जिनेवा में चल रही संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) की 51 वीं बैठक में भारत ने श्रीलंकाई संविधान में वहां की जातीय समस्या का ‘राजनीतिक समाधान’ खोजने के लिए किए गए 13 वें संशोधन को लागू नहीं किए जाने पर चिंता व्यक्त की है. हालांकि भारतीय सुझाव को एक व्यापक कैनवास पर देखना चाहिए, क्योंकि श्रीलंका के तमिल नागरिक अब 13-ए को लेकर ज्यादा बात नहीं करते है. अब वहां के लोग एक नए मुद्दे को लेकर अपनी बात कर रहे है. अब वे आतंकवाद निवारण कानून यानी प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म एक्ट (पीटीए) को निरस्त कर ‘जवाबदेही के मुद्दे’ को उठा रहे है. यह दोनों ही मुद्दे अमेरिका की अगुवाई वाले पश्चिम के पसंदीदा विषय भी हैं.
नई दिल्ली इस बात को लेकर ‘‘सुसंगत दृष्टिकोण’’ अपनाता आया है कि कैसे ‘‘राजनीतिक समाधान’’ संयुक्त श्रीलंका के संविधान के तहत होना चाहिए. यह समाधान श्रीलंका के तमिलों को न्याय देने, शांति, समान अधिकार और सम्मान देना सुनिश्चित करने वाला होना चाहिए
श्रीलंका को लेकर यूएनएचआरसी में होने वाली परंपरागत बहस में हस्तक्षेप करते हुए भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने कहा था कि, ‘‘भारत 13वें संशोधन के पूर्ण कार्यान्वयन, प्रांतीय परिषदों को शक्तियों का हस्तांतरण और इसके माध्यम से जातीय मुद्दे के राजनीतिक समाधान, की अपनी प्रतिबद्धताओं पर श्रीलंका सरकार द्वारा की गई गौर करने लायक प्रगति की कमी पर चिंता का संज्ञान लेता है.’’
भारतीय प्रतिनिधि ने यह भी कहा कि नई दिल्ली इस बात को लेकर ‘‘सुसंगत दृष्टिकोण’’ अपनाता आया है कि कैसे ‘‘राजनीतिक समाधान’’ संयुक्त श्रीलंका के संविधान के तहत होना चाहिए. यह समाधान श्रीलंका के तमिलों को न्याय देने, शांति, समान अधिकार और सम्मान देना सुनिश्चित करने वाला होना चाहिए.’’ सावधानी पूर्वक नई दिल्ली ने यह भी बात दोहराई कि कैसे वह हमेशा से इस बात में विश्वास करता आया है कि ‘‘ उसने यूएन चार्टर के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित मानव अधिकारों और रचनात्मक अंतर्राष्ट्रीय संवाद और सहयोग के प्रचार और संरक्षण के लिए राज्यों की जिम्मेदारी में विश्वास किया है,’’ जबकि पश्चिम एक स्थायी राजनीतिक समाधान की पेशकश के बगैर इस मसले पर केवल हंगामा मचाता रहता है.
नैतिक जिम्मेदारी
जनवरी में सात तमिल दलों ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर, 1987 में नई दिल्ली के सहयोग से हुए भारत–श्रीलंका समझौते के तहत किए गए 13-ए संविधान संशोधन को संपूर्ण रूप से लागू करने में सहयोग करने की मांग की थी. निजी तौर पर श्रीलंका के अनेक तमिल नेताओं और टिप्पणीकारों ने इस बात की ओर इशारा किया है कि कैसे भारत की यह नैतिक जिम्मेदारी है..समझौते के सहलेखक’ के रूप में कि वह इसे संपूर्णत: लागू करना सुनिश्चित करें.
जैसे-जैसे यह अभियान महानगरीय कोलंबो की दिशा में बढ़ेगा, इसे लेकर हो रहा प्रचार हंगामा कम होता जाएगा, लेकिन यह मजबूत सामाजिक आंदोलन अरागलया विरोध का मार्गदर्शक बन गया है. दक्षिण सिन्हाला में यह विपरीत असर डालने वाला साबित हो सकता है
श्रीलंका में चल रहे सामूहिक संघर्ष, जिसने एक सरकार को उखाड़ फेंका और दूसरे को सत्ता सौंप दी, के कारण भी अब ध्यान स्थानांतरित हो गया है. अब तमिल नेता कहने लगे है कि सरकार बदलने के बावजूद, सत्ता हस्तांतरण को लेकर उनकी स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है.
