Author : Shashank Mattoo

Published on May 31, 2022 Updated 15 Hours ago

भारत को चाहिए कि वो जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया के साथ हाथ मिलाकर साझा भू-राजनीतिक और सुरक्षा हितों के मामले में सहयोग करे, जिससे न सिर्फ़ वो चीन के ख़िलाफ़ संतुलन बना सके, बल्कि नई एशियाई व्यवस्था में अपना प्रभाव भी स्थापित कर सके.

भारत और एक नई एशियाई व्यवस्था!

आज जब एशिया में अमेरिकी ताक़त कमज़ोर हो रहा है, तो उसके साथी और दुश्मन देश एक नई एशियाई व्यवस्था स्थापित करने के लिए प्रयास कर रहे हैं. जापान ने ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के साथ रक्षा समझौते किए हैं. वहीं, दक्षिण कोरिया ने क्वॉड का सदस्य बनने में दिलचस्पी दिखाई है. चीन ने तो पहले ही इस क्षेत्र में उथल पुथल मचा दी थी, जब उसने सोलोमन द्वीप समूह के साथ एक गोपनीय सुरक्षा समझौता करने का एलान किया था.

इस वक़्त जापान पूरे क्षेत्र में कूटनीतिक पहल करने में सबसे आगे दिख रहा है. ऑस्ट्रेलिया के साथ लंबे इंतज़ार के बाद रक्षा समझौता करने के चार महीने के भीतर ही, जापान को ब्रिटेन के रूप में भी एक इच्छुक भागीदार मिल गया.

इस वक़्त जापान पूरे क्षेत्र में कूटनीतिक पहल करने में सबसे आगे दिख रहा है. ऑस्ट्रेलिया के साथ लंबे इंतज़ार के बाद रक्षा समझौता करने के चार महीने के भीतर ही, जापान को ब्रिटेन के रूप में भी एक इच्छुक भागीदार मिल गया. अगर हम जापान के इन दोनों देशों के साथ हुए समझौते यानी रेसिप्रोकल एक्सेस एग्रीमेंट (RAAs) पर नज़र डालें, तो जैसा कि ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने कहा था कि ये समझौता तीनों देशों की सेनाओं को पूरी तरह एक दूसरे के साथ ‘मिलकर काम करने’ की राह बनाता है. इन समझौतों की मुख्य बात ये है कि इनसे हर देश की सेना, दूसरे देश के अड्डों का इस्तेमाल कर सकती है, मिलकर युद्धाभ्यास कर सकती है. एक दूसरे को सामान की आपूर्ति कर सकती है और प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए साझा अभियान चला सकती हैं.

हाल ही में संपन्न हुआ दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति का चुनाव भी काफ़ी महत्वपूर्ण रहा. दक्षिण कोरिया के नए राष्ट्रपति यून सियोक-इयोल ने जापान के साथ लंबे समय से चले आ रहे अपने टकराव को भुलाकर, अमेरिका के साथ नज़दीकी से काम करने की ख़्वाहिश जताई है. सबसे अहम बात तो ये है कि राष्ट्रपति यून ने ये साफ़ कर दिया है कि अगर उनके देश को क्वॉड में शामिल होने का न्योता दिया जाता है, तो वो इस बारे में ‘सकारात्मकता से विचार’ करेंगे. अगर दक्षिण कोरिया को क्वॉड में शामिल होने का औपचारिक निमंत्रण नहीं भी दिया जाता है, तो वहां की नई सरकार के, जलवायु परिवर्तन का मुक़ाबला करने, व्यापार के समुद्री मार्गों को सुरक्षित बनाने और क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित करने के क्वॉड के प्रयासों में भागीदार बनने की पूरी संभावना है.

एशिया की बदलती हुई व्यवस्था 

अगर इन सभी बातों को एक साथ देखें, तो ये एशिया की बदलती हुई व्यवस्था की मिसाल हैं. ऐसा लगता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के नेतृत्व में जो ‘कांटों और कील’ वाली सुरक्षा व्यवस्था एशिया में बनी थी, उसमें अब आख़िरकार बदलाव आ रहा है. पहले जापान, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया जैसे प्रमुख देशों के अमेरिका के साथ बड़े क़रीबी राजनीतिक और सुरक्षा संबंध थे. उस दौरान इन देशों ने आपस में अमेरिका जैसे रिश्ते स्थापित करने की कोशिश नहीं की थी. इससे एक ऐसी सामरिक निर्भरता पैदा हुई, जिसने अमेरिका को ऐसी शक्ति के रूप में बढ़त दे दी, जो अपने हित साधने के लिए एक गठबंधन को खड़ा करने की ताक़त रखती थी.

ऐसा लगता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के नेतृत्व में जो ‘कांटों और कील’ वाली सुरक्षा व्यवस्था एशिया में बनी थी, उसमें अब आख़िरकार बदलाव आ रहा है. 

