गलवान में हुई झड़पों ने चीन के विस्तारवादी इरादों को सामने लाते हुए पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया. तब से भारत QUAD के ना सिर्फ़ क़रीब आ गया है, बल्कि उसने सैन्य आधुनिकीकरण पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया है. दरअसल, भारत और चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता तेज़ हो गई है और सत्ता व रसूख के लिए संघर्ष एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया है.
एट्रीब्यूशन: आदित्य गौदरा शिवमूर्ति, Ed., “भारत-चीन प्रतिस्पर्धा: पड़ोसी देशों का दृष्टिकोण और उनपर प्रभाव,” ओआरएफ़ स्पेशल रिपोर्ट नं. 197, अगस्त 2022, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.
प्रस्तावना
15 जून, 2022 को क़रीब 250 से अधिक चीनी सैनिकों ने 50 भारतीय जवानों के दल पर हमला बोल दिया था. भारतीय सैनिक उस समय गलवान घाटी में भारतीय सीमा में स्थित वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का निरीक्षण कर रहे थे.[1] इस मुठभेड़ के दौरान 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए, जबकि बड़ी संख्या में चीनी सेना के जवान भी मारे गए. यह घटना एलएसी पर दोनों पक्षों के बीच लंबे समय तक गतिरोध की वजह बनी.
अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय व्यवस्था में रणनीतिक वर्चस्व के लिए भारत और चीन अक्सर होड़ करते रहे हैं और सीमा विवादों में उलझे रहते हैं. हालांकि, अपने तमाम मतभेदों के बावज़ूद दोनों देशों ने अतीत में द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों में सहयोग भी किया है.[2] इसको इससे समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वर्ष 2014, 2018 और 2019 में अलग-अलग समय पर अहमदाबाद, वुहान और मामल्लापुरम में राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भेंट करके चीन के साथ सौहार्द को बढ़ाने के लिए काम किया था.[3]हालांकि, गलवान में हुई झड़पों ने चीन के विस्तारवादी इरादों को सामने लाते हुए पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया. तब से भारत QUAD के ना सिर्फ़ क़रीब आ गया है, बल्कि उसने सैन्य आधुनिकीकरण पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया है. दरअसल, भारत और चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता तेज़ हो गई है और सत्ता व रसूख के लिए संघर्ष एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया है. इतना ही नहीं शीत युद्ध की आशंकाओं के बलवती होने और भारत-प्रशांत क्षेत्र भू-राजनीतिक उथल-पुथल का केंद्र बनने के साथ-साथ दक्षिण एशिया की भूमिका और ज़्यादा रणनीतिक एवं महत्त्वपूर्ण हो गई है.
भारत और चीन दोनों ही इस क्षेत्र में अपना दबदबा बनाए रखने और अपने हितों को आगे बढ़ाने की कोशिश जारी रखे हुए हैं. भारत के लिए दक्षिण एशिया और हिंद महासागर किसी भी हमले को रोकने के लिए रक्षा की पहली पंक्ति हैं. अपने पड़ोसियों के बीच दबदबा होने की वजह से भारत को एक ‘क्षेत्रीय शक्ति’ होने का दर्ज़ा मिला हुआ है. हालांकि, विभिन्न रूपों में देखा जाए तो इस तरह की सोच लंबे समय से भारत की पड़ोसी नीति पर हावी रही है. भारत वर्तमान में चीन के राजनयिक और आर्थिक प्रभाव का मुक़ाबला करने के लिए ना केवल विभिन्न कनेक्टिविटी परियोजनाओं में निवेश करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, बल्कि इस क्षेत्र में अपने असर को बनाए रखने के लिए कई मोर्चों पारस्परिक निर्भरता का माहौल बना रहा है.[4]
जहां तक चीन की बात है तो 2000 के दशक की शुरुआत में चीन ने दक्षिण एशिया में अपने प्रभाव का विस्तार करने के लिए सैन्य, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक साधनों का उपयोग किया. चीन का एक मात्र लक्ष्य एक एशियाई ताक़त के रूप में अपने रुतबे को और अधिक बढ़ाना, हिंद महासागर के विशाल संसाधनों तक अपनी पहुंच बनाना, भारत की घेराबंदी करना, संचार की महत्वपूर्ण समुद्री लाइनों को सुरक्षित करना और विशेष रूप से शिनजियांग और तिब्बत जैसे अपने अस्थिर क्षेत्रों में आर्थिक विकास की शुरुआत करना है.[5]
दक्षिण एशिया एक युद्ध के मैदान में तब्दील हो गया है. इस तेज़ प्रतिस्पर्धा ने ख़ुद दक्षिण एशियाई देशों के लिए नए अवसर ही पैदा नहीं किए हैं, बल्कि उनकी चिंताओं में भी बढ़ोतरी की है. ये देश इस प्रतिद्वंद्विता को अपनी एजेंसी का प्रयोग करने के साधन के रूप में देखते हैं, साथ ही राजनीतिक और आर्थिक लाभ प्राप्त करने, भारत पर अपनी निर्भरता को दूर करने और चीन के ‘ऋण जाल’ की वजह से होने वाले प्रभावों को कम करने के साधन के रूप में देखते हैं. भारत, चीन और अमेरिका जैसे अन्य देश इस क्षेत्र पर अपनी नजरें गड़ाए हुए हैं.
चीन की प्रस्तावित परियोजनाओं और विशेष रूप से प्रमुख बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को भारत अपने प्रभाव का मुक़ाबला करने और चुनौती देने के क़दम के रूप में देखता है. ज़ाहिर है कि चीन के लिए, एक ऐसा दक्षिण एशिया जहां पर भारत का निर्विवाद रूप से प्रभुत्व है, ना केवल इस क्षेत्र में उसके दबदबे के लिए चुनौती बनकर उभरेगा, बल्कि तिब्बत के मद्देनज़र, उसकी आंतरिक सुरक्षा को भी ख़तरे में डाल देगा. गलवान में हुई झड़पों के बाद इन दोनों देशों के बीच विश्वास की कमी जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, वैसे ज़ोख़िम भी बढ़ता जा रहा है. दक्षिण एशिया एक युद्ध के मैदान में तब्दील हो गया है. इस तेज़ प्रतिस्पर्धा ने ख़ुद दक्षिण एशियाई देशों के लिए नए अवसर ही पैदा नहीं किए हैं, बल्कि उनकी चिंताओं में भी बढ़ोतरी की है. ये देश इस प्रतिद्वंद्विता को अपनी एजेंसी का प्रयोग करने के साधन के रूप में देखते हैं, साथ ही राजनीतिक और आर्थिक लाभ प्राप्त करने, भारत पर अपनी निर्भरता को दूर करने और चीन के ‘ऋण जाल’ की वजह से होने वाले प्रभावों को कम करने के साधन के रूप में देखते हैं.[6] भारत, चीन और अमेरिका जैसे अन्य देश इस क्षेत्र पर अपनी नजरें गड़ाए हुए हैं.[7] जबकि, दक्षिण एशियाई देश वैश्विक शक्तियों द्वारा खेले जा रहे खेलों का शिकार होने के बजाए सक्रिय संतुलन और मुद्दों को बातचीत के माध्यम से सुलझाने में जुटे हुए हैं. इससे उन्हें निवेश, अनुदान, सहायता, ऋण हासिल करने और दूसरे अन्य समझौते करने में मदद मिली है.[8]
इसकी प्रबल संभावना है कि इस प्रतिस्पर्धा और दक्षिण एशियाई देशों द्वारा इन परिस्थियों का लाभ उठाने का सिलिसिला लंबे समय तक जारी रहेगा. ऐसे इसलिए है कि फिलहाल भारत और चीन दोनों ही तरफ से पीछे हटने के कोई संकेत नहीं दिखाई दे रहे हैं.
यह विशेष रिपोर्ट भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता पर दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य या नज़रिए को प्रस्तुत करने का प्रयास करती है. पहले अध्याय में ज़ेबा फ़ाज़ली ने पाकिस्तान के ताज़ा हालातों का आकलन करके भारत के दो-मोर्चों पर युद्ध की संभावना की समस्या का समाधान किया है. आर्थिक संकट, फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स द्वारा काली सूची में डालना, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की सीमाएं और सैन्य गठबंधन में शामिल होने के उत्साह में कमी, पाकिस्तान को चीन और अमेरिका के बीच संतुलन की तलाश करने के लिए प्रेरित करेगी और यह इसे भारत के लिए तात्कालिक ख़तरा बनने से रोकेगा. बांग्लादेश जैसे देश के लिए, जिसने हाल के वर्षों में आर्थिक विकास के मार्ग पर चलना शुरू किया है, उसके लिए भारत और चीन के बीच संतुलन आवश्यक है. प्रतिस्पर्धा से होने वाले फ़ायदों के बावज़ूद बांग्लादेश दोनों ही देशों के साथ अपने सौहार्दपूर्ण संबंध क़ायम करने की कोशिश करता रहा है. दिलवर हुसैन, अपने लेख में, इस नीति के लिए विभिन्न कारकों जैसे राष्ट्रीय हित, आर्थिक ज़रूरतें और “सभी के लिए मित्रता और किसी के प्रति द्वेष नहीं” के सिद्धांत को ज़िम्मेदार बताते हैं.
चीन के अनसुलझे विवादों और भारतीय और भूटानी क्षेत्रों पर कब्ज़े ने उनकी प्रतिस्पर्धा तेज़ कर दी है. तीसरे अध्याय में अच्युत भंडारी इस क्षेत्र में और हिंद महासागर में सैन्यीकरण की भूटान की आशंकाओं के बारे विस्तार से बताते हैं. साथ इस पर भी रोशनी डालते हैं कि किस प्रकार मैत्रीपूर्ण संबंध भूटान के आर्थिक विकास और व्यापार को बढ़ावा दे सकते हैं. इस बीच, नेपाल में प्रतिस्पर्धा चरम पर है. भारत नई परियोजनाओं का प्रस्ताव देकर और पुरानी परियोजनाओं को गति देकर चीन की उपस्थिति का सामना कर रहा है. इस होड़ में अमेरिका भी एक नया हितधारक है. दिनेश भट्टाराई बताते हैं कि कैसे भारत-चीन संबंधों में आई तेज़ गिरावट ने नेपाल की घरेलू राजनीति को प्रभावित किया है और निवेश की प्रतिस्पर्धा को बढ़ाया है.
इस लेख के पांचवें भाग में अज़रा नसीम इस बात का आकलन करती हैं कि भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता मालदीव की घरेलू राजनीति को कैसे प्रभावित करती है. मालदीव में राजनीतिक दल और नेता अपने व्यक्तिगत फ़यदों के मुताबिक़ अपनी विदेश नीतियां बनाते हैं. यह मालदीव में निवेश की प्रकृति, मंशा और इस बड़े खेल में उसकी भूमिका पर कई महत्वपूर्ण सवाल उठाता है. अंतिम अध्याय में, चुलनी अट्टानायके ने दक्षिण एशिया में भारत द्वारा दी जा रही मदद, व्यापार और निवेश की तुलना चीन से की और तर्क दिया कि कैसे चीन ने भारत को श्रीलंका के क़रीब लाने के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम किया है.
यह विशेष रिपोर्ट अलग-अलग दक्षिण एशियाई देशों के लिए भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा के निहितार्थों को सामने लाना चाहती है. यह रिपोर्ट प्रतिद्वंद्विता के बारे में ना केवल उनकी धारणाओं का वर्णन करती है, बल्कि उनकी प्रतिक्रियाओं के बारे में विस्तार से बताती है.
– आदित्य गौदरा शिवमूर्ति
1.पाकिस्तान
एक जटिल संतुलन वाली कार्रवाई और दो-मोर्चों के युद्ध की सच्चाई
ज़ेबा फ़ाज़ली
धारणाएं और वास्तविकता
दक्षिण एशिया में महाशक्ति बनने की होड़ तेज़ी से विकराल होती जा रही है.[9] इस क्षेत्र में सामरिक गतिशीलता का विश्लेषण[10] संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के एक प्रमुख रक्षा भागीदार के रूप में भारत के ढांचे के भीतर तैयार किया जा रहा है,[11] जो चीन और उसके सदाबहार दोस्तपाकिस्तान के लिए एक जवाबी कार्रवाई के तौर पर कार्य कर रहा है.[12] विशेष रूप से अगर भारत के सबसे बड़े ख़तरे के बारे में बात की जाए, तो इसका जिक्र करते हुए देश के अधिकारियों के साथ-साथ स्वतंत्र विश्लेषक भी अक्सर ना केवल इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता की ओर इशारा करते हैं,[13] बल्कि पाकिस्तान के साथ उसके बढ़ते मेलजोल को भी भारत के लिए एक बड़ा ख़तरा बताते हैं. यानी कि भारत पर अत्यधिक दबाव बनाने के लिए और भारत को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाने के लिए पाकिस्तान कभी भी इस संघर्ष में कूद सकता है.[14] हालांकि, अगर गहनता से इसका विश्लेषण किया जाए तो वास्तविकता इससे बहुत अलग है. यह लेख अपनी दूसरी विदेश नीति और घरेलू चुनौतियों के संदर्भ में भारत और चीन के बीच बढ़ते तनाव के लिए पाकिस्तान की प्रतिक्रिया और एक हद तक उसकी चुप्पी को लेकर पड़ताल करता है. जहां तक भारत-चीन के बीच तनाव की बात है तो पिछले दो वर्षों से भारत को पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ चल रहे गतिरोध का सामना करना पड़ा है. लेकिन पाकिस्तान ने भारत के इन मुश्किल भरे हालातों का फ़यादा उठाने की कोई कोशिश नहीं की, या फिर कहें कि कोई लाभ उठा ही नहीं पाया, क्योंकि वो ख़ुद घरेलू राजनीतिक और आर्थिक संकटों से बुरी तरह घिरा हुआ है.[15] इसके अलावा, अप्रैल 2022 में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के सत्ता से बेदख़ल होने के साथ पाकिस्तानी हितधारकों ने “ख़ेमेबंदी की राजनीति” को नकार दिया है, जो कि उन्हें चीन की पकड़ में रहने को मज़बूर करती है. पाकिस्तान की यह रणनीति चीन से मुंह मोड़े बिना संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंधों को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर सकती है. अगर इसे संक्षेप में कहा जाए तो वैश्विक शक्तियों को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ करके, उनका लाभ उठाकर, इस प्रमुख क्षेत्र के केंद्र में खुद को पुनर्स्थापित करने की कोशिश.[16] हालांकि, संतुलन साधते हुए इसे अंज़ाम तक पहुंचाना बेहद मुश्किल कार्य होगा, लेकिन दक्षिणी एशिया में सत्ता और प्रतिस्पर्धा के नैरेटिव को फिर से स्थापित करने के पाकिस्तान के प्रयास अभी भी अधिक सहयोग और बढ़ी हुई रणनीतिक स्थिरता के दरवाजे खोल सकते हैं – अगर वह दरवाजा खुला रहता है और अगर कोई दूसरा इसके ज़रिए चलने को तैयार है.
