Published on Jun 18, 2021 Updated 0 Hours ago

“ग्रामीण भारत में कोविड-19 की महामारी पर जीत: योजना व कार्यवाई का ब्लूप्रिंट” ओआरएफ की खास रिपोर्ट संख्या 146, जून 2021, ऑब्ज़र्वर रीसर्च फाउंडेशन. 

ग्रामीण भारत में कोविड-19 की महामारी पर कैसे जीत हासिल हो: योजना व कार्यवाही का ब्लूप्रिंट

2021 में नए साल की शुरुआत में भारत में जनवरी और फरवरी के बीच रोज़ाना 15000 से कम कोविड-19 के मामले सामने आ रहे थे.लेकिन जल्दी ही इसमें बढ़ोत्तरी हुई और सात अप्रैल को मामलों की प्रतिदिन संख्या 1,26,260 हो गई, जिसमें सात दिनों का औसत एक लाख [1] से ऊपर था. तब तक ये तय हो चुका था कि कोविड की दूसरी लहर पहली लहर की तुलना में कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होने वाली थी. कोविड संक्रमण और उससे हुई मौतों में आई ये ख़तरनाक तेज़ी पूरी दुनिया में अख़बारों की सुर्खियां बनकर छा गई क्योंकि सोशल मीडिया पर जलती हुई सामूहिक चिताएं, मुफ़्त ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए पूजा घरों के सामने लगी कतारें वायरल हो रही थीं.

आज, पूरे दो महीने बाद जब बड़े शहरों में कोरोना के सक्रिय मामलों में गिरावट देखी गई है, महामारी बड़ी तेज़ी से ग्रामीण क्षेत्रों में फैलती जा रही है, जिसमें राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल शामिल हैं, जहां कोरोना के मामले सबसे अधिक पाए गए हैं (चित्र संख्या एक देखें). स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) की एक रिपोर्ट के अनुसार, मई महीने के मध्य तक आते-आते देश के सभी नए केसों में आधा हिस्सा ग्रामीण इलाकों से आने वाले केसों का था [2]. महाराष्ट्र का अमरावती सबसे बुरी तरह प्रभावित इलाक़ों में था [3]. जो उसी राज्य के नागपुर ज़िले के साथ अब हॉटस्पॉट बन चुका है. हरियाणा में कोविड-19 से हुई मौतों का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा उसके ग्रामीण इलाकों से था, जिसमें हिसार (258) में सबसे अधिक मौतें हुईं, उसके बाद भिवानी (217), फतेहाबाद (159) और करनाल (150) थे [4]. कोरोना की दूसरी लहर ने गुजरात के ग्रामीण इलाकों को भी अपने चपेट में ले लिया [5]. राज्य में 20 दिनों के भीतर सिर्फ़ एक गांव में 90 मौतें हुईं, जिसकी जनसंख्या सिर्फ़ 13000 है. भारत के दो सबसे बड़े और सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्यों, उत्तर प्रदेश और बिहार, में भी ग्रामीण इलाक़ों और देहातों में कोरोना के मामलों में कई गुना बढ़ोत्तरी देखी गई. [6]

इस बात को लेकर संदेह न रखें कि ग्रामीण इलाक़ों में कोरोना की मौजूदगी आधिकारिक आंकड़ों से कई गुना अधिक हो सकती है, क्योंकि उन इलाक़ों में जांच दर बेहद कम रही है [7] और लोग भी कोविड-19 की जांच के प्रति उदासीन रहे [8]. जैसा कि हम जानते हैं कि ग्रामीण इलाक़ों में मेडिकल सुविधाओं का जिस क़दर अभाव है, उसमें एक महामारी के फैलाव को रोकना और संभालना उससे कहीं अधिक कठिन हो सकता है, जितना कि साल के शुरुआती महीनों में शहरी क्षेत्रों में महामारी नियंत्रित करने में कठिनाई महसूस की गई.

इसी के साथ शहरी इलाक़ों की तुलना में ग्रामीण इलाक़ों में वैक्सीन का प्रसार कम रहा है (चित्र संख्या 3 देखें). इसके कुछ मुख्य कारण रहे: इंटरनेट सुविधाओं का अभाव, स्मार्ट फ़ोनों तक पहुंच की कमी, डिजिटल साक्षरता का अभाव और वैक्सीन की सुरक्षा को लेकर पूर्वाग्रह. [12]

इसके अलावा, वैक्सीनों की उपलब्धता भी समस्या का एक कारण रही, जिसने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच इस कमी को और बढ़ावा दिया [13].

पिछले साल दिसंबर में 16 राज्यों के 60 ज़िलों में किए गए एक सर्वे में पता चला कि लोगों में वैक्सीनों को लेकर उत्साह बेहद कम है और केवल 44% लोगों ने कहा कि वे इसके लिए कोई शुल्क देना चाहेंगे [14].

देखा जाए तो जब भारत की करीब 65% जनसंख्या ग्रामीण इलाक़ों में रहती है [15], तो ऐसे में उन इलाक़ों में स्वास्थ्य आपदा की किसी आशंका को रोकने के लिए जल्द से जल्द पर्याप्त क़दम उठाए जाने की आवश्यकता है. गहराता आर्थिक संकट इन चुनौतियों को और विकट बना रहा है.

संक्रमण में वृद्धि को रोकने के लिए, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में लॉकडाउन लगाया गया है. नतीजतन, ग्रामीण जो ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर या आस पास के शहरों में रेहड़ी पटरी पर सामान बेचने वाले हैं, अपनी आजीविका खो चुके हैं. जबकि बड़े शहरों में काम करने वाले इन मज़दूरों के पैसों पर ही उनके गांव के परिजन निर्भर थे. फरवरी की शुरुआत में शहरी क्षेत्रों में कोरोना मामलों में वृद्धि के कारण उन शहरों से प्रवासी श्रमिकों का एक बार और पलायन हुआ, जैसा कि पिछले साल महामारी की पहली लहर के दौरान केंद्र सरकार द्वारा देशव्यापी तालाबंदी के ऐलान के बाद हुआ था. जिसका परिणाम ये हुआ कि गांवों में परिवारों की आय बेहद कम हो गई जिसने अधिकतर परिवारों को भुखमरी और कर्ज़ के बोझ तले दबा दिया. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार गांवों में कई परिवार अब पूर्ण आहार नहीं ले पा रहे हैं और उनकी थाली से पोषक आहार जैसे दाल और सब्जियां गायब हो गई हैं [16].

कुल मिलाकर अक्टूबर 2020 के एक सर्वे के अनुसार 11 राज्यों के लगभग 70 फीसदी परिवार अपने भोजन में पोषक आहार नहीं ले पा रहे और उनमें से लगभग आधे लोग एक वक्त का खाना नहीं खा पा रहे हैं [17] अगर भारत को अपने आंतरिक इलाकों को किसी मानवीय आपदा से सुरक्षित रखना है तो उसे वायरस के प्रसार को रोकने के लिए किसी कारगर रणनीति को अपनाना होगा, जो न सिर्फ़ ईमानदार हो बल्कि वो लक्षित प्रयास के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मज़बूत करे और ग्रामीण जनता को कल्याणकारी सुविधाओं का लाभ दे.

ये एक स्पेशल रिपोर्ट है जो भारत के ग्रामीण इलाक़ों में कोरोना महामारी को लेकर पैदा हुए ख़तरों और चुनौतियों को रेखांकित करती है, और एक दस सूत्रीय कार्यक्रम के माध्यम से महामारी को नियंत्रित करने एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के उपाय सुझाती है. इस रिपोर्ट का बाक़ी हिस्सा ग्रामीण इलाकों में सरकारी प्रयासों का लेखा जोखा सामने रखता है, उन इलाक़ों की विशिष्ट चुनौतियों पर बात करता है और इन चुनौतियों से निपटने हेतु एक दस सूत्रीय कार्यक्रम को अपनाने की तात्कालिक ज़रूरत पर ज़ोर डालता है. इसके अलावा यह रिपोर्ट, एक टास्क फोर्स के गठन, और ग्रामीण भारत के लिए एक स्पेशल इकोनॉमिक पैकेज की बात करती है.

सरकार की मौजूदा रणनीति:

केंद्र सरकार ने मई 2021 में कोरोना महामारी के प्रबंधन हेतु एक एसओपी (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) यानी एक मानक कार्यसंचालन विधियों की सूची जारी की, जो शहरी, ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों के लिए एक समान थी. [18],[19]

इसके अनुसार राज्यों के स्वास्थ्य सचिवों को स्थानीय स्तर पर इन मानकों के कार्यान्वयन की निगरानी का भार सौंप दिया गया. इनमें शामिल प्रमुख कार्रवाईयां थीं:

1) पंजीकृत व मान्यता प्राप्त आशा कर्मचारियों को पंचायती राज संस्थानों के जरिए उन्हें कोविड के शुरुआती लक्षणों को पहचानने की ट्रेनिंग दी जाए. [20]

2) औरतों के स्वयं सहायता समूहों का इस्तेमाल लोगों को कोरोना के लक्षणों के प्रति सजग करने और महामारी के प्रोटोकॉल के अनुसार व्यवहार अपनाने के लिए जागरूकता अभियान चलाने में किया जाए.