हालांकि, अब वैसे तो अमेरिका अभी भी इस क्षेत्र की सबसे बड़ी शक्ति है. लेकिन, चीन की तुलना में अपनी ताक़त में आई गिरावट को देखते हुए अमेरिका को ये मानने को मजबूर होना पड़ा है कि अब इस क्षेत्र में अमेरिकी नेतृत्व की जगह एक शक्तियों के एक वास्तविक बहुपक्षीय गठबंधन बनाना पड़ेगा. हाल ही में जापान, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के बीच हुए समझौतों के साथ साथ क्वॉड में शामिल होने को लेकर दक्षिण कोरिया की दिलचस्पी एक नए और आपस में जुड़े एशिया की तस्वीर बनाते हैं, जहां के देश धीरे धीरे ही सही मगर निश्चित रूप से अमेरिकी शक्ति पर अपनी निर्भरता से आगे बढ़ रहे हैं.

भारत के लिए अपने बेहद क़रीब एक वास्तविक बहुध्रुवीय एशिया का उभार लंबे समय से उसकी भू-राजनीतिक इच्छाओं की सूची का हिस्सा रहा है. सामरिक स्वायत्तता को तरज़ीह देने की भारत की इच्छा उस समय और भी उजागर हो गई थी, जब उसे रूस के हथियारों की ज़रूरत पर ज़बरदस्त राष्ट्रीय चर्चा उस वक़्त छिड़ी जब रूस की सेना ने यूक्रेन पर हमला किया था. वैसे तो भारत के लिए सामरिक स्वायत्तता का लक्ष्य हासिल करने की ज़रूरत उसी तरह बनी हुई है, मगर उसे प्राप्त करने के माध्यम और ज़रूरत बदल गए हैं. आज़ादी के बाद के दशकों में भारत ने अपने घरेलू परिवर्तन का विशाल मक़सद हासिल करने पर ध्यान ज़्यादा केंद्रित किया था. इसके चलते, भारत ने अपने विदेश नीति में किसी गठबंधन का खुलकर हिस्सा बनने से परहेज़ किया, ताकि वो क्षेत्रीय स्थिरता को बनाए रखते हुए महाशक्तियों के आपसी संघर्ष से ख़ुद को अलग रख सके. जब भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति के उस ख़तरनाक सफ़र पर संभल संभलकर चल रहा था, तो भारत की नीतिगत प्राथमिकता ये थी कि वो महाशक्तियों के आपसी मुक़ाबले से पैदा हुए टकरावों से अपने आपको बचा सके.

उभरती हुई व्यवस्था में भारत

हालांकि, आज़ादी के 75 बरस बाद आज भारत के सामने इस नई एशियाई व्यवस्था में बिल्कुल नए अवसर हैं: आज की सामरिक स्वायत्तता बनाए रखने के लिए भारत को भरोसेमंद और सक्षम साझेदारियां बनाने की आवश्यकता है. अपनी अर्थव्यवस्था में बदलाव लाने, सेना का आधुनिकीकरण करने और जलवायु परिवर्तन जैसे अस्तित्व के ख़तरों से निपटने के लिए भारत को क्वॉड जैसी संस्थाओं के माध्यम से जियोपॉलिटिक्स के खेल के नियम तय करते हुए नए गठबंधन बनाने होंगे. अमेरिका की शक्ति में कमी आने के चलते पैदा हुए अवसर में भारत को अपने आपको एक अग्रणी ताक़त के तौर पर स्थापित करने का मौक़ा है. अगर भारत इस उभरती हुई व्यवस्था में एक बड़ी शक्ति बनकर उभरता है, तब कोई ऐसी ताक़त अपने ऊपर भारत की निर्भरता का फ़ायदा उठाकर एक ख़ास दिशा में चलने या किसी एक नीति को अपनाने के लिए मजबूर नहीं कर पाएगा. अमेरिका की ताक़त में आ रही कमी और नई व्यवस्था के निर्माण से पैदा हुए दुर्लभ मौक़े को चुपचाप गुज़रते देखने के बजाय, आगे बढ़कर इस अवसर का फ़ायदा उठाकर ही, भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति की उथल-पुथल के बीच, एक नई एशियाई व्यवस्था में अपनी वास्तविक स्वायत्तता को सुनिश्चित कर पाएगा.

अमेरिका की ताक़त में आ रही कमी और नई व्यवस्था के निर्माण से पैदा हुए दुर्लभ मौक़े को चुपचाप गुज़रते देखने के बजाय, आगे बढ़कर इस अवसर का फ़ायदा उठाकर ही, भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति की उथल-पुथल के बीच, एक नई एशियाई व्यवस्था में अपनी वास्तविक स्वायत्तता को सुनिश्चित कर पाएगा.

