पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को तोशाखाना मामले में भ्रष्टाचार के आरोप में दोषी ठहराया गया है. हालांकि, इमरान ख़ान को दोषी ठहराया जाना और जेल भेजना कोई हैरानी वाली बात नहीं है, क्योंकि 9 मई को असफल बगावत के बाद से ही वे निशाने पर थे. दरअसल, आश्चर्य वाली बात तो यह है कि अप्रैल 2022 में सत्ता से बेदख़ल होने बाद पाकिस्तान की सेना ने इमरान ख़ान का समर्थन किया. एक साल से अधिक समय तक इमरान ख़ान को पाकिस्तानी आवाम की भावनाओं को भड़काने, देश की सड़कों पर प्रदर्शन एवं आंदोलन करने की अनुमति दी गई, साथ ही पाकिस्तानी सैन्य प्रमुख जनरल असीम मुनीर के ख़िलाफ़ खुलेआम विश्वासघात और धोखे के आरोप लगाने दिए गए. इतना ही नहीं इमरान ख़ान के इर्द-गिर्द रहने वाले उनके नज़दीकी लोगों ने सेना के अधिकारियों के विरुद्ध सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए बेहद भद्दे और अपमानजनक आरोप लगाए. लेकिन 9 मई के बाद स्थितियां बदल गईं और जो क़रीबी थे वे एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हो गए, साथ ही यह भी पूरी तरह से स्पष्ट हो गया कि जनरल असीम मुनीर और पाकिस्तानी सेना में बैठे उनके समर्थक इमरान ख़ान को धूल चटाने के लिए हर संभव कोशिश करेंगे. पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ दर्ज़ मामलों की संख्या दो सौ पहुंच गई है. इनमें भ्रष्टाचार से लेकर देशद्रोह और हत्या से लेकर आतंकवाद तक के मामले शामिल हैं. इतना ही नहीं इमरान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ (PTI) को तहस-नहस कर दिया गया है और उसे शीर्ष नेताओं से विहीन कर दिया गया है. और तो और PTI के नेताओं को टीवी स्क्रीन पर प्रतिबंधित कर दिया गया है, साथ ही पाकिस्तान के ‘स्वतंत्र और फ्री मीडिया’ पर उनका नाम तक नहीं लिया जा सकता है. जिन नेताओं ने अभी तक इमरान ख़ान का साथ नहीं छोड़ा है, वे या तो निर्वासन में हैं, छुपे हुए हैं या फिर जेलों में बंद हैं. अगर इनमें से कोई भी इमरान समर्थक नेता जमानत पाने में क़ामयाब हो जाता है, तो उसे जेल से बाहर निकलते ही दोबारा गिरफ़्तार कर लिया जाता है. इससे इमरान समर्थक नेताओं के काम-धंधे और रोजी-रोटी प्रभावित हुई है, साथ ही उनके परिवारों को भी निशाना बनाया गया है. लेकिन इमरान के समर्थकों पर इतनी सख़्त कार्रवाई होने के बावज़ूद, वह पाकिस्तान में सर्वाधिक लोकप्रिय पॉलिटिकल लीडर बने हुए हैं.
