अप्रैल में जारी एक साझा बयान में भारत और अमेरिका- दोनों देशों ने तालिबान से मानवाधिकार और महिला अधिकारों के सम्मान की मांग की. इसके अलावा आतंकवाद को बढ़ावा या शरण देने से रोकने को कहा. एक महीने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के लिए अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि ने भारत के वरिष्ठ राजनयिकों के साथ उच्च-स्तरीय बैठक की. दोनों देशों के अधिकारियों ने अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व मुख्य कार्यकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला से भी मुलाक़ात की जो अपने साथ तालिबान का एक विशेष संदेश लेकर आए थे. इन घटनाक्रमों के मद्देनज़र अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के कब्ज़े के बाद 2 जून 2022 को भारत की तरफ़ से पहली बार वहां का आधिकारिक दौरा किया गया.
हाल के महीनों में भारत और अमेरिका- दोनों देशों ने तालिबान की शासन व्यवस्था वाले अफ़ग़ानिस्तान में एक बिंदु पर मिलते सामरिक हितों को महसूस करना और उन पर काम करना शुरू कर दिया है. दोनों देशों ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ व्यावहारिक ढंग से जुड़ना जारी रखा है.
हाल के महीनों में भारत और अमेरिका- दोनों देशों ने तालिबान की शासन व्यवस्था वाले अफ़ग़ानिस्तान में एक बिंदु पर मिलते सामरिक हितों को महसूस करना और उन पर काम करना शुरू कर दिया है. दोनों देशों ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ व्यावहारिक ढंग से जुड़ना जारी रखा है. वैसे तो अफ़ग़ानिस्तान को कूटनीतिक मान्यता की संभावना फिलहाल नहीं है लेकिन दोनों देशों को उम्मीद है कि एक दायरे में अफ़ग़ानिस्तान के साथ उनकी बातचीत से उनके राष्ट्रीय हितों को हासिल किया जा सकेगा, तालिबान को सुधार के लिए प्रोत्साहन मिलेगा और अफ़ग़ानिस्तान को पूरी तरह अराजकता की चपेट में जाने से रोका जा सकेगा. लेकिन इसके बावजूद सहयोग के लिए कई चुनौतियां हैं क्योंकि पाकिस्तान और ईरान को लेकर भारत और अमेरिका की रणनीति अलग-अलग हैं. अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय आंतकी गुटों से ख़तरे को लेकर अलग-अलग सोच ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ सहयोग की संभावना को सीमित कर दिया है.
सामरिक हितों का एक बिंदु पर मिलना:
भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान से उत्पन्न होने वाले ख़तरे काफ़ी चिंता की बात हैं. लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) नांगरहार और कुनार प्रांतों से अपनी गतिविधियां चलाते हैं. भारत के समुद्री रास्तों और गोल्डन क्रिसेंट (एशिया में अवैध ड्रग के दो प्रमुख हाइवे) के ज़रिए ड्रग्स एवं हथियारों की जो तस्करी हो रही है, उसने कश्मीर में और ज़्यादा अशांति को बढ़ाने की आशंका पैदा कर दी है. इस तरह अफ़ग़ानिस्तान में हुकूमत की संभावित नाकामी, जिन इलाक़ों में तालिबान का कब्ज़ा नहीं है उसके दुरुपयोग और यहां तक कि तालिबान के अलग-अलग गुटों पर पाकिस्तान के असर को लेकर भारत अभी भी आशंकित है.
तालिबान से सीधे तौर पर जुड़कर भारत अफ़ग़ानिस्तान में एक स्थायी और समावेशी सरकार को बढ़ावा देने, वहां मानवाधिकार और महिलाओं के अधिकारों को बचाने और आतंकवाद विरोधी उसकी क्षमता को मज़बूत करने की उम्मीद कर रहा है. जून 2021 से शुरू करके भारत ने कई मौक़ों पर तालिबान के अलग-अलग नेताओं के साथ बातचीत की है, उन्हें भारतीय हितों और संवेदनशीलता का सम्मान करने को कहा है (तालिका 1 को देखें). उनसे ये उम्मीद भी की गई कि वो अफ़ग़ानिस्तान में भारत की तरफ़ से लोगों को लेकर केंद्रित दृष्टिकोण में मदद करें जैसा कि भारत की तरफ़ से वैक्सीन और मानवीय सहायता में देखा गया. मई में भारत काबुल के भीतर अपने दूतावास को फिर से खोलने के विकल्पों का पता लगा रहा था ताकि अफ़ग़ानिस्तान की विकास और मानवीय ज़रूरतों में बेहतर ढंग से मदद दी जा सके. जून 2022 में भारतीय अधिकारियों के द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में भारत की परियोजनाओं और उपक्रमों का दौरा और उनके निरीक्षण से ये संकेत भी मिलता है कि परंपरागत आर्थिक, मानवीय और विकास से जुड़ी सहायता जारी रह सकती है.