इस परिणाम के साथ, जैसा कि दिखता है, अब उत्तर और पूर्व में तमिल राजनीतिक खतरनाक पीटीए को निरस्त करने की मांग उठाने लगे है. यह अब ‘सिन्हाला साऊथ’ समेत संपूर्ण राजनीतिक विपक्ष के लिए भी एक लोकप्रिय मुद्दा बनता जा रहा है. तीन दलों के तमिल राष्ट्रीय गठबंधन यानी तमिल नेशनल अलायंस (टीएनए) ने पीटीए के खिलाफ एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया है. यह अभियान उत्तर तमिल से शुरू होकर तमिल और सिन्हालाज् दोनों के लिए धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण सबसे दक्षिण में स्थित कादरगामा तक चल रहा है.
जवाबदेही के मुद्दे
जैसे–जैसे यह अभियान महानगरीय कोलंबो की दिशा में बढ़ेगा, इसे लेकर हो रहा प्रचार हंगामा कम होता जाएगा, लेकिन यह मजबूत सामाजिक आंदोलन अरागलया विरोध का मार्गदर्शक बन गया है. दक्षिण सिन्हाला में यह विपरीत असर डालने वाला साबित हो सकता है, क्योंकि वहां के लोग अब भी टीएनए तथा पीटीए को खतरनाक एलटीटीई के साथ जोड़कर देखते हैं. ऐसा इसके बावजूद है कि वे अरागलया प्रदर्शनों का समर्थन करते है और इसमें शामिल भी होते है.
यूएसएआईडी के प्रशासक सामंथा पावर के साथ अपनी मुलाकात में तमिल नेताओं और सिन्हाला विपक्ष के समकक्ष नेताओं ने 2009 से चल रहे श्रीलंकाई सेना के कथित ‘युद्ध अपराध’ से जुड़े ‘जवाबदेही मुद्दे’ को लेकर काफी जोर डाला. टीएनए के प्रवक्ता एवं सांसद एम. ए. सुमंथिरन ने कोलंबो बैठक के बाद ट्वीट किया कि, ‘‘अन्य विपक्षी नेताओं के साथ हुई इस मुलाकात में अच्छी बातचीत हुई. मैंने उनका ध्यान जवाबदेही के मुद्दे की ओर आकर्षित किया और कहा कि यूएनएचआरसी समेत अन्य मंचों पर इसका अनुसरण होना चाहिए.’’
पावर ने भी श्रीलंका की अपनी संक्षिप्त यात्रा की समाप्ति के पहले ट्वीट किया कि कैसे, ‘‘श्रीलंका के विपक्षी और उसके नेताओं ने यह बात साझा की कि कैसे श्रीलंकाई सरकार को लंबे समय से प्रलंबित सुधारों को लागू करना चाहिए और मानवाधिकारों की रक्षा करते हुए पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ शासन करना चाहिए.’’ यूएसएआईडी की ओर से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार उन्होंने श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे से भी मुलाकात की, जब उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि ‘अमेरिका ने हामी भरी’ है कि वह श्रीलंका के वर्तमान जटिल आपातकाल से निपटने में उसकी सहायता करेगा.
चीन कारक
सामंथा पावर ने यह भी कहा कि चीन को श्रीलंका के साथ ऋण पुर्नगठन में सहयोग करना चाहिए क्योंकि इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड की ओर से 2.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर के सहायता पैकेज के माध्यम से हस्तक्षेप करने के लिए यह शर्त रखी गई है. उन्होंने दोहराया कि राजनीतिक सुधार और आर्थिक पुनरुत्थान साथ–साथ होना चाहिए.