3) टेस्ट, ट्राइएज और ट्रीटमेंट- स्क्रीनिंग टेस्ट, आइसोलेशन यानी संक्रमित मरीज़ों को अलग रखने व गंभीर मामलों को हस्तांतरित करने की व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करना और होम आइसोलेशन के मामलों पर कड़ी निगरानी रखना. कोविड-19 के उपचार के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार करना और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता प्रदान करना.

4) राज्य स्वास्थ्य कर्मचारियों की निगरानी में गंभीर मरीज़ों पर नज़र रखना ताकि मृत्यु दर पर काबू पाया जा सके.

5) टीकाकरण गतिविधियों में तेज़ी लाना, खासकर 45 साल से ऊपर के व्यक्तियों में. आशा कर्मचारियों और ब्लॉक मेडिकल अफसरों के ज़रिए लोगों को टीकाकरण के लिए प्रोत्साहित करना.

6) केंद्र और राज्य सरकारों की योजनाओं के जरिए खाद्यान्नों का वितरण, पेयजल, साफ़-सफ़ाई की सुविधाएं प्रदान करना और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत लोगों को रोज़गार देना. आपातकालीन सेवाओं के लिए आस पास के ज़िलों/कस्बों में चिकित्सा सुविधाओं को आपस में जोड़ना [21].

7) एक त्रिस्तरीय ढांचे का निर्माण करना. जिसमें पहले स्तर पर कोरोना के हल्के लक्षणों वाले मामलों के लिए कोविड केयर सेंटर का गठन करना, सामान्य रूप से गंभीर मामलों के लिए प्राथमिक या सामुदायिक या उप-केंद्रीय अस्पतालों को तैयार करना और गंभीर मामलों को ज़िला अस्पतालों या निजी अस्पतालों में हस्तांतरित करना. मरीज़ों की आवाजाही के लिए एम्बुलेंस सुविधाओं को तैयार रखना [22].

8) सुदूर ग्रामीण इलाकों और समुदायों के बीच ड्रोनों के जरिए टीकाकरण की संभावनाओं को तलाशना [23]

भारत के गांवों में कोरोना महामारी से जुड़ी चुनौतियां

a) स्वास्थ्य ढांचा

भारत के ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और 2018 से लागू हुई आयुष्मान भारत योजना के चलते सुधार हुआ है. हालांकि ये ढांचा अभी भी कोरोना जैसी महामारी से बचाव कर पाने में अक्षम है. ऐतिहासिक रूप से ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी रही है. (चित्र संख्या 4 देखें)

महामारी के बिना भी ग्रामीण ज़िलों में स्वास्थ्य सुविधाएं गहरे बोझ से चरमराई हुई हैं. ग्रामीण स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-20 के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में उप-केंद्र स्वास्थ्य सुविधा के दायरे में आने वाली औसत जनसंख्या 5,000 के मानदंड के मुकाबले 5,729 है; प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) के लिए यह 35,730 है, जबकि मानदंड 30,000 है, और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) के लिए, यह 120000 के मानक के मुकाबले 171779 ही है. [25]

हर राज्य में स्थितियां अलग अलग हैं. (चित्र संख्या 5, 6, और 7 देखें) उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और उप केंद्रों पर भार पहले से ही काफ़ी अधिक है, जो कोरोना के बढ़ते मामलों के चलते अब पूरी तरह चरमरा गए हैं.

सामान्यतः ग्रामीण भारत में उप-केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में ज़रूरी चिकित्सा उपकरणों और दवाईओं की कमी होती है [29]. उदाहरण के लिए, बिहार से जुड़ी मीडिया रिपोर्टों में बताया गया कि स्वास्थ्य केंद्रों में एम्बुलेंस नहीं है, जिसके कारण कई मरीज़ों को जांच किटों और पैरासिटामोल जैसी बुनियादी दवाओं को ख़रीदने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है [30].

तकनीकों के ज़रिए इस प्रणाली में काफी सुधार किया जा सकता है, ख़ासकर ग्रामीण इलाकों में, लेकिन इंटरनेट कनेक्टिविटी की समस्या और स्मार्टफोनों की कमी इस स्थिति में कोई फौरी सुधार नहीं कर सकती. हालांकि, आयुष्मान भारत योजना के तहत संचार सुविधाओं का विकास करना इसका एक प्रमुख लक्ष्य है, लेकिन न तो सभी आशा कर्मचारियों के पास स्मार्टफोन हैं और न ही सभी उप-केंद्रों में कंप्यूटर उपलब्ध हैं. कुल मिलाकर ग्रामीण जनसंख्या अभी भी स्मार्ट फ़ोन के अभाव में पुरानी तकनीक पर आधारित मोबाइल फोनों पर निर्भर है. इसलिए केंद्र सरकार के ऐसे प्रयास, जिसमें टेली-मेडिसिन और स्पेशलिस्ट डॉक्टरों से सलाह लेना निर्देशित है, ग्रामीण इलाकों में काम नहीं करेंगे.

b) मानव संसाधन

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कुशल स्वास्थ्यकर्मियों की कमी बरकरार है. यह व्यवस्था आशा कर्मचारियों पर अतिशय रूप से निर्भर है, जिन पर स्वास्थ्य सेवा प्रदाता होने के साथ साथ देखभाल संबंधी ज़िम्मेदारियां भी हैं. भारत कोविड-19 की महामारी से निपटने के लिए अपनी 13 लाख महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आंगनबाड़ी कर्मचारी [c][31] पर निर्भर रहा है, जिन्होंने कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग से लेकर लोगों के बीच स्वच्छता अभियान चलाने का काम किया. हालांकि, ऑक्सफैम के एक सर्वे के मुताबिक [32] क़रीब एक चौथाई से ज़्यादा आशा कर्मचारियों को न तो ज़रूरी सुरक्षा उपकरण (मास्क और दस्ताने) मिले और न ही उन्हें कोई मासिक भुगतान दिया गया.

देश के बड़े हिस्से में डॉक्टरों, पैरामेडिकल स्टाफ और स्वास्थ्य कर्मियों/सहायक नर्सों की भारी कमी है. ग्रामीण स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-2020 के अनुसार, ग्रामीण उप-केंद्रों के कुल स्वीकृत पदों में से करीब 14 फीसदी महिला स्वास्थ्य कर्मचारियों/सहायक नर्सों [33] और 37 फीसदी पुरुष स्वास्थ्यकर्मियों के पद खाली हैं. इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों के 1,704 पद रिक्त हैं, साथ ही साथ नर्सिंग स्टाफ (5,772), महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता (5,066), फार्मासिस्ट (6,240), और लैब टेक्नीशियनों (12,098) की कमी है. (देखें चित्र संख्या 8).

कुछ ऐसी ही स्थिति सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की भी है, जिसे विशिष्ट स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे सर्जरी आदि की सुविधाओं के लिए स्थापित किया गया था. ये केंद्र अपने ज़रूरत के सिर्फ 24 फीसदी उपलब्ध संसाधनों के साथ काम कर रहे हैं. (चित्र संख्या 9 देखें) ओडिशा, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में डॉक्टरों, चिकित्सा अधिकारियों और नर्सिंग स्टाफ की सबसे गंभीर कमी है.

c) स्वास्थ्य ढांचे में सार्वजनिक निवेश

पिछले दशक में तृतीयक स्वास्थ्य सेवाओं में सार्वजनिक निवेश में मामूली बढ़ोतरी दर्ज की गई है, खासकर स्वास्थ्यकर्मियों के मामले में. साल 2014 से 2019 के बीच सरकारी मेडिकल कॉलेजों की सीटों में 47 फीसदी वृद्धि हुई, वहीं निजी संस्थानों में ये वृद्धि 33 फीसदी रही. शैक्षणिक वर्ष 2014-15 में कुल 54,348 सीटों से लेकर 2019-20 में 80,312 सीटों तक स्नातक स्तर पर मेडिकल सीटों की संख्या में 48 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है. हालांकि भारत में सरकारी मेडिकल कॉलेजों में सीटों की संख्या में वृद्धि की जी रही थी, इसके अलावा वो स्वास्थ्य सुविधाओं एवं स्वास्थ्यकर्मियों की कमी की भरपाई के लिए निजी क्षेत्रों को भी लाभ दिया जा रहा था, लेकिन लगभग सभी तृतीयक स्वास्थ्य सुविधा केंद्र या हॉस्पिटल शहरी क्षेत्रों में अवस्थित हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) जैसे कार्यक्रमों के मद में ज़्यादा वित्तीय निवेश किए जाने की ज़रूरत है, ताकि ये संसाधन मौजूदा सिस्टम में सुधार करें और कर्मचारियों की कमी को दूर करें. दुर्भाग्य से, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) व एनआरएचएम में कोई बजटीय सुधार की उम्मीद दिखाई नहीं देती, भले ही सरकार ने खुद अपनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के ज़रिए संकल्प लिया है कि वे 2025 तक स्वास्थ्य पर जीडीपी का कुल 2.5 फीसदी हिस्सा ख़र्च करेगी. इसके अलावा, स्वास्थ्य विश्लेषकों ने आवश्यक ख़र्चों एवं वास्तविक ख़र्चों के बीच अंतर की खाई को भी लगातार रेखांकित किया है. (चित्र संख्या 10 देखें)

ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे के निर्माण और सुधार में कमी भी उन्हीं राज्यों में देखने में आई है, जहां इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. [e][38] उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य सुविधाओं पर किए गए अध्ययनों में पता चला है कि अपेक्षाकृत बेहतर संसाधनों वाले राज्यों में कहीं अधिक स्वास्थ्य एवं कल्याण केन्द्र (हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर्स) कार्यशील हैं, जबकि संसाधनविहीन राज्यों में आयुष्मान योजना के तहत बेहद कम स्वास्थ्य सुविधा केंद्रों को स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों के रूप में परिवर्तित किया जा सका है.