आश्चर्य वाली बात तो यह है कि अप्रैल 2022 में सत्ता से बेदख़ल होने बाद पाकिस्तान की सेना ने इमरान ख़ान का समर्थन किया. एक साल से अधिक समय तक इमरान ख़ान को पाकिस्तानी आवाम की भावनाओं को भड़काने, देश की सड़कों पर प्रदर्शन एवं आंदोलन करने की अनुमति दी गई
सरकरी तोह़फ़ा
इमरान ख़ान को तोशाखाना मामले में सज़ा और जेल के क़ानूनी और राजनीतिक, दो तरह के पहलू हैं. क़ानूनी लिहाज़ से देखा जाए तो यह मामला इमरान के खिलाफ़ अचानक की गई कार्रवाई थी, जिसका उन्हें कतई अंदाज़ा नहीं था. ज़ाहिर है कि इमरान ख़ान को “तोशाखाना से गिफ्ट्स के ज़रिए अर्जित की गई संपत्ति के संबंध में ग़लत बयानबाज़ी और घोषणा करके और उसे प्रकाशित करके भ्रष्टाचार करने” के मामले में दोषी ठहराया गया है. इमरान को फिलहाल गिरफ़्तार किया जा चुका है और तीन साल के लिए कारावास में डाल दिया गया है. हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे इस निर्णय के विरुद्ध ऊपरी अदालतों में अपील करेंगे और उम्मीद है कि वहां से उन्हें राहत भी मिल जाए. इमरान ख़ान के वक़ीलों की तरफ से ऊपरी अदालतों में जो दलील दी जाएगी, उनमें से एक यह होगी कि ट्रायल कोर्ट का फैसला अफरा-तफरी में सुनाया गया और उन्हें निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार से वंचित कर दिया गया, क्योंकि उन्हें अपना पक्ष रखने का मौक़ा नहीं दिया गया. इमरान के वक़ीलों को इस बात का पक्का विश्वास है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश उनकी दलीलों पर ध्यान देंगे और उनके पक्ष में फैसला सुनाएंगे. लेकिन यहां जो कुछ दिखाई दे रहा है, सच्चाई उससे कहीं अलग और पेचीदा है. दरअसल, सच्चाई यह है कि इमरान ख़ान की ओर से मुक़दमे की कार्रवाई से बचने के लिए टाल-मटोल करने और लटकाने की रणनीति अपनाई गई है. ट्रायल कोर्ट के न्यायाधीश हुमायूं दिलावर हालांकि, इमरान मामले में लगातार देरी करने के लिए तैयार नहीं थे. यह ज़रूर है कि इस न्यायाधीश के ख़िलाफ़ पक्षपातपूर्ण कार्रवाई करने के आरोप लगाए गए हैं और उनके फेसबुक पेज पर इमरान विरोधी कुछ पोस्ट भी हैं. लेकिन मामले की मेरिट के हिसाब से देखा जाए, तो इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ जो सबूत थे, उनमें कोई दम नहीं था और एक हिसाब से वे बेदाग और बेकसूर थे.
यह ज़रूर है कि इस न्यायाधीश के ख़िलाफ़ पक्षपातपूर्ण कार्रवाई करने के आरोप लगाए गए हैं और उनके फेसबुक पेज पर इमरान विरोधी कुछ पोस्ट भी हैं. लेकिन मामले की मेरिट के हिसाब से देखा जाए, तो इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ जो सबूत थे, उनमें कोई दम नहीं था और एक हिसाब से वे बेदाग और बेकसूर थे.
नैतिकता के लिहाज़ से देखें, तो तोशखाना मामले में इमरान ख़ान ने जो कुछ भी किया वह बेशक निंदनीय था. दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों के मिलने वाले उपहारों को अपने निजी फायदे के लिए बेचना कतई ठीक नहीं है और क़ानूनी तौर पर इमरान इन मूल्यवान चीज़ों की बिक्री से होने वाली आमदनी को छिपाने के दोषी पाए गए हैं. लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि इस सबसे बावज़ूद वो पाकिस्तानी राजनीति की धुरी बने हुए हैं. ज़ाहिर है कि कोर्ट के इस निर्णय से उनकी लोकप्रियता पर