Published on Dec 02, 2022 Updated 0 Hours ago

अगर चीन अपने कब्ज़े वाले इलाक़ों को लेकर आक्रामक रुख़ कायम रखता है तो भारत को पीआरसी के साथ अपने रुख़ और संबंधों में रणनीतिक स्तर पर बदलाव करना होगा. 

India, China and Taiwan: चीन के रणनीतिक इरादों का भारत और ताइवान के लिए क्या है मायने?

बीते महीने ही सीसीपी (CCP) का 20वां अधिवेशन समाप्त हुआ जिसने राष्ट्रपति शी जिनपिंग (Xi Jinping) को तीसरी बार चीन (China) की बागडोर संभालने का जिम्मा दिया, औरजिसके बाद इसके दो तत्काल पड़ोसियों – ताइवान (Taiwan) और भारत (India) के लिए चुनौतीपूर्ण और संभावित रूप से अशुभ समय आने वाला है. आइए शुरुआत भारत से करते हैं क्योंकि चीन ने भारत के साथ अपनी बातचीत में काफी ढ़िलाई दिखाई है. जैसा कि हाल ही में बताया गया है, एक भारतीय खुफिया रिपोर्ट बताती है कि चीन, लद्दाख के डेपसांग के मैदानी इलाके में भारत द्वारा दावा किए जाने वाले क्षेत्रों को खाली करने के मूड में नहीं है. जिस क्षेत्र पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की इकाइयां स्थित हैं, वह भारत के दावे की सीमा से 18 किलोमीटर अंदर है और पीएलए ने पश्चिमी क्षेत्र के साथ अपने बुनियादी ढांचे के विकास में काफी बढ़ोतरी कर ली है. बाली में जी-20 शिखर सम्मेलन में मोदी-शी के हाथ मिलाने के बावज़ूद, मोदी सरकार को यह सलाह दी जाती है कि वह पूरी तरह सतर्क रहे और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) की ज़मीन हड़पने के किसी भी प्रलोभन से दूर रहे. यह भारतीय सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे के हालिया बयान से पुष्ट होता है जिसमें उन्होंने कहा कि विवादित सीमा “…स्थिर…[लेकिन फिर भी] अप्रत्याशित” है. डेपसांग का मैदान रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण क्षेत्र है, क्योंकि पीएलए के कब्ज़े से सियाचिन ग्लेशियर पर भारत के नियंत्रण को ख़तरा है, जिससे भारतीय सेना चीन और पाकिस्तान दोनों के निशाने पर आ गई है. बीजिंग और रावलपिंडी के दोतरफ़ा हमले से सियाचिन ग्लेशियर पर भारत की सैन्य स्थिति बेहद कमज़ोर हो जाएगी. मोदी सरकार अपने उत्तराधिकारियों को एक बहुत ही कठिन विरासत देने का जोख़िम उठा रही है, चाहे वह भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से हो या भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) पार्टी या किसी अन्य गैर-बीजेपी सरकार के नेतृत्व वाली किसी अन्य सरकार से हो, अगर वह देपसांग पर चीन के कब्ज़े को स्वीकार करती है लेकिन चीन द्वारा तय की गई इस बात को भारत के स्वीकार करने के बाद जो नतीजे सामने आ सकते हैं, उससे परे यह है कि बीजिंग लद्दाख में अपने फायदे को किसी भी सूरत में त्यागने के लिए तैयार नहीं हो सकता है, क्योंकि उसके पास इस पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए सैन्य ताक़त है.

एक भारतीय खुफिया रिपोर्ट बताती है कि चीन, लद्दाख के डेपसांग के मैदानी इलाके में भारत द्वारा दावा किए जाने वाले क्षेत्रों को खाली करने के मूड में नहीं है. जिस क्षेत्र पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की इकाइयां स्थित हैं, वह भारत के दावे की सीमा से 18 किलोमीटर अंदर है और पीएलए ने पश्चिमी क्षेत्र के साथ अपने बुनियादी ढांचे के विकास में काफी बढ़ोतरी कर ली है. 