जिन राज्यों पर विशेष रूप से ध्यान देने की ज़रूरत है उनमें- बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड शामिल हैं, जहां देश की आधी से ज़्यादा जनसंख्या निवास करती है, उन राज्यों में इन केंद्रों की आनुपातिक संख्या बेहद कम है[39].

साल 2021 के बजट में भी इस दिशा में कोई सुधार नहीं देखा गया सिवाय इसके कि महामारी के चलते कुछ कमियों को पूरा करने के लिए कुछ घोषणाएं की गईं. पिछले साल और इस साल के बजट के अनुमानों के बीच केवल 10.5 फीसदी की मामूली वृद्धि की गई, जबकि ज़मीनी आवश्यकताएं इससे कहीं अधिक बजट आवंटन की मांग कर रही थीं. साल 2021 में आवंटित राशि (746,020 मिलियन रुपए) दरअसल पिछले वर्ष के संशोधित अनुमानों की तुलना में 10 प्रतिशत कम थी, जो कि 824,450 मिलियन रुपए थी.[40]

ये समझा जा सकता है कि स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी निवेश के मामले में भारत ब्रिक्स देशों में सबसे नीचे है [41] (चित्र संख्या 11 देखें) क्योंकि भारत प्रति व्यक्ति आय के पैमाने पर समूह के बाकी देशों की तुलना में सबसे ज्यादा गरीब देश है।

बररहाल पिछले दो दशकों में देश ने काफी तेजी से आर्थिक तरक्की की, उसके बावजूद भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं देखा गया। सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में स्वास्थ्य पर भारत का सामान्य सरकारी व्यय कम प्रति व्यक्ति आय वाले कई देशों की तुलना में कम है (चित्र संख्या 12 देखें)। यहां तक ​​कि छोटे पड़ोसी देश जैसे नेपाल, या अफ्रीकी देश जो भारत से आर्थिक सहायता प्राप्त करते हैं, अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर भारत की तुलना में अधिक खर्च करते हैं।

d) आंकड़ों को जुटाना और उसका वितरण करना

डाटा संग्रह और उसका वितरण कोरोना प्रबंधन से जुड़ी किसी भी कुशल रणनीति का आवश्यक अंग है, चाहे वो शहरी इलाके से जुड़ी रणनीति हो या फिर ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ी योजना हो. स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने कई बार जोर देकर कहा है कि भारत की कोविड-19 प्रबंधन रणनीतियां डाटा आधारित होनी चाहिए न कि भारत को अन्य देशों की गाइडलाइंस को हाथों हाथ अपनाना चाहिए जबकि उन देशों के हालात बिल्कुल अलग हैं. ठीक इसी तरह ग्रामीण इलाकों के लिए बनाई जा रही नीतियों को शहरी नीतियों से अलग करके देखा जाना चाहिए क्योंकि दोनों क्षेत्र, आबादी और भूगोल के नज़रिए से काफी अलग अलग हैं.

डाटा जमा करने में की गई गलतियों और टेस्टिंग क्षमता में भारी कमी के चलते ग्रामीण भारत में कोरोना के प्रसार को लेकर एक ठीक ठीक तस्वीर खींच पाना मुश्किल है. महामारी से हुई मौतें की गणना भी इन इलाकों में त्रुटिपूर्ण रही है. अधिकतर मौतों को दर्ज ही नहीं किया गया और लाशों को खेतों या खुली जगहों में दफ़नाना भी कहीं आसान था[44].बिना किसी ठोस आंकड़ें के वायरस के प्रसार को रोकना और उससे प्रभावित व्यक्तियों का उपचार करना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है.

विख्यात महामारी विज्ञानी और सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के निदेशक, प्रभात झा के अनुसार, महामारी के प्रभावी प्रबंधन में संक्रमण से हुई मृत्यु से जुड़ा आंकड़ा बेहद महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह महामारी के हॉटस्पॉट की पहचान करने में मदद करता है.[45] उन्होंने सुझाव दिया कि ग्रामीण क्षेत्रों में मृत्यु के अधिक सटीक आंकड़े प्राप्त करने के लिए भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा एक नमूना पंजीकरण प्रणाली को विकसित करना चाहिए, इसमें नगर पालिकाओं को दैनिक या साप्ताहिक मौत के आंकड़े जारी करना और हॉटस्पॉट्स की मैपिंग करना शामिल होगा. इस प्रणाली में देश भर के कुछ चुनिंदा गांवों में (जिन्हें रैंडम तरीके से चुना जाना है) टीमों को भेजना शामिल है ताकि प्रत्येक परिवार से पूछा जा सके कि पिछले कुछ महीनों में जन्म या मृत्यु हुई है या नहीं.

अगर परिवार में किसी की मृत्यु हो गई है, तो उसका विवरण देने के लिए एक फॉर्म भरने के लिए कहा जा सकता है. पंजीकरण से प्राप्त डेटा के जरिए उस क्षेत्र में हुई मौतों की वास्तविक संख्या मालूम करने के काम में लाया जा सकता है और ये पता किया जा सकता है कि उनमें से कितने कोविड से संबंधित थे.

e) खाद्य सुरक्षा और आर्थिक संकट

जैसा कि पहले ही संक्षेप में चर्चा की गई है, देश की ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा महामारी के दौरान अपनी आजीविका खो बैठा है और ऋण के बोझ के नीचे दब गया है.

अर्थशास्त्री प्रणब सेन ने चेताया है कि इस साल ग्रामीण क्षेत्र आर्थिक मोर्चे पर सबसे ज्यादा बदहाल स्थिति में होंगे, जबकि वे पिछले साल राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक मंदी के हालातों के बीच कहीं बेहतर स्थिति में थे[46]. अगर किसान संक्रमण के डर या लॉकडाउन के चलते बाज़ार तक नहीं पहुंच बना सके तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट दर्ज की जाएगी बावजूद इसके कि फसल उत्पादन की स्थिति चाहे बेहतर ही क्यों न रहे.

इसके अलावा, ग्रामीण आय का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा गैर-कृषि सेवाओं से जुड़ा है, ऐसे में वायरस के अनियंत्रित प्रसार और उसकी प्रतिक्रिया में तालाबंदी जैसी कार्रवाई सेवा क्षेत्र को बुरी तरह प्रभावित करेगी. भारत ने पिछले साल ये देखा कि तालाबंदी, जो महामारी के प्रसार को रोकने में प्राथमिक रूप से अपनाई गई नीति थी, की कार्रवाई ने देश की अर्थव्यवस्था को तोड़ मरोड़ कर रख दिया है.

जिन परिवारों के पास आय का कोई जरिया नहीं है, भोजन और दवाईयों के लिए जो परेशान हैं, उनसे सामाजिक दूरी, हाथ धोने और मास्क पहनने जैसे कोरोना संबंधी मानदंडों का सख्ती से पालन करने की उम्मीद करना बेमानी है. सरकार की ये ज़िम्मेदारी होती है कि वो अपने नागरिकों की ज़रूरतों का ख्याल रखे, जब वे लॉकडाउन के कारण अपनी आजीविका खो देते हैं और घरों में बंद रहने के लिए मजबूर होते हैं. जैसे कि हालात हैं, पूरे देश में पोषण सुविधाएं ठप पड़ गई हैं. साल 2020-2021 के केंद्रीय बजट ने पोषण संबंधी कार्यक्रमों को 356000 मिलियन रुपए आवंटित किए और 286000 मिलियन रूपये महिलाओं से जुड़ी योजनाओं के मद में डाले गए. सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गरीब से गरीब व्यक्ति के लिए 1,740 अरब रुपये के राहत पैकेज की भी घोषणा की है.[47] इसमें हर महीने अतिरिक्त पांच किलोग्राम गेहूं या चावल और एक किलोग्राम दाल का प्रावधान शामिल था. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत खाद्यान्न प्राप्त करने के लिए ‘वन नेशन, वन राशन कार्ड’ योजना जैसे कई अन्य उपाय प्रवासी मजदूरों को राहत दे सकती हैं. भारत सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013, अधिनियम के तहत सूचीबद्ध नागरिकों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से पांच किलो अनाज देने की घोषणा की, जिसके ज़रिए नवंबर 2021 तक 800 मिलियन लोगों तक अनाज वितरित किया जाएगा[48].

हालाँकि, ये प्रयास ग्रामीण भारत की वर्तमान कठिनाइयों और महामारी के दीर्घकालिक आर्थिक नतीजों को देखते हुए अपर्याप्त साबित हो सकते हैं. अगर पिछले डेढ़ सालों में महामारी के अनुभव से हमने कुछ सीखा है तो वह यह है कि तालाबंदी जैसी नीतियां न सिर्फ़ लोगों के बीच डर पैदा करती हैं, बल्कि गरीबों के लिए विनाशकारी भी सिद्ध होती हैं.