वास्तविकता में कोई असर नहीं पड़ेगा. लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि उन्हें इस मामले में सज़ा मिलने का मतलब है कि वे पांच साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी हो गए हैं और इसने उन्हें ज़्यादा परेशानी में डाल दिया है. इमरान और उनके समर्थकों को इसी तरह के फैसले की ही उम्मीद थी और उनके समर्थकों को पक्का यकीन है कि ये महज इमरान ख़ान को निकट भविष्य में सक्रिय राजनीति से दूर करने की शुरुआत है. माना जा रहा है कि कम से कम जब तक जनरल असीम मुनीर पाकिस्तानी आर्मी चीफ बने रहेंगे, तब तक तो इमरान ख़ान की सक्रिय राजनीति में वापसी मुश्किल है. उल्लेखनीय है कि जनरल मुनीर वर्ष 2025 तक या फिर सेवा विस्तार मिलने पर वर्ष 2028 आर्मी प्रमुख रह सकते हैं, यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान में सेना प्रमुख को सेवा विस्तार मिलना कोई नई बात नहीं है. एक बात तो तय है कि आमने-सामने की इस क़ानूनी लड़ाई से अन्य राजनीतिक पार्टियों के लिए इमरान फैक्टर की ज़्यादा चिंता किए बगैर अगले चुनावों में हिस्सा लेना आसान हो जाना चाहिए. आख़िरकार इमरान की PTI फिलहाल एक दायरे में सिमट कर रह गई है. सभी बड़े और चुनाव में जीत हासिल करने योग्य नेताओं ने इमरान का दामन छोड़ दिया है और जहांगीर तरीन के नेतृत्व वाली इस्तेहकाम पाकिस्तान पार्टी (IPP) एवं इमरान के स्कूल के जमाने के मित्र और खैबर-पख्तूनख्वा के पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व रक्षा मंत्री के नेतृत्व वाले PTI-पार्लियामेंटेरियन जैसे अपने ख़ुद के अलग-अलग राजनीतिक धड़े बना लिए हैं.
बढ़ती लोकप्रियता
देखा जाए तो सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि इमरान ख़ान के विरुद्ध विभिन्न कार्रवाइयों के बावज़ूद, इसमें कोई दो राय नहीं है कि वे पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा लोकप्रिय हो गए हैं. तीन बातें ऐसी हैं, जिन्होंने इमरान के पक्ष को मज़बूत करने का काम किया है: 1) सत्ता पक्ष के सामने डटकर खड़ा होना और चुनौती देना: पाकिस्तानी आवाम किसी ऐसे व्यक्ति से दिल खोलकर मोहब्बत करती है, जो बड़ी ताक़तों के समक्ष सीना तानकर खड़ा होता है और परेशानी के बावज़ूद पीठ नहीं दिखाता; 2) वित्त मंत्री इशाक डार द्वारा अर्थव्यवस्था का ख़राब तरीक़े से प्रबंधन करना, जिसने देश के लोगों को असाधारण संकट में धकेल दिया है और उनका जीना दूभर कर दिया है; 3) यह सच्चाई है कि इमरान का बुनियादी समर्थन आधार बरक़रार है और उसमें कोई बिखराव नहीं हुआ है, जबकि उनकी विरोधी पार्टियां, एंटी-इमरान वोटों को विभाजित कर रही होंगी. सबसे ख़ास बात यह है कि तमाम नेताओं के इमरान की पार्टी छोड़ने के बाद भी वास्तव में उनके समर्थन आधार पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा है. वास्तविकता में देखा जाए, तो IPP या फिर PTI-P ने ज़मीनी स्तर पर सचमुच में कोई लहर पैदा नहीं की है. ये राजनीतिक दल न तो मतदाताओं के बीच कोई उत्साह पैदा कर पाए हैं और न ही मतदाताओं की भावनाओं को ही समझ पाए हैं. इमरान का साथ छोड़ने वालों में आत्मविश्वास की ज़बरदस्त कमी है और यह IPP के एक चोटी के नेता के ट्वीट से साफ तौर पर ज़ाहिर भी होता है. इस नेता ने अपने ट्वीट में