जून 2021 से शुरू करके भारत ने कई मौक़ों पर तालिबान के अलग-अलग नेताओं के साथ बातचीत की है, उन्हें भारतीय हितों और संवेदनशीलता का सम्मान करने को कहा है
दूसरी तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका का हित कुछ हद तक निर्देशात्मक और स्थिति केंद्रित है. अफ़ग़ानिस्तान में दो दशक बिताने और कई ट्रिलियन डॉलर खर्च करने के बाद अमेरिका इस बात का ख़तरा नहीं उठा सकता कि अफ़ग़ानिस्तान एक नाकाम देश बने. एक नाकाम देश के रूप में अफ़ग़ानिस्तान बड़ी शक्ति कहे जाने वाले अमेरिका के दर्जे को खोखला कर सकता है, साथ ही दुनिया भर में मानवाधिकार को बढ़ावा देने और उसकी रक्षा करने की अमेरिका की क्षमता को भी कमज़ोर कर सकता है. इसलिए अमेरिका की इच्छा है कि पिछले दो दशकों में उसने अफ़ग़ानिस्तान में जिन क्षेत्रों में बढ़त हासिल की है, उसे बचा कर रखा जाए. इनमें मानवाधिकार एवं महिला अधिकार, सामाजिक-आर्थिक विकास, चरमपंथ एवं आतंक से जुड़ी गतिविधियों पर नियंत्रण और क्षेत्रीय स्थायित्व को बढ़ावा शामिल हैं.
इन हितों का नतीजा अमेरिका के द्वारा तालिबान के साथ बातचीत के रूप में निकला है जिससे कि अफ़ग़ानिस्तान को और ज़्यादा मानवीय एवं आर्थिक सहायता दी जा सके. इस तरह की बातचीत अक्टूबर 2021 से चल रही है (तालिका 2 को देखें). इसके बदले में अमेरिका उम्मीद करता है कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के नागरिकों को सुरक्षित बाहर निकलने की इजाज़त दे, मानवीय पहुंच को सुधारे, मानवाधिकार एवं महिलाओं के अधिकारों को बनाए रखे, समावेशी सरकार को बढ़ावा दे और आतंक को शरण या बढ़ावा देने से इनकार करे.
कुल मिलाकर भारत और अमेरिका- दोनों देश तालिबान के शासन वाले अफ़ग़ानिस्तान में एक जैसे सामरिक हितों को अपना रहे हैं. उनका इरादा है कि शासन व्यवस्था ध्वस्त न हो और मानवीय त्रासदी से परहेज किया जाए. ये ऐसे बिंदु हैं जो उन्हें सहयोग और समन्वय के लिए पर्याप्त जगह देते हैं. अगर तालिबान ख़ुद को सम्मान के योग्य और विश्वसनीय बनाता है तो दोनों देश मिलकर खुफ़िया जानकारी और दूर से आतंकवाद विरोधी क्षमता मुहैया कराने में अफ़ग़ानिस्तान की मदद कर सकते हैं. ये समन्वय गुटों में बंटे तालिबान के ख़िलाफ़ भी पर्याप्त दबाव बना सकता है.
इस क्षेत्र में भारत की मौजूदगी और विकास एवं मानवीय सहायता मुहैया कराने में उसकी क्षमता एवं अनुभव को देखते हुए अमेरिका को भारत की भी ज़रूरत होगी. ये बात आगे भी जारी रहेगी क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की कोई कूटनीतिक मौजूदगी नहीं है और भारत एक विश्वसनीय क्षेत्रीय शक्ति है. हाल के दिनों में भारत की मानवीय सहायता इस बात को और भरोसेमंद बना रही है कि कैसे भारत-अमेरिका की साझेदारी अफ़ग़ानिस्तान में उनके साझा उद्देश्यों को आगे बढ़ा सकती है.
अफ़ग़ानिस्तान में विविधता
वैसे तो अफ़ग़ानिस्तान में भारत और अमेरिका के साझा उद्देश्य हैं लेकिन सहयोग में गंभीरता के साथ चुनौतियां भी आएंगी. अतीत में दोनों देशों की नीतियां अफ़ग़ानिस्तान के लिए अलग-अलग रणनीति होने की वजह से अक्सर एक-दूसरे के समानांतर काम करती थीं.