मान वाला देश
चीन के साथ पाकिस्तान की अटूट और गहरी मित्रता की रणनीतिक तेज़ी को कोई नकार नहीं सकता. दोनों देश दक्षिण एशिया में भारत की ताक़त का मुक़ाबला करने के लिए एक-दूसरे के लिए उपयोगी मुद्दों की तलाश करते रहते हैं. जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में पूर्व पाकिस्तानी राजदूत हुसैन हक़्क़ानी ने एक बार इस परस्पर यानी एक-दूसरे पर निर्भरता वाले सहजीवी संबंध का वर्णन करते हुए कहा था, “चीन के लिए भारत का सामना करने के लिए पाकिस्तान एक कम ख़र्चीला दूसरे दर्ज़े का सुरक्षात्मक साधन है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के लिए चीन भारत के खिलाफ सुरक्षा का एक क़ीमती गारंटर है.”[17] पिछले एक दशक में चीन और पाकिस्तान का आर्थिक, सैन्य और रणनीतिक सहयोग हर क्षेत्र, हर मुद्दे पर बढ़ा है और यह सहयोगी ताल्लुक़ात पहले से ही दशकों पुरानी नींव पर बने हुए हैं. दोनों देशों ने वर्ष 2015 में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की प्रमुख परियोजना चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) का उद्घाटन किया, [18] और चीन, पाकिस्तान का सबसे बड़ा निर्यात भागीदार है.[19] पाकिस्तान के सुरक्षा प्रतिष्ठान संयुक्त और बहुराष्ट्रीय सैन्य अभ्यासों के साथ-साथ प्रमुख रक्षा उपकरणों की ख़रीद के लिए चीन के साथ साझेदारी बनाए हुए हैं.[20]
ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि जैसे-जैसे चीन और पाकिस्तान के संबंध बढ़ते जा रहे हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के साथ उसके संबंध समानांतर रूप से बिगड़ते जा रहे हैं.[21] वर्ष1950 के शीत युद्ध गठबंधन नेटवर्क से लेकर 1980 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत आक्रमण और वर्ष 2000 के दशक में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध तक अगर देखा जाए तो अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंध भी मुख्य रूप से सुरक्षा पर आधारित रहे हैं. इस तरह के विवादास्पद इतिहास ने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी[22] और अगस्त, 2021 में तालिबान के तेज़ी से अधिग्रहण के मद्देनज़र वर्तमान में और भी अधिक भयावह स्थिति पैदा की है.[23]दरअसल, ऐसा लगता है कि वाशिंगटन ने अभिशाप की तरह लगने वाले अफ़ग़ानिस्तान के मनोवैज्ञानिक बोझ को एक हिसाब से अपने सिर से उतार दिया है, जिसे लंबे समय से एक असफल रिश्ता माना जाता था. जैसा कि अमेरिका की उप विदेश मंत्री वेंडी शेरमेन ने नवंबर, 2021 में कहा था: “हम (संयुक्त राज्य अमेरिका) ख़ुद को पाकिस्तान के साथ व्यापक संबंध स्थापित करने के लिए सहज नहीं पाते हैं.”[24] आज, वाशिंगटन पूरी उत्सुकता से अपना फोकस भारत-प्रशांत क्षेत्र और चीन के साथ अपनी महाशक्ति प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित कर रहा है.[25]
चीन के लिए भारत का सामना करने के लिए पाकिस्तान एक कम ख़र्चीला दूसरे दर्ज़े का सुरक्षात्मक साधन है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के लिए चीन भारत के खिलाफ सुरक्षा का एक क़ीमती गारंटर है. पिछले एक दशक में चीन और पाकिस्तान का आर्थिक, सैन्य और रणनीतिक सहयोग हर क्षेत्र, हर मुद्दे पर बढ़ा है और यह सहयोगी ताल्लुक़ात पहले से ही दशकों पुरानी नींव पर बने हुए हैं.
यह इस संदर्भ में है कि चीन के उदय के लिए भारत एक संभावित चुनौती बन गया है. ख़ासकर वर्ष 2020 में जब से लद्दाख संकट सामने आया है और भारत ने इसका कुशलता से सामना किया है, उसके बाद से हर जगह भारत के क़दमों की तारीफ़ हो रही है. उदाहरण के लिए अप्रैल, 2022 में अमेरिका-इंडिया 2+2 संवाद.[26] अमेरिकी प्राथमिकताओं और दृष्टिकोण में यह बदलाव पाकिस्तान के साथ उसके अनुभव और भारत के लिए उसकी उम्मीदों के आधार पर आया है. अमेरिका के नज़रिए में यह बदलाव पाकिस्तान को एक हिसाब से अंधकार की ओर धकेल देता है और ऐसे में जो परिदृश्य सामने दिखता है, उसमें पाकिस्तान चीन की ओर और अधिक आकर्षित हो सकता है.[27] हालांकि, पाकिस्तान को केवल चीन की “जी हज़ूरी” करने वाले के रूप में ख़ारिज़ करना और भारत-चीन की बढ़ती प्रतिस्पर्धा के जवाब में उसके क़दमों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना, पाकिस्तान के कई हितधारकों और कभी-कभी विरोधाभासी हितधारकों के बीच ज़मीन पर उभरने वाली अधिक जटिल तस्वीर को धुंधला करता है.
घरेलू अड़चनें
अगर पाकिस्तान के नज़रिए से देखा जाए, तो चीन-पाकिस्तान की सर्वकालिक मित्रता आगे भारी उतार-चढ़ाव का सामना करती है, जो उस दोस्ती के व्यवहारिकता के आकलन को जटिल बनाती है. वर्ष 2016 में जब प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ और राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पहली बार सीपीईसी की घोषणा की थी, [28] तब शरीफ ने इस परियोजना को पाकिस्तान के लिए “किस्मत बदलने वाली” परियोजना के रूप में प्रचारित किया था. तभी से पाकिस्तानी अधिकारियों ने सीपीईसी प्रोजेक्ट्स को लेकर चुप्पी साध ली है.[29] इसको लेकर उत्साह की कमी के कई संभावित कारण हैं, जिनमें पाकिस्तान पर भारी कर्ज़, कुछ परियोजनाओं में कथित तौर पर किया गया भ्रष्टाचार, बड़े पैमाने पर चलाई जा रही कुछ परियोजनाओं की अव्यवहार्यता, पाकिस्तानी नागरिकों के लिए नौकरियों के अवसरों की कमी, [30] और सौदों में पारदर्शिता की कमी जैसे कारण शामिल हैं.[31] इन चिंताओं के कारण ना सिर्फ़ सीपीईसी परियोजनाओं की गति धीमी हुई, बल्कि उनका आकार भी कम किया गया.[32] इसके साथ ही “विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर अधिक ज़ोर देने के साथ औद्योगिकीकरण, कृषि और सामाजिक आर्थिक विकास” पर ध्यान केंद्रित करने के लिए इन परियोजनाओं में व्यापक स्तर पर सुधार किया गया.[33]
अगर पाकिस्तान के रक्षा क्षेत्र की बात करें तो, कथित तौर पर थल सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा समेत पाकिस्तानी अधिकारियों द्वारा चीन से ख़रीदे गए सैन्य साज़ो-सामान, गोला बारूद और वायु रक्षा उपकरणों को लेकर निराशा व्यक्त की जा चुकी है.[34] इसके बावज़ूद यहां तक कि हाल ही में चीन निर्मित एडवांस नौसेना युद्धपोतों के साथ ही आज भी पाकिस्तान द्वारा चीन से बड़े स्तर रक्षा उपकरण ख़रीदना जारी रखा गया है.[35] हालांकि, सच्चाई यह है कि पाकिस्तान की सेनाएं चीन की तुलना में अभी भी अमेरिका और अन्य पश्चिमी साझेदार देशों जैसे फ्रांस और जर्मनी से बेहतर गुणवत्ता वाले हथियार ख़रीदना पसंद करती हैं.[36]
भारत-चीन प्रतिस्पर्धा को लेकर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया का आकलन करने में शायद सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि क्या पाकिस्तान के पास संभावित अवसरों, जो जब कभी भी सामने आएं, उनका लाभ उठाने की क्षमता और इच्छाशक्ति दोनों हैं. अगर वर्ष 2019 में पुलवामा-बालाकोट संकट को बढ़ाने के लिए पाकिस्तान की तरफ से कार्रवाई में कमी और बाद में “किसी एक को चुनने” के लिए उसकी झिझक या संकोच[37] कोई संकेत है तो यह सबित करता है कि पाकिस्तान सीधे मैदान में कूदने के लिए अधीर नहीं है. ज़ाहिर है कि वर्ष 2020 में भारत-चीन की झड़प, पाकिस्तान के लिए भारत में पैदा हुई स्थितियों लाभ उठाने के लिए बेहतरीन शुरुआत हो सकती थी. शायद भारत के विरुद्ध नियंत्रण रेखा (एलओसी) के साथ पहले से कार्रवाई करके पाकिस्तान उन परिस्थितियों का ज़बरदस्त तरीक़े से फ़ायदा उठा सकता था. हालांकि, जैसा कि राजनीतिक विज्ञानी और टिप्पणीकार आयशा सिद्दीकी ने उल्लेख किया है, पाकिस्तान ने गर्मा-गर्मी और तनाव के उस माहौल में अपना कोई “आक्रामक इरादा” नहीं दिखाया. यहां तक कि कश्मीर के उस हिस्से में अपनी सुरक्षा को मज़बूत करने के लिए भी कुछ नहीं किया, जिस पर उसका कब्ज़ा है.[38] यह एक ऐसा तथ्य है, जिसे बाद में भारतीय सेना ने भी माना.[39]
फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) द्वारा पाकिस्तान को लगातार ग्रे-सूची में रखने का ही असर है कि वह आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई को मज़बूर हुआ है. एफएटीएफ के मुताबिक़ पाकिस्तान को आतंकवादी संगठनों को दिए जाने वाले वित्तपोषण और मनी-लॉन्ड्रिंग को रोकने के लिए सख़्त क़दम उठाने की ज़रूरत है.[40] ग्रे-सूची में शीर्ष पर होने की वजह से पाकिस्तान एक बढ़ते आर्थिक संकट को महसूस कर रहा है,[41] जिसके कारण घी और खाना पकाने के तेल जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में बढ़ोतरी हुई है.[42] इसलिए वहां की सरकार अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के साथ एक समझौते के लिए बातचीत कर रही है.[43] पाकिस्तान को पहले ही ग्रे-सूची में रहने की वजह से जीडीपी में 38 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हो चुका है. पाकिस्तान काली सूची में डाले जाने की वजह से निरंतर जांच के प्रभाव और कमज़ोर हो रही अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले ख़तरे को लेकर चौकन्ना है.[44]
ऐसा लगता है कि एफएटीएफ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय किरदारों की तरफ से गहन आर्थिक जांच के ख़तरे ने पाकिस्तान को अपने विरोध-प्रदर्शनों को आगे बढ़ाने से रोक दिया है. उदाहरण के लिए, भारत द्वारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने के बाद पाकिस्तानी की ढीली प्रतिक्रिया. भारत के इस क़दम के बाद वर्ष 2020 की गर्मियों में एलओसी पर पाकिस्तानी गतिविधियां उस स्तर पर नहीं दिखाई दीं, जितनी दिखनी चाहिए थीं. पाकिस्तान की राजनीतिक और आर्थिक बाधाओं के मद्देनज़र उसके रणनीतिकार यही चाहेंगे कि पाकिस्तान इस तरह के झगड़े-झंझट से दूर रहे. यह ज़रूरी नहीं है कि यह पैटर्न अक्सर दो-मोर्चे के ख़तरे को झुठलाए,[45] लेकिन यह अंतर्राष्ट्रीय दबाव (या वास्तव में चीनी दबाव) के बारे में और घरेलू संकल्प से पाकिस्तान के उस तरह आगे बढ़ने, जिस तरह से कुछ लोगों को डर लगे, दोनों पर ही सवाल उठाता है.
ऐसा लगता है कि एफएटीएफ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय किरदारों की तरफ से गहन आर्थिक जांच के ख़तरे ने पाकिस्तान को अपने विरोध-प्रदर्शनों को आगे बढ़ाने से रोक दिया है. उदाहरण के लिए, भारत द्वारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने के बाद पाकिस्तानी की ढीली प्रतिक्रिया. भारत के इस क़दम के बाद वर्ष 2020 की गर्मियों में एलओसी पर पाकिस्तानी गतिविधियां उस स्तर पर नहीं दिखाई दीं, जितनी दिखनी चाहिए थीं.
यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि भारत का पश्चिमी मोर्चा जून, 2020 से पूरी तरह से शांत रहा है. हालांकि इस वर्ष के बाद के महीनों में संघर्ष विराम उल्लंघन की घटनाओं में वृद्धि हुई थी. इस बीच, पाकिस्तान में इमरान ख़ान सरकार ने फरवरी 2021 में भारत के साथ व्यापार पर एक उल्लेखनीय उलटफेर किया. प्रारंभिक तौर पर चीनी और कपास के सीमित व्यापार को मंज़ूरी देने के बाद इसे ख़ारिज़ कर दिया.[46] हालांकि, एलओसी पर वर्ष 2021 का युद्धविराम, एक राजनयिक बैक चैनल के माध्यम से हुईं तमाम वार्ताओं का नतीज़ा था, जो पिछले 17 महीनों में काफ़ी हद तक कायम रहा है.[47] चीन द्वारा एलएसी पर अपनी स्थिति से टस से मस नहीं होने यानी अपनी स्थिति से पीछे हटने से इनकार करने और वाशिंगटन में एक नए प्रशासन के आने के बाद, भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे के साथ सहयोग के न्यूनतम संभव घेरे तक पहुंचने के लिए तैयार हो पाए.[48] इस क्षेत्र में महाशक्तियों के संघर्ष के बीच दक्षिण एशिया को स्थिर करने के लिए यह बेहद ज़रूरी और व्यावहारिक क़दम है और यह अभी भी एक उपयोगी रास्ता हो सकता है. हालांकि, भारत और पाकिस्तान युद्धविराम से आगे बढ़कर सहयोग के किसी दूसरे अहम पड़ाव तक नहीं पहुंचे हैं, लेकिन यह भी सच है कि यह तनातनी परमाणु संपन्न पड़ोसियों के बीच जारी गहरी राजनीतिक और सामरिक प्रतिद्वंद्विता को दर्शाती है.
आगे और ख़तरनाक हालात
भारत और पाकिस्तान के संबंधों में एक चिंता पैदा करने वाली रुकावट बनी हुई है, जो भविष्य में एक तेज़ी से बढ़ते संकट की ओर संकेत दे सकती है.[49] इस बीच, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन, दोनों देशों को साधने या फिर दोनों के बीच संतुलन बनाने की पाकिस्तान की कोशिश उसे और संदिग्ध बनाने वाली हैं. सेना और इंटेलिजेंस सेवाओं के साथ इमरान ख़ान के संबंध के बारे में व्यापक रूप से माना जाता है कि इन्हीं संबंधों की वजह से इमरान ख़ान को पहली बार सरकार बनाने में मदद मिली.[50] दोनों के इन संबंधों में पिछले वर्ष दरार शुरू हुई. इस दरार का गंभीर परिणाम वर्ष 2021 के अंत में उस समय दिखाई दिया, जब इमरान ख़ान और बाजवा के बीच इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) के नेतृत्व को लेकर सार्वजनिक रूप से विवाद सामने आया.[51] इसको लेकर अपनी असहमति से पहले और बाद में इमरान ख़ान ने सेना पर अपना दबदबा दिखाने की कोशिश की और कई अवसरों पर ना सिर्फ़ अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी की, बल्कि अमेरिका जो झटका देने का भी प्रयास किया. उदाहरण के तौर पर उन्होंने अमेरिकी सेना को पाकिस्तानी ठिकानों का उपयोग करने से स्पष्ट इनकार कर दिया.[52] अगस्त, 2021 में तालिबान की जीत को लेकर इमरान ख़ान ने कहा कि उन्होंने “गुलामी की बेड़ियों” को तोड़ा है.[53] इतना ही नहीं उन्होंने पूरे दृढ़ संकल्प के साथ रूस का दौरा किया और फरवरी, 2022 में उसी दिन रूसी राष्ट्रपति से मुलाक़ात की, जिस दिन रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया था.[54] इमरान ख़ान के विवादास्पद क़दमों से व्यथित पाकिस्तानी सेना अमेरिका के साथ संबंधों को बहाल करने के लिए और अधिक उत्सुक हो गई.[55] जैसा कि राजनीतिक विज्ञानी फहद हुमायूं बताते हैं कि पाकिस्तानी सेना नहीं चाहती है कि देश “महाशक्तियों की राजनीति का शिकार हो जाए, जो कि अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के राष्ट्रीय प्रयासों को ख़तरे में डाल सकता है.”[56] यह सब फिर यही दर्शाता है कि क्षेत्रीय सुरक्षा की हलचलों को लेकर पाकिस्तान की ढीली प्रतिक्रिया, या फिर यह कहना उपयुक्त होगा कि पाकिस्तान की चुप्पी के लिए उसकी आर्थिक समस्याएं अधिक ज़िम्मेदार हैं.
