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सबसे बड़े मंचों पर जलवायु अनुकूलन के निर्विवाद महत्व को स्वीकार करने के बाद भी अभी तक नियमित फंड के लिए बहुत ज़्यादा कोशिश नहीं की गई है.
ये अब एक अस्वाभाविक तथ्य है कि असरदार जलवायु मुहिम से जुड़ी नीतियों के लिए जलवायु परिवर्तन के मुताबिक़ ख़ुद को ढालना एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. वैसे तो ये पूरे विश्व की ज़रूरत है लेकिन विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था के लिए और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है क्योंकि न्यायसंगत परिवर्तन के लिए समावेशिता और निष्पक्षता की बराबरी से जुड़ी चिंताओं का समाधान करने की उनकी अपील के लिए बहुत ज़्यादा कोशिशों और संसाधनों की ज़रूरत होगी. सबसे बड़े मंचों (जैसे कि कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ या COP या फिर संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समूह) पर जलवायु अनुकूलन या जलवायु के मुताबिक़ ख़ुद को ढालने के इस निर्विवाद महत्व को स्वीकार करने के बावजूद सभी स्तरों पर इसको लेकर लगातार दोहराने की ज़रूरत है. इसको दोहराना उस वक़्त ख़ास तौर पर ज़रूरी बन जाता है जब जलवायु परिवर्तन की गंभीरता कम करने की परियोजनाओं, जिनमें अधिकतर में ऊर्जा परिवर्तन की आवश्यकता होती है, के पक्ष में अपने फंड को लगाने में वित्तीय संस्थानों के झुकाव को देखा जाता है. जलवायु अनुकूलन में पैसा लगाना एक तरह से इस पूर्वाग्रह के आघात का सामना करता है.
जलवायु अनुकूलन की परियोजनाओं के लिए पैसा देने की दो अनिवार्यताएं हैं. ज्ञान के सिद्धांत के दृष्टिकोण से एक को जहां "पॉज़िटिव या सकारात्मक" श्रेणी में रखा जा सकता है वहीं दूसरे को "नॉर्मेटिव या मानदंड संबंधी". "पॉज़िटिव" हिस्सा कार्बन की सामाजिक लागत से जुड़ा है.
जलवायु अनुकूलन की परियोजनाओं के लिए पैसा देने की दो अनिवार्यताएं हैं. ज्ञान के सिद्धांत के दृष्टिकोण से एक को जहां "पॉज़िटिव या सकारात्मक" श्रेणी में रखा जा सकता है वहीं दूसरे को "नॉर्मेटिव या मानदंड संबंधी". "पॉज़िटिव" हिस्सा कार्बन की सामाजिक लागत से जुड़ा है. कार्बन की सामाजिक लागत नियोक्लासिकल इकोनॉमिक्स के मार्जिनल कॉस्ट प्रिंसिपल (सीमांत लागत सिद्धांत) पर आधारित है और ये एक टन अतिरिक्त कार्बन के उत्सर्जन से समाज और अर्थव्यवस्था को हुए नुक़सान के मौद्रिक मूल्य (मॉनेटरी वैल्यू) का अनुमान मुहैया कराती है. इसलिए कार्बन की सामाजिक लागत वातावरण से एक टन अतिरिक्त कार्बन को हटाने के फ़ायदे का अनुमान भी मुहैया कराती है. राहत देने वाली परियोजनाओं जैसे कि ऊर्जा परिवर्तन (उदाहरण के तौर पर इलेक्ट्रिक गाड़ियों को अपनाना) के प्रोजेक्ट वातावरण से कार्बन को कम करते हैं और इस तरह लोगों को सामाजिक लागत का बोझ नहीं उठाने देने में मदद करते हैं. दूसरी तरफ़ अनुकूलन की परियोजनाएं कार्बन की चिंता का समाधान नहीं करती हैं बल्कि वातावरण से कार्बन को हटाए बिना भी कार्बन की सामाजिक लागत को कम करने में मदद करती हैं. ये हमें दूसरे बिंदु पर ले जाती है जिसका स्वरूप नैतिक दृष्टिकोण से ज़्यादा "ऩॉर्मेटिव" है. विकासशील देशों का एक बड़ा हिस्सा विकसित देशों के बेलगाम और अरक्षणीय (अनसस्टेनेबल) खपत का ऐतिहासिक रूप से शिकार हैं. विकासशील देशों को उनके "न्यायसंगत परिवर्तन" के लिए समय चाहिए और दुनिया के अलग-अलग देशों ने "नेट-ज़ीरो" का अपना लक्ष्य निर्धारित कर दिया है. लेकिन बीच के समय में विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन की वजह से वहां के लोगों के जीवन और रोज़गार में आए कठिन बदलावों के मुताबिक़ ख़ुद को ढालने की ज़रूरत है. ऐसी ख़तरनाक स्थिति में कोई सामर्थ्य से भरपूर समुदायों को और कैसे तैयार कर सकता है? ये परिस्थिति विकसित देशों के मुक़ाबले विकासशील देशों के लिए अनुकूलन को बड़ी आवश्यकता बनाती है.
