चीन की विदेश नीति, भारत, अंतर्राष्ट्रीय मामले, समुद्री अध्ययन, सामरिक अध्ययन, प्रशांत, पूर्व और दक्षिण, पूर्वी एशिया, अमेरिका और कनाडा,
पिछले तीन दशक में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी (PLA नेवी या PLAN) का आकार तीन गुने से भी ज़्यादा बढ़ गया है. वर्ष 2020 में जब पीएलए नेवी ने जंगी जहाज़ों की संख्या के मामले में अमेरिकी नौसेना (USN) को पीछे छोड़ा था, तब कुछ विशेषज्ञों ने ये इशारा किया था कि समुद्र में जहाज़ों के भार के मामले में अभी भी अमेरिका सबसे आगे है. ख़ास तौर से तब और जब सबसे ताक़तवर जंगी जहाज़ों के वर्ग की बात आती है- एयरक्राफ्ट कैरियर, क्रूज़र और विध्वंसक के मामले में. अन्य विश्लेषणों में ये भी कहा गया कि हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका को अपने साझीदार और दोस्ताना ताल्लुक़ वाली नौसेनाओं का भी साथ हासिल है. हाल ही में ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के बीच हुए सुरक्षा समझौते (AUKUS) को लेकर तो ये तर्क विशेष रूप से दिया जा रहा है.
इन सभी तर्क-वितर्कों से इतर, चीन ने अमेरिका की तुलना में सैन्य असंतुलन दूर करने के लिए गंभीर प्रयास किए हैं और इनके नतीजे भी निकले हैं. बहुत अधिक जनबल वाली पुरानी पड़ चुकी सेना में व्यापक सुधारों से चीन को ज़्यादा पूंजी और तकनीकी ज़रूरत मांगने वाली समुद्री और हवाई शक्ति के लिए संसाधन आवंटित करने में मदद मिली है. 2019 में आए रक्षा श्वेत पत्र ने इस बात का साफ़ तौर पर ज़िक्र किया था कि किस तरह पीएलए थल सेना का आकार कम करके पीएलए एयर फोर्स, पीएलए नेवी और पीएलए रॉकेट फ़ोर्स को फ़ायदा हुआ है. अप्रैल 2021 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी ने एक ही दिन में एक साथ तीन नए युद्धपोत शामिल किए थे. महत्वपूर्ण बात ये है कि ये कोई छोटे मोटे समुद्र के तटीय क्षेत्रों में तैनात होने वाले जहाज़ नहीं थे. बल्कि, इनमें से एक जल-थल दोनों पर चल सकने वाला हमलावर जहाज़, एक गाइडेड मिसाइल क्रूज़र और एक परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बी जो मिसाइल लॉन्च कर सकती है. ये ठीक वैसे ही जहाज़ हैं, जो विश्लेषकों के मुताबिक़ अमेरिका से मुक़ाबला करने की तैयारी कर रही चीन की नौसेना के पास नहीं हैं.
AUKUS के नए गठबंधन में परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बियों की केंद्रीय भूमिका के चलते चीन को भी मलक्का जलसंधि के पूर्वी समुद्री क्षेत्र पर अपना ध्यान केंद्रित करने को मजबूर होना पड़ेगा.
हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की सैन्य शक्ति का मुक़ाबला करने पर चीन की इस तैयारी का भारत पर मिला-जुला असर पड़ा है. एक तरफ़ तो ख़ास तौर से समुद्री क्षेत्र में विध्वंसक, क्रूज़र शिप और एयरक्राफ्ट कैरियर की बढ़ती संख्या के बावजूद चीन को अपनी लगभग पूरी सैन्य ताक़त पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में लगानी पड़ेगी, जिससे वो अमेरिका और उसके सहयोगियों की नौसैनिक ताक़त का मुक़ाबला कर सके. AUKUS के नए गठबंधन में परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बियों की केंद्रीय भूमिका के चलते चीन को भी मलक्का जलसंधि के पूर्वी समुद्री क्षेत्र पर अपना ध्यान केंद्रित करने को मजबूर होना पड़ेगा. इसका मतलब ये होगा कि भारतीय नौसेना के लिए अभी कुछ समय है, जब चीन की नौसेना अपने घरेलू मोर्चे की ज़रूरतें पूरी करने के बाद उस हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में और अधिक स्थायी उपस्थिति दर्ज कराने पर ज़ोर देगा, जिसे लंबे समय से ‘भारत का समुद्री इलाक़ा’ कहा जाता रहा है.