आवाजाही पर रोक और गैर ज़रूरी सेवाओं पर प्रतिबंध लगाने जैसी नीतियों को कम्युनिटी किचन यानी सामुदायिक रसोई या राशन वितरण जैसी योजनाओं के साथ लागू किया जाना चाहिए।

f) महामारी और औरतें

यहां तक ​​​​कि कोरोना महामारी जैसी राष्ट्रीय आपदा के बिना भी भारत में ग्रामीण महिलाओं को व्यापक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें शामिल हैं: शिक्षा और रोजगार की कमी, अवैतनिक घरेलू काम का अत्यधिक बोझ, मातृ मृत्यु दर की उच्च दर और घरेलू हिंसा. कृषि क्षेत्र में महिला श्रमिकों की भागीदारी करीब 70 प्रतिशत है, जहां सामाजिक सुरक्षा और उससे होने वाला लाभ या तो बेहद कम है या नगण्य है[49]. शहरी क्षेत्रों में 51 प्रतिशत की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 27 प्रतिशत महिलाओं ने स्कूली शिक्षा के 10 या अधिक वर्ष पूरे किए हैं.[50] भले ही महिलाएं ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषक, मजदूर और घरेलू उद्यमी के रूप में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, उन्हें लगातार लिंग आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है.[51]

एनएफएचएस-4 (2015-2016) के आंकड़ों के अनुसार किशोर उम्र में गर्भवती होने की दर ग्रामीण महिलाओं के लिए 9.2 फीसदी है, वहीं ही ये शहरी महिलाओं के लिए 5 फीसदी है. इसके पीछे गरीबी, शिक्षा की कमी और रोजगार के अवसरों जैसे विभिन्न कारक जिम्मेदार हैं. इसके चलते मातृ मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर और पीढ़ीगत कुपोषण की संभावना काफी बढ़ जाती है.[52] [53] जिस तरह ग्रामीण इलाकों में कोरोना का प्रसार हुआ है, उसकी सबसे ज्यादा मार महिलाओं पर पड़ी है, जो पहले से ही लैंगिक भेदभाव के चलते बुरी स्थितियों का सामना कर रही थीं. परिवारों के पास अब जब संसाधनों की कमी है, महिलाओं को, अपने सामाजिक संस्कारों या प्रतिबंधों के चलते जो उन्हें घर के संसाधनों में सबसे कम हिस्सा लेने को बाध्य करती है, पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक असुरक्षा का सामना करना पड़ रहा है.

कोरोना महामारी से पहले, 2015-16 के आंकड़ों से साबित होता है कि महिलाओं में एनीमिया यानी खून की कमी की समस्या बहुत गंभीर है, जिसमें ग्रामीण महिलाओं (15-49 वर्ष) के बीच ये आंकड़ा 50 प्रतिशत से भी अधिक है.

ग्रामीण क्षेत्रों में चिंता का एक और महत्त्वपूर्ण बिंदु मातृत्व देखभाल और स्वास्थ्य है. महामारी के पहले चरण के ठीक उलट, जब ज्यादातर गर्भवती महिलाओं में कोरोना संक्रमण का प्रभाव ‘हल्का’ था, अब दूसरे चरण में विशेषज्ञों ने देखा कि कई गर्भवती महिलाएं कोरोना से जुड़े गंभीर लक्षणों के चलते मर गईं. कमज़ोर प्रतिरोधक क्षमता वाली गर्भवती महिलाओं का पूरा शरीर संक्रमण के बाद घावों से भर गया[54]. ग्रामीण क्षेत्रों में भले ही पिछले एक दशक में मातृ मृत्यु दर में गिरावट आई है, फिर भी यह प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर 143 के उच्च स्तर पर बनी हुई है.[55] [महामारी ने इस स्थिति को और भी अधिक गंभीर बना दिया है. मीडिया रिपोर्टों के हवाले से कहें तो ग्रामीण क्षेत्रों में कई गर्भवती महिलाएं सांस्थानिक डिलीवरी से बच रही हैं क्योंकि उन्हें डर है कि वहां उन्हें कोरोना की जांच से गुजरना पड़ेगा[56].

लैंगिक रूप से असंवेदनशील नीतियों का ही परिणाम है कि ये महामारी मौजूदा असमानताओं को कई गुना बढ़ाकर महिलाओं की समस्याओं को और भी अधिक गंभीर कर सकती है.

g) प्रवासी मजदूर

भारत गांव से शहर प्रवास का अपना एक ‘घुमावदार चरित्र’ है. प्रवासी मजदूर स्थाई रूप से शहरों में नहीं बस्ते लेकिन गांवों में अपनी जड़ें लगातार बनाए रखते हैं[57]. भारत में गांव छोड़कर आने वाले अधिकतर लोगों को संगठित क्षेत्रों में नौकरियां नहीं मिलतीं. जैन ब्रेमन (जाने माने समाजशास्त्री) के शब्दों में कहें तो, “कृषि क्षेत्र से बाहर खदेड़ दिए लोग अपने जो निवास स्थान को कभी नहीं छोड़ते जो उन्हें अपने गांवों से जोड़े रखता है, क्योंकि शहर भले ही उन्हें कामगारों के रूप में अपना सकता है लेकिन उन्हें कभी अपना निवासी नहीं बना पाता. इसका मतलब ये है कि वे अपने मूल निवास क्षेत्र से अपना आश्रय स्थल कभी नहीं छोड़ सकते. इस तथ्य के अलावा ये भी सच है कि उनके घर के आश्रित सदस्य प्रस्थान के समय उनके साथ शामिल नहीं होते हैं” [58]

“सर्कुलर माइग्रेशन” यानी चक्रीय प्रवास जिसे ब्रेमन प्रवासी मजदूरों की स्थिति समझाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, वे कहते हैं कि ये प्रवासी मज़दूर बहुत ही कम मजदूरी के साथ लंबे घंटों तक काम करते हैं, उनके पास कानूनी एवं सामाजिक सुरक्षा नहीं होती और उनके पास अपना एक घर नहीं होता. वे बार बार अपने गांवों में लौटने को मजबूर होते हैं जब उनके रोजगार की अवधि समाप्त हो जाती है.

2020 में देश भर में तालाबंदी की घोषणा के बाद अधिकतर मज़दूर असंगठित क्षेत्रों में वापिस काम पाने में असफल रहे, जिसके कारण वे शहर में गुजर बसर कर पा रहे थे. जिसके कारण उन्हें मजबूरन गांवों की ओर लौटना पड़ा. इसी साल फरवरी और मार्च के बीच थोड़े छोटे स्तर पर मजदूरों का फिर से ग्रामीण अंचलों की तरफ पलायन हुआ. वायरस का म्यूटेशन जैसे-जैसे हो रहा है उसके साथ साथ ही ये ख़तरा बढ़ते जा रहा है कि ये मज़दूर उन वेरियंट्स के वाहक बनकर ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में संक्रमण के प्रसार के कारक बन जाएंगे. इसलिए प्रवासी मजदूरों की स्थिति को समझते हुए, उनके लगातार आवागमन के खतरों को देखते हुए उन्हें विशिष्ट सुविधाओं के दायरे में लाना होगा ताकि वायरस का प्रसार थम सके.

h) सामाजिक प्रतिक्रिया:

अभी तक इस विषय पर व्यवस्थित ढंग से शोध नहीं किया गया है लेकिन इस बात के वास्तविक प्रमाण मौजूद हैं कि ग्रामीणों ने कोरोना जांच कराने से इनकार किया और स्वास्थ्य कर्मचारियों से सेवाएं लेने से मना कर दिया. उदाहरण के लिए, बिहार के कटिहार[59] में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में तैनात डॉक्टर प्रदीप कुमार बताते हैं, “हमने टेस्टिंग टीम को गांवों में भेजा लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हैं. कोरोना से जुड़ी भ्रांतियों और सामाजिक उपेक्षा के डर से लगभग सभी अपने लक्षणों को छुपा रहे थे और जांच से कतरा रहे थे.” हां, ये सही है कि कोरोना महामारी के साथ उससे जुड़े भय और सामाजिक कलंक साथ आते हैं और ये ग्रामीण आबादी के लिए अजीब नहीं है. देशव्यापी तालाबंदी के दौरान जिस तरह से पुलिसिया सख़्ती बरती गई, उसने भी उनका डर कई गुना बढ़ा दिया[60]. कुछ लोग आइसोलेशन वार्ड में शिफ्ट किए जाने के डर से लक्षण छिपा भी रहे हैं. उसके अलावा, कम गंभीर मामलों में स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा निर्देशित होम आइसोलेशन की सलाह को मान पाना भी सबके लिए संभव नहीं है. ग्रामीण इलाक़ों में परिवारों की संख्या इतनी अधिक है और तीन पीढ़ियों का एक छत के नीचे रहना आम है. ग्रामीण इलाक़ों के घर होम आइसोलेशन का पालन करने लायक स्थिति में नहीं हैं. कई घरों में कोरोना मरीज़ों के लिए अलग टॉयलेट नहीं है, सामान्यतः उनके यहां एक या दो कमरों का इस्तेमाल अनाजों के भंडारण में किया जाता है, जबकि परिवार के सभी सदस्य एक कमरे या आंगन में सोते हैं। इसके बारे में भैरवी जानी[61] ने ट्विटर पर विस्तार में ज़िक्र किया था, जो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में रहने वाली एक व्यवसायी हैं. जानी ने कोरोना प्रोटोकॉल को लेकर ग्रामीण हालातों और स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सरकारी नीतियों और जमीनी हकीकतों के बीच अंतर को रेंखाकित किया. अपने ट्वीट्स के माध्यम से उन्होंने गांवों में महामारी संबंधी अंधविश्वासों को दूर करने के लिए जनजागरूकता अभियान चलाने, आशा कर्मियों के नेतृत्व में पंचायत घर को आइसोलेशन सेंटर में तब्दील करने और टेस्टिंग को बढ़ाने का सुझाव दिया.