प्राथमिक चुनौती पाकिस्तान को लेकर सामंजस्य बैठाने की है. तालिबान के लिए पाकिस्तान के दशकों पुराने समर्थन का आधार एक “रणनीतिक पहुंच” बनाए रखने में है, जो उसके इस्लामिक कट्टरपंथियों को एक ठिकाना मुहैया कराए जिससे कि भारत को पाकिस्तान पर उंगली उठाने का मौक़ा नहीं मिले और इसके सहारे पाकिस्तान दक्षिण एशिया में अपनी ताक़त दिखाए. पाकिस्तान की सेना के द्वारा मज़बूती से फैलाने के कारण भारतीय घेराबंदी से सुरक्षा पाकिस्तान के व्यापक भू-राजनीतिक एवं आर्थिक उद्देश्यों पर भारी पड़ गया. अतीत में पाकिस्तान के प्रति अमेरिका के प्यार और अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय पहुंच को कम करने के वादे के बावजूद पाकिस्तान के द्वारा उग्रवादी गुटों, जिनमें भारत विरोधी गुट जैसे कि एलईटी और जेईएम शामिल हैं, को समर्थन से रोका नहीं जा सका. ये गुट अफ़ग़ानिस्तान में भारत के आतंकवाद विरोधी उद्देश्यों के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा हैं. यहां तक कि मौजूदा समय में भी तालिबान के साथ पाकिस्तान की बहुत ज़्यादा और सीधी बातचीत है और इस तरह वो अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान में कुछ हद तक नतीजे हासिल करने के लिए एक रास्ता मुहैया कराता है. इससे अमेरिका का अपने “धोखेबाज़” सहयोगी पर निर्भर रहना जारी रहता है. भारत ने पाकिस्तान के द्वारा सीमा पार आतंकवाद के प्रायोजन के ख़िलाफ़ मज़बूत सैन्य ताक़त के साथ जवाब देने में आनाकानी नहीं की. मौजूदा भारतीय सरकार के तहत सीमा के पार आतंकी शिविरों पर सैन्य कार्रवाई और हवाई हमले हुए हैं. इसके अलावा भारत ने दूसरे देशों के साथ मिलकर सफलतापूर्वक बहुपक्षीय संस्थानों जैसे कि फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) को पाकिस्तान के द्वारा आतंकवादी समूहों को दिए जा रहे समर्थन की जांच के लिए तैयार किया. अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के बाद से भारत ने सक्रिय रूप से क्षेत्रीय भागीदारों के साथ बातचीत भी की है. भारत ने मध्य एशिया के देशों और रूस के साथ भी बातचीत की है ताकि अफ़ग़ानिस्तान में चीन की पहुंच का मुक़ाबला किया जा सके. क्षेत्रीय स्तर पर भारतीय और अमेरिकी नीति निर्माताओं के बीच अफ़ग़ानिस्तान में ईरान की भूमिका को लेकर विरोधी विचार हैं. भारत के जहां ईरान के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध हैं वहीं अमेरिका के नीति निर्माता ईरान को शामिल करने के ख़िलाफ़ हैं.
जब बात अफ़ग़ानिस्तान को और ज़्यादा इस्लामिक आतंकवादियों को पनाह देने से रोकने और आतंकवाद का मुक़ाबला करने के साझा उद्देश्यों की होती है तो नज़दीक से देखने पर पता चलता है कि भारत और अमेरिका- दोनों देश अलग-अलग गुटों को लेकर परेशान हैं. भारत के लिए ज़्यादातर ख़तरा एलईटी, जेईएम और इंडियन मुजाहिदीन से है. वहीं अमेरिका ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध के मुताबिक़ ज़्यादातर ध्यान अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, जैसे कि अल-क़ायदा, हक़्क़ानी नेटवर्क और हाल के दिनों में इस्लामिक स्टेट खोरासान प्रॉविंस (आईएसकेपी), पर दिया है. हालांकि अल-क़ायदा को लेकर दोनों देशों के विचार मिलने की संभावना है क्योंकि पिछले तीन वर्षों से ये आतंकी संगठन भारत को सीधे रूप से धमकी दे रहा है.
ख़तरे को लेकर भारत और अमेरिका की अलग-अलग सोच का नतीजा अतीत में टकराव के रूप में सामने आया है. मुंबई पर 26/11 के आतंकी हमले के बाद भारत के खुफ़िया समुदाय को ये शक था कि अमेरिका ने इस हमले को लेकर जितना भारत को बताया, उसे हमले के रूप और तीव्रता को लेकर उससे ज़्यादा जानकारी थी. इससे भी बड़ी बात ये थी कि डेविड हेडली को सज़ा में देरी की वजह से कूटनीतिक संकट भी खड़ा हो गया क्योंकि अमेरिका की इस्तेमाल करने वाली सोच आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत के साथ सहयोग के उसके वादे पर हावी हो गई.
आतंकवादी गुटों के आपस में जुड़े होने को देखते हुए भारत और अमेरिका के बीच आतंकवाद के ख़िलाफ़ सहयोग सीमित रहा है. इसकी वजह ये है कि पाकिस्तान को लेकर नीतियों में सामंजस्य नहीं है और पाकिस्तान ग़ैर-सरकारी किरदारों के ज़रिए भारत के ख़िलाफ़ “थाउजेंड कट्स” के अपने रणनीतिक लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश में लगा है. मौजूदा अस्थिर वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य में ये अनिवार्य है कि दोनों देश आतंकवाद के ख़िलाफ़ एजेंडे और विकास को लेकर सहयोग को ज़्यादा संस्थागत रूप देने की तरफ़ काम करें. अफ़ग़ानिस्तान में योगदान देने के मामले में भारत के पास ज़्यादा संभावनाएं हैं क्योंकि अमेरिका की तरह वो भी अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा, राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक विकास और क्षेत्रीय अखंडता बेहतर करना चाहता है ताकि अफ़ग़ानिस्तान को वैश्विक जिहादियों से दूर रखा जा सके.
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