इसी वर्ष मार्च और अप्रैल के महीने में इमरान ख़ान के शिखर से ज़मीन पर गिरने के बाद, आख़िरकार पीएमएल-एन के शाहबाज़ शरीफ़ को सत्ता तक पहुंचा दिया. लेकिन अमेरिका और चीन के बीच पाकिस्तान का संतुलन कैसे आगे बढ़ेगा है और वह इससे क्या हासिल कर सकता है, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है.[57] घरेलू मोर्चे पर देखा जाए तो पाकिस्तान की नई सरकार कतई स्थिर हालात में नहीं है. इमरान ख़ान को अपदस्थ करने वाला बहुदलीय गठबंधन अब एक साथ नहीं रह सकता है, क्योंकि वो जिस उद्देश्य के लिए एकजुट हुए थे, अब वो मकसद उनकी प्राथमिकताओं में ही नहीं है. ख़ासकर देश को आर्थिक संकट से निजात दिलाने, वर्ष 2023 में नए चुनाव की संभावना तलाशने और आंतरिक सुरक्षा के बिगड़ते मसलों से निपटने के संबंध में.[58] इससे भी अधिक चिंता वाली बात यह है कि इमरान ख़ान और उनके समर्थकों का यह कहना कि उनकी सत्ता से बेदख़ली अमेरिकी हस्तक्षेप का नतीज़ा था.[59] यह एक ऐसा नैरेटिव है, जो पाकिस्तान में लंबे समय से चली आ रही अमेरिका विरोधी भावना पर आधारित है. एक और अहम बात यह है कि खुलेआम सेना की आलोचना करने के लिए यह भावना इमरान ख़ान के समर्थकों के लिए अपने पक्ष में माहौल बनाने में मददगार के तौर पर कार्य करती है.[60] ज़ाहिर है कि यह सब ना केवल पाकिस्तान के घरेलू राजनीतिक माहौल को और ज़हरीला बना सकता है, बल्कि शरीफ़ सरकार को अमेरिका के साथ पूरी तरह से जुड़ने के मुद्दे पर हतोत्साहित भी कर सकता है.[61]
जहां तक विदेशी संबंधों और जुड़ाव का सवाल है तो शहबाज़ शरीफ़ ने अमेरिका के साथ संबंधों को फिर से बनाने में अपनी दिलचस्पी दिखाने में जरा सी भी देरी नहीं की है.[62] लेकिन इस्लामाबाद के साथ वाशिंगटन की जो तल्ख़ी है या फिर जो नाराज़गी है, उमसें फिलहाल उस हद तक कमी होने की कोई संभावना नहीं है, जिसकी पाकिस्तानी हितधारकों को उम्मीद है.[63] साथ ही, दूसरी तरफ शरीफ़ ने प्रधानमंत्री घोषित होने के कुछ ही मिनटों के भीतर सीपीईसी को पुनर्जीवित करने के अपने इरादे की घोषणा कर यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पाकिस्तान के चीन से दूर जाने की कोई संभावना नहीं है.[64]
जहां तक विदेशी संबंधों और जुड़ाव का सवाल है तो शहबाज़ शरीफ़ ने अमेरिका के साथ संबंधों को फिर से बनाने में अपनी दिलचस्पी दिखाने में जरा सी भी देरी नहीं की है. लेकिन इस्लामाबाद के साथ वाशिंगटन की जो तल्ख़ी है या फिर जो नाराज़गी है, उमसें फिलहाल उस हद तक कमी होने की कोई संभावना नहीं है, जिसकी पाकिस्तानी हितधारकों को उम्मीद है.
ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि संबंधों को फिर से स्थापित करने की इस प्रक्रिया का क्या असर दिखेगा और पाकिस्तान अपने व्यापक स्तर पर संतुलन बनाए रखने के प्रयासों से वास्तविकता में क्या हासिल करने की उम्मीद कर सकता है. दक्षिण एशिया की प्रतिस्पर्धा में ख़ुद को उलझाने के बजाए, फिलहाल पाकिस्तानी नीति निर्माताओं और हितधारकों के पास देश के सामने मुंह बाए खड़ीं घरेलू समस्याओं को हल करने या कम से कम उन समस्याओं के असर को कम करने की चुनौती है. पाकिस्तान की घरेलू सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और विदेश नीति की जटिल समस्याएं चीन के साथ तनाव बढ़ने की स्थिति में भारत के लिए संभावित ख़तरे को समाप्त नहीं करती हैं. हालांकि, जब तक पाकिस्तान इन भयावह स्थियों से जूझता रहता है और फिलहाल वहां का जो परिदृश्य है, वो स्पष्ट संकेत दे रहा है कि पाकिस्तान में मुश्किलों का यह दौर जारी रहेगा. फिलहाल पाकिस्तान इन सबको लेकर केवल झुंझला ही सकता है और इसके अलावा वह कर भी क्या सकता है.
2. बांग्लादेश
‘सभी से मित्रता और किसी के प्रति द्वेष नहीं‘ की स्थायी नीति
दिलवर हुसैन
दक्षिण एशियाई देश, चीन और भारत के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा के नतीज़ों को लेकर कुछ गंभीर शंकाएं और चिंताएं व्यक्त करते हैं. मीडिया रिपोर्टों, सरकारी नीतिगत दस्तावेज़ों और स्वतंत्र विश्लेषणों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह क्षेत्र दो एशियाई शक्तियों के बीच बढ़ती खाई से पैदा हुई नई राजनयिक चुनौतियों का सामना कर रहा है. ये चुनौतियां सैन्य, आर्थिक और राजनयिक तनावों के रूप में साफ दिखाई देती हैं. हाल के वर्षों में डोकलाम संकट और गलवान घाटी संघर्ष, व्यापार विवाद और एक विश्वास में कमी के रूप में यह तनाव स्पष्ट रूप से दिखाई दिया है. इन सारे तनावों के मध्य बांग्लादेश, दोनों देशों यानी भारत और चीन के साथ एक संतुलित संबंध बनाने के लिए दृढ़ संकल्पित है और अपने हिसाब से या कहें कि अपने फ़ायदे के आधार पर उनके साथ संबंधों को आगे बढ़ा रहा है.
बांग्लादेश, भारत और चीन दोनों के साथ ही अपने संबंधों को महत्त्व देता है. बांग्लादेश का रणनीतिक रूप से अहम स्थान पर है. इसके उत्तर में चीन और पश्चिम व पूर्व में भारत है. इसके साथ ही यह बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर क्षेत्र के निकट है. बांग्लादेश ने पिछले एक दशक में उल्लेखनीय सामाजिक आर्थिक प्रगति भी दर्ज़ की है. इसलिए यह भारत और चीन के साथ-साथ ऐसी अन्य क्षेत्रीय और इस रीजन से बाहर की शक्तियों के लिए महत्वपूर्ण हो गया है, जिनका इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. सच्चाई यह है कि इस क्षेत्र में चल रही तमाम पहलों और गतिविधियों ने बांग्लादेश के बढ़ते भू-राजनीतिक महत्व के कारण, उसे चर्चा में ला दिया है. इनमें जापान की बे ऑफ बंगाल इंडस्ट्रियल ग्रोथ बेल्ट (BIG-B) पहल, चीन का बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और भारत की सागरमाला (क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा और विकास)/नयादिशा नीति और एक्ट ईस्ट पॉलिसी शामिल हैं.
बांग्लादेश, भारत और चीन दोनों के साथ ही अपने संबंधों को महत्त्व देता है. बांग्लादेश का रणनीतिक रूप से अहम स्थान पर है. इसके उत्तर में चीन और पश्चिम व पूर्व में भारत है. इसके साथ ही यह बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर क्षेत्र के निकट है. बांग्लादेश ने पिछले एक दशक में उल्लेखनीय सामाजिक आर्थिक प्रगति भी दर्ज़ की है. इसलिए यह भारत और चीन के साथ-साथ ऐसी अन्य क्षेत्रीय और इस रीजन से बाहर की शक्तियों के लिए महत्वपूर्ण हो गया है, जिनका इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है.
चीन और भारत की प्रतिस्पर्धा ना केवल बांग्लादेश की विदेश नीति और रणनीतिक स्थिति को प्रभावित करती है, बल्कि वहां के लोगों की धारणाओं और नज़रिए को भी स्पष्ट रूप से प्रभावित करती है.[65] बांग्लादेश दोनों शक्तियों के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूत करने के लिए एक सक्रिय दृष्टिकोण को अपना रहा है और इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित कर रहा कि इनकी प्रतिद्वंद्विता से एक संतुलित तरीक़े से कैसे निपटा जाए. इस संदर्भ में प्रधानमंत्री शेख हसीना का नेतृत्व बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है. प्रधानमंत्री शेख हसीना के नेतृत्व के अंतर्गत बांग्लादेश अपने संस्थापक बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान द्वारा स्थापित किए गए विदेश नीति के सिद्धांत के लिए प्रतिबद्ध है. यह सिद्धांत स्पष्ट रूप से कहता है, “सभी से दोस्ती और किसी से भी दुश्मनी नहीं.”
वर्ष 2019 में, प्रधानमंत्री को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था: इसमें क्या समस्या है (चीन और भारत दोनों के साथ संबंध बनाए रखने में)? हमारे सभी पड़ोसियों के साथ संबंध हैं. बांग्लादेश की किसी के साथ कोई दुश्मनी नहीं है, क्योंकि हम राष्ट्रपिता बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान द्वारा दिखाए गए रास्ते पर चल रहे हैं. हम ‘सब से मित्रता, किसी से द्वेष नहीं’ की नीति का पालन करके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आगे बढ़ रहे हैं.[66]
भारत और चीन दोनों ही बांग्लादेश के प्रमुख विकास भागीदार देश हैं. चीन, बांग्लादेश का सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है, जबकि भारत दूसरा सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है. बांग्लादेश में भी दोनों देश उल्लेखनीय आर्थिक गतिविधियों में संलग्न हैं. राजनीतिक और कूटनीतिक मोर्चों की बात करें, तो बांग्लादेश को दोनों देशों के साथ उच्च स्तर का भरोसा और विश्वास मिला हुआ है. बांग्लादेश दोनों देशों के साथ समुद्री क्षेत्र समेत हर स्तर पर सुरक्षा सहयोग में हिस्सेदार बना हुआ है. हालांकि ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो चीन ने द्विपक्षीय संबंधों के तहत बांग्लादेश को हथियार और सैन्य साज़ो-सामान उपलब्ध कराए हैं. लेकिन भारत के साथ भी उसका उग्रवाद, सीमा पार आतंकवाद, सीमा सुरक्षा और सीमा प्रबंधन जैसे सुरक्षा मुद्दों पर व्यापक सहयोग है.
बहुपक्षीय मोर्चे की बात करें तो बांग्लादेश कई क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत और चीन के साथ जुड़ा हुआ है. भारत के साथ बांग्लादेश कई क्षेत्रीय और उप-क्षेत्रीय मंचों, जैसे – दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC), बंगाल की खाड़ी बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल (BIMSTEC), बांग्लादेश, चीन, भारत और म्यांमार (BCIM), हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (IORA), आसियान क्षेत्रीय फोरम (ARF) और बांग्लादेश, भूटान, भारत और नेपाल (BBIN) समूह पर काम करता है. निश्चित रूप से, बांग्लादेश और अन्य दक्षिण एशियाई एवं दक्षिण पूर्व एशियाई भागीदार देशों को शामिल करते हुए भारत इस क्षेत्र की बढ़ती प्रगति में हर तरह से प्रमुख भूमिका निभा रहा है. भारत और चीन के बीच लद्दाख संकट के संदर्भ में, बांग्लादेश ने आशा व्यक्त की है कि दोनों तनाव की स्थिति को कम करेंगे और बातचीत के माध्यम से आपसी विवादों का समाधान करेंगे.[67]
अपने-अपने हिसाब से चीन और भारत दोनों ही यह मानते हैं कि बांग्लादेश अपने विशाल भू-रणनीतिक स्थान और व्यावहारिक विदेश नीति के दृष्टिकोण से चीन और भारत के बीच पुल का काम कर सकता है. हालांकि, जैसे कि बांग्लादेश, भारत और चीन के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ावा देता है, तो कुछ मुद्दे हैं, जो सामने आते हैं. ये मुद्दे उनके बीच त्रिकोणीय संबंधों को प्रभावित करते हैं.
बांग्लादेश-चीन संबंध
बांग्लादेश-चीन संबंधों के मौजूदा संदर्भ में परेशानी पैदा करने वाले चार मुद्दे प्रमुख हैं. बांग्लादेश में सिविल सोसाइटी का एक वर्ग बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के भविष्य को लेकर चिंतित है, क्योंकि यह क्षेत्र और उसके बाहर भू-राजनीतिक विस्तार से जुड़ा हुआ है. रूस-यूक्रेन संघर्ष और वैश्विक शक्तियों के बीच तमाम तरह की प्रतिद्वंद्विता इस तरह की चिंताओं को और गहरा कर देती है. बांग्लादेश के विश्लेषकों का कहना है कि देश को केवल बीआरआई तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि राष्ट्रीय हितों से जुड़ी अन्य पहलों में भी दिलस्चपी दिखानी चाहिए.
दूसरी चुनौती यह है कि बांग्लादेश का मित्र होने के नाते चीन संयुक्त राष्ट्र में रोहिंग्या संकट के मुद्दे पर म्यांमार शासन का पक्ष लेता रहा है, जबकि उसने एक समाधान खोजने के लिए इस मुद्दे पर अपना समर्थन व्यक्त किया है. तीसरा मुद्दा उससे संबंधित है, जिसे विश्लेषक ‘ऋण जाल’ कहते हैं: पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल और मालदीव जैसे देशों में बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में चीन द्वारा की गई वित्तीय मदद को उन देशों में कुछ न कुछ आर्थिक दुश्वारियों को बढ़ाने वाला माना जाता है.[68] अंत में, बांग्लादेश पिछले कई वर्षों से लगातार बढ़ते व्यापार घाटे का सामना कर रहा है. वित्तीय वर्ष 2017-18 में बांग्लादेश का व्यापार घाटा 11.01 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आंका गया था और तब से यह हर साल बढ़ रहा है.[69] यह व्यापार असंतुलन बांग्लादेश और चीन के बीच पारस्परिक रूप से लाभकारी आर्थिक साझेदारी के लिए एक बड़ी बाधा है.
बांग्लादेश-भारत संबंध
वर्ष 2009 के बाद की अवधि के दौरान बांग्लादेश और भारत के आपसी संबंधों में मज़बूती के बावजूद, कुछ ऐसे अनसुलझे मुद्दे हैं जिन पर दोनों देशों को ध्यान देने की ज़रूरत है. पहला, 54 अंतरराष्ट्रीय नदियों के पानी और जल संसाधनों का बंटवारा एवं प्रबंधन बांग्लादेश के लिए चिंता का विषय है.[70] प्रस्तावित तीस्ता जल बंटवारा समझौता इसी का उदाहरण है. दूसरा मुद्दा यह है कि जनता तब असहज महसूस करती है, जब मीडिया रिपोर्टों में उल्लेख किया जाता है कि भारत में कुछ राजनीतिक नेता बांग्लादेश को ख़तरे के स्रोत के रूप में संदर्भित करते हैं, वो भी दोनों देशों के मध्य आपसी गर्मजोशी भरे संबंध और समझ के मौजूदा स्तर के बावज़ूद. तीसरा, सीमा पर शांति कायम रखने का प्रयास बांग्लादेश के लोगों की आम अवधारणा है. दोनों देशों ने लंबे समय से चले आ रहे भूमि और समुद्री सीमा विवादों के समाधान के जरिए अपने सीमा संबंधों में काफ़ी हद तक बदलाव किया है, जो मिसाल पेश करने वाला है. हालांकि, नशीले पदार्थों की तस्करी, सीमा पार आतंकवादी संपर्क, मानव तस्करी और सीमा पर हत्याओं सहित कई चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं.
चिंता का चौथा विषय है, भारत के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) से संबंधित मुद्दे. इन मुद्दों ने बांग्लादेश के लोगों के बीच बैचेनी पैदा कर दी है. हालांकि, यह मुद्दा पिछले एक दशक में बांग्लादेश-भारत के औपचारिक संबंधों में कोई ख़ास प्रमुखता हासिल नहीं कर पाया है. पांचवी चुनौती म्यांमार से विस्थापित हुए 11 लाख से अधिक रोहिंग्याओं के आने से बड़े पैमाने पर पैदा हुआ मानवीय संकट है. इस संकट की व्यापकता को देखते हुए बांग्लादेश की जनता को उम्मीद है कि भारत उनके देश को और अधिक राजनयिक समर्थन प्रदान करेगा. और अंत में, भारत से लाइन ऑफ क्रेडिट (एलओसी) यानी पैसे का एक ऐसा पूल जिसे आप ज़रूरत पड़ने पर किसी ऋणदाता से उधार ले सकते हैं, के भुगतान की धीमी गति भी बांग्लादेशी लोगों की चिंता की एक बड़ी वजह है. इसके साथ-साथ यह देश के भीतर इन्फ्रास्ट्रक्चर की समस्याओं को दूर करने में अवरोध पैदा कर रहा है, क्योंकि कनेक्टिविटी बांग्लादेश और भारत दोनों की सर्वोच्च प्राथमिकता है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत और चीन दोनों के साथ बांग्लादेश के दोस्ताना और मज़बूत संबंध हैं. बांग्लादेश के लोग भी रूस-यूक्रेन संघर्ष के संबंध में तटस्थता के आधार पर भारत और चीन के समान रुख को सकारात्मक रूप से देखते हैं. विशेष रूप से, भारत ने पश्चिमी दुनिया के साथ अपने संबंधों को देखते हुए अपना एक स्वतंत्र रुख जताया है. भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर कूटनीति के एक नए ब्रांड का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसे भारत के लिए एक “मध्य मार्ग” कहा जा सकता है. भारत का यह रुख उसे इस क्षेत्र और इससे भी आगे सहयोग और साझेदारी के लिए व्यापक स्तर पर स्थान प्रदान करता है.