ग्रामीण, अयोग्य स्वास्थ्य कर्मियों और सोशल मीडिया पर फैलाई गई भ्रामक जानकारियों के भी शिकार हुए हैं.[62]

ज़मीनी रिपोर्टों से ये बात सामने आई (उदाहरण के लिए, ग्रामीण मध्य प्रदेश और हरियाणा में) कि ग्रामीणों के पास अयोग्य चिकित्सकों से संपर्क करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प मौजूद नहीं था. उनके पास किसी किस्म के निर्णय के लिए पर्याप्त जानकारी नहीं थी, उन्हें आइसोलेशन वार्ड में भेजे जाने का डर था, ग्रामीणों इलाकों स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी थी और शहर के अस्पतालों में काफी भीड़भाड़ थी[63].जानकारी का अभाव टीकाकरण अभियान को लेकर भी देखा गया और ये बहुत आम बात है कि ग्रामीण सरकारी टीका कार्यक्रम से दूरी बना रहे हैं.[64]

एजेंडा के तौर पर दस सूत्रीय कार्यक्रम के लिए सुझाव 

  • एक टास्क फोर्स का गठन: भारत सरकार को तत्काल प्रभाव से एक टास्क फोर्स का गठन करना चाहिए, जिसमें स्वास्थ्य मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, पंचायती राज मंत्रालय, राज्य सरकारें और स्वास्थ्य एवं अन्य क्षेत्रों जैसे समाजविज्ञानियों और अर्थशास्त्रियों को सदस्य के रूप में शामिल किया जाए. इस टास्क फोर्स के दो अंग होने चाहिए: कोविड-19 प्रोटोकॉल लागू करना और ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था के बुनियादी ढांचे में सुधार करना. जो समूह कोविड संबंधी प्रोटोकॉल पर केंद्रित होगा उसे महामारी संबंधी जागरूकता, सही जानकारियों का प्रसार, विशिष्ट समस्या क्षेत्रों की पहचान करनी होगी और इन समस्याओं का हल उन्हें स्थानीय स्तर पर ही सुझाना होगा. ग्रामीण भारत की विविधता के मद्देनजर ‘टॉप टू बॉटम अप्रोच’ यानी ऊपरी सरकारी ढांचे से नीचे की तरफ आने वाली नीतियां व सुधार इस मायने में निष्प्रभावी रह सकते हैं. इस टास्क फोर्स को स्थानीय अधिकारियों से लगातार संपर्क में रहना होगा ताकि वे समस्या की विविधताओं को समझ सकें. टास्क फोर्स का जो हिस्सा, ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं की तरफ केंद्रित होगा, उसे एक ऐसी रणनीति बनानी होगी जो दवाईयों, टेस्ट किटों, गतिशील मेडिकल इकाईयों और मेडिकल ऑक्सीजन का प्रभावी वितरण सुनिश्चित करे. साथ ही वह संभावित हॉटस्पॉट क्षेत्रों, यानी ऐसे इलाक़े जहां संक्रमण का ख़तरा बढ़ सकता है, वहां अस्थायी अस्पताल स्थापित करे, और ग्रामीण क्षेत्रों की मौजूदा चिकित्सा सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए कोरोना मरीज़ों के लिए एसओपी (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) यानी स्वास्थ्य संचालन के नए मानक तैयार करे.
  • जागरूकता का प्रसार: ग्रामीण ज़िलों में कोविड-19 के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में बड़े पैमाने पर जनसंपर्क अभियान के माध्यम से जागरूकता बढ़ाना भारत का सबसे प्रमुख क़दम होना चाहिए. भारत ने पोलियो, एचआईवी/एड्स और कुष्ठ रोग जैसे स्वास्थ्य के मुद्दों पर कई दशकों तक सफल रूप से जन सूचना अभियान चलाए हैं. संचार के सभी माध्यमों यानी टेलीविजन, रेडियो, समाचार पत्र, और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की मदद से घर घर जाकर, प्रचार प्रसार अभियान के ज़रिए बड़े पैमाने पर कोविड-19 की महामारी के लिए भी जागरूकता अभियान शुरू किए जाने की आवश्यकता है. ऐसा करने की विशेष आवश्यकता है, क्योंकि वर्तमान में भारत सरकार शहरी जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए टेलीविज़न और रेडियो के ज़रिए सूचना प्रसार कार्यक्रम चला रही है. ऐसे जनसंपर्क कार्यक्रम ग्रामीण या जनजातीय जीवन शैली पर भी आधारित होने चाहिए, यानी वह अपने चरित्र में ग्रामीण हों, और उनका प्रसार स्थानीय भाषाओं में होना चाहिए. उदाहरण के लिए, ऐसा कोई कार्यक्रम ग्रामीण परिवारों को यह सीखने में मदद करेगा कि वे अपनी परिवेश में सामाजिक दूरी कैसे बनाए रख सकते हैं; साथ ही इस के ज़रिएउन्हें परीक्षण और टीकाकरण पर उचित और पर्याप्त जानकारी की उपलब्ध कराई जा सकती है. इस अभियान में नागरिक समाज से जुड़े संगठनों, गैर सरकारी संगठनों और स्थानीय संगठनों को भागीदार के रूप में शामिल किया जाना चाहिए.
  • ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत बनाना: ग्रामीण क्षेत्रों की प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने और उसके दायरे को विस्तृत करने के लिए स्वास्थ्य नीति विशेषज्ञ और कार्यकर्ता बड़े लंबे समय से प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं के मद में बजटीय आवंटन बढ़ाने की मांग कर रहे हैं. प्राथमिक एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में युद्धस्तर पर सुधार किए जाने की ज़रूरत है. कोरोना महामारी ने भारत की स्वास्थ्य संबंधी कमियों को उजागर किया है, और ये बताया है कि किस तरह से भारत को स्वास्थ्य पर ज़्यादा से ज़्यादा खर्च करने की ज़रूरत है. भारत अपनी जीडीपी का महज 26 फीसदी ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है. इस के साथ वह इस मामले में दुनिया के उन कुछ देशों में शामिल हो जाता है जो अपने स्वास्थ्य पर न्यूनतम व्यय करते हैं. जबकि भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का लक्ष्य इसे बढ़ाकर 2.5 फीसदी करना है. भारत के पड़ोसी देश जैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश भी अपनी जीडीपी का तीन फीसदी हिस्सा जनस्वास्थ्य पर खर्च करते हैं. स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और उसकी पहुंच के मानक पर भारत दुनिया भर के 195 देशों की सूची में 145वें[65] नंबर पर आता है. जैसा कि ‘ग्लोबल बर्डन ऑफ डिज़ीज़’ की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत की स्थिति चीन (48), श्रीलंका (71) और बांग्लादेश (133) से भी पीछे है[66]. कोरोना महामारी ने स्वास्थ्य क्षेत्र में ग्रामीण इलाक़ों व शहरी इलाक़ों के बीच की असमानताओं को और अधिक उजागर कर दिया है. अब यह ज़रूरी हो गया है कि ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था में बुनियादी सुधार करने के लिए उस पर और अधिक खर्च किया जाए. उदाहरण के लिए, आईसीयू सुविधाओं वाले अस्पतालों की संख्या में शहरी व ग्रामीण दोनों स्तरों पर बढ़ोत्तरी किए जाने की ज़रूरत है. साथ ही सरकार को निजी व सरकारी प्रयासों का मिलाजुला ढांचा चाहिए.[67]
  • ग्रामीण क्षेत्रों को एक विशेष आर्थिक पैकेज की आवश्यकता है: अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन का कहना है कि लॉकडाउन और सामाजिक दूरी जैसे प्रतिबंधात्मक उपायों को लोगों को एक निश्चित आय, भोजन और चिकित्सा सुविधाओं की व्यवस्था देने के साथ ही अमल में लाना चाहिए. ये वो लोग हैं जो सीधे तौर पर इन नियमों के चलते प्रभावित होते हैं.[68] ये चुनौती बहुत बड़ी है, और राज्यों को कई स्तरों पर वित्तीय संकट का सामना करना पड़ रहा है. राज्यों को इस मौजूदा संकट से निपटने में मदद करने के लिए केंद्र को एक विशेष ग्रामीण पैकेज की घोषणा करनी चाहिए. यह प्रोत्साहन राशि परिवारों के लिए भोजन और आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने पर केंद्रित होनी चाहिए. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के द्वारा अनाज की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ साथ मनरेगा को भी मज़बूत किया जाना चाहिए. नक़द हस्तांतरण के ज़रिए सरकार को उन सभी परिवारों को सामाजिक सुरक्षा के घेरे में लाना चाहिए, जिन्होंने लॉकडाउन के कारण अपनी आजीविका खो दी है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के सीईओ महेश व्यास के अनुसार, कोरोना महामारी की दूसरी लहर के आने के बाद से 10 मिलियन से अधिक भारतीयों ने अपनी नौकरी खो दी है; साथ ही देश भर में कुल 97 प्रतिशत परिवारों की आय में गिरावट देखी गई है.[69]