कई कारण हैं जिनके चलते जलवायु परिवर्तन से राहत की गतिविधियों के मुक़ाबले अनुकूलन परियोजनाओं को ऐतिहासिक रूप से वित्तीय संस्थानों के बीच उतना महत्व नहीं मिला है. पहला, राहत की परियोजनाओं में निवेश पर मुनाफ़ा कम समय में साफ़ तौर पर दिखता है जबकि अनुकूलन परियोजनाओं पर ये बात लागू नहीं होती है. दूसरा, अनुकूलन परियोजनाओं का “लोगों के कल्याण” वाला स्वभाव प्राइवेट सेक्टर के पैसे को इस काम की तरफ़ आने से रोकता है. तीसरा, अनुकूलन की कोशिशों के लिए पैसे के इंतज़ाम में सही क्षेत्रों की पहचान की समस्या बनी हुई है. इसकी वजह समाज के हर वर्ग में ज़मीनी स्तर पर अनुकूलन की कोशिशों के लिए सहानुभूति की कमी है. रेगुलेटरी और सरकारी नीतियों के दखल से मदद मिल सकती थी लेकिन इस दिशा में फंड के आने को बढ़ावा देने के लिए शायद ही नीतिगत स्तर पर कोई पहल की गई है. चौथा, अनुकूलन परियोजनाओं के मुश्किल स्वरूप की वजह से उनको अक्सर अच्छी तरह से नहीं समझा जाता है. राहत देने की गतिविधियों में अक्सर सीधे उपाय शामिल होते हैं जैसे कि रिन्यूएबल एनर्जी या नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल करना लेकिन अनुकूलन परियोजनाएं अक्सर ज़्यादा जटिल होती हैं और उनके लिए कुछ अलग तरह के दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है. मिसाल के तौर पर, “रणनीतिक वापसी” जैसे अनुकूलन उपाय में समुदाय की विशेषता को समझना, सलाह, क्षमता निर्माण एवं फिर से सीखना, बुनियादी ढांचे का विकास, औद्योगिक विकास, सर्विस सेक्टर का विकास, रोज़गार निर्माण, इत्यादि की ज़रूरत होती है और इसको समुदाय से ही विरोध का सामना करना पड़ सकता है.
जलवायु अनुकूलन या एडैप्टेशन के उपायों के लिए निवेश करने में नाकामी का महत्वपूर्ण दीर्घकालीन आर्थिक असर भी हो सकता है जिनमें कृषि उत्पादन में कमी और बुनियादी ढांचे को नुक़सान शामिल हैं.
हालांकि, जलवायु अनुकूलन के लिए पैसे का इंतज़ाम नहीं करने का जोख़िम सिर्फ़ वर्तमान तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये भविष्य तक जाता है. परंपरागत रूप से पैसे का इंतज़ाम करने का नज़रिया जलवायु परिवर्तन के साथ जुड़ी सामाजिक और पर्यावरणीय क़ीमत जैसे कि लोगों की सेहत एवं सुरक्षा को लेकर ज़्यादा जोखिम, इंफ्रास्ट्रक्चर एवं संपत्ति को नुक़सान और कार्बन की सामाजिक लागत को बढ़ाने वाले इकोसिस्टम एवं जैवविविधता पर असर का ध्यान नहीं रखता है. इन क़ीमतों का काफ़ी ज़्यादा आर्थिक एवं सामाजिक असर हो सकता है लेकिन इसके बावजूद निवेश के फ़ैसलों में इनको शामिल नहीं किया जाता है.
