कोरोना महामारी के दौरान क़रीब डेढ़ साल तक बंद रहने के बाद, पूरे दक्षिण एशिया में स्कूलों को कुछ सावधानियों के साथ फिर से खोला जाने लगा है. पर चूंकि, अभी तीसरी लहर का ख़तरा हमारे सिर पर मंडरा ही रहा है, तो अभी सभी कक्षाओं के चलने और हालात फिर से सामान्य होने में अभी और वक़्त लगेगा. वहीं, लंबे समय तक स्कूल बंद रहने से, और मां व बच्चों की देखभाल की सुविधाओं में ख़लल पड़ने के गहरे दुष्प्रभाव उजागर होने में शायद उससे भी अधिक समय लगेगा. यूनिसेफ़ द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक़ मार्च 2020 से फ़रवरी 2021 के दौरान पूरे दक्षिण एशिया में सारे स्कूल पठन- पाठन के औसतन 146 दिन तक बंद रहे हैं; अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि इस दौरान क़रीब 90 लाख बच्चों का स्कूल हमेशा के लिए छूट गया. इनमें से आधी लड़कियां हैं. पिछले साल सितंबर में विश्व बैंक द्वारा दक्षिण एशिया पर जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि पांच महीनों तक स्कूल से बाहर रहने से बच्चों के आधे साल की स्कूल की पढ़ाई का नुक़सान हुआ है. इसे लर्निंग एडजस्टेड ईयर्स ऑफ़ स्कूलिंग (LAYS) कहते हैं. विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक़, महामारी के चलते बच्चों की पढ़ाई के औसत 6.5 LAYS घटकर 6.0 LAYS ही रह गए. उनकी ज़िंदगी भर की पढ़ाई में पांच फ़ीसद का नुक़सान हुआ. आज एक साल बाद बच्चों की पढ़ाई को हुआ ये नुक़सान और भी बढ़ गया होगा.
पिछले साल पूरे दक्षिण एशिया में, ज़्यादातर समय तक मां, नवजात और किशोर उम्र बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं बंद रही थीं और अब तक वो दोबारा सामान्य नहीं हो सकी हैं. बाल विवाह में तेज़ी आने से किशोर उम्र लड़कियों के गर्भवती होने की तादाद क़रीब 4 लाख बढ़ गई.
पिछले साल पूरे दक्षिण एशिया में, ज़्यादातर समय तक मां, नवजात और किशोर उम्र बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवाएं बंद रही थीं और अब तक वो दोबारा सामान्य नहीं हो सकी हैं. बाल विवाह में तेज़ी आने से किशोर उम्र लड़कियों के गर्भवती होने की तादाद क़रीब 4 लाख बढ़ गई. लेकिन, मां और बच्चों के पोषाहार की सेवाएं और बच्चा पैदा होने के बाद मिलने वाली सेवाएं ठप पड़ने से मां और नवजात बच्चों की मौत की तादाद बढ़ गईं. यूनिसेफ़ के आकलन के मुताबिक़, टीकाकरण अभियान ठप होने से भी भारी नुक़सान हुआ है. ख़ास तौर से बच्चों के पोषण से होने वाले फ़ायदों पर काफ़ी बुरा असर पड़ने की आशंका है. दक्षिण एशिया में असंगठित क्षेत्र का दायरा काफ़ी व्यापक है. ऐसे में कोविड-19 के बाद बच्चों के कामकाजी होने और बाल मजदूरी में भी इज़ाफ़ा हो चुका है. इसके बाद कोरोना महामारी में अपने मां-बाप को गंवाने के चलते अनाथ हुए बच्चे हैं. इनमें से सबसे ग़रीब तबक़े के बच्चों के बेघर होने और उनका अधिक शोषण होने की आशंका बढ़ गई है. अचानक मां-बाप को गंवाने के चलते इन बच्चों के सामने पहले ही मनोवैज्ञानिक दबाव और जज़्बाती ख़ला की चुनौती खड़ी है. ख़बरों के मुताबिक़, बच्चों की तस्करी और उनके शोषण की घटनाएं बढ़ गई हैं.