कहा था कि चुनाव से कोई समाधान नहीं निकलेगा, क्योंकि अगर इमरान चुनाव में हारते हैं, तो वे चुनाव परिणामों को स्वीकार नहीं करेंगे और अगर वह जीत जाते हैं (स्पष्ट तौर पर यह स्वीकार करते हुए कि यह संभव हो सकता है), तो वे न केवल अपने राजनीतिक विरोधियों, बल्कि सेना (जहां उन्हें अभी भी काफ़ी हद तक समर्थन हासिल है), मीडिया, न्यायपालिका और ब्यूरोकेसी के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त तरीक़े से दमनकारी कार्रवाई शुरू करेंगे. इमरान के विरोधी गुट में इस बात का भी भय है कि अगर उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है, तब भी वे सारे गुणा-गणित को उलट-पुलट सकते हैं. दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो इमरान ख़ान चुनाव में कुछ उसी तरह के अप्रत्याशित नतीज़े ला सकते हैं, जैसा ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने 1970 में किया था, जब भुट्टो की पार्टी के अनजान एवं नए-नए उम्मीदवारों ने जनता के बीच पैठ रखने वाले जमे-जमाए पारंपरिक राजनेताओं को धूल चटा दी थी. इसका साफ-साफ मतलब यह है कि चाहे इमरान ख़ान राजनीतिक तौर पर पूरी तरह से प्रभावहीन हो गए हों, या फिर चुनाव के नतीज़े पहले से निर्धारित हों और हर कोई सिर्फ़ ‘स्वतंत्र व निष्पक्ष’ चुनाव की दिशा में आगे बढ़ता दिखता हो (हालांकि, ऐसा वर्ष 1970 के बाद कभी नहीं हुआ है), इमरान ख़ान के विरुद्ध जो कुछ भी किया जाता है, उसके अनपेक्षित परिमाण ही सामने आएंगे. हालांकि सब यह मान कर चल रहे हैं कि पाकिस्तान में चुनाव ज़रूर होते हैं और कार्यवाहक सरकार लंबे समय तक नहीं रहती है.
धरातल पर जो राजनीतिक स्थिरता का आभास दिखाई दे रहा है, यह स्थिति उलट भी सकती है, अगर चुनाव में गड़बड़ी होने पर लोग सड़कों पर उतर आएं और व्यापक स्तर पर हंगामा करने लग जाएं.
इसमें कोई सोचने वाली बात नहीं है कि सरेआम हेरा-फेरी वाले चुनाव का पाकिस्तान की राजनीति पर अपनी तरह का ही असर पड़ेगा. आलोचक तर्क देंगे कि पाकिस्तान में कुछ भी नहीं बदला है और जिस प्रकार से पिछले इलेक्शन के दौरान किसी न किसी राजनीतिक पार्टी के पक्ष में नतीज़े तय हुए थे, ठीक वैसा ही इस दफ़ा भी दोहराया जा सकता है. इसका मतलब है कि इमरान ख़ान अब इतिहास का हिस्सा हैं, यानी उनकी सत्ता में वापसी नामुमकिन है. लेकिन उस परिस्थिति में क्या होगा कि अगर पाकिस्तान में सच्चाई में बहुत कुछ बदल गया हो? आख़िरकार, पिछले 75 वर्षों के दौरान किसी ने भी एक राजनेता को कब सेना के ख़िलाफ़ तनकर खड़े होते देखा है, इतना ही नहीं कब किसी ने एक राजनेता को न सिर्फ़ आर्मी बल्कि हर संवैधानिक संस्था को बांटकर अपने लिए एक ऐसा सपोर्ट बेस बनाते हुए देखा है, जो वास्तव में सेना को ही अपने हाथों में ले ले? धरातल पर जो राजनीतिक स्थिरता का आभास दिखाई दे रहा है, यह स्थिति उलट भी सकती है, अगर चुनाव में गड़बड़ी होने पर लोग सड़कों पर उतर आएं और व्यापक स्तर पर हंगामा करने लग जाएं. इतना ही नहीं, यदि इलेक्शन में कुछ हफ्तों से ज़्यादा की देरी होती है, तो सेना को उन राजनेताओं की ओर से भी विरोध का सामना करना पड़ सकता है, जो अपने फायदे के लिए फिलहाल सेना के जनरलों के समक्ष दण्डवत हैं.
सुशांत सरीन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.