वहीं दूसरी तरफ़ एक सच ये भी है कि, अमेरिकी नौसेना का मुक़ाबला करने में अपनी पूरी ताक़त लगाने और अपना विस्तार करने में जुटी चीन की नौसेना, अभी ही भारतीय नौसेना से बहुत बड़ी है और वो काफ़ी तेज़ी से अपना विस्तार कर रही है. अगर फौरी आपातकालीन ज़रूरत की बात करें तो चीन, हिंद महासागर क्षेत्र में भारत से कई गुना अधिक नौसैनिक ताक़त लगाने में सक्षम है. जिबूती में एक स्पष्ट सैन्य ठिकाना बनाने और अपने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत कई बंदरगाहों तक पहुंच के चलते, चीन की नौसेना को हिंद महासागर क्षेत्र में अभियान चलाने की संसाधन संबंधी चुनौतियां काफ़ी हद तक कम हो जाती हैं. यहां पर ध्यान देने वाली बात ये है कि चीन अभी ही सामान पहुंचाने में सक्षम 15 मुख्य जहाज़ हिंद महासागर क्षेत्र में संचालित करती है और अब उसके Y-20 सामरिक एयरलिफ्टर भी बड़ी संख्या में सेवा में लगाए जा रहे हैं. इससे अपने क्षेत्र से बाहर अभियान चलाने की चीन की क्षमता अब उतनी सीमित नहीं रह गई है, जितनी पहले हुआ करती थी.
समुद्री मोर्चे पर भारत के विकल्प
चीन समेत अधिकत सैन्य शक्तियों ने तकनीक की मदद से अपने जन-बल को काफ़ी कम कर लिया है. यहां तक कि भारत जैसे जटिल सीमा विवाद में उलझे और सक्रिय संघर्ष का सामना कर रहे देशों जैसे कि दक्षिण कोरिया और इज़राइल ने भी थल सैन्य बल पर आधारित शक्ति से मुंह फेर लिया है. लेकिन, भारत की सैन्य सोच अभी भी पुराने दौर में अटकी हुई है, जो उसकी वायु और समुद्री शक्तियों को नुक़सान पहुंचा रही है. ये बात फंड के मामले में और भी स्पष्ट हो जाती है. अब जबकि रक्षा के क्षेत्र में केंद्र सरकार का ख़र्च कम हो रहा है, तो भी भारतीय थल सेना का हिस्सा सबसे अधिक बना हुआ है.
चीन समेत अधिकत सैन्य शक्तियों ने तकनीक की मदद से अपने जन-बल को काफ़ी कम कर लिया है. यहां तक कि भारत जैसे जटिल सीमा विवाद में उलझे और सक्रिय संघर्ष का सामना कर रहे देशों जैसे कि दक्षिण कोरिया और इज़राइल ने भी थल सैन्य बल पर आधारित शक्ति से मुंह फेर लिया है.
लघु अवधि में, समुद्री मोर्चे पर भारत के विकल्प बिल्कुल आसान हैं- हिंद महासागर क्षेत्र में भी समुद्री ताक़तों की रोकथाम की रणनीति पर काम करना. यहां ये साफ़ कर देना ज़रूरी है कि अपने आस-पास के समुद्री क्षेत्र यानी हिंद महासागर क्षेत्र के अधिकतर क्षेत्र में भारत का नियंत्रण है, जबकि नौसेना के पास हेलिकॉप्टर और पनडुब्बियों की कमी है. लेकिन अगर हम पूरी तरह से क्षमता की बात करें, तो समय की मांग ये है कि ज़्यादा संख्या में भारी हथियारों से लैस और सबसे अहम बात ये कि सस्ते और जल्द बनाए जा सकने वाले जहाज़ नौसेना में शामिल किए जाएं. ये बात तब और ज़रूरी हो जाती है, जब नौसेना में पनडुब्बियों की कमी की समस्या एक जटिल पहेली बनी हुई है. ऐसे जंगी जहाज़ों से भरे समुद्र से चीन की नौसेना को इस इलाक़े से ज़्यादा आसानी से दूर किया जा सकता है, न कि ऐसी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं से जो शिपयार्ड में ही अटके रहें और चीन की नौसेना एक साथ दर्जनों की तादाद में जंगी जहाज़ शामिल करती रहे. अगर चीन के एक विध्वंसक के मुक़ाबले भारतीय नौसेना एक मिसाइल बोट या लड़ाकू जहाज़ भी शामिल कर ले तो उससे हिंद महासागर में चीन की नौसेना की किसी भी योजना को पलीता लगाया जा सकता है.