महामारी से पहले भी इस क्षेत्र में बच्चों की स्थिति अपेक्षा से कहीं ज़्यादा ख़राब थी. दुनिया भर में सबसे ज़्यादा कुपोषित बच्चे दक्षिण एशिया में ही आबाद हैं. सभी देशों में सामाजिक सुरक्षा का एक कवच है जिसके दायरे में ग़रीब घरों की महिलाएं और बच्चे आते हैं. मिसाल के तौर पर, भारत में निर्देश जारी किए गए थे कि एकीकृत बाल विकास योजना के केंद्रों के माध्यम से गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाओं और बच्चों (0 से छह साल उम्र) को पूरक पोषाहार और गर्म पका हुआ खाना देने के बदले में सूखा राशन या नक़द रक़म मुहैया करायी जाए. इसमें रिहाइशी आदिवासी स्कूलों में पढ़ने वाले उन बच्चों को भी ये सुविधा देने को कहा गया था, जिन्हें लॉकडाउन के बाद स्कूल बंद होने के कारण घर वापस भेज दिया गया था; हालांकि इन निर्देशों का पालन और महिलाओं- बच्चों को राशन मुहैया कराने का काम उम्मीद से काफ़ी कम रहा है. वर्ष 2030 तक स्थायी विकास के लक्ष्य के तहत भुखमरी से शून्य मौत का लक्ष्य हासिल करना अब दूर की कौड़ी लगने लगा है. SDG-4 के तहत सबको समान रूप से अच्छी शिक्षा देने की बात तो बहुत दूर की बात हो गई है.
वर्ष 2015 की अंतरराष्ट्रीय मज़दूर संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण एशिया, दुनिया भर में सबसे ज़्यादा बाल मज़दूरी कराने वाले इलाक़ों में से एक है. यहां 5 से 17 साल उम्र के क़रीब 1 करोड़ 70 लाख से ज़्यादा बच्चे बाल मज़दूरी करते हैं. लॉकडाउन के चलते रोज़ी रोटी छिनने और भूख और खाने की कमी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ गई है.
बच्चों के कोमल मन पर ज़िंदगी भर के ज़ख़्म
वर्ष 2015 की अंतरराष्ट्रीय मज़दूर संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण एशिया, दुनिया भर में सबसे ज़्यादा बाल मज़दूरी कराने वाले इलाक़ों में से एक है. यहां 5 से 17 साल उम्र के क़रीब 1 करोड़ 70 लाख से ज़्यादा बच्चे बाल मज़दूरी करते हैं. लॉकडाउन के चलते रोज़ी रोटी छिनने और भूख और खाने की कमी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ गई है. ढाका, जहां की ये लेखिका रहने वाली है, वहां सड़कों पर भीख मांगने वालों की बढ़ी हुई संख्या साफ़ नज़र आती है. ख़ास तौर से इस साल जुलाई में सेकेंड वेव की रोकथाम के लिए लगे लॉकडाउन के बाद तो भिखारियों की तादाद कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई है. अगर कोई स्थानीय किराने की दुकान पर जाता है, तो उनके पीछे भीख मांगने वाली महिलाओं और बच्चों की क़तार लग जाती है. आप ढाका की सड़क पर लगे भयंकर जाम में फंसे हों, तो कई बच्चे अपने से छोटे बच्चों को गोद में लेकर कार की खिड़कियों पर दस्तक देकर भीख मांगते नज़र आते हैं. कुछ महीनों पहले तक ऐसे हालात नहीं थे. बांग्लादेश में बाल विवाह की संख्या पहले से ही काफ़ी ज़्यादा है. अपनी उम्र के तीसरे दशक की ब्याहता महिलाओं में से आधी से ज़्यादा लड़कियों की शादी 18 साल की होने से पहले हो चुकी होती है. महामारी के चलते भयंकर ग़रीबी और भुखमरी के चलते न जाने कितनी और लड़कियों को कम उम्र में ब्याह के बंधन में बांध दिया गया होगा.
दु:ख की बात ये है कि इस महामारी ने बहुत से बच्चों का बचपना छीन लिया और उन्हें ज़िंदगी भर के लिए ज़ख़्म दे दिए हैं. बच्चों के ऊपर पड़े ऐसे नकारात्मक असर से उन्हें उबारने और उनकी देख-रेख करने के लिए संवेदनशील और मज़बूत प्रयास करने की ज़रूरत है.