यूएनएचआरसी में भारत के नर्म शब्दों वाले बयान का भी यहां जमीन पर प्रभावी अमल हुआ है. चीन का नाम लिए बगैर, लेकिन उसकी ही ओर इशारा करते हुए भारत ने यूएनएचआरसी को बताया कि कैसे, ‘‘श्रीलंका का वर्तमान संकट यह साबित करता है कि कर्ज आधारित अर्थव्यवस्था की कुछ सीमाएं है और इससे जीवन जीने का स्तर कैसे प्रभावित होता है.’’ भारत ने कहा कि, ‘‘यह श्रीलंका के हित में ही होगा कि वह अपने नागरिकों की क्षमता का विकास कर उनके सशक्तिकरण की दिशा में काम करें.’’
.तमिल नेताओं की ओर से प्रधानमंत्री मोदी को की गई अपील को भूला दिए जाने के बावजूद, हकीकत में भारत की चिंताएं इस बात को लेकर भी उपजी थी कि उसका प्रतिद्वंद्वी चीन हाल के महीनों में श्रीलंका के तमिल क्षेत्रों में लगातार आना जाना कर रहा था.
तमिल नेताओं की ओर से प्रधानमंत्री मोदी को की गई अपील को भूला दिए जाने के बावजूद, हकीकत में भारत की चिंताएं इस बात को लेकर भी उपजी थी कि उसका प्रतिद्वंद्वी चीन हाल के महीनों में श्रीलंका के तमिल क्षेत्रों में लगातार आना जाना कर रहा था. श्रीलंका के तमिल बहुल उत्तर की पिछले दिसंबर में की गई बहुचर्चित यात्रा पर पहुंचे चीनी राजदूत ची झेनहोंग यूएनएचआरसी की बैठक से कुछ ही दिन पहले बहुजातिय पूर्व की यात्रा पर भी गए थे.
ऐसा इसलिए किया गया था, क्योंकि भारत ने इस वर्ष श्रीलंका के अभूतपूर्व और औचक आर्थिक संकट के दौरान उसे मानवीय सहायता, जिसमें अनाज, ईंधन और औषधि शामिल थी, मुहैया करवाया था. ऐसा किसी और देश ने नहीं किया था. राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे ने संसद के भीतर और बाहर दोनों ही जगह इसकी पुष्टि और सराहना की थी.
सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण
नई दिल्ली ने कहा, ‘‘जमीनी स्तर पर सत्ता का हस्तांतरण पूर्व निर्धारित शर्त हैं.’’ भारत ने ऐसा करते हुए यह निष्कर्ष निकाला था कि, ‘‘यह श्रीलंका के हित में ही होगा कि वह अपने नागरिकों की क्षमता का विकास कर उनके सशक्तिकरण की दिशा में काम करें. और इसके लिए जमीनी स्तर पर सत्ता का हस्तांतरण एक पूर्व निर्धारित शर्त है.’’
भारत ने कहा कि, ‘‘इस संबंध में जल्द चुनाव करके प्रांतीय परिषदों का क्रियान्वयन जरूरी है, क्योंकि तभी श्रीलंका के तमाम नागरिक अपने समृद्ध भविष्य की आकांक्षाओं को हासिल करने में सफल हो सकेंगे.’’ इसे 13-ए के संदर्भ को तमिल उत्तर–पूर्वी क्षेत्र तक सीमित न रखते हुए इस द्वीप देश के संपूर्ण क्षेत्र तक विस्तारित करने की भारत की सुक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण कोशिश कहा जाएगा.
यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि भारत–श्रीलंका समझौते ने मुख्यत: वहां के जातिय मुद्दों और श्रीलंकन तमिल (एसएलटी) समुदाय के सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित किया था और इसमें से ‘अपकंट्री तमिल ऑफ रिसंट इंडियन ओरिजिन’, जिन्हें आम तौर पर ‘इंडियन–ओरिजिन तमिल्स’ (आईओटी) अथवा ‘ईस्टेट तमिल्स’ कहा जाता है, को बाहर रखा था. लेकिन समझौते के बाद किए गए 13 वें संशोधन के प्रावधानों में शामिल 1987 का प्रांतीय परिषद कानून (पीसीए) संपूर्ण श्रीलंका पर लागू होता है.
