Author : Sunjoy Joshi

Published on Feb 08, 2021 Updated 0 Hours ago

ORF हिंदी के इंडियाज़ वर्ल्ड पिछली कड़ी में संजय जोशी और नग़मा सहर ने भारत के 72वें गणतंत्र दिवस के मौके पर लालकिले पर हुई अवांछित घटना पर विस्तार से चर्चा की. ये लेख उसी बातचीत और उससे निकले निष्कर्षों पर आधारित है.

तक़नीक, प्रतिबंध और आंदोलनों के साये में कितना प्रभावी है हमारा गणतंत्र?

भारत के 72वें गणतंत्र दिवस पर पूरे देश ने देखा कि किस तरह से आंदोलनकारी किसान पुलिस द्वारा तय किए गए सुरक्षा घेरे को तोड़ते हुए लाल क़िले तक पहुंच गए. और वहां पहुंचने के बाद उन्होंने एक पंथ विशेष का झंडा – लाल किले के परिसर में लगे लोहे के खंबे से लहरा दिया. ऐसे में सवाल ये उठता है कि 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में जो कुछ भी हुआ, क्या वो पुलिस के ज़रूरी क़दम न उठाने के कारण हुआ था? या क्या ये सुरक्षा व्यवस्था की नाकामी थी? या फिर, ये नीतिगत मसले पर टकराव का नतीजा था?

26 जनवरी की घटना अप्रत्याशित ही नहीं है, इसका प्रतीकात्मक महत्व भी झकझोरने वाला है। 72 साल पहले भारत के नागरिकों और दिशा निर्धारकों ने मिलकर इस नए जन्मे देश को एक ऐसा संविधान दिया, जिसकी छत्रछाया में भारत के निवासियों को देश की विविधता, एकता में अनेकता, का मूल मंत्र दिया गया॰ ये सब संभव हुआ हमारे राष्ट्रध्वज ‘तिरंगे’ की छांव तले. विविधता — विचारों की, आस्था की और प्रतीकों की। एक ऐसी विविधता जो किसी एक रंग के दायरे मे नहीं बांधी जा सकती. ऐसे में एक ऐतिहासिक सार्वजनिक राष्ट्रीय स्थल पर किसी समुदाय विशेष का ध्वज फहराने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता. नवनिर्मित संविधान ने ऐसी गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि कभी इस देश पर किसी एक रंग के झंडे का वर्चस्व हो – चाहे केसरिया हो, चाहे हरा चाहे सफ़ेद – देश के रंग हर हालात में तिरंगे ही रहेंगे.

विवाद के घेरे में खड़े कृषि क़ानून समस्त देश के लिए हैं न की किसी एक क्षेत्र विशेष के लिए तो फिर उनका विरोध भी किसी एक क्षेत्र विशेष या राज्य के किसानों से संबन्धित कैसे हो सकता है?

नीतिगत वाद-विवाद, विचारों, मार्गों और पंथों के बीच मतभेद तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था का जीवन हैं, प्रजातंत्र ही वह व्यवस्था है जो इन मतभेदों को सँजो इनके बीच समंजस्य बनाकर देश और व्यवस्था का मार्ग तय करती है और समस्त ऐसे मतभेदों को वाद-विवाद और परिचर्चा से सुलझाने के लिए संविधान के अंतर्गत ही अनेक संस्थाओं और व्यवस्थाओं को स्थापित किया गया है. यह है हमारा गणराज्य.

इसलिए इस बार गणतंत्र दिवस के मौक़े पर देश की राजधानी दिल्ली में जो कुछ भी हुआ, उससे पूरा देश सदमे में है. ये वक्त़ और ये घटना, हम सबके लिए आत्मनिरीक्षण का समय है कि आख़िर वो क्या और कौन-कौन सी वजहें थी कि 60 दिन से शांतिपूर्वक ढंग से चल रहा आंदोलन नेताविहीन होकर लाल किले पर अनायास पहुँच ऐसे उपद्रव को अंजाम दे सका.

अफ़वाहों के डर से देश की राजधानी के कई इलाकों में इंटरनेट, फोन सेवाएं और लैंडलाइन कनेक्शन तक सरकार ने बंद कर दिये. क्या है तकनीक के युग में प्रजातंत्र का भविष्य?

हर साल सर्दी के मौसम में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली पर भारी प्रदूषण की वजह से धुंध और कोहरे की चादर फैली रहती है. पर इस जनवरी प्रदूषित सूचनाओं की जिस काली चादर ने राजधानी क्षेत्र पर कब्ज़ा जमाया वह किसी भी जलवायु प्रदूषण से ज्य़ादा घातक है. घातक गलत सूचनाओं ने लोगों के दिलो-दिमाग पर पैठ जमा ली है. कोई कह रहा था की आंदोलन किसानों का नहीं बल्कि आतंकवादियों और खालिस्तानियों द्वारा प्रेरित है. केसरिया झंडे को खालिस्तान का झण्डा करार देकर भड़काने की कोशिश भी की गयी. एक दूसरे को सोशल मीडिया प्लैटफ़ार्म पर दागने की प्रथा जो चल पड़ी है वह किसी भी प्रजातंत्र के लिए अच्छी नहीं हैं.