इसलिए, ग्रामीण ज़िलों में हर परिवार को महामारी के दौरान घर चलाने के लिए हर माह एक निश्चित राशि का भुगतान किया जाना ज़्यादा ज़रूरी है, (अन्य योजनाओं से मिलने वाले लाभ को लेकर उनकी पात्रता को समाप्त किए बिना) बजाय इसके कि सरकार “ज़रूरतमंद” की पहचान करने की कोशिश करे, क्योंकि आखिरकार भारत में अब कोई भी घर ऐसा नहीं है जो महामारी से प्रभावित नहीं हुआ है. नक़द हस्तांतरण के ख़िलाफ़ अक्सर ये तर्क दिए जाते हैं कि उनसे कोई मदद नहीं मिलती, जबकि ऐसे तर्क देना अब बेकार है क्योंकि लॉकडाउन के चलते लाखों लोग बेरोज़गार हो चुके हैं और कई परिवारों ने या तो अपने ऐसे किसी एक सदस्य या फिर दोनों सदस्यों को इस महामारी में खो दिया है, जिन पर उनका परिवार आर्थिक रूप से निर्भर था.

यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ के अर्थशास्त्री गाई स्टैंडिंग कहते हैं कि एक सार्वभौमिक निश्चित आय (यूनिवर्सल बेसिक इनकम) की व्यवस्था न सिर्फ बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सुनिश्चित करेगी बल्कि ये जनता की पोषण संबंधी ज़रूरतों को बेहतर करने, कार्यक्षमता बढ़ाने और स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को उन्नत करने में मददगार सिद्ध हो सकती है.[70]

नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी सहित अन्य अर्थशास्त्रियों ने भारत की मौजूदा आर्थिक समस्याओं को दूर करने के लिए बड़े सार्वजनिक खर्च की सिफारिश की है. महामारी की दूसरी लहर के भीषण सामाजिक-आर्थिक प्रभावों ने सिद्ध किया है कि सरकार को सार्वजनिक खर्च को बढ़ाने की आवश्यकता है. देश ऐसे मोड़ पर है जहां आर्थिक नीतियों में राजकोषीय सख्ती बरतने वाली नीतियां अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी साबित हो सकती हैं.

  • कोरोना जांच में वृद्धि और सामूहिक टीकाकरण अभियान की जरूरत: ग्रामीण क्षेत्रों में टेस्टिंग के नाम पर होने वाले फर्जीवाड़े चिंता के बिंदु हैं, क्योंकि हमें एक लक्षित जांच अभियान की जरूरत है जो महामारी के प्रसार को रोक सके. स्वास्थ्य कर्मचारियों से लैस अधिक से अधिक रैपिड रिस्पॉन्स टीमों की ग्रामीण क्षेत्रों में तैनाती की आवश्यकता है, जो घर-घर जाकर लोगों का शारीरिक तापमान जांच कर बुखार की संभावना को परखे, उनका ऑक्सीजन सैचुरेशन लेवल जांचे और अन्य लक्षणों पर नज़र रखे. ग्रामीण क्षेत्रों में मामलों में बढ़ोतरी के बावजूद, केवल 13 प्रतिशत आबादी टीकाकरण से सुरक्षित हो पाई है. इससे पता चलता है कि हमें टीकाकरण अभियान को वृहद स्तर पर ले जाने के जरूरत है.[71] साथ ही बस अड्डों पर टेस्टिंग सुविधाओं के प्रबंध की ज़रूरत है, ख़ासकर वहां जहां केस अधिक हैं. दिल्ली इस तरह की रणनीति अपना चुका है.[72]
  • रिक्त पदों को भरा जाना और नए कर्मचारियों की नियुक्तियां: जैसा कि इस रिपोर्ट में पहले चर्चा की गई है कि देश भर में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, उप-केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में कई पद खाली पड़े हैं. इन सभी पदों पर तुरंत नए कर्मचारियों को नियुक्त किया जाना चाहिए. उदाहरण के लिए झारखंड सरकार ने बड़े पैमाने पर नर्सों की भर्तियां शुरू कर दी हैं. राज्य सरकारों को महामारी के नए चरण को रोकने के लिए इन पदों पर अस्थाई कर्मचारियों को भी नियुक्त करने के बारे में सोचना चाहिए.
  • भीड़-भाड़ को नियंत्रित करने के लिए सख़्त नियमों की आवश्यकता: वायरस के प्रसार को रोकने के लिए ये ज़रूरी है कि शादियों और धार्मिक उत्सवों पर लोगों की भीड़ जुटाने पर प्रतिबंध लगाया जाए. पिछले साल से इस तरह की सभाओं को रोकने के लिए जगह जगह पुलिसिया कार्रवाई की गई है, लेकिन इस तरह के नियमों के पालन के लिए स्थानीय नेताओं, और पंचायतों को इसकी ज़िम्मेदारी उठानी होगी ताकि वे इन प्रतिबंधों को लागू करा सकें.
  • ज़रूरी दवाईयों और स्वास्थ्य उपकरणों का वितरण:ज़रूरतमंद परिवारों के बीच थर्मामीटर और पल्स ऑक्सीमीटर जैसे जरूरी उपकरणों के वितरण के लिए संसाधन जुटाने की ज़रूरत है और स्वास्थ्य कर्मचारियों के ज़रिए इन परिवारों से फॉलोअप लिया जाना ज़रूरी है. इस काम में पंचायती राज और ग्राम स्वास्थ्य एवं पोषण समिति को शामिल किया जा सकता है. घरेलू दवाईयों की किट ज़रूरी निर्देशों के साथ प्रभावित परिवारों को दी जा सकती है. स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार, अभी भी कोरोना के ख़िलाफ़ सबसे ज़रूरी बचाव मास्क पहनना और साफ सफाई बनाए रखना ही है, जिसमें हाथों को बार बार नियमित रूप से धोने की आवश्यकता है. 6646 रूपये के औसत मासिक खर्चे के साथ और कर्जों के नीचे दबे ग्रामीण परिवारों के लिए मास्क, सैनिटाइजर और साबुन खरीद पाना भी उनके गुंजाइश के बाहर है. ये सभी सामान प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, उप-केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर मुफ़्त उपलब्ध होने चाहिए और आशा एवं स्वास्थ्य कर्मचारियों के जरिए इनका वितरण सुनिश्चित किया जाना चाहिए. पंचायतों द्वारा अपने अधिकार में आने वाले क्षेत्रों में स्वच्छता अभियान शुरू करने की ज़रूरत है. सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (एमपीएलएडीएस) के तहत, जो पूरी तरह से केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित योजना है.[73] सांसदों को ये अधिकार है कि वे पेयजल, प्राथमिक शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता और सड़कों जैसे सार्वजनिक मदों पर खर्च करके अपने क्षेत्र के विकास में सहयोग प्रदान करें. इस योजना के तहत मिलने वाले फंड का इस्तेमाल एन-95 मास्कों, पीपीई किटों और वेंटिलेटरों खरीदने में किया जा सकता है[74]. सांसदों को अपने संसदीय क्षेत्रों एमपीएलएडीएस के तहत मिलने वाली राशि को इन जरूरी सामानों की उपलब्धता एवं उसका वितरण सुनिश्चित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।.
  • लैंगिक संवेदनशीलता की ज़रूरत: औरतें इस महामारी में विशेष रूप से प्रभावित वर्ग हैं, जहां उनकी पोषण एवं स्वास्थ्य सुविधाओं तक उनकी असमान पहुंच में वृद्धि हुई है, वहीं उन पर अवैतनिक श्रमों (जैसे देखभाल, बीमार की सेवा, घरेलू कामकाज) का भार बढ़ा है. भारत में कृषि से जुड़े श्रम का ज़्यादा से ज़्यादा भार भारतीय महिलाएं उठाती हैं वहीं देखभाल से जुड़ा श्रम भी एक तरफा रूप से उनके ही कंधे पर आ गिरता है. ग्रामीण इलाकों में महामारी के प्रसार को रोकने में महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों और आशा कर्मचारियों की सबसे अहम भूमिका रही है. इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में भारत को महामारी के विरुद्ध अपनी प्रतिक्रिया के केंद्र में महिलाओं को रखना चाहिए. फ्रंटलाइन पर जुटी महिला कर्मचारियों को टीकाकरण में प्राथमिकता मिलनी चाहिए और आशा कार्यकर्ताओं का वेतन बढ़ाया जाना चाहि. महामारी के मद्देनजर कमज़ोर वर्गों के लिए अलग से विशेष गाइडलाइन तैयार की जानी चाहिए. जैसे कि गर्भवती महिलाओं के मामले में हमने देखा है कि मौजूदा स्वास्थ्य सुविधाओं की अपर्याप्तता के मद्देनजर ये खतरा बना हुआ है कि कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच कोरोना से इतर स्वास्थ्य सुविधाओं, जिसमें मातृत्व सुविधाएं भी शामिल हैं, में कोताही हो सकती है.
  • ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे में निजी क्षेत्रों की भूमिका: तमाम विशेषज्ञ ये दावा करते हैं कि अगर तमाम बड़े बिजनेस घराने अगर सामाजिक प्रगति को लेकर अपनी सक्रिय भागीदारी निभायेंगे तो ग़रीबी, प्रदूषण और बीमारी जैसी सामाजिक समस्याओं में गिरावट आएगी और उनका मुनाफा भी बढ़ेगा.[75] सामूहिक हितों [g][76] के विचार को आगे लेकर चलने वाली कंपनियां न केवल सामाजिक प्रगति को आगे बढ़ाएंगी, बल्कि ऐसे आर्थिक अवसर भी तलाशेंगी जो उनके प्रतिस्पर्धी खोजने में विफल रहे हैं. ऐसे किसी सामूहिक एजेंडे को लेकर चलना निजी क्षेत्र को फ़ायदा पहुंचाएगा क्योंकि आर्थिक मंदी के चलते इन व्यापार जगत को भी खासा नुकसान उठाना पड़ा है, क्योंकि देश में मांग में गिरावट दर्ज की गई है.

ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं में निवेश के जरिए आर्थिक गतिविधियों में सुधार और कल्याणकारी सेवाओं के विस्तार से नए बाज़ारों की संभावनाओं को बल मिलेगा. इसलिए भारत के निजी क्षेत्र को ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक बुनियादी ढांचे के निर्माण में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. आखिरकार जन-स्वास्थ्य का उच्च स्तर ही आर्थिक वृद्धि का आधार होता है. नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट[77] कहती है कि कर प्रोत्साहन के जरिए से स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश की संभावनाओं में विस्तार किया जा सकता है. ये ग्रामीण इलाकों में अस्पतालों के निर्माण पर उससे होने वाले लाभ पर दस प्रतिशत की छूट का प्रावधान करती है. ये निजी क्षेत्र को कर प्रोत्साहन की सुविधा के जरिए ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा में निवेश करने का एक अवसर प्रदान करती है.

ये सभी सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) पहल के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाली भारतीय कंपनियों के मौजूदा उदाहरण हैं. उदाहरण के लिए टाटा स्टील लिमिटेड ने ‘मानसी’ (मैटरनल एंड न्यूबॉर्न सर्वाइवल इनिशिएटिव) योजना शुरू की है, जो घरेलू मातृत्व एवं शिशु देखभाल (एचबीएनसी) सुविधा प्रदान करने में सरकारी स्वास्थ्य कर्मचारियों की क्षमता बढ़ाकर मातृत्व एवं शिशु मृत्यु दर को कम करने में मदद करेगा[78].

यह परियोजना झारखंड और ओडिशा राज्यों के 12 ब्लॉकों में लागू की जा रही है. इसी बीच, हिंदुस्तान पेट्रोलियम की एक पहल मोबाइल मेडिकल वैन की तैनाती के माध्यम से दूरदराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं और सेवाएं प्रदान करने पर केंद्रित है.[79] इसके लाभार्थी वे महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग हैं, जो गरीबी, संसाधनों की कमी और जागरूकता के अभाव के चलते सामान्य स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रहे हैं. अंबूजा सीमेंट की सीएसआर योजना हाथों की साफ़-सफाई और सामाजिक दूरी को बनाए रखने की जरूरत को लेकर एक जनजागरूकता अभियान चलाने की है.[80]

सखी-औरत [h][81] के वॉलंटियर्स स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों के साथ मिलकर स्वास्थ्य सुविधाओं के वितरण के कार्य में लगे हुए हैं. ऐसे कार्यक्रमों को बड़े स्तर पर लागू किए जाने की जरूरत है। जैसे कि बड़े समाज सेवी प्रयास करते हैं. विनोद खोंसला, जो एक बड़े उद्योगपति हैं, ने भारत के कोविड अभियान में सहयोग करते हुए 10 मिलियन डॉलर की बड़ी राशि दान करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया है.[82] टेक्सास निवासी समाजसेवी राज और आराधना आसव ने भी 25000 डॉलर की राशि दान करके भारत के महामारी राहत एवं बचाव कार्यक्रम में सहयोग दिया है[83].

निष्कर्ष:

जैसे जैसे महामारी का दूसरा चरण भारत के आंतरिक इलाकों में अपनी पैठ बनाता जा रहा है, इस बात की पूरी संभावना है कि देश एक बड़ी आपदा की ओर बढ़ रहा है जो कि बहुत हद तक वैसी हो सकती है जैसी भारत ने साल के शुरुआत में अपने शहरी क्षेत्रों में देखा. चूंकि भारत की 65.53 फीसदी जनता ग्रामीण इलाकों में निवास करती है, ऐसे में इस आपदा को रोकने के लिए एक लक्षित और व्यापक योजनात्मक कार्रवाई की जरूरत है. परिस्थितियां पहले से ही काफ़ी गंभीर हैं, जिन पर तत्काल प्रभाव से ध्यान देने की ज़रूरत है: स्वास्थ्य सुविधाओं का आधारभूत ढांचा बेहद कमज़ोर है, योग्य स्वास्थ्य कर्मचारियों की कमी है, टीकाकरण की दर काफी धीमी है और सुरक्षा मानकों के पालन संबंधी लापरवाहियां काफी अधिक हैं. इसके साथ ग़रीबी और बेरोज़गारी की इस वृहद समस्या को जोड़कर देखना होगा, जो महामारी से काफी पहले मौजूद है.

इस स्पेशल रिपोर्ट में भारत के ग्रामीण इलाकों में तात्कालिक कार्रवाई की ज़रूरतों को देखते हुए हमने एक दस सूत्रीय कार्यक्रम पर बात की गई. इस ज़रूरी कार्रवाई के अलावा, ये भी ज़रूरी है कि भारत अपने विकास संबंधी आर्थिक नज़रिए को लेकर पुनर्विचार करे. बजाय इसके कि भारत शहरी क्षेत्रों को केंद्र में रखते हुए विकास योजनाएं लागू करता रहे, आज जरूरत है कि देश के ग्रामीण इलाकों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं एवं कल्याणकारी योजनाओं को बढ़ावा दिया जाए ताकि वो कोरोना जैसी आपदा का सामना कर सकें. ये रिपोर्ट न सिर्फ भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की मौजूदा स्वास्थ्य समस्याओं पर काम करने की ज़रूरत पर बात करती है बल्कि सतत विकास लक्ष्यों तक पहुंचने का रास्ता भी दिखाती है: पहला एसडीजी लक्ष्य (ग़रीबी हटाना), दूसरा (भुखमरी मिटाना), तीसरा (स्वास्थ्य और सुरक्षा), पांचवां (लैंगिक/जेंडर समानता), आठवां (रोज़गार और आर्थिक वृद्धि) और दसवां (असमानता में कमी).


Endnotes

[1] HT Correspondent. ‘As India records 126,260 new Covid-19 cases, curbs in more states’, Hindustan Times,  April 8, 2021.

[2]  “SBI report emphasises on vaccination, says nearly half of the new cases in rural India”, The Hindu, May 7, 2021.

[3] Aditya Bidwai, “After affecting big cities, Covid-19 is now hitting India’s rural areas hard”, India Today, May 7, 2021.

[4] Vishakha Chaman, “In Haryana, most rural Covid deaths in Hisar”, The Times of India, May 18, 2021.

[5] Gopi Maniar Ghangar, “Second wave hits Gujarat’s rural pockets; village loses 90 people to Covid”, India Today, May 5, 2021.

[6] It was in these areas where photographs emerged of corpses floating in the river Ganga, and mass burial sites along the riverbed.

[7] Mithilesh Dar Dubey, ‘Testing times for rural India as delay in RT-PCR test results may hasten the Covid spread’. GaonConnection, May 5, 2021.

[8] In rural India, fear of testing and vaccines hampers COVID-19 fight”, Livemint, June 5, 2021.

[9] Atul Thakur, “Proof that COVID is now a rural pandemic in India”, Times of India, May 12, 2021.

[10] Vignesh R, ‘Vaccination in rural India trails urban areas as cases surge’. The Hindu, May 18, 2021.

[11]  Vignesh R, ‘Vaccination in rural India trails urban areas as cases surge’

[12] Bhavya & Himanshi, ‘Low smartphone reach coupled with lack of digital literacy hit rural India Covid vaccine drive’. The Economic Times,  May 16, 2021.

[13] Pranab M, Harpreet B and Sudhir S, “Covid vaccine a distant reality in rural India, shows app”, The New Indian Express, May 23, 2021.

[14] Mithilesh Dar Dubey, “44% rural citizens willing to pay for corona vaccine; two-third want its price to not exceed Rs 500: Gaon Connection Survey”. GaonConnection, December 23, 2020.