अतीत भविष्य का मार्गदर्शक नहीं हो सकता

लद्दाख में पीआरसी के ख़िलाफ़ भारत द्वारा सामना किए जा रहे मौज़ूदा चुनौतियों और नुक़सान का मूल्यांकन करने में, अतीत चीन और भारत के बीच डेपसांग और डेमचोक को लेकर दोनों देशों के बीच जो गतिरोध जारी है उसके समाधान के लिए कोई मार्गदर्शन नहीं कर सकता है. यह एक ऐसा मामला क्यों है? विशेषज्ञों का दावा है कि पिछली बार 1986  में थागला रिज पर सोमडुरोंग चा में भारत द्वारा पीआरसी के कब्ज़े वाले क्षेत्र पर दावा किया गया था, उस संकट को हल करने में सात साल लग गए, जिसमें चीनी सेना की इन जगहों से वापसी शामिल थी. इस चीनी कब्ज़े के बाद भारत सरकार ने अरुणाचल प्रदेश राज्य की कानूनी स्थिति में बदलाव किया. अरुणाचल प्रदेश को एक केंद्र शासित प्रदेश (UT) से एक राज्य का दर्जा दे दिया गया था. जैसा कि एक विशेषज्ञ ने कहा : “चीनियों की ओर से इस तरह के व्यवहार के लिए इतिहास में दूसरी मिसाल नहीं मिलती है…अगर आप 1980 के दशक में लौटेंगे तो तब भारत ने अरुणाचल प्रदेश की स्थिति को बदल दिया था और उस समय केंद्र शासित प्रदेश से इसे राज्य का दर्जा दे दिया गया था.उस स्टैंड-ऑफ को हल करने में सात साल लग गए, “..लंबी बातचीत के बाद इसका निदान निकला..” और एक बार फिर यही बात वर्तमान संकट में भी लागू हो सकता है. हो सकता है कि ऐसी ऐतिहासिक मिसाल भारत के दावे वाले क्षेत्र के मौज़ूदा चीनी कब्ज़े के लिए काम नहीं कर सकता है ख़ास तौर पर देपसांग में, सिर्फ इसलिए कि यहां संदर्भ 1990 के दशक से अहम तौर पर बदल चुका है – जो चीनी सैन्य शक्ति की संरचनात्मक वास्तविकता में दिखती है. बीजिंग 2020 में देपसांग में पीएलए द्वारा किए गए अपने सामरिक क्षेत्रीय लाभ को कायम रखने के लिए बेहतर स्थिति में है, जिसे चीन इन इलाक़ों में बुनियादी ढांचे के निर्माण के साथ और मज़बूत करने में जुटा है. डेपसांग से चीनी सैन्य कब्जे को हटाना आज भारतीय सेना और वायु सेना के लिए सैन्य रूप से बेहद चुनौतीपूर्ण होगा. भारत को इस धारणा पर आगे बढ़ना चाहिए कि चीन डेपसांग और संभवतः डेमचोक पर पकड़ बनाए रखेगा और पाकिस्तानियों के साथ गठजोड़ करने की कोशिश करेगा – यह एक ऐसा परिदृश्य है जो कम से कम, भारत पर काफी दबाव बनाएगा, और ज़्यादा से ज़्यादा भारत के ख़िलाफ़ संयुक्त हमले के नतीजे के रूप में सामने आएगा. हालांकि, बाद की संभावना नई दिल्ली के लिए सबसे ख़राब स्थिति के रूप में सामने आ सकती है, लेकिन सबसे ख़राब स्थिति की संभावना सबसे ज़्यादा है.

अभी हाल ही में एक ऑफ-द-रिकॉर्ड इन्गेजमेंट में, एक भारतीय विशेषज्ञ ने दावा किया कि चीन द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर संघर्ष तक ख़ुद को सीमित करने और बाद में ताइवान के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई के विरोध में बाद वाली स्थिति को प्राथमिकता देने की संभावना है. यह संभावना अभी भी सशर्त है जहां तक पीआरसी के ख़ुद को एलएसी पर विवादों तक सीमित रखने का संबंध है, बीजिंग अगर चाहे तो “बड़े पैमाने पर” सैनिकों के साथ आगे बढ़ सकता है.वास्तव में,चीन द्वारा ख़ुद को संघर्षों तक सीमित नहीं रखने की निरंतर संभावना को लेकर एक ऐतिहासिक समानता दिखती है जैसा कि 1962 के युद्ध के दौरान भी माना गया था. इसके बजाय बीजिंग ने बड़े पैमाने पर हमले का सहारा लिया, जिसकी उम्मीद नेहरू के नेतृत्व वाले नेताओं ने कभी नहीं की थी. दूसरी ओर, आने वाले कुछ दिनों तक यह हो सकता है कि पीआरसी ताइवान के मामले में संयम बरत सकती है जैसा कि विशेषज्ञ ने तर्क दिया, हालांकि, यह भी ग़लत हो सकता है और इसे अप्रासंगिक माना जाना चाहिए क्योंकि चीन पहले ही ताइवान के ख़िलाफ़ अपनी आक्रामकता दिखा चुका है.

डेपसांग से चीनी सैन्य कब्जे को हटाना आज भारतीय सेना और वायु सेना के लिए सैन्य रूप से बेहद चुनौतीपूर्ण होगा. भारत को इस धारणा पर आगे बढ़ना चाहिए कि चीन डेपसांग और संभवतः डेमचोक पर पकड़ बनाए रखेगा और पाकिस्तानियों के साथ गठजोड़ करने की कोशिश करेगा.

अगस्त 2022 में संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की यात्रा के बाद, चीनी सेना ने जलडमरूमध्य और ताइवान के मुख्य द्वीप के आसपास ख़तरनाक सैन्य अभ्यास किया था. इसके अलावा, पीआरसी आज ताइवान को लेकर शांत है क्योंकि चीन पहले ही ताइवान जलडमरूमध्य में मध्य या केंद्र रेखा का उल्लंघन कर चुका है, जिसे अब तक बीजिंग उल्लंघन करने से बचता था और मौन रूप से मान्यता देता था.सभी संभावना में चीन की कोशिश यह होगी कि वह उन फायदों को बचाए रखे जो निश्चित रूप से अधिक आसानी से आक्रमण करने की उनकी क्षमता को बढ़ाएंगे या कम से कम चीनी सैनिकों द्वारा केंद्र रेखा का उल्लंघन करने के लिए बीजिंग को ऐसा करने के लिए प्रेरित करते रहेंगे. भारत और ताइवान की तुलना में पीआरसी की क्षमताओं को झटका देने के भारत तैयार है साथ ही ताइवान ने भी चीन के इरादों को समझ लिया है.

अगर चीन अपने कब्ज़े वाले इलाक़ों को लेकर आक्रामक रूख़ कायम रखता है तो भारत को पीआरसी के साथ अपने रुख और संबंधों में रणनीतिक स्तर पर बदलाव करना होगा.

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