जहां तक इंटरनेट सेवाएँ बंद करने का सवाल है इसके दो पहलू हैं. भारत में कानून व्यवस्था के नाम पर इंटरनेट पर नकेल लगाना आज आम प्रथा बन गयी है. लेकिन जहां एक ओर इंटरनेट बंद करने का कारण अफवाहों को फैलना से रोकना हो सकता है, वहीं दूसरी ओर इंटरनेट बंद करके हम सुनिश्चित कर लेते हैं की आंदोलन के नेताओं का आंदोलनकारियों से संपर्क भंग हो आंदोलन नेताविहीन हो जाए और उत्पात का स्वरूप ले ले, जैसा की लाल किले पर देखने को मिला.

सोशल मीडिया पर आंदोलन आज #Hashtag युद्ध में परिवर्तित हो चुके हैं और #लट्ठ_चलाओ_दिल्ली_पुलिस और #FarmerProtest के वाक-युद्ध के बीच किसी भी रचनात्मक बहस का होना नामुमकिन है. सिर्फ गाली-गलौज किसी मुद्दे का समाधान नहीं हो सकता है, यह हम विश्व-भर में देख सकते हैं. उधर नीदरलैंड्स में हमने लॉक डाउन के चलते भीड़ को सड़कों पर उमड़ते देखा. दुनिया भर में शासित और शासकों के बीच अविश्वास की ग़हरी खाई दिख रही है.

तक़नीक के साये में

हमारे गणराज्य और इसकी संस्थाओं का निर्माण किया गया था ताकि संवाद और परिचर्चा के लिए तमाम मंच उपलब्ध कराए जा सकें — कार्यपालिका है, विधायिका है और न्यायपालिका है. यदि यह संस्थाएं सुचारु रूप से चले और अपने क्रिया-कलापों को निपटाएँ तो जिस ढंग की अराजकता हमें देखने को मिल रही है उस पर लगाम लगाने का काम ही इनका सही माने में दायित्व है. न तो कार्यपालिका और न ही न्यायपालिका, किसी भी हालत में विधायिका के अधिकारों में हस्तेक्षप कर सकती है और न ही विधायिका को दूसरे के दायरे में हस्तक्षेप का अधिकार है. लेकिन, कहीं न कहीं ये बंदिशें टूटीं तो ज़रूर हैं — उनके टूटने के फलस्वरूप जो परिचर्चाएं संसद में होनी चाहिए थीं, जिन क़ानूनों के स्वरूप, उनकी संवैधानिक वैधता पर ज़ोर-आजमाइश न्यायपालिका मे होनी चाहिए थी, वह रस्साकशी आज इन संस्थाओं की चारदीवारी के अंदर नहीं बल्कि सड़कों और ट्वीटर पर चल रही हैं. शासन और शासित के बीच अविश्वास का मूल कारण ही यह है.

72वें गणतन्त्र दिवस के दिन हुई शोचनीय घटना पर यदि हमें सही ढंग से विचार करना है तो हमें सोचना पड़ेगा की इस संविधान के अंतर्गत बनी संस्थानों को कैसे सही रूप से अपना कार्य करने के लिए सशक्त किया जाए.

तकनीक ने हम सब के सामने एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया है, जहां संचार और संवाद के साथ-साथ नियंत्रण के भी नए माध्यम उभरे हैं. एक तरफ़ तो जहां चीन जैसे तकनीकी साधन सम्पन्न सरकारें टेक्नोलोजी को माध्यम बना रहन हैं जन मानस पर नियंत्रण का, वहीं दूसरी तरफ़ तक़नीक के सहारे बाहरी ताक़तें और बड़ी-बड़ी कंपनियां हमारी ज़िंदगी हमारी व्यवस्थाओं में दख़लंदाज़ी करने को आतुर हैं.

तकनीक ने हम सब के सामने एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया है, जहां संचार और संवाद के साथ-साथ नियंत्रण के भी नए माध्यम उभरे हैं. एक तरफ़ तो जहां चीन जैसे तकनीकी साधन सम्पन्न सरकारें टेक्नोलोजी को माध्यम बना रहन हैं जन मानस पर नियंत्रण का, वहीं दूसरी तरफ़  तक़नीक के सहारे बाहरी ताक़तें और बड़ी-बड़ी कंपनियां हमारी ज़िंदगी हमारी व्यवस्थाओं में दख़लंदाज़ी करने को आतुर हैं. हम पर हमारी ही सूचनाएँ निरंतर एकत्र कर हम को निगरानी के घेरे में बांध रखने वाले पूंजीवाद का ख़तरा हमारे सिर पर लगातार मंडरा रहा है.

सवाल ये है कि क्या टेक्नॉलोजी-जनित सूचना के इस प्रदूषण का समाधान हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था निकाल पाएगी?

आज बहुत से समूह सोशल मीडिया प्रबंधन और नियंत्रण के नए विकल्पों को आज़मा भी रहे हैं. इसके लिए वो ब्लॉक चेन पर आधारित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग विकसित कर रहे हैं — ऐसे प्लैटफ़ार्म जो सरकार और बड़ी तकनीकी कंपनियों के नियंत्रण से बाहर हैं. जो वास्तव में प्रजातांत्रिक सहमति के आधार पर न्यांतरित हों,

अंततः लोकतंत्र का मतलब कभी भी केंद्रीकृत नियंत्रण और तानाशाही नहीं होता है. इसलिए, लोकतंत्र का निर्माण और उसकी जीवटता, विविधता के आधार पर ही फलीभूत होती हैं  —  और यही हमारे लोकतंत्र के भी संवेधानिक रंग  है.

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