[15] Trading Economics, “India – Rural Population”.

[16] 76% of rural Indians can’t afford a nutritious diet: study”, The Hindu, October 17, 2020.

[17] Debmalya Nandy, “COVID and rural economic distress: Food for all and work for all should be the way forward”, GaonConnection, June 2, 2021.

[18] Sneha Mordani, “Centre gives states blueprint for containment of COVID-19 in rural areas”, India Today, May 17, 2021.

[19] Government of India, Ministry of Health & Family Welfare, SOP on COVID-19 Containment & Management in Peri-urban, Rural & Tribal areas, May 16, 2021.

[20] ASHAs are community health workers instituted by the Ministry of Health and Family Welfare in the community to create awareness on health and its social determinants and mobilise the community towards local health planning and increased utilisation and accountability of the existing health services.

[21]  “Govt issues SOPs to combat Covid in rural areas, focus on awareness, screening, isolation”, India Today, May 16, 2021.

[22] G S Mudur, “Union Health ministry releases guidelines for Covid management in rural areas”, The Telegraph Online, May 17, 2021.

[23] Rina Chandran, “Drones are delivering vaccines to rural communities in India“, World Economic Forum, May 25, 2021.

[24]  Government of India, Ministry of Health and Family Welfare Statistics Division, Rural Health Statistics 2019-20, (New Delhi: Ministry of Health and Family Welfare Statistics Division, 2020).

[25]  Government of India, Ministry of Health and Family Welfare Statistics Division, Rural Health Statistics 2019-20

[26] Government of India, Ministry of Health and Family Welfare Statistics Division, Rural Health Statistics 2019-20

[27] Government of India, Ministry of Health and Family Welfare Statistics Division, Rural Health Statistics 2019-20

[28] Government of India, Ministry of Health and Family Welfare Statistics Division, Rural Health Statistics 2019-20

[29] Piyush Srivastava, “Covid: RAT kits sent from UP headquarters turns out to be faulty,” The Telegraph Online, May 15, 2021.

[30] Bihar struggles to cope with rising COVID-19 cases”, The Hindu, April 16, 2021.

[31] Anganwadi workers are community-based frontline workers of the Integrated Child Development Scheme program of the Ministry of Women & Child Development.

[32] Agrima Raina, “ASHA workers are hailed as Covid warriors but only 62% have gloves, 25% have no masks”, The Print, September 21, 2020.

[33] ANM is a village-level female health worker.

[34]  Government of India, Ministry of Health and Family Welfare Statistics Division, Rural Health Statistics 2019-20

[35] Government of India, Ministry of Health and Family Welfare Statistics Division, Rural Health Statistics 2019-20

[36] Government of India, Ministry of Health and Family Welfare Statistics Division, Rural Health Statistics 2019-20

[37]  Oommen C Kurian, “Does budget 2020 provide material support for the ongoing health reforms?”, Observer Research Foundation, February 7, 2020.

[38]  Due to unacceptably high fertility and mortality indicators, the eight Empowered Action Group (EAG) states (Bihar, Chhattisgarh, Jharkhand, Madhya Pradesh, Odisha, Rajasthan, Uttarakhand, Uttar Pradesh and Assam), which account for about 48 percent of India’s population, are designated as “High Focus States” by the Government of India.

[39]  Oommen C Kurian, “Does budget 2020 provide material support for the ongoing health reforms?”

[40] Oommen C Kurian, “The war budget: Can the Centre fight a pandemic simply by turning water into wellbeing?”, Observer Research Foundation, February 1, 2021.

[41] The emerging economies of Brazil, Russia, India, China, and South Africa.

[42] World Bank.

[43] World Bank.

[44] Uma Vishnu, “Prabhat Jha: ‘Lack of death data prolongs pandemic… survey villages’”, India Express, May 25, 2021.

[45] Uma Vishnu, “Prabhat Jha: ‘Lack of death data prolongs pandemic… survey villages’

[46] Asit Ranjan Mishra, “Growth setback likely as rural India begins to reel from COVID-19”, Livemint, May 5, 2021.

[47] Shoba Suri, “Coronavirus pandemic and cyclone will leave many Indians hungry and undernourished”, Observer Research Foundation, July 16, 2020.

[48] Meenakshi Ray, “Free ration to 800 million people till Diwali, announces PM Modi”, Hindustan Times, June 7, 2021.

[49]  Government of India, Ministry of Statistics and Programme Implementation, Annual Report 2017-182018.

[50] Bharath Kancharla, “NFHS-5: Gender and Urban-Rural divide observed in access to School Education”, Faqtly, December 22, 2020.

[51] Alette van Leur, “Rural women need equality now”, (Speech, New York, March 15, 2018) International Labour Organisation.

[52] Sasmita Jena, “Breaking the shackles of intergenerational malnutrition in Jharkhand”, Welhungerhilfe, March 18, 2019.

[53] Ragini Kulkarni, “Nutritional status of adolescent girls in tribal blocks of Maharashtra”, Indian Journal of Community Medicine 44, no. 3 (2019).

[54] Alia Allana, “Why is Covid killing so many pregnant women in India?”, Deccan Herald, May 24, 2021.

[55] World Bank database.

[56]  Manav Mander, “Wary of Covid testing, pregnant women in villages avoid hospitals”, The Tribune, June 8.

[57] Arjan de Haan, “Rural-Urban Migration and Poverty: The Case of India”, IDS Bulletin 28 (1997)

[58] Jan Bremen, Outcast Labour in Asia: Circulation and Informalization of the Workforce at the Bottom of the Economy (New Delhi: Oxford University Press, 2010)

[59] Prasun K Mishra and Aditya Nath Jha, “Covid-19 stigma, vaccine hesitancy slowing fight against covid-19 in rural Bihar”, Hindustan Times, May 20, 2021.

[60] Aarefa Johari and Vijayta Lalwani, “Indians fear lockdowns more than Covid-19. How prepared are governments to avert a crisis this time?”, Scroll.in, June 13, 2021.

[61] Bhairavi Jani.

[62] Rahul Noronha, “Why unqualified medical practitioners are a hit among Covid patients in rural MP”, India Today, April 29, 2021.

[63] Anurag Dwari, “In Rural Madhya Pradesh, A ‘Field Hospital’ For Covid Run By Quacks”, NDTV, May 6, 2021.

[64] Omar Rashid, “People in some rural areas resisting vaccination, say U.P. officials”, The Hindu, May 25, 2021.

[65]  “India 145th among 195 countries in healthcare access, quality”, Economic Times, May 24, 2018.

[66] Nancy Fullman et al., “Measuring performance on the Healthcare Access and Quality Index for 195 countries and territories and selected subnational locations: a systematic analysis from the Global Burden of Disease Study 2016”, The Lancet 391, no. 10136 (2018),

[67] Ashok Kumar E.R, “Why India needs private-public partnership in healthcare”, Business Line, March 18, 2021.

[68] Amarty Sen, “A better society can emerge from the lockdowns”, Financial Times, April 15, 2020.

[69] PTI, “Second wave rendered 1 cr Indians jobless; 97 pc households’ incomes declined in pandemic: CMIE”, Economic Times, May 31, 2021.

[70] Guy Standing, “Support is growing for a universal basic income – and rightly so”, The Conversation, May 26, 2021.

[71] Vignesh Radhakrishnan, “Vaccination in rural India trails urban areas even as cases surge”, The Hindu, May 18, 2021.

[72] Ashna Butani, “Delhi: At bus terminals and railway stations, lab techs, volunteers have hands full as testing ramps up”, The Indian Express, April 4, 2021.

[73]  Swaniti Initiative, “Members of Parliament Local Area Development    Scheme: Exploring opportunities with emphasis on Jharkhand”.

[74] Kirtika Suneja, “Government allows MPLADS funds to setup oxygen manufacturing plants in govt hospitals”, The Economic Times, April 30, 2021.

[75] Mark R. Kramer and Marc W. Pfitzer, “The Ecosystem of Shared Value”, Harward Business Review, October 2016.

[76] The concept of collective impact was developed by John Kania and Mark Kramer. Collective impact is the commitment of a group of actors from different sectors to a common agenda for solving a specific social problem, using a structured form of collaboration.

[77] NITI AAyog 2021.  ‘Investment opputunities in India’s Healthcare sector’.

[78] Tata Sustainability Group, “TATA Steel MANSI Project”.

[79] Hindustan Petroleum.

[80]  Ambuja Cement, “Reaching out to rural India in the fight against Coronavirus”, April 7, 2020.

[81] Sakhis – a group of women volunteers trained by Ambuja Cement Foundation in healthcare services

[82] Venture capitalist Vinod Khosla pledges $10 million to aid India’s Covid-19 fight”, The Economic Times, May 3. 2021.

[83] Donors race to aid India during Covid-19 surge”, Deccan Herald, May 6, 2021.

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Authors

Malancha Chakrabarty

Malancha Chakrabarty

Dr Malancha Chakrabarty is Senior Fellow and Deputy Director (Research) at the Observer Research Foundation where she coordinates the research centre Centre for New Economic ...

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Shoba Suri

Shoba Suri

Dr. Shoba Suri is a Senior Fellow with ORFs Health Initiative. Shoba is a nutritionist with experience in community and clinical research. She has worked on nutrition, ...

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