संयुक्त राष्ट्र आतंकवाद निरोधक समिति (CTC) की बैठकें 28 और 29 अक्टूबर 2022 को भारत में होने वाली हैं. 2005 के बाद से ये पहली बार है जब इस समिति की बैठक, न्यूयॉर्क स्थित मुख्यालय से बाहर होने वाली है. भारत इस बैठक को 26/11 के आतंकवादी हमले के शिकार हुए लोगों को श्रद्धांजलि कह रहा है और वो इसके ज़रिए ख़ुद अपने ऊपर ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया पर लगातार मंडरा रहे आतंकवाद और हिंसक उग्रवाद के ख़तरे की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करना चाहता है.
इस विशेष बैठक से पहले संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी प्रतिनिधि और आतंकवाद निरोधक समिति की मौजूदा अध्यक्ष, रुचिरा कंबोज ने कहा कि आतंकवाद अब कोई ऐसी चुनौती नहीं है, जिसका सामना कोई एक देश कर रहा है. ऐसे में भारत में होने वाली ये बैठक आतंकवादी गतिविधियां चलाने के लिए इंटरनेट और उससे जुड़ी तकनीकों और सोशल मीडिया के दुरुपयोग, भुगतान की डिजिटल व्यवस्थाओं पर ‘हालिया घटनाओं और सबूतों के आधार पर रिसर्च’ के ज़रिए विचार करेगी.
भारत इस बैठक को 26/11 के आतंकवादी हमले के शिकार हुए लोगों को श्रद्धांजलि कह रहा है और वो इसके ज़रिए ख़ुद अपने ऊपर ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया पर लगातार मंडरा रहे आतंकवाद और हिंसक उग्रवाद के ख़तरे की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करना चाहता है.
भारत ने आतंकवाद निरोधक समिति (CTC) की अध्यक्षता उस वक़्त संभाली थी, जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान को उसी उथल-पुथल वाली हालत में छोड़कर निकलने का फ़ैसला किया था, जिन हालात में अक्टूबर 2001 में अमेरिकी फ़ौज ने अफ़ग़ानिस्तान में डेरा जमाया था. अफ़ग़ानिस्तान में एक अधूरी जंग अभी भी जारी है, जिसमें लाखों अफ़ग़ान नागरिक कट्टरपंथी और रुढ़िवादी तालिबान हुकूमत के भरोसे छोड़ दिए गए हैं; जहां महिलाओं और अल्पसंख्यकों का शोषण बदस्तूर जारी है; और आतंकवादी हमले भी लगातार हो रहे हैं. भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात, पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसियों के तालिबान से दशकों पुराने रिश्ते हैं. इनके चलते अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद से भारत की बाहरी और अंदरूनी सुरक्षा के लिए ख़तरा और बढ़ गया है, जिससे आतंकवाद निरोधक समिति की उसकी अध्यक्षता और भी अहम हो गई है.
भारत में जिहादी कट्टरपंथ के विस्तार पर हुए अध्ययन बताते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक तनाव अक्सर क्षेत्रीय संघर्ष के रूप में देखने को मिलते हैं. पाकिस्तान की एजेंसियां, इस नाख़ुशी का फ़ायदा उठाने के लिए हमेशा तैयार रहती हैं. वो नौजवानों को आतंकी संगठनों में भर्ती करती हैं और प्रशिक्षण देती हैं, जिसके अक्सर घातक नतीजे देखने को मिलते रहे हैं. भारत लंबे वक़्त से सीमा पार आतंकवाद का शिकार रहा है. अब जबकि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान फिर से ताक़तवर हो गया है और उसके पाकिस्तान से मज़बूत रिश्ते हैं. ऐसे में आतंकवादियों और संसाधनों का एक नया ढांचा खड़ा होने का डर, भारत की चिंता को बढ़ा रहा है. आज जब भारत, आतंकवाद निरोधक समिति की बैठक की मेज़बानी करने जा रहा है, तो मौजूदा पाकिस्तान सरकार के प्रति अमेरिकी हुकूमत के बदले हुए रुख़ ने उसकी चिंता और बढ़ा दी है.