यह कानून संपूर्ण देश में बनने वाले नए प्रांतों, जिसमें वर्तमान में अब नौ प्रांत है, पर लागू होता है और इसमें सभी प्रांतों को समान रूप से सत्ता का अधिकार देने का भी प्रावधान है. लेकिन हकीकत में गैर तमिल प्रांतों, जिसमें पूर्व के बहुजातीय प्रांत भी शामिल हैं, इसे स्वीकार नहीं करते. ऐसा इस वजह से था क्योंकि वहां दो ‘जेवीपी विद्रोह’ (1971 और 1987) हुए थे और आतंकवादी संगठन, एलटीटीई की वजह से दशकों तक ‘जातिय युद्ध’ चला था.
चुनावी वादों पर अमल नहीं
सिन्हाला बुद्धिस्ट राजनीति के सभी बहुसंख्यक वर्गो ने हमेशा से ही चुनावों में दो वादे किए हैं: एक है सर्वशक्तिशाली कार्यकारी राष्ट्रपति पद को खारिज करने का और दूसरा 13-ए को तमिल क्षेत्रों में संपूर्णत: लागू करने का, भले ही यह चुनिंदा क्यों न हो.
अत्यधिक केंद्रीकरण के मसले को केंद्रबिंदु में लाने वाले अरागलया प्रदर्शनों के बावजूद जमीन पर हकीकत कुछ और ही है. 13-ए लागू होने के 35 वर्षो के बाद भी गैर तमिल क्षेत्रों में प्रांतीय स्वायत्ता को लेकर ज्यादा उत्सुकता नहीं देखी जाती, जिसका वादा 13-ए में किया गया था. ऐसे में सत्ता का हस्तांतरण अब तक लागू नहीं हुआ है. इस संबंध में तमिल राजनीतिक हल्कों से ही तीखी और विचलित करने वाली मांग उठ रही है.
.कुल मिलाकर अंत में, अगर प्रांतिय परिषदों की सहायता से प्रांतों के सशक्तिकरण के बगैर सर्वशक्तिमान कार्यकारी राष्ट्रपति प्रणाली को समाप्त करने की लोकप्रिय मांग को मानते हुए इसकी जगह पर प्रधानमंत्री को केंद्र और मध्य में रखने वाली मंत्रिपरिषद की स्थापना का कोई मतलब नहीं होगा. यह पहले से ही 13-ए में निहित है.
अक्तूबर के अंत में समाप्त होने वाले यूएनएचआरसी सत्र में एक और प्रस्ताव पेश होने की संभावना है. इसमें भी ‘जवाबदेही के मुद्दों’ पर ही ध्यान केंद्रित किया जाएगा, लेकिन अब इसके दायरे में युद्ध के बाद होने वाली घटनाओं और उत्थान के साथ–साथ युद्ध के बाद हुए अरागलया आधारित गिरफ्तारियां एवं पीटीए नजरबंदी भी शामिल होगी.
प्रांतों का सशक्तिकरण
जिनेवा सत्र में अपनी प्रारंभिक प्रतिक्रिया में, श्रीलंकाई सरकार ने स्पष्ट रूप से मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में किसी भी स्वतंत्र जांच, जिसमें विदेशी जांचकर्ता या मार्गदर्शन शामिल है, को लेकर अपने दशक पुराने विरोध को दोहराया है.
कुल मिलाकर अंत में, अगर प्रांतिय परिषदों की सहायता से प्रांतों के सशक्तीकरण के बगैर सर्वशिक्तमान कार्यकारी राष्ट्रपति प्रणाली को समाप्त करने की लोकप्रिय मांग को मानते हुए इसकी जगह पर प्रधानमंत्री को केंद्र और मध्य में रखने वाली मंत्रिपरिषद की स्थापना का कोई मतलब नहीं होगा. यह पहले से ही 13-ए में निहित है.
पश्चिम की हस्तक्षेपवादी पहलों के खिलाफ, जिसे सिंहली बहुमत के बीच पिछले एक दशक में लेने वाला कोई नहीं है, भारत ने यूएनएचआरसी में एक विचार को बहुत चुपचाप खिसका दिया है. यह एक ऐसा विचार है, जिसका श्रीलंका में बेहद कम विरोध होगा. इसके माध्यम से कोई नया कानून बनाए बगैर अथवा संविधान में संशोधन के बिना वहां के लोगों को सशक्त किया जा सकता है. अरागलया प्रदर्शनों का भी अंतत: यही उद्देश्य था. और ऐसा करने में न तो किसी हिंसा की जरूरत है और न ही रक्तपात की.
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