सकता है. इन क्षेत्रों में कॉरपोरेट फाइनेंस, आईटी सेवाएं, खाद्य और कृषि प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी तकनीक, नवीकरणीय ऊर्जा, साइबर सुरक्षा और फिनटेक आदि शामिल हैं. इसके अलावा पंजाब-ल्यूबेस्की (Lubelskie), आंध्र प्रदेश- मैलोपोल्स्का (Malopolska) और महाराष्ट्र-वीकोपोल्सका (Weilkopolska) भारत और पोलैंड के बीच उपक्षेत्रीय सहयोग के कुछ उदाहरण हैं. उल्लेखनीय है कि भारत और पोलैंड अंतरराष्ट्रीय मंच पर मजबूत रिश्ते साझा करते हैं. पोलैंड ने ही जैश-ए-मोहम्मद पर प्रतिबंध लगाने के लिए यूएनएससी प्रस्ताव 1267 (2019) को प्रायोजित किया था. इसी तरह, पोलैंड ने अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद कश्मीर पर भारत के रुख़ का समर्थन भी किया था.

भविष्य में, सहयोग के नए क्षेत्र के ज़रिये भारत और पोलैंड के संपूर्ण व्यापारिक रिश्तों को और भी बढ़ावा मिल सकता है. इन क्षेत्रों में कॉरपोरेट फाइनेंस, आईटी सेवाएं, खाद्य और कृषि प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी तकनीक, नवीकरणीय ऊर्जा, साइबर सुरक्षा और फिनटेक आदि शामिल हैं. 

बढ़ती अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता और आर्थिक संभावनाओं के कारण स्लोवाकिया भी भारत को एक महत्वपूर्ण देश के रूप में देखता है. 1993 में, आरएल भाटिया ब्रातिस्लावा का दौरा करने वाले पहले गैर यूरोपीय विदेश मंत्री थे. स्लोवाकिया का लक्ष्य गहन राजनीतिक संवाद के ज़रिये व्यापक आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना है. हालांकि, भारत के साथ स्लोवाकिया के व्यापारिक संबंध पिछड़े हुए हैं, लेकिन स्लोवाकिया में यूरोप का सबसे बड़ा, भारतीय कंपनी टाटा का जैगुआर लैंड रोवर का निजी कार संयंत्र स्थापित कर भारत ने स्लोवाकिया के मोटरवाहन क्षेत्र में निवेश में दिलचस्पी दिखाई है. वी-4 देशों के साथ संयोजन के परे, सीईई के दूसरे देशों के साथ भारत के रिश्तों पर और ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है. इनमें ऑस्ट्रिया, क्रोएशिया, सर्बिया, स्लोवेनिया, रोमानिया, यूक्रेन और यहां तक कि बाल्टिक राज्यों जैसे संभावित पार्टनर भी शामिल हैं. सीईई में वी-4 पर केंद्रित भारतीय दृष्टिकोण, भारत और यूरोप के रिश्तों की व्यापक संभावनाओं को झुठलाता है.

ब्रसेल्स की उपेक्षा

भारत-सीईई के बेहतर सहयोग के रास्ते पर एक अन्य बाधा, ईयू का पूर्वी उपक्षेत्र की स्पष्ट रूप से उपेक्षा करना है. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यूरोप को लेकर सीईई उपक्षेत्र के नज़रिये में “Carolingian Europe” विषाद अब भी कायम है. इसके तहत आम लोगों का यह मानना है कि ईयू में प्रमुख नीतिगत फैसलों पर अब भी फ्रांस और जर्मनी जैसे पश्चिमी ईयू देशों का नियंत्रण है. ईयू में शामिल होने के 17 सालों बाद भी, सीईई क्षेत्र की भावनाओं के आकलन में यह बात व्यक्त हुई है कि पश्चिम अब भी उनके मूल्यों को अपनाने के लिए तैयार नहीं है. यूरोपीय एकजुटता पर ख़तरे की पुष्टि इस बात से होती है कि हाल ही में छपे कॉफ्रेंस ऑन द फ्यूचर ऑफ़ यूरोप  में सीईई क्षेत्र की अहमियत का कोई उल्लेख तक नहीं किया गया है.

ईयू में शामिल होने के 17 सालों बाद भी, सीईई क्षेत्र की भावनाओं के आकलन में यह बात व्यक्त हुई है कि पश्चिम अब भी उनके मूल्यों को अपनाने के लिए तैयार नहीं है. 

मिलेना लैज़ारीविक (प्रोग्राम डायरेक्टर और को-फाउंडर, यूरोपियन पॉलिसी सेंटर, सर्बिया) की रायसीना डायलॉग 2021 में की गई टिप्पणी से नीतिगत निर्णयों को लेकर ईयू के एक्सक्लूसिव नेचर की बात को बल मिलता है. इस बात की सख्त़ ज़रूरत है कि सीईई क्षेत्र से उठने वाली विविध आवाज़ों को शामिल किया जाये, न की उनपर आरोप लगाये जाये और उन्हें नजरअंदाज़ किया जाये.

कॉफ्रेंस ऑन द फ्यूचर ऑफ़ यूरोप  का हवाला देते हुए, लैज़ारीविक ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यूरोपीय संघ एकजुटता की कमी के कारण, चीन पर क्षेत्र की बढ़ती निर्भरता को देखते हुए, ईयू को इस क्षेत्र का सामरिक महत्व नहीं भूलना चाहिए. इसलिए भारत-ईयू के बहुआयामी संबंधों का पूरी तरह से लाभ उठाने के लिए, सीईई क्षेत्र की उपेक्षा त्यागना ही दोनों पार्टनरों के लिए हितकारी होगा.

हाल ही में संपन्न हुए इंडिया-ईयू लीडर्स लेवल समिट में, संबंधों की पहल पर साझा प्रतिबद्धता निर्माण के संकेत मिले हैं. इसलिए, भारत-ईयू साझेदारी की परिधि में सीईई क्षेत्र को लेकर समावेशी दृष्टिकोण अपनाना भारत और ईयू दोनों के समान हित में होगा. इसके बाद, लंबे समय में जैसे-जैसे भारत और यूरोपियन यूनियन के बीच सहयोग मजबूत होते जाएंगे, उससे भारत और ईयू को मध्य एवं पूर्वी यूरोप के साथ अपनी सहभागिता को एक रणनीतिक आयाम देने लिए आधार मिलेगा.

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