बांग्लादेश की राजनीति के भीतर संदेह की दृष्टि रखने वाले लोग भारत और चीन दोनों के साथ द्विपक्षीय संबंधों को बरक़रार रखने में जो चिंताएं और चुनौतियां हैं, उनका लाभ उठाने के लिए दोनों देशों के साथ गहरे द्विपक्षीय संबंधों के विरोध में बहस करते हैं. इस सबके बावज़ूद बांग्लादेश विकास के महत्त्व और आर्थिक कूटनीति के आधार पर दोनों देशों के साथ समान रूप से संबंध बनाए हुए है. प्रधानमंत्री शेख हसीना के नेतृत्व ने देश की द्विपक्षीय साझेदारियों को विकसित करने के लिए एक संतुलित और शांतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने का दृढ़ संकल्प दिखाया है. चाहे बीजिंग में हों या नई दिल्ली में, प्रधानमंत्री हसीना ने कभी भी इस बात पर ज़ोर देने में संकोच नहीं किया है कि इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक चुनौतियों का सामना व समाधान दोस्ती और सहयोग के माध्यम से ही किया जाना चाहिए.[71]
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत और चीन दोनों के साथ बांग्लादेश के दोस्ताना और मज़बूत संबंध हैं. बांग्लादेश के लोग भी रूस-यूक्रेन संघर्ष के संबंध में तटस्थता के आधार पर भारत और चीन के समान रुख को सकारात्मक रूप से देखते हैं. विशेष रूप से, भारत ने पश्चिमी दुनिया के साथ अपने संबंधों को देखते हुए अपना एक स्वतंत्र रुख जताया है. भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर कूटनीति के एक नए ब्रांड का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसे भारत के लिए एक “मध्य मार्ग” कहा जा सकता है. भारत का यह रुख उसे इस क्षेत्र और इससे भी आगे सहयोग और साझेदारी के लिए व्यापक स्तर पर स्थान प्रदान करता है. इस संबंध में अगर बांग्लादेश की बात करें, तो वहां के विदेश मंत्री ए के अब्दुल मोमन ने भारत और चीन के साथ बांग्लादेश के संबंधों की प्रकृति को इस प्रकार बताया, “बांग्लादेश का चीन के साथ आर्थिक संबंध है और उसका भारत के साथ ख़ूनका रिश्ता है. दोनों रिश्तों की किसी भी लिहाज से तुलना नहीं की जा सकती है.”[72] ज़ाहिर है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय शांति और विकास को बरक़रार रखने के लिए बांग्लादेश और भारत के बीच पारस्परिक संबंधों का एक महत्वपूर्ण योगदान है.
3. भूटान
एक दोस्ताना प्रतिस्पर्धा से मिलने वाले लाभ
अच्युत भंडारी
प्रस्तावना
प्रतिस्पर्धा स्वस्थ हो सकती है क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था की क्षमता में बढ़ोतरी होती है. वास्तव में यह एक सच्चाई है कि एक प्रभावशाली एवं दक्ष अर्थव्यवस्था ही एक अधिक उत्पादक और लाभकारी अर्थव्यवस्था है. कहने का तात्पर्य यह है कि बेहतर उत्पादक क्षमता से व्यापार और समृद्धि में बढ़ोतरी हो सकती है. भूटान के लिए यह इस तरह की प्रतिस्पर्धा है कि उसकी उम्मीदें अपने दोनों बड़े पड़ोसियों चीन और भारत के बीच बनी रहेंगी, जिनके साथ वो क्रमशः अपनी उत्तर और दक्षिण में सीमाएं साझा करता है. अगर देखा जाए तो भूटान एक लिहाज़ से आयात पर निर्भर है और श्रम, कौशल एवं प्रौद्योगिकी की कमी के कारण इसकी उत्पादकता का आधार बहुत प्रभावशाली नहीं है, यानी उत्पादकता काफ़ी कम है. ऐसे में निकट भविष्य में भी उसकी आयात पर निर्भरता इसी प्रकार बनी रहेगी. इसलिए, यदि भूटान के दो पड़ोसी देश शांति और स्थिरता के माहौल में प्रतिस्पर्धा करते हैं, तो यह उसके लिए लाभदायक साबित होगा, क्योंकि इस तरह की प्रतिस्पर्धा से वस्तुओं और सेवाओं की लागत स्वाभाविक रूप से कम हो जाती है.
राजनीतिक स्तर पर बात करें तो यह जानना ज़रूरी है कि भूटान के लोग भारत और चीन के बीच बढ़ती सामरिक और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बारे में और अपने छोटे से देश पर इसके प्रभावों को लेकर कैसा महसूस करते हैं? इस संदर्भ में प्रतिस्पर्धा को इस रूप में देखा जाना चाहिए कि हर देश, दूसरे पर वर्चस्व हासिल करने की कोशिश कर रहा है और इसलिए अपने राष्ट्रीय हितों के मद्देनज़र इस क्षेत्र में अधिक से अधिक दबदबा स्थापित करने का प्रयास कर रहा है.
भूटान के विदेशी संबंध
वर्ष 1971 में संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बनने के बाद से ही भूटान हमेशा अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा पर संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धांतों और उद्देश्यों का अनुपालन करता रहा है. यही वजह है कि राष्ट्रीय संप्रभुता, स्वतंत्रता, क्षेत्रीय अखंडता और अन्य देशों के आंतरिक मामलों में दख़लंदाज़ी नहीं करने जैसे मानदंड, फिर चाहे वो पड़ोसी देश हो या कोई अन्य देश, कूटनीति और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में इसके मज़बूत आधार का निर्माण करते हैं. इस प्रकार के सिद्धांत भूटान के बौद्ध मूल्यों से निकले हैं. ये मूल्य सभी सचेतन जीव-जंतुओं की रक्षा करना चाहते हैं, दूसरे सभी देशों और लोगों के साथ मित्रता और सद्भावना को बढ़ावा देते हैं और किसी भी प्रकार के विवाद और मतभेदों को बातचीत और पारस्परिक समझौतों के माध्यम से हल करने पर बल देते हैं. इसलिए भूटान का निरंतर प्रयास रहा है कि इस क्षेत्र में शांति और कल्याण को प्रभावित करने वाले किसी भी संघर्ष और विवाद से बचा जाए.
ब्रिटिश काल से ही भूटान के भारत के साथ स्थायी, मित्रतापूर्ण और पारस्परिक रूप से लाभप्रद संबंध बने हुए हैं. वर्ष 1950 में चीन के तिब्बत पर कब्ज़ा करने के बाद से भूटान व भारत और भी नज़दीक आ गए. इसकी वजह यह थी कि उस समय उत्तर की तरफ से चीनी विस्तार का विरोध करने के लिए और भूटान को खोलने के लिए इसकी बहुत ज़्यादा ज़रूरत थी. तब भूटान 1950 के दशक तक अनिवार्य रूप से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए स्वधोषित रूप से खुद पर थोपे गए अलगाव में रहा था. सांस्कृतिक और धार्मिक समानताओं के बावज़ूद स्वतंत्र तिब्बत के साथ भूटान के संबंध हमेशा सौहार्दपूर्ण नहीं रहे, क्योंकि 17वीं शताब्दी में तिब्बती आक्रमणों के कारण दोनों देशों का कम से कम तीन बार आमना-सामना हुआ था.[73] साझा संस्कृति और धर्म के बाद भी भूटान के लोगों ने व्यापार में तिब्बतियों के अहंकार और शोषणकारी मानसिकता के लिए उनका मज़ाक भी उड़ाया. सच्चाई यह है कि भूटान ने अपने व्यापार प्रतिनिधि को ल्हासा में तब तक तैनात किया, जब तक कि तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा नहीं हो गया.[74]
वर्ष 1950 में चीन के तिब्बत पर कब्ज़ा करने के बाद से भूटान व भारत और भी नज़दीक आ गए. इसकी वजह यह थी कि उस समय उत्तर की तरफ से चीनी विस्तार का विरोध करने के लिए और भूटान को खोलने के लिए इसकी बहुत ज़्यादा ज़रूरत थी. तब भूटान 1950 के दशक तक अनिवार्य रूप से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए स्वधोषित रूप से खुद पर थोपे गए अलगाव में रहा था.
तिब्बत में चीन द्वारा धार्मिक स्थलों का बड़े स्तर पर विनाश, मानवाधिकारों के व्यापक दमन और 14वें दलाई लामा समेत तिब्बती शरणार्थियों के पलायन से भूटान की सरकार और वहां के लोग बेहद नाराज़ थे. भारत की भांति ही भूटान ने भी सीमित संसाधनों के बावज़ूद सहानुभूति और सद्भावना प्रदर्शित करते हुए सैकड़ों तिब्बती शरणार्थियों को अपने देश में शरण दी. हालांकि, उनमें से कुछ शरणार्थी बाद में भारत चले गए, जबकि उनमें से कई ने भूटान को ही अपना घर बनाने और वहां के क़ानून के मुताबिक़ जीवन जीने का विकल्प चुना.
देखा जाए तो भूटान के लोग बहुत व्यवहारिक होते हैं. उन्हें लगता है कि चीन के बाहर रहने वाले तिब्बती समुदाय की उम्मीद के बावज़ूद तिब्बत के हालातों को अब बदला नहीं जा सकता है. ठीक इसी प्रकार, भूटान ने अपनी उत्तरी सीमा पर वास्तविकता को भी स्वीकार कर लिया है और चीन के साथ दोस्ताना संबंध बनाने के लिए आगे बढ़ गया है. भूटान के लोग एक देश के रूप में चीन और उसके नागरिकों के प्रति कोई दुर्भावना नहीं रखते हैं, बल्कि उनके लिए शांति और समृद्धि की कामना करते हैं. वर्तमान की बात करें तो आज बड़ी संख्या में चीनी सैलानी हर साल भूटान आते हैं। वर्ष 2015 में रिकॉर्ड संख्या में 9,399 चीनी पर्यटक भूटान आए थे, हालांकि बाद में वर्ष 2019 में कोविड -19 महामारी की शुरुआत से पहले यह आंकड़ा घटकर 7,353 हो गया.[75] इसी प्रकार, भूटान में चीन से आयात होने वाली उपभोक्ता वस्तुओं में लगातार वृद्धि हुई है, जो वर्ष 2020 में Nu.2.13 बिलियन (लगभग 30.33 मिलियन अमेरिकी डॉलर) तक पहुंच गया है. यह वर्ष 2019 में भारत के बाद दूसरे नंबर पर है. अपनी सीमित निर्यात क्षमता के कारण भूटान का चीन को निर्यात ना के बराबर रहा है. वर्ष 2016 में भूटान द्वारा चीन को निर्यात से अर्जित की गई सबसे अधिक राशि Nu. 8.50 मिलियन (126,507 अमेरिकी डॉलर) थी.[76]
भूटान क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खेल आयोजनों में हिस्सा लेकर चीन के साथ सांस्कृतिक मेलजोल में भी भागीदारी करता है. भूटान ने अपने देश में एक चीनी सांस्कृतिक दल का स्वागत भी किया है.
चुनौतियां
मज़बूत चीन-भूटान सहयोग की राह में आपस में जुड़े हुए तीन मुद्दे हैं. यह मुद्दे हैं, भारत-भूटान संबंधों की स्थिति, बीजिंग और थिम्पू के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना और दोनों देशों के बीच सीमा का निर्धारण.
भारत- भूटान संबंध
भूटान और भारत के बीच के संबंध वर्ष 2007 के भारत-भूटान मैत्री समझौते के अंतर्गत निर्धारित होते हैं. इस समझौते के अनुच्छेद 2 में यह प्रावधान है कि दोनों सरकारें “अपने राष्ट्रीय हितों से संबंधित मुद्दों पर एक-दूसरे के साथ मिलकर सहयोग करेंगी. कोई भी सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा और दूसरे के हितों को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों के लिए अपने क्षेत्र का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देगी.”
निम्नलिखित बिंदु संक्षेप में दोनों देशों के बीच व्यापक सहयोग के लिए प्राथमिक प्रेरणाओं को प्रकट करते हैं:
सीमित संसाधनों और विशेषज्ञता को देखते हुए और मैत्री समझौते की भावना का पालन करते हुए भूटान की सुरक्षा को मज़बूत करने में भारत उसका सहयोग करता है. भूटान अपनी तरफ से भारतीय क्षेत्र की सुरक्षा में उसका सहयोग करता है. उदाहरण के लिए वर्ष2003 मेंभूटान ने अपने क्षेत्र में छिपे भारतीय उग्रवादियों को खदेड़ दिया था.
भूटान की भौगोलिक स्थिति या फैलाव प्राकृतिक रूप से दक्षिण की ओर है. उत्तर दिशा में ऊंचे पहाड़ और दुर्गम इलाके चीन के साथ बेहतर परिवहन और संचार संपर्कों में बड़ी बाधा हैं. चारों तरफ भूमि से घिरे भूटान के लिए भारत के साथ व्यापार करना और कोलकाता में बंदरगाहों का उपयोग करके अपने क्षेत्र का बाक़ी दुनिया के साथ संपर्क स्थापित करना आसान है.
एक नए संवैधानिक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भूटान, भारत से संपर्क बनाने और बढ़ाने में सहज है. भारत ने ही वर्ष 2008 में लोकतंत्र की दिशा में भूटान के क़दम का पुरज़ोर समर्थन किया था. भारत ने संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भूटान की सदस्यता को प्रायोजित करके ना सिर्फ़ उसकी स्वतंत्रता और संप्रभुता को सुदृढ़ करने में मदद की है, बल्कि भूटान की अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण और विकास के लिए सहायता भी प्रदान की है. भारत भूटान का सबसे बड़ा विकास भागीदार बना हुआ है.
भारत-भूटान सहयोग में सुरक्षा के अतिरिक्त और भी कई दूसरे क्षेत्र शामिल हैं, लेकिन हाइड्रो पॉवर के साथ-साथ परिवहन और संचार के क्षेत्रों में सहयोग अब तक सबसे ज़्यादा दिखने वाले और पारस्परिक रूप से लाभकारी क्षेत्र रहे हैं. भारत को पनबिजली का निर्यात अभी तक भूटान के लिए राजस्व का सबसे स्थायी स्रोत है. वर्ष 2020 में भूटान द्वारा पनबिजली के निर्यात से कुल Nu.27.832 बिलियन (375.35 मिलियन अमेरिकी डॉलर) का राजस्व अर्जित किया गया था.[77]
चीन-भूटान राजनयिक संबंध
रणनीतिक रूप से अहम भू-राजनीतिक स्थिति होने की वजह से भूटान ने महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता से दूरी बनाए रखने की अपनी एक दृढ़ नीति बनाई है और उस पर अमल भी कर रहा है. भूटान के अन्य ताक़तवर देशों या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के किसी स्थायी सदस्य राष्ट्र के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं हैं. हालांकि, इसका यह मतलब नहीं है कि राजनयिक संबंध नहीं होने पर इन देशों के साथ भूटान के मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं हो सकते हैं.
ज़ाहिर है कि चीन कई वर्षों से राजनयिक संबंध स्थापित करने के लिए भूटान को आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है. अज्ञात सूत्रों के मुताबिक़ एक समय ऐसा भी था, जब यह कहा जाता था कि सीमा विवादों का समाधान तभी होगा, जब बदले में थिंपू में बीजिंग की मौजूदगी सुनिश्चित होगी. ऐसा लगता है कि हाल ही में भूटान की दृढ़ स्थिति को देखते हुए चीन का यह प्रस्ताव बदल गया है. इसके विपरीत, चीन द्वारा अब सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण और मानव बस्तियों की बसावट दिखाई दे रही है.
सीमा का निर्धारण
भूटान और चीन हिमालय के साथ 764 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करते हैं. वर्ष 1984 से 2021 के मध्य चर्चाओं के 24 दौर और टेक्निकल ग्रुप की 10 बैठकों के बाद भी इसके समाधान की दिशा में प्रगति बेहद धीमी रही है. भूटान की सरकार वार्ता के परिणाम, या इसमें जो भी कमियां रही हैं, उनको लेकर पारदर्शी नहीं रही है. ज़ाहिर है कि यह मुद्दा भी बेहद संवेदनशील है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ सीमा पर दो ऐसे क्षेत्र हैं, जहां असहमति बनी हुई है, पहला पश्चिमी भाग में भारत के साथ लगा हुआ डोकलाम ट्राइजंक्शन क्षेत्र में 269 वर्ग किलोमीटर से अधिक का इलाक़ा, जहां वर्ष 2017 में भारत और चीन के बीच 73 दिनों तक वाद-विवाद चला था. और दूसरा, पूर्वी भाग में जकारलुंग और पासमलुंग में 495 वर्ग किमी से अधिक का क्षेत्र है.[78] वर्ष 2020 के जून महीने में चीन का सबसे ताज़ा दावा भूटानियों के लिए अधिक परेशानी पैदा करने वाला है.[79] चीन का कहना है कि भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश की सीमा से लगे पूर्वी भूटान में स्थित सकटेंग वन्यजीव अभयारण भी विवादित है. हालांकि, भूटान ने चीन के इस दावे को एक सिरे से ख़ारिज़ कर दिया है.