आतंकवाद निरोधक समिति की स्थापना के बाद से भारत दो बार इसकी अध्यक्षता कर चुका है; पहली बार भारत, मुंबई के भयानक आतंकवादी हमलों के बाद 2011 में इसका अध्यक्ष बना था. उस समय संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि हरदीप पुरी थे, जो इस समय केंद्रीय मंत्री हैं. तब हरदीप पुरी ने विश्व समुदाय से अपील की थी कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय संघर्ष में ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ का आयाम जोड़ने की ज़रूरत है. हालांकि, कई देशों ने आतंकवाद के प्रति ये नज़रिया अपनाया था. लेकिन, आलोचकों का कहना है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ दुनिया की इस लड़ाई के चलते मानव अधिकारों और बुनियादी स्वतंत्रताओं की प्राथमिकता कम हो गई है और इससे नस्लवाद और इस्लाम विरोधी सोच बढ़ी है. विद्वान उषा रामनाथन कहती हैं कि, ‘9/11 के हमले ने उन असाधारण परिस्थितियों को सामान्य बना दिया जिसके चलते मानव अधिकारों के उल्लंघन को वैधानिक जामा पहनाया जा रहा था.’
अब जबकि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान फिर से ताक़तवर हो गया है और उसके पाकिस्तान से मज़बूत रिश्ते हैं. ऐसे में आतंकवादियों और संसाधनों का एक नया ढांचा खड़ा होने का डर, भारत की चिंता को बढ़ा रहा है. आज जब भारत, आतंकवाद निरोधक समिति की बैठक की मेज़बानी करने जा रहा है, तो मौजूदा पाकिस्तान सरकार के प्रति अमेरिकी हुकूमत के बदले हुए रुख़ ने उसकी चिंता और बढ़ा दी है.
एक दशक बाद, इस्लामिक जिहादी आतंकवाद के अलावा आज दुनिया गोरे नस्लवादियों, नव-नाजियों और दक्षिणपंथी संगठनों की करतूतों के चलते नए तरह की आतंकवादी हिंसा से जूझ रही है. इन संगठनों को मुस्लिम विरोधी, अप्रवासी विरोधी और कुलीन वर्ग विरोधी जनवादी सियासत से बढ़ावा मिल रहा है. भारत को आतंकवाद निरोधक समिति की अध्यक्षता ऐसे वैश्विक माहौल में मिली है.
‘आतंकवादी’ की परिभाषा पर बहस
इस साल के लिए समिति की अध्यक्षता ग्रहण करते हुए रुचिरा कंबोज के पूर्ववर्ती टी एस तिरुमूर्ति ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत की ज़ीरो टॉलरेंस की नीति को दोहराया था और कहा था कि, ‘सदस्य देशों आतंकवाद को उसकी प्रेरणा के आधार पर अलग अलग देखने के ख़िलाफ़ एकजुट रहना चाहिए. अगर आतंकवाद का ऐसा वर्गीकरण किया जाता है तो वैश्विक समुदाय एक बार फिर 9/11 से पहले के उस दौर में पहुंच जाएगा, जब मेरा आतंकवादी बनाम तेरा आतंकवादी की बहस चल रही थी.’
कट्टरपंथी बनने के पीछे के बदल रहे आयामों और आज जिस तरह का आतंकवाद समाज झेल रहा है, उसे देखते हुए भारत ने अलग अलग चुनौतियों और ख़तरों के लिए अलग अलग शब्द गढ़े जाने के ख़िलाफ़ अपनी चिंता जताई है. भारत ने ख़ास तौर से दक्षिणपंथी सोच वाले लोगों को अलग देखने की सोच का विरोध किया है, फिर चाहे वो अमेरिका, यूरोप या न्यूज़ीलैंड के के गोरे नस्लवादी हों; श्रीलंका और म्यांमार के बौद्ध कट्टरपंथी हों; या फिर भारत के उग्रवादी हिंदुत्ववादी संगठन हों. इसके बजाय टी एस तिरुमूर्ति ने वैश्विक आतंकवाद निरोधक रणनीति (GCTS) की सातवीं समीक्षा से जुड़े एक प्रस्ताव को अपनाने की परिचर्चा के दौरान, संयुक्त राष्ट्र महासभा को चेतावनी भी दी थी कि, ‘हम एक बार फिर से मानवता को बांटने की कोशिशें होते देख रहे हैं’. इस बार इसके लिए नस्लवादी और जातीयता पर आधारित हिंसक उग्रवाद, हिंसक राष्ट्रवाद और दक्षिणपंथी उग्रवाद के बढ़ते ख़तरे की नई परिभाषा गढ़ने का औज़ार इस्तेमाल किया जा रहा है. तिरुमूर्ति ने कहा था कि ये हरकतें बेहद ख़तरनाक हैं. एक क़दम और आगे बढ़ते हुए तिरुमूर्ति ने जनवरी 2022 में ये भी कहा था कि, ‘आज के दौर में उभरती धार्मिक विरोधी भावनाएं, ख़ास तौर से हिंदू विरोधी, बौद्ध विरोधी और सिख विरोधी मानसिकताएं गंभीर चिंता का विषय हैं और संयुक्त राष्ट्र और इसके सभी सदस्यों को इस ख़तरे से निपटने पर ध्यान देने की ज़रूरत है.’