बड़ी संख्या में युद्धक जहाज़ बनाना एक ऐसा काम है जो भारत कभी भी नहीं कर सका है. लंबे समय तक चलने वाला निर्माण कार्य और जहाज़ बनाने की धीमी रफ़्तार का मतलब है कि नौसेना को हर वर्ग के कुछ जहाज़ बनाने का ऑर्डर देने के बाद ही नए डिज़ाइन पर काम शुरू करना पड़ जाता है. इससे पहले से ही कम पूंजी वाले बजट पर दबाव और बढ़ जाता है. एक छोटे मगर ताक़तवर जहाज़ के वर्ग से नौसेना के बजट पर पड़ने वाला दबाव कुछ कम होगा. इससे उसे नियमित रूप से घरेलू जहाज़ निर्माण उद्योग से तय सीमा के भीतर कुछ जहाज़ मिल सकेंगे और आख़िर में ये भी हो सकता है कि भारत कुछ युद्धक जहाज़ों का निर्यात भी कर सके, जिससे वो अपनी लागत पर हुए ख़र्च को वसूल कर सके.
लंबी अवधि में अभियान चलाने और युद्धक संसाधनों के मुक़ाबले, या फिर बजट आवंटन की कमियों की तुलना में नौसेना के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी ख़रीदने की क्षमता का विस्तार करने की होगी. इसका एक ही विकल्प है. ज़्यादा से ज़्यादा स्वदेश में बने जहाज़ों को ख़रीदना और ऐसी औद्योगिक नींव तैयार करना, जिससे ये काम ख़ुद ब ख़ुद हो सके.
लंबी अवधि में अभियान चलाने और युद्धक संसाधनों के मुक़ाबले, या फिर बजट आवंटन की कमियों की तुलना में नौसेना के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी ख़रीदने की क्षमता का विस्तार करने की होगी. इसका एक ही विकल्प है. ज़्यादा से ज़्यादा स्वदेश में बने जहाज़ों को ख़रीदना और ऐसी औद्योगिक नींव तैयार करना, जिससे ये काम ख़ुद ब ख़ुद हो सके. ये बात जितनी अन्य सेनाओं पर लागू होती है, उतनी ही नौसेना पर भी. अगर हम ये मानकर चलें कि न तो भारत अपनी सेनाओं में जन-बल की समस्या का निपटारा लंबे समय तक नहीं कर पाएगा, और न ही थल सेना को ज़्यादा धन आवंटित करना कम करेगा, तो अब भारत के पास इसके सिवा कोई और विकल्प नहीं है कि वो पैसे बचाने के लिए देश में ही सस्ते हथियारों का विकास करे. विदेश में एक डॉलर या एक रूबल की तुलना में स्वदेश में एक रूपए ख़र्च करके ज़्यादा संसाधन ख़रीदे जा सकते हैं और ये तो कहने की बात नहीं कि इस घरेलू व्यय के अन्य अप्रत्यक्ष लाभ भी होंगे. इससे पहले राष्ट्रीय क्षमता का विकास करने के साथ साथ सैन्य क्षमता का निर्माण करने को विरोधाभासी कोशिश माना जाता था. वैसे तो पारंपरिक योजना निर्माण और उनके क्रियान्वयन के आयाम में दोनों ही सीधे तौर पर संसाधनों के बंटवारे में होड़ लगाते हैं. लेकिन, ऐसी कोई वजह नहीं है कि ये सिलसिला अनिश्चितकाल तक जारी रहे.
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