भविष्य की ओर नज़र
थिंपू में वर्ष 2021 में अपनी पिछली बैठक में तीन सूत्री समझौते में, भूटान और चीन ने सीमा वार्ता के समापन में तेज़ी लाने का निर्णय लिया. दोनों मानते हैं कि बिना किसी तय समय सीमा के सीमा वार्ता को आगे बढ़ाना किसी के भी हित में नहीं है.
हालांकि, डोकलाम पर छिड़े विवाद ने भूटान को अजीब सी स्थिति में डाल दिया है. डोकलाम के मुद्दे पर भूटान किसी भी पक्ष का विरोध नहीं करना चाहता है. हालांकि भारत के साथ सुरक्षा में उसका सहयोग बहुत अच्छा है. चीन को भारत के साथ भूटान के द्विपक्षीय संबंधों को स्वीकार करना चाहिए, जैसा कि उसने संयुक्त राष्ट्र में भूटान के शामिल होने के समय किया था.[80] भूटान में ऐसे लोग भी हैं, जो यह मानते हैं कि भूटान-चीन सीमा मुद्दे का समाधान, भारत और चीन के बीच उनकी विवादित सीमा पर इसी तरह के समझौते से जुड़ा हो सकता है. भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान निर्धारित मैकमोहन लाइन का भारत पालन करता है. हालांकि, चीन इसे नहीं मानता है और अपने इतिहास का हवाला देता है. चीन के इसी रवैये का नतीज़ा है कि वो अपने दावे को सही साबित करने के लिए सीमा पर भारत के साथ और अब भूटान के साथ भी विवादित क्षेत्रों में भूमि पर लगातार कब्ज़ा करता जा रहा है.
चीन ने भूटान और भारत के साथ लगी सीमा पर कनेक्टिविटी और मानव बस्तियों के लिए स्थायी बुनियादी ढांचा भी विकसित कर लिया है. इसकी वजह से भारत और चीन के बीच कभी-कभी सीमा पर झड़पें होती हैं. भारत-चीन के मध्य सबसे ताज़ा झड़प वर्ष 2020 में हुई है. भारत का कहना है कि जब तक चीनी द्वारा अपने सैनिकों को पहले की नियंत्रण रेखा पर वापस नहीं लाया जाता, तब तक द्विपक्षीय संबंधों में सुधार नहीं हो सकता है. ऐसे में आश्चर्य की बात यह है कि ऐसा लगता है कि भूटान और भारत दोनों पहले चीन के साथ अपने सीमा विवाद को समाप्त करने के लिए एक-दूसरे की ओर देख रहे हैं. यह भी संभव है कि भूटान के साथ कड़ा रुख़ अपनाकर चीन, भारत से अधिक छूट या सुविधाएं प्राप्त करना चाहता हो और राजनयिक संबंध बनाने को लेकर एक समझौते के लिए भूटान को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा हो. थिम्पू के नज़रिए से देखें तो चीन जैसे बड़े और ताक़तवर देश के लिए अपने दूसरे पड़ोसी से लाभ लेने के लिए ना तो भूटान का उपयोग करने का कोई मतलब है और ना ही चीन जैसे बड़े देश के लिए 764 वर्ग किलोमीटर भूमि पर विवाद पैदा करने का कोई मतलब है. इस तरह की रणनीति से चीन के अंतर्राष्ट्रीय कद में कोई बढ़ोतरी नहीं होने वाली है.
चीन ने भूटान और भारत के साथ लगी सीमा पर कनेक्टिविटी और मानव बस्तियों के लिए स्थायी बुनियादी ढांचा भी विकसित कर लिया है. इसकी वजह से भारत और चीन के बीच कभी-कभी सीमा पर झड़पें होती हैं. भारत-चीन के मध्य सबसे ताज़ा झड़प वर्ष 2020 में हुई है. भारत का कहना है कि जब तक चीनी द्वारा अपने सैनिकों को पहले की नियंत्रण रेखा पर वापस नहीं लाया जाता, तब तक द्विपक्षीय संबंधों में सुधार नहीं हो सकता है.
पूर्व में अरुणाचल प्रदेश समेत भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद के अलावा, भूटान हिंद महासागर और बड़े दक्षिण एशियाई क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्धा से भी चिंतित है. चारों तरफ भूमि से घिरे देश के रूप में भूटान के पास इस क्षेत्र से दूर व्यापार करने के लिए अपने समुद्री रास्ते के रूप में केवल बंगाल की खाड़ी है. यहां आवागमन के समुद्री रास्तों में किसी भी तरह के अवरोध से भूटान की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. इसलिए, भूटान हिंद महासागर में किसी महाशक्ति प्रतिद्वंद्विता का पक्षधर नहीं है. सच्चाई यह है कि भूटान ने 1970 के दशक से ही हिंद महासागर के ‘शांति के क्षेत्र’ के रूप में विचार का समर्थन किया है.
दक्षिण एशिया पहले से ही ऐतिहासिक विवादों समेत दूसरे अन्य तनावों से ग्रस्त है. ऐसे में इस क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित करने के लिए भारत और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा, सिर्फ़ इन हालातों को और पेचीदा ही बनाएगी. बेल्ट एंड रोड पहल (बीआरआई) और अन्य दूसरी परियोजनाओं के ज़रिए हाल के वर्षों में बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल और श्रीलंका में चीन के निवेश में ख़ासी बढ़ोतरी हुई है. नई दिल्ली इसे चिंता के साथ देखती है, क्योंकि यह स्थिति उसके प्रभाव क्षेत्र पर असर डाल सकती है. प्रतिद्वंद्विता न केवल इस क्षेत्र में अस्थिरिता ला सकती है, बल्कि शांति और सामाजिक-आर्थिक विकास को भी कमज़ोर कर सकती है. ज़ाहिर है कि इस तरह की घटनाओं को कोई भी देश देखना नहीं चाहेगा.
भूटान के लिए यह अति आवश्यक है कि भारत और चीन अपने सीमा विवादों को सुलझाएं और एक दूसरे का सहयोग करते हुए आगे बढ़ें. ऐसा करके ही दोनों देश वैश्विक मामलों में अपने प्रभाव को बढ़ा सकते हैं और एक तेज़ी से बदल रही एवं बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में अधिक संतुलित तरीक़े से अपना योगदान दे सकते हैं.
4. नेपाल
अपने क्षेत्र में प्रभाव की तलाश
दिनेश भट्टाराई
भारत-चीन के संबंधों में उथल-पुथल और तेज़ गिरावट ने नेपाल के माथे पर भी चिंता की लकीरें खींच दी हैं. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारत और चीन की प्रतिद्वंद्विता नेपाल के लिए फ़ायदेमंद साबित हो सकती है, क्योंकि भारत और चीन दोनों में निवेश के लिए होड़ होती है. हालांकि, सिर्फ़ यही अकेला मामला नहीं हो सकता है. नेपाल दोनों पड़ोसियों के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने की कोशिश में लगा हुआ है और उनके रिश्तों के बीच होने वाली हर हलचल पर पैनी नज़र बनाए हुए है.
हमेशा से ही नेपाल व्यापार और आवश्यक वस्तुओं की आवाजाही के साथ ही बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी के लिए भारत पर बहुत अधिक निर्भर रहा है. हालांकि, वर्ष 2015 की नेपाल नाकाबंदी, जिसे “भारत की बदतर और अप्रभावी पड़ोस कूटनीति का प्रतीक” कहा गया है, [81] ने दोनों देशों के संबंधों के मूल सिद्धांतों को प्रभावित किया. इस नाकाबंदी ने नेपाल की अर्थव्यवस्था को असहाय सा बना दिया था. इन्हीं परिस्थियों ने तब नेपाल को व्यापार और ट्रांजिट के लिए चीन की ओर रुख़ करने के लिए मजबूर किया. बीजिंग ने नेपाली लोगों की चिंता का बिना एक पल गंवाए फ़ायदा उठाया और नेपाल के साथ एक ट्रांज़िट प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए.
नेपाल के विदेश सचिव ने 12 मई, 2017 को चीन के राजदूत के साथ बीआरआई पर फ्रेमवर्क समझौते के लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे. इस एमओयू में बॉर्डर इकोनॉमिक जोन स्थापित करने और चीन-नेपाल ट्रांजिट रोड नेटवर्क के पुनर्निमाण की बात कही गई है.
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वर्ष 2017 में ऐलान किया था, “हमारे लिए यह विश्व में केंद्रीय भूमिका निभाने और पूरी मानवता के लिए एक बड़ा योगदान देने का समय है.”[82] सच्चाई भी यही है कि हाल के वर्षों में दक्षिण एशिया समेत पूरी दुनिया में चीन की उपस्थिति, प्रभाव और ताक़त में बढ़ोतरी हुई है. हिमालय की चोटियों से लेकर, दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर तक के क्षेत्र चीन और दूसरी वैश्विक ताक़तों की निगाहों में आ रहे हैं.
नेपाल के विदेश सचिव ने 12 मई, 2017 को चीन के राजदूत के साथ बीआरआई पर फ्रेमवर्क समझौते के लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे. इस एमओयू में बॉर्डर इकोनॉमिक जोन स्थापित करने और चीन-नेपाल ट्रांजिट रोड नेटवर्क के पुनर्निमाण की बात कही गई है. इस समझौते का उद्देश्य,”ट्रांज़िट परिवहन, लॉजिस्टिक्स तंत्र, परिवहन नेटवर्क और रेलवे, सड़क, नागरिक उड्डयन, पावर ग्रिड एवं सूचना और संचार जैसे बुनियादी ढांचे से संबंधित विकास समेत कनेक्टिविटी क्षेत्रों में सहयोग को मज़बूत करना” था.[83] इसके साथ ही इस समझौते का उद्देश्य नेपाल और चीन को सड़क संपर्क के माध्यम से नज़दीक लाना और चीनी निवेश को बढ़ाना था. एमओयू पर हस्ताक्षर को “नेपाल के विकास के प्रयास के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि” और “विदेशी निवेश व व्यापार बढ़ाने के क्षेत्र में एक नए अध्याय” के रूप में प्रचारित किया गया था.[84] यह भी कहा गया था कि यह एमओयू नेपाल में बहुत आवश्यक कनेक्टिविटी, निवेश और आर्थिक विकास के अवसर ला सकता है. इसके पश्चात, नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली ने नेपाल और चीन के बीच रेलवे, जल विद्युत परियोजनाओं, सीमा पार ट्रांसमिशन लाइनों और कनेक्टिविटी से जुड़े दूसरे इन्फ्रास्ट्रक्चर के महत्त्व को रेखांकित किया.[85] उन्होंने आगे कहा, “नेपाल विश्व स्तर पर राजनीतिक और आर्थिक रूप से चीन के बढ़ते दबदबे को देखकर गर्व महसूस करता है. एक न्यायसंगत और समान विश्व व्यवस्था के लिए वैश्विक एजेंडे को मूर्तरूप देने में चीन की भूमिका बेहद अहम.”[86]
नेपाल के प्रधानमंत्री के पी ओली ने जून, 2018 में चीन के दौरे के समय सड़कों, बंदरगाहों और रेलवे के साथ-साथ विमानन और संचार में कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए बीआरआई के तहत वित्त पोषित होने वाली 35 परियोजनाओं की सूची प्रस्तुत की थी.[87] तब चीन ने परियोजनाओं की संख्या को घटाकर 9 करने की सलाह दी थी. राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वर्ष 2019 में नेपाल का दौरा किया था. यह 23 साल के बाद किसी चीनी राष्ट्रपति का नेपाल दौरा था. शी जिनपिंग का यह दौरा चीन और नेपाल के द्विपक्षीय संबंधों को एक नए चरण में ले गया. इस दौरे में चीन-नेपाल कंप्रहेंसिव पार्टनरशिप ऑफ कोऑपरेशन के अंतर्गत दोनों देशों ने 20 समझौतों पर हस्ताक्षर किए. इसके साथ ही अपनी ‘हमेशा चलने वाली मित्रता’ को ‘विकास और समृद्धि के लिए सहयोग की रणनीतिक साझेदारी’ तक बढ़ाने का संकल्प लिया. [88] चीनी राष्ट्रपति ने नेपाल को “लैंड-लिंक्ड” बनने में मदद करने का भी वादा किया.
हालांकि, तब से कुछ वर्षों के बाद आज स्थिति यह है कि बीआरआई परियोजनाओं में बहुत कम प्रगति हुई है. मार्च, 2022 में दौरे पर आए चीन के विदेश मंत्री को नेपाल ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि वह ऋण के बजाय चीन से अधिक अनुदान चाहता है. नेपाल ने “पहले से चल रहीं परियोजनाओं को पूरा करने में तेज़ी लाने के लिए ठोस प्रयासों की आवश्यकता” पर भी ज़ोर दिया.[89]
भले ही इन निवेश प्रस्तावों पर काम हो या ना हो, लेकिन इन्हें नई दिल्ली के लिए एक ख़तरे के रूप में देखा जाता है. नेपाल को अपने बड़े सुरक्षा ढांचे में लाकर भारत की मंशा इस क्षेत्र में अपनी मज़बूत स्थिति बरक़रार रखने की है. इसके लिए भारत ने बुनियादी सुविधाओं, कनेक्टिविटी, बिजली और ऊर्जा क्षेत्र में निवेश को तेज़ किया है. दशकों से नेपाल में निवेश करने के दौरान, नई दिल्ली अब द्विपक्षीय परियोजनाओं को पूरा करने में क़ामयाब रही है. भारत, हिमालयी क्षेत्र में रणनीतिक कनेक्टिविटी गलियारों को ध्यान में रखते हुए नेपाल की विकास यात्रा में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए उत्सुक लग रहा है, क्योंकि यह दोनों देशों की पारस्परिक निर्भरता और सह-अस्तित्व की भावना को पूरा भी करता है और आगे भी बढ़ाता है.
भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मई, 2022 में नेपाल यात्रा के दौरान नेपाली पीएम शेर बहादुर देउबा के साथ महत्वपूर्ण द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर किए. ये समझौते सॉफ्ट पावर, सांस्कृतिक और शैक्षिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के साथ ही सबसे महत्वपूर्ण रूप से जलविद्युत के लिए अरुण 4 परियोजना के विकास पर केंद्रित थे.
भारत और नेपाल ने नवंबर, 2020 में नेपालगंज में तीसरे एकीकृत चेक पोस्ट (ICP) के निर्माण का शुभारंभ किया.[90] जून महीने के पहले सप्ताह में नेपाल विद्युत प्राधिकरण ने अपने कालीगंडकी हाइड्रोपॉवर प्लांट से भारत को अतिरिक्त 144 मेगावाट बिजली का निर्यात शुरू किया है.[91] भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मई, 2022 में नेपाल यात्रा के दौरान नेपाली पीएम शेर बहादुर देउबा के साथ महत्वपूर्ण द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर किए. ये समझौते सॉफ्ट पावर, सांस्कृतिक और शैक्षिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के साथ ही सबसे महत्वपूर्ण रूप से जलविद्युत के लिए अरुण 4 परियोजना के विकास पर केंद्रित थे.[92] इससे पहले, विद्युत क्षेत्र में पारस्परिक रूप से लाभकारी द्विपक्षीय सहयोग के विस्तार और उसे आगे ज़्यादा मज़बूत करने के लिए विद्युत क्षेत्र सहयोग पर एक संयुक्त विज़न स्टेटमेंट जारी किया गया था. इस विज़न स्टेटमेंट में शामिल हैं: (ए) नेपाल में बिजली उत्पादन परियोजनाओं का संयुक्त विकास; (बी) सीमा पार ट्रांसमिशन इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास; (सी) दोनों देशों में बिजली बाज़ारों तक उचित पहुंच के साथ द्वि-दिशात्मक बिजली व्यापार; (डी) राष्ट्रीय ग्रिड का समन्वित संचालन और (ई) नवीनतम परिचालन सूचना, प्रौद्योगिकी एवं जानकारी साझा करने में संस्थागत सहयोग.[93]
भारत और चीन के बीच स्थित नेपाल “एशिया का भू-राजनीतिक केंद्रीय स्थल” बनाता है.[94] नेपाल की भू-रणनीतिक स्थिति और भारत और चीन के बीच बढ़ रही प्रतिस्पर्धा के मध्य संयुक्त राज्य अमेरिका भी इसमें जुड़ गया है. भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन को शामिल करना अमेरिका की प्राथमिकता रही है. फिलहाल अमेरिका और चीन के बीच बढ़ता तनाव नेपाल तक पहुंच गया है. यह तब दिखाई दिया, जब अमेरिका द्वारा नेपाल को विकास कार्यों के लिए 500 मिलियन डॉलर के अनुदान को चीन की तरफ से “ज़बरदस्ती की कूटनीति” यानी धमकी भरी कूटनीति के तौर पर संदर्भित किया गया. बीजिंग ने पूछा कि क्या कोई उपहार “अंतिम चेतावनी के पैकेज के साथ आता है? ऐसे ‘उपहार’ को कोई कैसे स्वीकार कर सकता है? यह उपहार है या भानुमती का पिटारा?”[95] इसके पीछे कुछ साज़िश की कोशिशें भी थीं, जैसे “नेपाल की धरती पर अमेरिकी सैनिकों की तैनाती.” हालांकि, ये सब “चीन प्रायोजित दुष्प्रचार अभियान”[96] थे और चीन के “भड़काऊ दुष्प्रचार” का हिस्सा थे.[97] इस बीच ऐसा लग रहा है कि भारत अमेरिका-चीन के टकराव को क़रीब से देख रहा है, क्योंकि भारत, नेपाल में चीन के प्रभाव को कम करने के लिए अपने हितों को संरक्षित करने में जुट गया है.
महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा और घरेलू राजनीति
इन प्रतिस्पर्धात्मक निवेशों, ट्रांज़िट सुविधाओं और दूसरे अवसरों ने नेपाल की आर्थिक वृद्धि और निवेश के मामले में कुछ प्रगति हासिल करने में सहायता की है. हालांकि, नेपाल की घरेलू राजनीति पर भी इसका गहरा असर पड़ा है. उदाहरण के लिए, नेपाल में भारत विरोधी विचारों और भावनाओं में बढ़ोतरी हुई है, जो चुनावों के दौरान ज़्यादा दिखाई देती है. इसके साथ ही चीन ने भी नेपाल के आंतरिक मामलों में गहरी दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया है.
के.पी. ओली ने वर्ष 2017 का चुनाव भारत विरोधी माहौल बनाकर जीता था, ज़ाहिर है कि वर्ष 2015 में नेपाल की नाकाबंदी के बाद वहां भारत विरोधी माहौल में ख़ासी बढ़ोतरी हुई थी. चुनाव में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) की जीत और उसके सत्ता में आने के साथ ही चीन को लगने लगा कि उसने “व्यापक स्तर पर निवेश और इन्फ्रास्ट्रक्चर की परियोजनाओं के साथ ना सिर्फ़ अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज़ की है, बल्कि नेपाल में अपने राजनीतिक प्रभाव को भी बढ़ाया है.”[98] वर्ष 2018 में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) का गठन पूर्व पीएम ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनीफाइड मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और पूर्व गुरिल्ला नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के विलय से हुआ था. चीन ने दोनों पार्टियों के विलय का स्वागत किया था और आशा व्यक्त की थी कि नेपाल अपने राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों को शीघ्र से शीघ्र हासिल कर सकता है.”[99] चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने आगे कहा, “एक अच्छे पड़ोसी और नेपाल के अच्छे मित्र के रूप में चीन स्वतंत्र रूप से अपनी राष्ट्रीय परिस्थितियों के हिसाब से सामाजिक व्यवस्था और विकास का मार्ग चुनने में नेपाल का समर्थन करता है” और “दोनों देशों और उनके नागरिकों को अधिक से अधिक लाभ पहुंचाने के लिए नेपाल के साथ पारस्परिक रूप से लाभकारी सहयोग को मज़बूती देने के लिए तत्पर है.”
सितंबर, 2019 में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) ने छह सूत्रीय द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत, “सीपीसी के अंतर्राष्ट्रीय विभाग के प्रमुख सोंग ताओ और सीपीसी के अन्य अधिकारियों ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के विचारों के बारे अवगत कराने के लिए लगभग 200 एनसीपी नेताओं को ‘प्रशिक्षण’ दिया.”[100] हालांकि, एनसीपी की एकता ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई. नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में एनसीपी के नाम को अमान्य घोषित करके करारा झटका दे दिया. सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के पश्चात वही पहले वाली स्थिति फिर से लौट आई, जो दोनों दलों के विलय से पहले मौजूद थी.
ऐसी ख़बरें भी सामने आई हैं कि वर्ष 2022 के अंत में होने वाले चुनावों के लिए इन दोनों पार्टियों को फिर से एक साथ लाने के नए सिरे से प्रयास किए जा रहे हैं. मार्च में नेपाल की दो कम्युनिस्ट पार्टियों- नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी-यूएमएल) और एनसीपी-माओवादी सेंटर के प्रतिनिधिमंडलों ने “सांस्कृतिक आदान-प्रदान और चिकित्सीय इलाज” के बहाने अलग-अलग चीन का दौरा किया था.[101] चीन ने कथित तौर पर दोनों प्रतिनिधिमंडलों को यह बता दिया था कि वह “नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों के विभिन्न गुटों को एक साथ देखना चाहता है.”[102] अभी हाल-फिलहाल में ही चीन ने यह स्पष्ट तौर पर कहा है कि उसकी “नेपाल के प्रति मित्रता की एक स्थाई नीति है, यानी उसकी नीति है नेपाल में सभी राजनीतिक पार्टियों के साथ दोस्ताना और सहयोगात्मक संबंध बरक़रार रखना और उन संबंधों को विकसित करना.”[103]
स्वस्थ संतुलन बनाने का नेपाल का उद्देश्य
एशिया के भविष्य और वैश्विक शांति एवं स्थिरता के लिए चीन-भारत संबंध बेहद मायने रखते हैं. ये संबंध “इस बात के केंद्र में हैं कि क्या दुनिया अगली पीढ़ी के लिए एक स्वस्थ, समृद्ध, पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ भविष्य का निर्माण करने में सफल होती है.”[104] भारत और चीन की अनंत संभावनाएं और समस्याएं या तो पूरी दुनिया की प्रगति के लिए एक रचनात्मक ताक़त बनने में सक्षम हैं, या फिर एक ऐसा टकराव, संघर्ष और विद्रोह पैदा करने में सक्षम हैं, जिसका बाक़ी दुनिया पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा. नेपाल इन दो विशाल देशों के मध्य बैठा है और ख़ुद को एक भू-राजनीतिक हॉटस्पॉट में पाता है.
नेपाल की विदेश नीति में पड़ोसियों का अत्यधिक महत्त्व है. नेपाल की सबसे बड़ी और प्राथमिक चिंता अपनी संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करना है, साथ ही लोकतांत्रिक अनेकवाद के पूरे ढांचे के भीतर सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया को तेज़ करना है. अगर देखा जाए तो ऐसे मामलों में जहां नेपाल अधिक निवेश सहयोग से लाभान्वित हो सकता था, लेकिन इसके बजाए उसे निवेश प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है.
चीन और भारत के मध्य वर्तमान परिस्थियों में राजनयिक एकजुटता की संभावनाएं बेहद कम हैं, क्योंकि दोनों के बीच मतभेद अनसुलझे हैं. मार्च में, जब चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने दक्षिण एशियाई देशों का दौरा किया, तो उन्होंने प्रस्ताव दिया था कि सीमा से जुड़े मुद्दे पर मतभेदों को द्विपक्षीय संबंधों में “उचित स्थान” में रखा जाए. चीनी विदेश मंत्री ने भारत को आश्वासन देते हुए कहा था कि बीजिंग “एकध्रुवीय एशिया” नहीं चाहता है और इस क्षेत्र में भारत की पारंपरिक भूमिका का सम्मान करता है. उन्होंने यह भी कहा कि दोनों पक्षों को “सहयोगात्मक नज़रिए” के साथ ब्रिक्स और जी20 जैसी बहुपक्षीय मंचों के क्रिया-कलापों में हिस्सा लेना चाहिए.[105] भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि “सीमावर्ती क्षेत्रों में अगर हालात असामान्य है, तो संबंध सामान्य नहीं हो सकते हैं. और निश्चित तौर पर समझौतों का उल्लंघन करते हुए सीमा पर बड़ी संख्या में सैनिकों की मौजूदगी एक असामान्य स्थित है.”[106]
नेपाल की विदेश नीति में पड़ोसियों का अत्यधिक महत्त्व है. नेपाल की सबसे बड़ी और प्राथमिक चिंता अपनी संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करना है, साथ ही लोकतांत्रिक अनेकवाद के पूरे ढांचे के भीतर सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया को तेज़ करना है. अगर देखा जाए तो ऐसे मामलों में जहां नेपाल अधिक निवेश सहयोग से लाभान्वित हो सकता था, लेकिन इसके बजाए उसे निवेश प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है. इसी तरह, इस होड़ ने नेपाल की घरेलू राजनीति पर असर डालना शुरू कर दिया है. कुछ पक्षपातपूर्ण और राजनीतिक प्रलोभनों के बावज़ूद नेपाल को भेदभाव से बचना चाहिए, साथ ही पड़ोसी देशों की संवेदनशीलता और वाज़िब चिंताओं का सम्मान करना चाहिए और सही मायने में एक गुटनिरपेक्ष देश बने रहना चाहिए. आख़िरकार, सहयोग से भरे भारत-चीन संबंध ही नेपाल के सर्वोत्तम हित में होंगे.
5. मालदीव
‘इंडिया आउट’: किसे फ़ायदा?
अज़रा नसीम
पिछले कुछ वर्षों में भारत ने मालदीव में अपनी उपस्थिति का तेज़ी से विस्तार किया है. भारत ने मालदीव के साथ द्विपक्षीय रक्षा समझौते किए हैं, साथ ही ऋण के माध्यम से वहां की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का वित्तपोषण किया है. यह सभी गतिविधियां मालदीव की आबादी के कुछ हिस्सों में गुस्सा भड़का रही हैं. भारत का विरोध करने वाले यह लोग #IndiaOut नाम के एक राष्ट्रव्यापी अभियान में खुद को लामबंद कर रहे हैं. यह लेख बताता है कि मालदीव की राजनीति के लिए इस अभियान का क्या मतलब है और यह देश के समसामयिक मामलों में एक केंद्रीय मुद्दा क्यों बन गया है. यह लेख इसकी पड़ताल करता है कि क्यों मालदीव के लोग एक समान जुनून के साथ भारत से या तो नफ़रत करते हैं या प्यार करते हैं.
मालदीव की राजनीति में भारत
अपने देश में भारत की बढ़ती मौजूदगी को संशय और अविश्वास की नज़र से देखने वाले मालदीव के लोग #IndiaOut अभियान में एकजुट हो रहे हैं. भारत के विरुद्ध इस संगठित विरोध का मकसद यह दर्शाना है कि वहां की वर्तमान सरकार ने महत्वपूर्ण सैन्य और अन्य क्षेत्रों में मालदीव को भारत के हाथों “बेच” दिया है. इस साल अप्रैल में राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह ने इस अभियान पर प्रतिबंध लगा दिया था और इसे इस क्षेत्र में शांति बनाए रखने के अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों से समझौता करने की कोशिश करार दिया था. इस प्रतिबंध ने आंदोलन को और भड़काने का काम किया, क्योंकि यह मालदीव के सोशल मीडिया पर तेज़ी से ट्रेंड करने लगा.[107] मालदीव के तमाम राजनेताओं द्वारा विवादास्पद पूर्व राष्ट्रपति और वर्ष 2023 के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार अब्दुल्ला यामीन के नेतृत्व में चलाए जा रहे इस भारत विरोधी अभियान को “राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा” करार दिया गया है.
मालदीव की राजनीति में यह एक बेहद महत्वपूर्ण समय है. वर्तमान गठबंधन सरकार का पांच वर्ष का कार्यकाल नवबंर, 2023 में समाप्त हो जाएगा. बड़ी संख्या में उम्मीदवार सत्ता में आने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और इनमें से कई पूर्व में निर्वाचित हो चुके नेता भी हैं. इनमें मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) के मौजूदा राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह भी शामिल हैं, जिन्होंने चुनाव के लिए पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम के साथ गठबंधन किया है. सत्ता के लिए संघर्ष करने वालों में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन और मजलिस के स्पीकर पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद भी एमडीपी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.
मालदीव की राजनीति में यह एक बेहद महत्वपूर्ण समय है. वर्तमान गठबंधन सरकार का पांच वर्ष का कार्यकाल नवबंर, 2023 में समाप्त हो जाएगा. बड़ी संख्या में उम्मीदवार सत्ता में आने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और इनमें से कई पूर्व में निर्वाचित हो चुके नेता भी हैं.
एमडीपी में आंतरिक झगड़ों के बावज़ूद, पार्टी भारत को अपने पक्ष में करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है. आने वाले महीनों में एमडीपी से जो भी नए उम्मीदवार सामने आएंगे, उनके द्वारा भी ऐसा ही किए जाने की उम्मीद है. क्योंकि ‘इंडिया आउट’ अभियान की जड़ में मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी की राजनीति और गुटबाज़ी है, जो लोकलुभावन, राष्ट्रवादी और धार्मिक विभाजन को ना केवल पैदा करती है, बल्कि उसे आगे भी बढ़ाती है. प्रत्येक उम्मीदवार और उनके समर्थकों ने मालदीव में भारत की उपस्थिति को लेकर अपना एक ऐसा नज़रिया बनाया है, जो आगामी चुनावों में उनके हितों को पूरा करने वाला हो. यह तब और स्पष्ट हो जाता है, जब यह देखा जाता है कि अगर भारत के साथ मालदीव अपने द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूत करता है, तो इससे प्रत्येक संभावित उम्मीदवार को राजनीतिक रूप से क्या फ़ायदा या नुकसान होता है.
इसमें क्या है और किसके लिए?
सोलिह सरकार को मुट्ठीभर राजनेताओं के आपसी फ़ायदा उठाने वाले गठबंधन के रूप में देखा जा सकता है. इस सरकार का गठन वर्ष 2018 में राष्ट्रपति यामीन के शासन को हराने के लिए एक आख़िरी उपाय के रूप में किया गया था. यामीन शासन के दौरान लगभग सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं को या तो जेल में डाल दिया गया था, या फिर निर्वासन के लिए मज़बूर कर दिया गया था.
गठबंधन सरकार आर्थिक और राजनीतिक दोनों लिहाज से भारत से समर्थन के लिए बेक़रार है. राष्ट्रपति यामीन जब वर्ष 2018 में चुनाव हारे, तो उन्होंने सरकार का ख़ज़ाना खाली छोड़ा था. भारत से लाइन ऑफ क्रेडिट के बिना लोन, जो सितंबर, 2021 तक कुल 1.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है[108] और मालदीव पर चीन का 3.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर का कर्ज़ है, इन ऋणों के भुगतान में चूक हो जाने का ज़ोख़िम है.[109] वर्ल्ड बैंक के मुताबिक़ मालदीव पर कुल 5.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर का कर्ज़ है. मौजूदा सरकार को केवल पड़ोसी श्रीलंका के हालात पर अपनी नज़र डालनी चाहिए, ताकि वह बढ़ते कर्ज़ के बोझ के संभावित नतीज़ों को अच्छी तरह से जान सके. यही कारण है कि सोलिह प्रशासन खुद को कोलंबो में राजपक्षे की विफ़लता की तरह ही एक शिकार के रूप में प्रचारित कर रहा है. भारत से ऋण के बिना एक मज़बूत अर्थव्यवस्था का दिखावा करना असंभव है. और यही कारण है कि पूर्व राष्ट्रपति नशीद के लिए भारतीय समर्थन बनाए रखना महत्वपूर्ण है, ख़ासकर जब वह वर्ष 2023 में फिर से चुनाव के लिए तैयारी कर रहे हैं.
जब राष्ट्रपति पद के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण उम्मीदवार की बात सामने आती है, तो परिस्थितियां बिलकुल उलट जाती हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन भारत को मालदीव से बाहर करना चाहते हैं. ऐसा लगता है कि #IndiaOut सोशल मीडिया अभियान और उनकी ऑफलाइन गतिविधियां मालदीव में भारत की मौजूदगी के विरुद्ध लोगों को लामबंद करने और 2023 में राष्ट्रपति की उम्मीदवारी के लिए उनका साधन मात्र हैं. यामीन ने अपने आवास पर मालदीव के झंडे के रंगों लाल, सफ़ेद और हरे रंग में “इंडिया आउट” लिखा बड़ा सा बैनर लगा रखा था. उनके अभियान का अपराधीकरण होने के पश्चात, जब तक राष्ट्रपति के आदेश पर पुलिस द्वारा इसे जबरन हटाया नहीं गया, तब तक यह भारत विरोधी बैनर यामीन के आवास पर लगा हुआ था.[110]
जब राष्ट्रपति पद के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण उम्मीदवार की बात सामने आती है, तो परिस्थितियां बिलकुल उलट जाती हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन भारत को मालदीव से बाहर करना चाहते हैं. ऐसा लगता है कि #IndiaOut सोशल मीडिया अभियान और उनकी ऑफलाइन गतिविधियां मालदीव में भारत की मौजूदगी के विरुद्ध लोगों को लामबंद करने और 2023 में राष्ट्रपति की उम्मीदवारी के लिए उनका साधन मात्र हैं.