मिसाल के तौर पर एशिया में बन रहे नए रक्षा गठबंधन इस नई व्यवस्था में भारत के सामने खड़े अवसर देखने का मौक़ा देते हैं. चूंकि आज जापान और दक्षिण कोरिया दोनों ही अपने रक्षा ख़र्च को बढ़ा रहे हैं, जिससे वो अपनी राष्ट्रीय शक्ति को मज़बूत बना सकें और अमेरिका पर निर्भरता ख़त्म कर सकें. ऐसे में भारत को इस क्षेत्र में कई ऐसे साझीदार मिल सकते हैं, जो रक्षा क्षेत्र में साझीदारी में दिलचस्पी रखते हैं. रक्षा तकनीक के विकास में सहयोग का दायरा बढ़ाकर भारत अपने लिए कुछ नए रक्षा साझीदार तलाश सकता है. इस तरह वो रूस जैसी ताक़तों पर विरासत में मिली निर्भरता को ख़त्म करने के साथ साथ, ख़ुद को एशिया के एक अग्रणी देश के तौर स्थापित कर सकेगा. अगर भारत, एशिया की दो बड़ी सैन्य ताक़तों के साथ मिलकर काम करने की क्षमता विकसित कर लेता है, तो सुरक्षा के एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर भारत की प्रतिष्ठा, उसकी शक्ति और नई एशियाई व्यवस्था में उसकी हैसियत में इज़ाफ़ा होगा.

नई एशियाई व्यवस्था और चीन 

भारत को चीन की स्थायी चुनौती से निपटने के लिए भी एक नई एशियाई व्यवस्था में अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी. क्षेत्रीय सुरक्षा से लेकर उभरती हुई तकनीक तक, आज चीन हर क्षेत्र में अपनी दादागिरी स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. ऐसे में भारत को एक साथ तमाम मोर्चों पर मुक़ाबले के लिए तैयार होना होगा. अगर, भारत अन्य शक्तिशाली देशों के साथ गठबंधन बना लेता है, तो उन सबकी अपनी अपनी अनूठी ताक़तों की मदद से भारत के लिए इस चुनौती से पार पाना आसान हो जाएगा. हाल ही में चीन के सोलोमन द्वीप समूह के साथ हुए रक्षा समझौते से ये हक़ीक़त और स्पष्ट हो गई है. अब तक इस समझौते के पूरे इलाक़े पर पड़ने वाले असर का अंदाज़ा ही लगाया जा रहा है. वैसे इस समझौते को लेकर ज़्यादातर चिंता इसी बात को लेकर है कि कहीं इस समझौते से चीन के दक्षिणी प्रशांत महासागर में स्थित सोलोमन द्वीप समूह पर अपना सैनिक अड्डा स्थापित करने का रास्ता ना खुले. लेकिन, ये समझौता अहम है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. चीन ने अपने इस कूटनीतिक दांव से ऑस्ट्रेलिया के बेहद क़रीब पांव जमाने की जगह हासिल कर ली है, जहां से वो इस इलाक़े में क्वॉड देशों की सैन्य गतिविधियों पर नज़र रख सकेगा. आज जब चीन के पास दुनिया का सबसे बड़ा नौसैनिक बेड़ा है और वो इसे दूर दूर तक तैनात करने का इरादा भी रखता है, तो हिंद प्रशांत क्षेत्र को खुला और स्वतंत्र बनाए रखने का क्वॉड का साझा नज़रिया स्थापित करने की ज़िम्मेदारी, इस नई एशियाई व्यवस्था के कंधों पर ही आएगी. जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच हाल में हुआ रक्षा समझौता, दोनों देशों की सेनाओं को मिलकर प्रशांत महासागर क्षेत्र में गश्त लगाने और ज़रूरत पड़ने पर इसकी रक्षा करने में मददगार साबित होगा. वहीं, हिंद महासागर में भारत की क्षमताओं का इस्तेमाल करते हुए इस सुरक्षा व्यवस्था को और मज़बूती दी जा सकती है.

आज जब चीन के पास दुनिया का सबसे बड़ा नौसैनिक बेड़ा है और वो इसे दूर दूर तक तैनात करने का इरादा भी रखता है, तो हिंद प्रशांत क्षेत्र को खुला और स्वतंत्र बनाए रखने का क्वॉड का साझा नज़रिया स्थापित करने की ज़िम्मेदारी, इस नई एशियाई व्यवस्था के कंधों पर ही आएगी.

आज यूरोप में रूस की हरकतों और एशिया में चीन के विस्तारवाद ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति की पुरानी अनिश्चितताओं को बदल दिया है. ऐसे में भारत के पास ये मौक़ा है कि वो भू-राजनीतिक धारा के इस बहाव में मूकदर्शक बनने के बजाय इसका रुख़ मोड़ सके. ये एक ऐसा अवसर है, जिसमें भारत के लिए अक़्लमंदी इसी बात में है कि वो इसे हाथ से न जाने दे.

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