स्कूल बंद होने के चलते मोहल्ले में किराने की दुकान चलाने वाले का बेहद तेज़ दिमाग़ लड़का अब दुकान में अपने पिता का हाथ बंटाता है. उसके जैसे न जाने कितने बच्चे ऐसा करने को मजबूर होंगे. भले ही वो लड़का अपने पिता की मदद करते हुए ख़ुद को मसरूफ़ रख रहा है. लेकिन, उसकी ये उम्र तो ऐसी है जिसमें उसे या तो पढ़ना चाहिए या फिर अपने हम उम्र बच्चों के साथ खेलने- कूदने का मौक़ा मिलना चाहिए. स्कूल और कॉलेज पिछले एक साल से भी ज़्यादा वक़्त से ऑनलाइन कक्षाएं चला रहे हैं. ये बच्चों के साथ साथ अध्यापकों के लिए भी बड़ी चुनौती साबित हुआ है. उन्हें क्लास लेने या देने के लिए तकनीक के हिसाब से ख़ुद को ढालना पड़ा है. अध्यापकों को बच्चों की पढ़ाई का मूल्यांकन करने के लिए नए तरीक़े ईजाद करने पड़े हैं. कम आमदनी वाले घरों के बच्चों के लिए तो ये चुनौती और भी बड़ी साबित हुई है, क्योंकि ऐसे घरों के हर बच्चे के पास स्मार्टफ़ोन होना मुश्किल है, तो उन्हें एक ही फ़ोन या लैपटॉप या कंप्यूटर से सबको पढ़ाने का काम करना पड़ा. भारत के मीडिया में ऐसी तमाम ख़बरें आईं कि कई बच्चों ने इसलिए ख़ुदकुशी कर ली क्योंकि उनके मां-बाप स्मार्टफ़ोन नहीं ख़रीद सकते थे. इसके अलावा इस क्षेत्र के सभी देशों के दूर-दराज़ के इलाक़ों में इंटरनेट या ब्रॉडबैंड की कनेक्टिविटी भी एक बड़ी चुनौती रही है. मीडिया में ऐसी कई ख़बरें आईं जिनके मुताबिक़ कनेक्टिविटी के लिए बच्चों को कई मील दूर चलकर जाना पड़ता था. भारत के नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन द्वारा घरों में शिक्षा की सामाजिक खपत से जुड़ी 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक़, वर्ष 2017-18 में केवल गांवों में केवल 4.4 प्रतिशत घरों में ही कंप्यूटर था और सिर्फ़ 14.9 फ़ीसद घरों में इंटरनेट कनेक्शन लगा हुआ था; इसी दौरान शहरों में 23.4 प्रतिशत घरों में कंप्यूटर और 42 फ़ीसद घरों में इंटरनेट की सुविधा थी. इन आंकड़ों से साफ़ है कि ई-लर्निंग की सुविधा सबको समान रूप से उपलब्ध नहीं थी. इन आंकड़ों से तो, ऑनलाइन कक्षाओं की उपयोगिता पर भी सवाल खड़े होते हैं. कोविड-19 ने इस असमानता और डिजिटल खाई को और गहरा ही किया है.
भारत के मीडिया में ऐसी तमाम ख़बरें आईं कि कई बच्चों ने इसलिए ख़ुदकुशी कर ली क्योंकि उनके मां-बाप स्मार्टफ़ोन नहीं ख़रीद सकते थे. इसके अलावा इस क्षेत्र के सभी देशों के दूर-दराज़ के इलाक़ों में इंटरनेट या ब्रॉडबैंड की कनेक्टिविटी भी एक बड़ी चुनौती रही है.
कोविड-19 के चलते लंबे समय तक स्कूल बंद होने, और हम उम्र बच्चों के बीच संवाद, खेल कूद और मेल-जोल से रोके से रोके जाने का बच्चों पर बहुत बुरा मानसिक और जज़्बाती असर पड़ना भी दिखने लगा है. बच्चों की मदद के लिए उन्हें काउंसलिंग की ज़रूरत है. संक्षेप में कहें तो इस महामारी ने दक्षिण एशिया ही नहीं, शायद पूरी दुनिया में और समाज के सभी वर्गों के बच्चों पर कई तरह से बुरा असल डाला है. महामारी ने हमारी ज़िंदगी को किस तरह प्रभावित किया है और हमें ख़ुद को कैसे इसके हिसाब से ढालना है, ये समझने के साथ साथ हमें बच्चों पर इसके बुरे प्रभाव से जुड़ी समझ बढ़ाने की भी ज़रूरत है. दु:ख की बात ये है कि इस महामारी ने बहुत से बच्चों का बचपना छीन लिया और उन्हें ज़िंदगी भर के लिए ज़ख़्म दे दिए हैं. बच्चों के ऊपर पड़े ऐसे नकारात्मक असर से उन्हें उबारने और उनकी देख-रेख करने के लिए संवेदनशील और मज़बूत प्रयास करने की ज़रूरत है. उनकी शारीरिक सेहत के साथ साथ मानसिक सेहत का भी ख़याल रखने की आवश्यकता है. सरकार में बैठे नीति निर्माताओं, शिक्षा अधिकारियों, अध्यापकों और अभिभावकों, यानी सबको को इस चुनौती को समझकर इससे निपटने की तैयारी करनी होगी. नीति निर्माताओं को इस महामारी को एक अवसर के रूप में देखना चाहिए. उन्हें चाहिए कि वो तमाम मोर्चों पर फैली असमानता को दूर करने के लिए मज़बूत क़दम उठाएं और हमारे बच्चों का भविष्य बेहतर बनाने के लिए काम करें.
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