असली चुनौती इसी मोर्चे पर है. कट्टरपंथ कया है और इसका घरेलू राजनीति पर क्या असर पड़ता है. इससे निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कैसे क़दम उठाने चाहिए और ऐसे हिंसक कट्टरपंथ को क्या नाम या परिभाषा दी जानी चाहिए, इसे लेकर दुनिया में सियासी एकजुटता पूरी तरह ख़त्म हो गई है. मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब ऐसे उग्रवाद से निपटने के लिए एक से ज़्यादा देशों के बीच सहयोग की ज़रूरत पड़ती है. ऐसे में आतंकवाद निरोधक समिति के अध्यक्ष के तौर पर भारत को नस्लीय और जातिवाद पर आधारित हिंसक उग्रवाद (REMVE) को लेकर एक संवाद शुरू करने की कोशिश करनी चाहिए. ये संवाद संयुक्त राष्ट्र के उग्रवाद रोकने और उसका मुक़ाबला करने (P/CVE) के ढांचे के दायरे में भी आना चाहिए. आज की डिजिटल दुनिया में ऐसे अंतरराष्ट्रीय सहयोग की सख़्त ज़रूरत है, जहां पर किसी एक देश में पैदा हुआ तनाव बड़ी आसानी से उसकी सरहदों के पार फैल सकता है. हमने हाल ही में ब्रिटेन के लेस्टर शहर में हुई हिंसक घटनाओं के मामले में ऐसा होते देखा था.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत आतंकाव और उग्रवाद की समस्या का शिकार है. कश्मीर और उत्तरी पूर्वी भारत में उग्रवाद, वामपंथी आतंकवाद या फिर धर्म पर आधारित आतंकवाद, जिसमें सीमा पार से प्रायोजित इस्लामिक आतंकवादी और भारत के भीतर बहुसंख्यक धार्मिक हिंसा की चुनौतियां शामिल हैं.
इसीलिए, दिल्ली में होने वाली बैठक में थोड़ा ठहरकर इस मामले पर गहराई से चिंतन करना चाहिए. 9/11 के बाद पिछले 20 साल से दुनिया, आतंकवाद से मज़बूती से लड़ने की नाकाम कोशिश करती आई है. क्योंकि इसके पीछे कई कारण हैं, जिन्होंने जिहादियों की सोच पर असर डाला है और फिर उनके ख़िलाफ़ कट्टरपंथ की नई पौध खड़ी हो गई है, जिन्हें नस्लवाद या जातिवाद से प्रेरित हिंसक उग्रवादी कहा जा रहा है.
समाज के हाशिए पर धकेले जाने, पहचान के आधार पर भेदभाव और नस्ल-धर्म या जाति के आधार पर निशाना बनाए जाने के साथ-साथ शिक्षा और आर्थिक अवसरों के अभाव; या वो कारण जिनके चलते मर्द और औरतें हिंसक संघर्ष को वाजिब मानने लगते हैं, वो सब एक ऐसी सुलगती भट्टी की पैदाइश हैं, जो दुनिया भर में कट्टरपंथ, हिंसक उग्रवाद और आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं. हालात इतने बुरे हैं कि तमाम देश ख़ुद अपनी सियासत के चलते समाज में ध्रुवीकरण के शिकार हो रहे हैं. ऐसे तबक़ों की हथियारों और गोला बारूद तक आसान पहुंच को देखते हुए FBI ने अमेरिका में गोरे नस्लवादियों को घरेलू आतंकवाद का सबसे बड़ा ख़तरा घोषित कर दिया है. वहीं ब्रिटेन उन पहले देशों में से एक था जिन्होंने स्थानीय समर्थन वाले नव नाजी समूहों पर पाबंदी लगाई थी.