यामीन द्वारा भारत विरोधी माहौल को हवा देने के लिए दूरदराज़ के द्वीप समुदायों में लोगों को एकजुट करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में बड़ी संख्या में दौरे किए गए हैं. उनका यह अभियान अक्सर ज़ेनोफोबिक यानी विदेशियों के प्रति नफ़रत को उकसाने वाला होता है. और उनका यह अभियान एक ख़ास मकसद के तहत भारत विरोधी भावनाओं को इस हद तक भड़काने का काम करता है कि स्कूलों और अस्पतालों में भारतीय पेशेवरों को बहिष्कार और दुर्व्यवहार तक का सामना करना पड़ता है. इतना ही नहीं कभी-कभी तो भारतीय नफ़रती हिंसा तक का शिकार हो जाते हैं. इसके अलावा इस अभियान के अंतर्गत दीवारों पर भारत विरोधी नारे लिखे जाते हैं, भारतीयों को देश से बाहर निकालने के लिए सड़क पर विरोध-प्रदर्शन किए जाते हैं. इसके साथ ही भारतीय संस्कृति और समाज की ऑनलाइन के साथ-साथ मेन स्ट्रीम मीडिया में आलोचना की जाती है. अति-रूढ़िवादी धार्मिक आंदोलनों में प्रमुख लोगों ने धर्म को भी इस नैरेटिव का एक हिस्सा बनाने की कोशिश की है. इसके तहत भारत के कुछ हिस्सों में अक्सर होने वाली मुस्लिम विरोधी गतिविधियों का जमकर उल्लेख किया जाता है और भारत को मालदीव से बाहर खदेड़ने के लिए इसे एक प्रमुख वजह के रूप में पेश किया जाता है. ज़ाहिर है कि मालदीव की आबादी काफ़ी हद तक मुस्लिम है. “इंडिया आउट” अभियान का हिस्सा बनने वाले लोग भारत और मालदीव के बीच हुए उस समझौते की जानकारी मांग रहे हैं, जिसके अंतर्गत भारतीय सेना को उनके देश में अपने सैनिकों कि संख्या बढ़ाने की और देशभर में बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेश बढ़ाने की अनुमति दी गई है.
इंडिया आउट = यामीन इन?
यामीन और भारत के बीच संबंधों में यह खटास उनके पांच साल के कार्यकाल (2013-2018) के दौरान आ गई थी. यामीन के शासन को मालदीव के इतिहास में अंधाधुंध पूंजीवाद और लालच, लूट-खसोट के दौर के रूप में जाना जाता है.[111] अपने कार्यकाल के अंत में यामीन पर चोरी, मनी लॉन्ड्रिंग और पुलिस को झूठे बयान देने जैसे गंभीर आरोप लगाए गए थे. वो मालदीव में सार्वजनिक धन की अब तक की सबसे बड़ी चोरी में शामिल थे, जिसमें 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक मूल्य के द्वीप, लैगून, पहाड़ और अन्य संपत्ति शामिल थीं.[112] यामीन की संपत्तियों को वर्ष 2018 के अंत में सीज़ कर दिया गया था और आपराधिक अदालत ने उन्हें पांच वर्ष की जेल की सज़ा सुनाई थी. इसके साथ ही कोर्ट द्वारा उन पर 5 मिलियन अमेरिकी डॉलर का ज़ुर्माना भी लगाया गया था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी आधार पर जनवरी, 2021 में यामीन को रिहा करने का आदेश दे दिया था.[113] इसी आदेश में उन्हें आगामी चुनाव में हिस्सा लेने की भी अनुमति दी गई थी.
राष्ट्रपति रहते हुए यामीन ने ऐसे कई निर्णय लिए, जो मालदीव में ना केवल कानून के शासन के विरुद्ध थे,[114] बल्कि लोकतंत्र के समर्थक देशों को भी मालदीव से दूर करने वाले थे. यामीन का सबसे अच्छा सहयोगी चीन था. राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सितंबर 2021 में मालदीव का दौरा किया और वहां बुनियादी ढांचे से जुड़ी बड़ी परियोजनाओं के लिए लाखों अमेरिकी डॉलर की सहायता करने का वादा किया. इसने चीन-मालदीव ब्रिज का निर्माण किया, जो अब माले को हुलहुमाले से जोड़ता है. यह एक कृत्रिम रूप से बनाया गया द्वीप है, जिसका उद्देश्य सामाजिक रिहाइश के लिए है. हुलहुमले पर ही, चाइना स्टेट कंस्ट्रक्शन इंजीनियरिंग कंपनी ने 434 मिलियन अमेरिकी डॉलर की एक परियोजना के अंतर्गत बड़ी संख्या में ऊंची-ऊंची मल्टी स्टोरी आवासीय बिल्डिंगों का निर्माण किया है.
इसके अलावा, जब जिनपिंग ने मालदीव का दौरा किया था, उस समय हवाई अड्डा विकास परियोजना को एक चीनी कंपनी को देने पर सहमति बनी थी, यह परियोजना कभी भारत की जीएमआर कंपनी द्वारा चलाई जा रही थी. यह डील 800 मिलियन अमेरिकी डॉलर की है.[115] इसके बदले में यामीन ने मालदीव को ना केवल बेल्ट एंड रोड पहल (BRI) का सदस्य बनाया, बल्कि संसद की मंज़ूरी लेकर चीन के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर भी किए.[116] वर्ष 2015 में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यामीन के नेतृत्व में राजनीतिक अशांति की वजह से हिंद महासागर के द्वीपों की एक निर्धारित यात्रा की सूची से मालदीव को हटा दिया था.[117]
इसके कुछ ही समय बाद वर्ष 2018 में सोलिह मालदीव के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और मालदीव को 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक के भारतीय मदद के पैकेज पर हस्ताक्षर किए गए. बाद के दूसरे अन्य समझौतों और भारतीय सहायता ने भारत को मालदीव में प्रमुख बुनियादी ढांचे और विकास की परियोजनाओं के साथ-साथ मिलिट्री परियोजनाओं में शामिल होने की अनुमति दी है. यह सब जहां मालदीव में भारत के प्रभाव को बढ़ाते हैं, वहीं मालदीव को भारत का एहसानमंद और कृतज्ञ भी बनाते हैं. इन परियोजनाओं में ग्रेटर माले कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट, स्पोर्ट्स के इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास, अड्डू में एक नई पुलिस अकादमी की स्थापना,[118] उथुरु थिलाफल्हू (यूटीएफ) में तटरक्षक बंदरगाह की तैनाती और रखरखाव एवं सुरक्षा और प्रशिक्षण सेवाओं की स्थापना शामिल है.[119] UTF समझौता भारतीय सेना के कर्मियों को मालदीव की सेना के लिए प्रशिक्षण और रसद सहायता प्रदान करने के लिए, वहां 15 साल की अवधि के लिए रहने की अनुमति भी देता है.[120] मालदीव में “भारत की राजनयिक उपस्थिति को बढ़ाने” के लिए भारत कोरल द्वीव में एक महावाणिज्य दूतावास भी खोल रहा है.[121]
यह राजनीति है या नादानी
मालदीव और भारत के बीच बेशुमार सौदों, ऋणों और समझौतों से जनहित के कई वाज़िब सवाल पैदा होते हैं. विशेष रूप से जब जनता से जुड़ी होने के बावज़ूद ऐसी परियोजनाओं को जिस गति के साथ जन-भागीदारी के बिना आगे बढ़ाया जा रहा है, तब ऐसे सवाल उठना लाज़िमी हैं. एक देश जो पहले से ही गहरे कर्ज़ में डूबा हुआ है, तो क्या बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को व्यापक स्तर पर आगे बढ़ाना आवश्यक है? वो भी ऐसे में जब लगभग 5 लाख की छोटी सी आबादी वाले इस देश में कई लोग आज भी पेयजल का इंतजार कर रहे हैं. इन महत्वपूर्ण रक्षा समझौतों को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर क्यों गोपनीय रखा गया है? एक छोटा सा द्वीप राष्ट्र, जिसके पास विश्व व्यवस्था में बड़ी सैन्य शक्तियों के सामन खड़े होने के लिए सॉफ्ट पॉवर भी नहीं है, वो मालदीव वैश्विक शक्तियों के खेल में खुद को क्यों शामिल कर रहा है? विभिन्न राजनीतिक और व्यक्तिगत कारणों से राजनेता एक अंतरराष्ट्रीय संघर्ष में पक्ष क्यों ले रहे हैं, जहां एक नेता जिस पक्ष का समर्थन करता है और दूसरा उसका विरोध करता है. गौर करने वाली बात यह है कि जब दोनों पक्षों के पास द्वीप राष्ट्र मालदीव को पूरी तरह से मिटाने और बर्बाद करने शक्ति और क्षमता दोनों हैं, तो ऐसे में क्या उन्हें यह सब करना चाहिए?
राष्ट्रीय हित से जुड़े ये सभी महत्वपूर्ण सवाल उस राजनीतिक कीचड़ में खो जाते हैं, जो वर्तमान में मालदीव की लोकतांत्रिक राजनीति की पहचान बन गई है. जो राजनेता ‘इंडिया आउट’ अभियान का और भारत-मालदीव द्विपक्षीय संबंधों पर इसके प्रभाव का विरोध करते हैं, वो मुख्य रूप से ऋण भुगतान में चूक होने से पैदा होने वाले वित्तीय संकट को टालने के लिए बड़ी राशि का इंतजाम करने को लेकर चिंतित हैं. हालांकि अंत में, यह तर्क दिया जा सकता है कि ‘इंडिया आउट’ की भावना कई उन हिंसक और विदेशियों को अपने देश से बाहर खदेड़ने वाले यानी ज़ेनोफोबिक अभियानों में से एक है, जो आज के मालदीव की राजनीतिक पहचान बन गई है.
6. श्रीलंका
द्विपक्षीय संबंधों के उत्प्रेरक के रूप में भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता
चुलनी अट्टानायके
श्रीलंका हिंद महासागर में सामरिक और आर्थिक रूप से अहम संचार के समुद्री मार्गों (एसएलओसी) के मध्य स्थित है. इस क्षेत्र में भारत और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा के प्रभावों से श्रीलंका भी अछूता नहीं है. दोनों देशों के मध्य यह प्रतिद्वंद्विता काफ़ी हद तक दोनों की आर्थिक वृद्धि और उनके तेज़ी से बढ़ रहे पारस्परिक विकास के साथ ही समुद्री व्यापार और आयातित ऊर्जा पर निर्भरता से प्रेरित है. इनमें से अधिकतर गतिविधियां हिंद महासागर से जुड़ी हुई हैं, या फिर उनका रास्ता यहीं से होकर गुजरता है.
उच्च जीडीपी वृद्धि और बढ़ते भू-राजनीतिक प्रभाव के साथ भारत और चीन दोनों ही एशिया की आर्थिक शक्तियों के तौर पर उभर रहे हैं. कुछ विश्लेषकों का यह मानना है कि वर्ष 2050 तक भारत पीपीपी (परचेजिंग, पॉवर, पैरिटी यानी क्रय, शक्ति और समानता) के मामले में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर जाएगा. तब भारत संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) को पीछे छोड़ देगा और केवल चीन उससे आगे रहेगा.[122] चीन की आर्थिक और सैन्य शक्ति के तेज़ गति से हुए विकास ने उसकी क्षमताओं में काफ़ी वृद्धि की है. हिंद महासागर क्षेत्र में बीजिंग के अतिक्रमण ने भारत के साथ उसके समीकरणों को काफ़ी हद तक बदल कर रख दिया है.[123] हिंद महासागर में चीन की बढ़ती गतिविधियां भारत के लिए सामरिक चिंता का मुद्दा है, क्योंकि वह हिंद महासागर को ‘भारत का महासागर’ मानता है.[124]
श्रीलंका के भारत और चीन दोनों देशों के साथ ऐतिहासिक संबंध हैं. श्रीलंका की भारत के साथ सांस्कृतिक, भाषाई, बौद्धिक और धार्मिक मेलजोल की एक लंबी विरासत है. हालांकि, श्रीलंका की घरेलू राजनीति में भारत के दख़ल और लंबे संघर्ष [1] ने कोलंबो में चिंताएं बढ़ा दी हैं, इसके बावज़ूद दोनों ने घनिष्ठ संबंध बरक़रार रखे हैं. इस बीच, चीन के साथ श्रीलंका के संबंध प्राचीन सिल्क रोड व्यापार नेटवर्क के काल से हैं, उस दौरान श्रीलंका एक महत्वपूर्ण पड़ाव हुआ करता था. औपनिवेशिक काल के दौरान की स्थियों ने इन संबंधों को भले ही प्रभावित किया हो, लेकिन नए राष्ट्र-राज्यों के गठन के बाद यह ज़ल्द ही पहले की तरह बहाल हो गए.
श्रीलंका के भारत और चीन दोनों देशों के साथ ऐतिहासिक संबंध हैं. श्रीलंका की भारत के साथ सांस्कृतिक, भाषाई, बौद्धिक और धार्मिक मेलजोल की एक लंबी विरासत है. हालांकि, श्रीलंका की घरेलू राजनीति में भारत के दख़ल और लंबे संघर्ष [1] ने कोलंबो में चिंताएं बढ़ा दी हैं, इसके बावज़ूद दोनों ने घनिष्ठ संबंध बरक़रार रखे हैं.
इतिहास पर नज़र डालें तो ना चीन और ना ही भारत, कभी भी श्रीलंका में एक-दूसरे की मौज़ूदगी के विरुद्ध थे. हालांकि, पिछले दशकों में श्रीलंका में चीन की बढ़ती गतिविधियों की वजह से इसमें बदलाव आया है. श्रीलंका में चीन की लगातार बढ़ती उपस्थिति के साथ ही जैसे-जैसे हिंद महासागर में उसकी दिलचस्पी बढ़ती गई, और इसी तरह से एशिया में दोनों देशों की रणनीतिक होड़ बढ़ती गई, नई दिल्ली और बीजिंग श्रीलंका में सामरिक मौजूदगी हासिल करने में जुट गए. उनकी यह होड़ व्यापार, विकास के लिए दी जाने वाली मदद में और निवेश के क्षेत्र में स्पष्ट रूप से दिखती है.
श्रीलंका में भारत-चीन की प्रतिस्पर्धा
व्यापार
चीन वर्ष 1952 में रबर-चावल समझौते पर हस्ताक्षर के बाद से ही श्रीलंका के साथ व्यापार और आर्थिक संबंधों में संलग्न है. इसके बावज़ूद चीन वर्ष 2000 के दशक की शुरुआत तक श्रीलंका के शीर्ष व्यापारिक साझेदारों की सूची में कहीं भी नहीं था. वर्ष 2000 का दशक ही वो वक़्त था, जब चीन, भारत के बाद कोलंबो के सबसे बड़े आयात आपूर्तिकर्ताओं में से एक बन गया. [125] इस बीच, भारत लंबे समय से श्रीलंका के सबसे बड़े व्यापार भागीदारों में से एक रहा है, साथ ही श्रीलंका दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत के सबसे अहम व्यापार भागीदारों में से एक है. अगर देखा जाए तो भारत और श्रीलंका के आर्थिक संबंधों को तब बढ़ावा मिला, जब दोनों ने वर्ष 1998 में एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए. [126] मार्च, 2000 में लागू किया गया समझौता भारतीय बाजार में श्रीलंका की सफलता की दिशा में एक सशक्त क़दम था. समझौते से पूर्व वर्ष 1995 से 2000 के मध्य श्रीलंका से भारत को होने वाला निर्यात 39 मिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य का था. यह निर्यात वर्ष 2005 तक दस गुना से अधिक बढ़कर 566.4 मिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया.
टेबल 1 : श्रीलंका के साथ द्विपक्षीय व्यापार का आकार
स्रोत: वाणिज्य मंत्रालय, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना और भारतीय उच्चायोग, कोलंबो
विकास सहायता
जैसे कि चीन ने वर्ष 2005 में एक विकास भागीदार के रूप में श्रीलंका में प्रवेश किया था, इस क्षेत्र में भारत की भागीदारी भी बढ़ी है और नतीज़तन दोनों पड़ोसियों से उसे मिलने वाले ऋण और अनुदान में भी बढ़ोतरी हुई है. चीन वर्ष 2020 से श्रीलंका का चोटी का विकास भागीदार बना हुआ है, जो बंदरगाहों, हवाई अड्डों, सड़कों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों जैसी कनेक्टिविटी परियोजनाओं में भारी निवेश कर रहा है. भारत भी श्रीलंका में आवास, सड़क और रेलवे के क्षेत्र में निवेश करने में जुटा हुआ है.
