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Published on Nov 27, 2024 Updated 0 Hours ago

चीन के साथ सीमा पर गश्त को लेकर हुए नए समझौते के तहत भारत को अपने सैन्य व्यय में बढ़ोत्तरी करने की ज़रूरत है, ताकि भविष्य के ख़तरों से निपटने के लिए सैन्य बलों की ताक़त में इज़ाफ़ा किया जा सके

चीन के साथ सीमा समझौता: भारत को अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने की ज़रूरत है

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भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर डेपसांग और डेमचोक इलाक़ों में डिसएंगेजमेंट और गश्त का सीमित समझौता होने के बाद कुछ लोग इस पर बहुत ख़ुशी मना रहे हैं. 21 अक्टूबर 2024 को घोषित किए गए इस समझौते का जश्न मनाते वक़्त हमें इस हक़ीक़त का भी ख़याल रखना चाहिए कि अभी भी चीन और भारत की सेनाओं के बीच तनाव कम करने और LAC पर सैनिकों की तैनाती घटाने के लिए बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है. मौजूदा समझौते के तहत, आगे की वार्ताएं होने तक, टकराव के इन बिंदुओं को समझौते से बाहर रखा गया था- गलवान घाटी (PP14), पैंगॉन्ग सो (उत्तरी और दक्षिणी तट), गोगरा (PP 17A) और हॉट स्प्रिंग्स (PP 15). इसका तो यही मतलब है कि अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति पूरी तरह नहीं बहाल हो सकी है. इस बीच, डेपसांग और डेमचोक में चीन और भारत ‘आपसी तालमेल के साथ गश्त’ करने पर सहमत हो गए हैं. इसके बारे में एक विश्लेषक ने कहा कि ये दोनों देशों के बीच सहमति बनाने का ‘एकदम नया नुस्खा’ है. ये बात भ्रामक और धोखे में रखने वाली है. क्योंकि ये कोई आविष्कारी नुस्खा नहीं है बल्कि, ये तो गश्त को सीमित करने वाली बात है. हालिया समझौते में गस्त पर तीन क़िस्म की पाबंदियां लगा दी गई हैं.

 

पहला, किसी भी देश की गश्ती टीम में 14 से ज़्यादा सैनिक नहीं हो सकते हैं. दूसरा, जब भी किसी देश के सैनिक सीमा पर गश्त के लिए निकलेंगे, तो पहले उन्हें इसकी जानकारी दूसरे पक्ष को देनी होगी. तीसरा, चीन और भारत डेपसांग और डेमचोक में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर उन इलाक़ों में महीने में दो या तीन बार से ज़्यादा गश्त नहीं लगा सकेंगे, जिन्हें वो अपना हिस्सा मानते हैं. एक बात और, भारत वैसे तो डेमचोक में गश्त लगा सकेगा, लेकिन, उसके सैनिकों को चार्डिंग ला में पैट्रोलिंग की इजाज़त नहीं होगी. जबकि वो एक अहम दर्रा है. इसके अतिरिक्त दोनों देशों ने एक दूसरे को रियायतें दी हैं. 

ये दोनों देशों के बीच सहमति बनाने का ‘एकदम नया नुस्खा’ है. ये बात भ्रामक और धोखे में रखने वाली है. क्योंकि ये कोई आविष्कारी नुस्खा नहीं है बल्कि, ये तो गश्त को सीमित करने वाली बात है. हालिया समझौते में गस्त पर तीन क़िस्म की पाबंदियां लगा दी गई हैं.

जिस तरह भारत ने डेमचोक और डेपसांग में पैट्रोलिंग प्वाइंट (PP) 10, 11, 11A, 12 और 13 में गश्त का अधिकार हासिल किया है और जिसे उसने जनवरी 2020 में अपनी आवाजाही के लिए सुरक्षित किया था. उसी तरह चीन को भी बदले में अरुणाचल प्रदेश के यांग्त्से इलाक़े और एक दूसरे क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की ‘निगरानी में गश्त करने’ का अधिकार मिल गया. सीमा पर पैट्रोलिंग को लेकर लगीं ये पाबंदियां 1993 और 1996 के समझौते की शर्तों के अनुरूप नहीं हैं. यही नहीं, जिन्हें ‘आविष्कारी नुस्खा’ बताया जा रहा है, वो असल में चीन को भारत की तरफ़ से दी गई रियायतें हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि अप्रैल मई 2020 में चीन ने जिन इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया था, वो अगर भारत के नियंत्रण वाले नहीं, तो कम से कम भारत के दबदबे वाले क्षेत्र ज़रूर थे.



सीमित गश्त

 

विदेश मंत्रालय का कहना है कि,  ‘डेमचोक और डेपसांग में पुष्टि करने के लिए आपसी सहमति से तय शर्तों के साथ गश्त शुरू हो गई है.’ इसके बावजूद, इस समझौते में गश्त को सीमित करने वाली व्यवस्थाएं बना दी गई हैं, ताकि चीन और भारत के सैनिकों के बीच संघर्ष होने से रोका जा सके. अब ये तो वक़्त ही बताएगा कि इस व्यवस्था से सीमा पर वो स्थिरता क़ायम की जा सकेगी या नहीं, जिसके बारे में मोदी सरकार का दावा है कि उसका लक्ष्य ये स्थिरता ही है. सैद्धांतिक रूप से संघर्ष तो अभी भी गश्त को लेकर हुए नए समझौते के बावजूद हो सकते हैं. 3500 किलोमीटर लंबी और विवादित वास्तविक नियंत्रण रेखा पर ऐसे कई ठिकाने हैं, जहां पर चीन परेशानियां पैदा करने में सक्षम है. भारत को डेमचोक और डेपसांग प्लेन्स में दोबारा गश्त शुरू करने की क़ीमत के तौर पर पैट्रोलिंग से जुड़ी इन पाबंदियों को स्वीकार करना पड़ा है. चीनियों ने भारत को मजबूर किया है कि वो गश्त को लेकर हुए पहले के समझौतों से हटकर नई शर्तों को स्वीकार करे, और भारत के इस पर सहमत होने का मतलब ये है कि उसने चीन के इस तर्क को मंज़ूर कर लिया है कि 1993, 1996, 2005 और 2012 के समझौतों के नतीजे में गस्त को लेकर जिन व्यवस्थाओं पर सहमति बनी थी, वो या तो कारगर नहीं थे या फिर बेअसर साबित हुए.