ऐसे माहौल में जब हर देश को अपने राष्ट्रीय हित साधने होते हैं और नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय विश्व व्यवस्था को सुरक्षित बनाने की ज़रूरत होती है, वैसे में वैश्विक राजनीतिक की पेचीदगियों और विरोधाभासों ने निश्चित रूप से भारत के आस-पास के इलाक़ों में आतंकवाद से निपटने के अभियान पर असर डाला है. आतंकवाद निरोधक समिति द्वारा जो ज़िम्मेदारियां तय की जाती हैं, वो संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों पर लागू होती हैं और भारत को भी ऐसे द्विपक्षीय और बहुपक्षीय प्रयासों से मदद मिली है. ख़ास तौर से 26/11 के आतंकवादी हमले की जांच में. फिर चाहे संयुक्त राष्ट्र हो या फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF). चूंकि भारत आतंकवाद के अलग अलग क्षेत्रों से जुड़े कई समझौतों और संधियों में शामिल है, ऐसे में भारत की अपनी आतंकवाद निरोधक नीति, कम से कम काग़ज़ पर तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा पारित प्रस्तावों पर ही आधारित होती है- ख़ास तौर से प्रस्ताव 1267 और 1373- इन प्रस्तावों को भारत में ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों की रोकथाम के क़ानून 2008 (UAPA) में बदलाव करके शामिल किया गया था, जो भारत के आतंकवाद निरोधक क़ानूनों में मील का पत्थर है. ये बात और है ये क़ानून भारत में किस तरह से लागू किए जाते हैं, इन पर भी विवाद है. इस संशोधन में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1373 के उन प्रावधानों को शामिल किया गया था, जिनमें आतंकवाद निरोधक समिति के गठन का प्रस्ताव था. इसी तरह प्रस्ताव 1267 में शामिल व्यक्तियों को आतंकवादी घोषित करने जैसे कई प्रावधान, UAPA का हिस्सा बनाए गए थे. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1267 के प्रावधानों को क़ानूनी जामा पहनाने के लिए भारत ने UAPA क़ानून में 9/11 हमले के बाद चार बार बदलाव किए हैं. दुनिया के तमाम आतंकवाद निरोधक क़ानूनों की तरह UAPA में भी सरकार को किसी भी व्यक्ति के ऊपर कार्रवाई का असीमित अधिकार दिया गया है. इसमें कई बार व्यक्ति के सही प्रक्रिया अपनाने के अधिकार का उल्लंघन भी होता है. क्या अब समय आ गया है कि सरकारों के इन अधिकारों पर नए सिरे से नज़र डाली जाए?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत आतंकाव और उग्रवाद की समस्या का शिकार है. कश्मीर और उत्तरी पूर्वी भारत में उग्रवाद, वामपंथी आतंकवाद या फिर धर्म पर आधारित आतंकवाद, जिसमें सीमा पार से प्रायोजित इस्लामिक आतंकवादी और भारत के भीतर बहुसंख्यक धार्मिक हिंसा की चुनौतियां शामिल हैं. हालांकि आज जब संयुक्त राष्ट्र की आतंकवाद निरोधक समिति पिछले दो दशकों में आतंकवाद के असर की समीक्षा करने वाली है और भारत के नेतृत्व में होने वाली इस असाधारण रूप से अहम बैठक में भविष्य की राह तय करने वाली है, तो भारत को मौजूदा राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान के नज़रिए से ऊपर उठकर देखना होगा और एक ऐसी रूप-रेखा को सामने रखना होगा, जो बहुपक्षीय संवाद, सिद्धांतों पर आधारित कूटनीति, क़ानून के राज और संवैधानिक संरक्षण के उसके अपने इतिहास पर आधारित हो. ख़ास तौर से तब और जब बात वैचारिक, नस्लवादी और जातीयताओं पर आधारित उग्रवाद से निपटने की हो और उन नई परिस्थितियों की, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद की नई चुनौतियां पैदा कर रहे हैं.
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