जैसा कि चित्र-1 में दर्शाया गया है, वर्ष 2004 तक चीन की तरफ से श्रीलंका में पर्याप्त विकास सहायता उपलब्ध नहीं कराई जा रही थी. वर्ष 2004 के बाद चीन नियमित तौर पर श्रीलंका को विकास कार्यों के लिए मदद देने लगा और आज वो श्रीलंका का सबसे प्रमुख विकास साझीदार है. इस बीच, वर्ष 2005 के बाद से भारत ने भी श्रीलंका को अधिक से अधिक सहायता देने शुरू कर दिया. यह लगभग वही वक़्त था, जब चीन ने भी ऐसा करना प्रारंभ किया था. इसलिए, यह भी कहा जा सकता है कि विकास के सेक्टर में श्रीलंका के साथ भारत के बढ़ते जुड़ाव में चीन ने एक उत्प्रेरक का काम किया है.
चित्र 1: चीन और भारत से श्रीलंका की विकास सहायता
निवेश
श्रीलंका के साथ बढ़ते व्यापार संबंधों के साथ-साथ वर्ष 2005 से वहां चीन और भारत का निवेश भी बढ़ा है. श्रीलंका में भारत का निवेश वर्ष 2000 में द्विपक्षीय व्यापार समझौते के लागू होने के बाद अधिक प्रभावी हुआ. भारत की सार्वजनिक और निजी कंपनियों ने भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के मामले में श्रीलंका में एक प्रभावी और सशक्त मौज़ूदगी बनाई है.[127] वर्तमान पर नज़र डालें तो चीन और भारत दोनों देशों का श्रीलंका में बंदरगाह, रियल एस्टेट और पर्यटन सहित विभिन्न सेक्टरों में महत्वपूर्ण निवेश है.
टेबल 2: श्रीलंका में निवेश
स्रोत: वाणिज्य मंत्रालय, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना, बोर्ड ऑफ इन्वेस्टमेंट, श्रीलंका और डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक अफेयर्स, भारत
श्रीलंका पर प्रभाव
भारत और चीन के बीच में प्रतिस्पर्धा श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है, क्योंकि दोनों ही देश अपनी आर्थिक ताक़त का इस्तेमाल श्रीलंका में प्रभाव हासिल करने के लिए करते हैं. उदाहरण के लिए, चीन द्वारा श्रीलंका के बंदरगाह उद्योग में निवेश बढ़ाने के बाद, भारत ने उसी सेक्टर में अपनी गहरी दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी है. कोलंबो बंदरगाह (या हंबनटोटा बंदरगाह) में सीआईसीटी टर्मिनल में चीन के निवेश से पहले, भारत ने शायद ही श्रीलंका के बंदरगाह उद्योग में निवेश करने में कभी इतनी दिलचस्पी दिखाई थी. वो भी तब, जब श्रीलंका के अधिकतर ट्रांसशिपमेंट यानी माल को एक जहाज़ से दूसरे जहाज़ में ले जाने की गतिविधि या तो भारत के लिए, या फिर भारत से होती है.
जब श्रीलंका के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय पोर्ट के रूप में हंबनटोटा बंदरगाह का प्रस्ताव पहली बार सामने आया, तो वो भारत ही था, जिसे सबसे पहले इसके निर्माण का मौक़ा दिया गया था. लेकिन भारत द्वारा कोई दिलचस्पी नहीं दिखाए जाने के बाद ही चीन को यह डील दी गई. इससे बीजिंग को श्रीलंका में एक मज़बूत पैर जमाने का अवसर मिल गया. वास्तविकता यह है कि जब चाइना मर्चेंट पोर्ट्स ने पहली बार सीआईसीटी में निवेश किया था, तो भारतीय विश्लेषकों को यह संदेह था कि इस गहरे बंदरगाह से बहुत कम फ़र्क पड़ेगा, क्योंकि कोलंबो पोर्ट पहले से ही पड़ोसी देशों, विशेष रूप से भारत से और वहां के लिए ट्रांसशिपमेंट ट्रैफिक मुहैया कराता है. हालांकि, यह देखते हुए कि किस प्रकार से चीनी निवेश ने श्रीलंका की पूरी पोर्ट इंडस्ट्री को रचनात्मक ढंग से बदल दिया है, वर्ष 2021 में भारत ने कोलंबो बंदरगाह के पश्चिमी टर्मिनल में निवेश किया.
श्रीलंका के वर्तमान आर्थिक संकट पर एक नज़र
कोविड-19 महामारी के शुरुआती महीनों में जैसे ही श्रीलंका का वर्तमान आर्थिक संकट सामने आने लगा, भारत और चीन दोनों ने श्रीलंका के लिए ऋण और लाइन ऑफ क्रेडिट दिया. मार्च, 2020 में चीन ने श्रीलंका को 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर का रियायती ऋण दिया और सितंबर, 2020 में ग्रांट के रूप में 90 मिलियन अमेरिकी डॉलर दिए. मार्च, 2021 में चीन ने 1.54 बिलियन अमेरिकी डॉलर के मुद्रा विनिमय सौदे को मंज़ूरी दी. इसके एक महीने बाद, चाइना डेवलपमेंट बैंक ने विदेशी मुद्रा में सुधार के लिए श्रीलंका को 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण दिया.
जैसे ही श्रीलंका में आर्थिक संकट गहरा गया, कोलंबो ने आपातकालीन मदद और ऋण पुनर्गठन के लिए चीन की सहायता मांगी और साथ ही 2.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर की क्रेडिट लाइन और ऋण भी मांगा. इसके उत्तर में चीन ने अप्रैल, 2022 में क़रीब 31 मिलियन अमेरिकी डॉलर की मानवीय सहायता प्रदान की, जिसमें 5,000 टन चावल, दवाएं और अन्य आवश्यक वस्तुएं शामिल थीं.[128] मई, 2022 से चीन ने कोलंबो के विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने के लिए सिंडिकेटेड ऋणों में 1.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर और 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर युआन-मूल्यवर्ग विनिमय का विस्तार किया है.[129] चीन के समर्थन वाली बहुपक्षीय एशिया इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) ने श्रीलंका की आपातकालीन मदद के लिए 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर देने की भी योजना बनाई है.[130]
श्रीलंका की सहायता के लिए आईएमएफ की चर्चा के दौरान भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से अस्थायी रूप से श्रीलंका की मौजूदा मध्यम-आय स्थिति के बजाए, उसे निम्न-आय वाले देश के रूप में वर्गीकृत करने का आग्रह किया था. ताकि श्रीलंका की ऋण पुनर्गठन की प्रक्रिया को आसान बनाया जा सके और उसे तत्कालिक रुप से वित्तीय मदद हासिल हो सके. श्रीलंका के साथ भारत के सक्रिय समर्थन और बढ़ते जुड़ाव को इस क्षेत्र में बदलती भू-राजनीति के भीतर समझा जा सकता है.
नई दिल्ली ने सार्क फ्रेमवर्क के तहत 2022 में 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर के मुद्रा विनिमय को विस्तारित किया और एशियाई समाशोधन संघ के 515.2 मिलियन अमेरिकी डॉलर के भुगतान को स्थगित कर दिया. इतना ही नहीं, इसके बाद ईंधन के आयात के लिए 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण दिया, साथ ही भोजन, दवाओं और अन्य ज़रूरी चीज़ों को ख़रीदने के लिए 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर का एक अन्य ऋण भी दिया.[131] यही नहीं नई दिल्ली की सहायता ऋण मुहैया कराने से आगे बढ़ गई है और सक्रियता के साथ कूटनीतिक तौर पर श्रीलंका का समर्थन कर रही है.[132] उदाहरण के लिए, श्रीलंका की सहायता के लिए आईएमएफ की चर्चा के दौरान भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से अस्थायी रूप से श्रीलंका की मौजूदा मध्यम-आय स्थिति के बजाए, उसे निम्न-आय वाले देश के रूप में वर्गीकृत करने का आग्रह किया था. ताकि श्रीलंका की ऋण पुनर्गठन की प्रक्रिया को आसान बनाया जा सके और उसे तत्कालिक रुप से वित्तीय मदद हासिल हो सके.[133] श्रीलंका के साथ भारत के सक्रिय समर्थन और बढ़ते जुड़ाव को इस क्षेत्र में बदलती भू-राजनीति के भीतर समझा जा सकता है.
श्रीलंका में अचानक बढ़ती भारत की भागीदारी, वहां से चीन को बाहर करने के लिए उसके नज़रिए में बदलाव को प्रदर्शित करती है. अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि पिछले दो दशकों में श्रीलंका में चीन की दख़लंदाज़ी और बढ़ता प्रभाव, श्रीलंका के प्रति भारत के ‘बिग ब्रदर’ रवैये और विशेष रूप से वहां युद्ध की समाप्ति की बाद ज़रूरत के समय में सहायता के लिए श्रीलंका के आह्वान पर भारत की उदासीन प्रतिक्रिया का परिणाम है. इसलिए भारत को अब इस बात का अंदाज़ा हो गया है कि संकट के दौरान लगातार मदद और जुड़ाव श्रीलंका में अपने पैर जमाने में यानी अपनी मज़बूत स्थिति सुनिश्चित करेगी.
निष्कर्ष
इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज के संदर्भ में चीन हर क्षेत्र में एक उत्प्रेरक की तरह बन चुका है. चीन ध्यान आकर्षित करता है और ख़ुद से प्रतिस्पर्धा करता है कि वह किसी देश के साथ अपने जुड़ाव को कैसे संचालित करता है. यह श्रीलंका में सच साबित हुआ है. दरअसल, श्रीलंका में चीन के बढ़ते प्रयासों ने भारत के साथ श्रीलंका के संबंधों को काफ़ी हद तक बदल दिया है.
कोलंबो के साथ बीजिंग की बढ़ती भागीदारी ने नई दिल्ली को अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने का रास्ता दिखाया है. चीन और श्रीलंका के द्विपक्षीय संबंधों में बढ़ोतरी को देखने के पश्चात, भारत ने कोलंबो की राजनीतिक और आर्थिक ज़रूरतों को लेकर ना सिर्फ़ अपनी गहरी समझ विकसित की है, बल्कि उन ज़रूरतों पर प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया भी दी है. इसी प्रकार, भारत की सामरिक और सुरक्षा चिंताओं को लेकर श्रीलंका भी अधिक स्पष्ट और संवेदनशील हो गया है. श्रीलंका में एक के बाद एक आने वाली सरकारों ने भारत की संवेदनशीलता और चिंताओं की प्रतिक्रिया में चीन के साथ परियोजनाओं को बार-बार पलटा और रद्द किया है. उदाहरण के लिए, महिंदा राजपक्षे सरकार ने त्रिंकोमाली के छोटे चीनी विमान रिपेयर बेस की योजना को रद्द कर दिया था. सिरिसेना-विक्रमसिंघे सरकार ने भी श्रीलंका में चीनी निवेश को रोक दिया और 2015 में जांच की घोषणा की थी. इसी तरह, वर्ष 2021 में कोलंबो ने भारत की सामरिक चिंताओं की वजह से उत्तरी राज्य में एक सौर ऊर्जा परियोजना को उलट दिया था.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा ने श्रीलंका को कुछ हद तक लाभान्वित किया है, क्योंकि ये देश अपनी आर्थिक और विदेश नीति के लक्ष्यों की दिशा में काम करते हैं. हालांकि, इस सबने भारत और श्रीलंका के बीच कूटनीतिक समझ में सुधार के लिए अप्रत्यक्ष रूप से योगदान भी दिया है.
चुलनी अट्टानायके सिंगापुर के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई अध्ययन संस्थान में रिसर्च फेलो हैं.
अच्युत भंडारी एक पूर्व राजनयिक और भूटान के डायरेक्टर जनरल ऑफ ट्रेड हैं.
दिनेश भट्टराई नेपाल के प्रधानमंत्री के विदेशी मामलों के पूर्व सलाहकार हैं.
ज़ेबा फ़ाज़ली स्टिमसन सेंटर में साउथ एशिया प्रोग्राम की रिसर्च एसोसिएट हैं.
दिलवर हुसैन ढाका विश्वविद्यालय में इंटरनेश्नल रिलेशन्स के प्रोफेसर हैं.
अजरा नसीम मालदीव के मामलों की स्वतंत्र शोधकर्ता हैं.
आदित्य गौदरा शिवमूर्ति ओआरएफ़ के स्टैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में जूनियर फेलो हैं.
उद्धरणों को क्रमबद्ध रखने में मदद के लिए लेखक, ओआरएफ़ रिसर्च इंटर्न कीर्थना राजेश नांबियार को धन्यवाद देते हैं.
Endnotes
[1] The Sri Lankan government was engaged in a separatist war with the Liberation Tigers of Tamil Eelam (LTTE) for over two decades. The war ended with the Sri Lankan military forces defeating the LTTE in 2009.
[12] Embassy Of The People’s Republic Of China In The United States of America, “Xi Jinping Holds Talks With Prime Minister Nawaz Sharif Of Pakistan, And Both Sides Decide To Upgrade China-Pakistan Relations To All-Weather Strategic Partnership Of Cooperation,” Embassy Of The People’s Republic Of China In The United States of America, April 21, 2015, https://www.mfa.gov.cn/ce/ceus/eng/zgyw/t1256854.htm.
[37] Sameer Lalwani and Hannah Haegeland, “Anatomy of a Crisis: Explaining Crisis Onset in India-Pakistan Relations,” in Investigating Crises: South Asia’s Lessons, Evolving Dynamics, and Trajectories, ed. Sameer Lalwani and Hannah Haegeland (Washington D.C.: Stimson Center, 2018), 23-55, https://www.stimson.org/wp-content/files/InvestigatingCrisesOnset.pdf.
Delwar Hossain and Md. Shariful Islam, “Understanding Bangladesh’s Relations with India and China: Dilemmas and Responses”, Journal of the Indian Ocean Region 17, no. 1 (2021), https://doi.org/10.1080/19480881.2021.1878582.
[88] Ministry of Foreign Affairs of the People’s Republic of China, “Joint Statement Between the People’s Republic of China and Nepal,” Ministry of Foreign Affairs of the People’s Republic of China , October 13, 2019, https://www.fmprc.gov.cn/mfa_eng/zxxx_662805/t1707507.shtml
[99] Embassy of the People’s Republic of China, “Foreign Ministry Spokesperson Lu Kang’s Regular Press Conference on May 18, 2018,” Embassy of the People’s Republic of China in the Republic of Botswana, May 18, 2018, https://www.mfa.gov.cn/ce/cebw//eng/fyrth/t1560672.htm
[104]Christopher Flavin and Gary Gardner, “China, India and the new World Order, State of the World, Special Focus: China and India,” in State of the World 2006, (London: The World Watch Institute, 2006), pp. 3,4, 23.
[122] Charles Wolf Jr. et al, China and India, 2025: A comparative assessment, Pittsburgh, RAND INSTITUTE, 2011, https://www.rand.org/content/dam/rand/pubs/monographs/2011/RAND_MG1009.pdf
[123] PWC, “World in 2050:Will the Shift in Global Economic Power Continue?,” London, 2015, https://www.pwc.com/gx/en/issues/the-economy/assets/world-in-2050-february-2015.pdf
[124] International Institute For Strategic Studies, Asia-Pacific Regional Security Assessment 2016: Key Developments and Trends (London: The International Institute For Strategic Studies, 2016), https://www.iiss.org/publications/strategic-dossiers/asiapacific-regional-security-assessment-2016
[125] See: David Brewster, “India and China at Sea: A Contest of Status and Legitmacy in the Indian Ocean,” AsiaPolicy 22, no. 3 (2016), https://www.jstor.org/stable/24905133; David Scott, “India’s “Grand Strategy” for the Indian Ocean: Mahanian Visions,” Asia-Pacific Review 13, no.2 (2006), https://www.tandfonline.com/doi/abs/10.1080/13439000601029048?journalCode=capr20
; SamanKelegama, “India-Sri Lanka free trade agreement and the proposed comprehensive economic partnership agreement: A closer look,” in Regional Integration in South Asia, ed. Mohammad Razzaque and YurendraBasnett (London: Commonwealth Secretariat, 2014, 469.
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Aditya Gowdara Shivamurthy is an Associate Fellow with the Strategic Studies Programme’s Neighbourhood Studies Initiative.
He focuses on strategic and security-related developments in the South Asian ...
Achyut Bhandari is a former diplomat and Director-General of Trade of Bhutan. He works as a consultant and has co-founded the Centre for Research on ...
Dr. Azra Naseem is an independent researcher and the author of Dhivehi Sitee (www.dhivehisitee.com) a resource for critical analyses of Maldivian affairs.
Dr. Chulanee Attanayake is a Research Fellow at the Institute of South Asian Studies National University of Singapore. Her research expertise is in the areas ...
Delwar Hossain PhD is Professor of International Relations University of Dhaka. He is the founding Director of the East Asia Study Center Dhaka University. Prof. ...
Dinesh Bhattarai is a former Ambassador/Permanent Representative to the United Nations and former Foreign Affairs Adviser to prime ministers of Nepal. He is a faculty ...