फिर भी सवाल ये है कि क्या भारत ने चीन की इस मांग को मंज़ूर कर लिया है कि वो सीमा पर बुनियादी ढांचे के विकास को और सीमित करेगा, ख़ास तौर से डारबुक श्योक दौलत बेग़ ओल्डी (DBO) सड़क के मामले में? सरकार को इस मामले पर आगे आकर तस्वीर साफ़ करनी होगी.

ऐसे में भारत के सीमा पर अप्रैल 2020 वाली स्थिति पर वापस जाने के मक़सद का क्या होगा? मोदी सरकार ने वैसे तो सीमा पर मूलभूत ढांचे के विकास में काफ़ी अच्छा काम किया है, जो चीन द्वारा सीमा का मौजूदा संकट खड़ा करने की एक वजह बना था. फिर भी सवाल ये है कि क्या भारत ने चीन की इस मांग को मंज़ूर कर लिया है कि वो सीमा पर बुनियादी ढांचे के विकास को और सीमित करेगा, ख़ास तौर से डारबुक श्योक दौलत बेग़ ओल्डी (DBO) सड़क के मामले में? सरकार को इस मामले पर आगे आकर तस्वीर साफ़ करनी होगी. मोदी सरकार को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उसने सीमा पर मूलभूत ढांचे के विकास पर बहुत ज़ोर दिया है और सेना की कमान संरचना में भी काफ़ी अहम और ज़रूरी परिवर्तन किए हैं. फ़रवरी 2024 में अंतरिम बजट के तहत सरकार ने सीमा सड़क संगठन (BRO) को फंड और बढ़ा दिया था ताकि भारत और चीन सीमा के अहम हिस्सों पर मूलभूत ढांचे को और बेहतर बनाया जा सके. इसमें लद्दाख की न्योमा हवाई पट्टी, हिमाचल प्रदेश में शिंकू ला सुरंग और अरुणचाल प्रदेश में नेचिफू सुरंग के अलावा कई अन्य परियोजनाएं भी शामिल हैं. मूलभूत ढांचे के विकास की इन परियोजनाओं के साथ साथ भारतीय सेना के उत्तर भारत के मुख्यालय (HQ-UB) को एक नई ऑपरेशनल कोर में बदला गया है. इस बदलाव का मक़सद, HQ-UB की शांति के समय की भूमिका को तब्दील कर दिया गया है, और अब ये कोर वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड वाले हिस्सों पर निगरानी रखेगी. ये बहुत उपयोगी और तारीफ़ के क़ाबिल क़दम हैं. हालांकि, सरकार भले ही इन दो पैमानों पर अच्छा काम कर रही है. लेकिन, ये क़दम अपर्याप्त हैं.

सैन्य बलों के लिए अतिरिक्त हथियार ख़रीदे बग़ैर, चीन के साथ संवाद करना भारत की कमज़ोरी को प्रदर्शित करता है. इसमें जोख़िम इस बात का है कि आने वाल समय में चीन की तरफ़ से और बदमाशियां की जा सकती हैं 

निष्कर्ष


वैसे तो सीमा के मूलभूत ढांचे के विकास पर मोदी सरकार के काम ने ही अप्रैल मई 2020 में भारतीय सेना की बहुत मदद की थी, जब चीन की आक्रामकता के जवाब में भारत ने भी मोर्चेबंदी बढ़ाई थी. लेकिन, भारत को अभी अपने पूंजीगत व्यय को बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि सेना की क्षमता में और इज़ाफ़ा किया जा सके. सीमा पर मौजूदा संकट की शुरुआत से बहुत पहले, यानी 2017 के बाद से रक्षा बजट में कोई ख़ास बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है, विशेष रूप से पूंजीगत ख़रीद के मामले में. रक्षा बजट में ज़्यादातर बढ़ोत्तरी राजस्व व्यय की मद में हो रही है, जिसमें पेंशन, भत्ते और वेतन वग़ैरह आते हैं. राजस्व की इस तेज़ बढ़ोत्तरी में ‘वन रैंक वन पेंशन’ (OROP) का भी बड़ा योगदान है. अग्निपथ की भर्ती योजना शुरू होने के बावजूद, सेना के ख़र्च में वो बचत हासिल करने में काफ़ी वक़्त लगेगा, जिससे वो सैन्य बलों के लिए नए नए हथियार और उपकरण ख़रीद सके. सैन्य बलों के लिए अतिरिक्त हथियार ख़रीदे बग़ैर, चीन के साथ संवाद करना भारत की कमज़ोरी को प्रदर्शित करता है. इसमें जोख़िम इस बात का है कि आने वाल समय में चीन की तरफ़ से और बदमाशियां की जा सकती हैं और गंभीर सैन्य टकराव की आशंका भी है.

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