जलवायु अनुकूलन या एडैप्टेशन के उपायों के लिए निवेश करने में नाकामी का महत्वपूर्ण दीर्घकालीन आर्थिक असर भी हो सकता है जिनमें कृषि उत्पादन में कमी और बुनियादी ढांचे को नुक़सान शामिल हैं. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन की वजह से लोगों के विस्थापन की नौबत भी आ सकती है क्योंकि समुद्र के बढ़ते स्तर और दूसरे प्रभाव लोगों को दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर करते हैं. साथ ही, जलवायु परिवर्तन इकोसिस्टम के ढांचे, काम-काज और अंत में इकोसिस्टम की सेवाओं को ऐसा नुक़सान पहुंचा रहा है जिसको ठीक नहीं किया जा सकता है जबकि इन पर विकासशील और अविकसित देशों में रहने वाले बहुत ज़्यादा लोग निर्भर हैं. उनकी चिंताओं का समाधान जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को कम करने की कोशिशों से नहीं हो सकता है बल्कि ऐसी प्रतिकूल ताक़तों का मुक़ाबला करने के लिए उनके सामर्थ्य को सुधारने की ज़रूरत है. अनुकूलन से जुड़े उपायों में पर्याप्त निवेश के बिना ये आर्थिक और सामाजिक क़ीमत बहुत ज़्यादा और निर्धारित करने में मुश्किल हो सकती हैं.
इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए सोच में बदलाव की ज़रूरत है. इस बदलाव के तहत ये स्वीकार करना शामिल है कि जलवायु अनुकूलन के लिए पैसे का इंतज़ाम सिर्फ़ एक नैतिक आवश्यकता नहीं है बल्कि एक स्मार्ट निवेश भी है. जलवायु अनुकूलन में निवेश करने से काफ़ी आर्थिक फ़ायदे मिल सकते हैं जैसे कि प्राकृतिक आपदाओं से नुक़सान में कमी, कृषि उत्पादकता में बढ़ोतरी और लोगों की सेहत में सुधार के साथ-साथ समानता को लेकर महत्वपूर्ण चिंता जैसे कि ग़रीबी का समाधान भी. जो लोग जलवायु परिवर्तन के असर को लेकर सबसे ज़्यादा असुरक्षित स्थिति में होते हैं वो आम तौर पर अनुकूलन की कोशिशों के लिए पैसे का इंतज़ाम करने में सबसे कम समर्थ होते हैं. इसका ये अर्थ है कि निष्पक्ष ढंग से संसाधनों के आवंटन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस बात की ज़रूरत है कि अनुकूलन के लिए पैसे का इंतज़ाम करते समय सबसे ज़्यादा ज़रूरतमंद लोगों के लिए क्षमता और सामर्थ्य बनाने पर ध्यान देना होगा.
इसका ये मतलब है कि पूरी तरह से सोचे-समझे बिना, कुछ समय के आर्थिक फ़ायदे के लिए काम करने से बात नहीं बनेगी. जैसे कि प्राइवेट और वित्तीय संस्थानों, जो अपनी आमदनी और अपने ग्राहकों की ज़रूरत को पूरा करने पर ज़्यादा ध्यान देते हैं, को जलवायु के लिए पैसे का इंतज़ाम करने के लिए तब तक नहीं लुभाया जा सकता है जब तक कि उन्हें सरकार या रेगुलेटर के द्वारा प्रोत्साहन या आदेश नहीं दिया जाता है. यहां लंबे समय के लिए योजना के अनुसार सामाजिक फ़ायदे की दर पर देखने की ज़रूरत है जबकि बैंक और प्राइवेट सेक्टर अपने निवेश पर कम समय के फ़ायदे को देख रहे हैं. असलियत ये है कि जलवायु अनुकूलन के लिए व्यवसाय का मामला तब बनता है जब वास्तव में लंबे समय के लिए योजना और सामाजिक फ़ायदे को ध्यान में रखा जाए. ग्लोबल कमीशन फॉर एडेप्टेशन यानी अनुकूलन के लिए वैश्विक आयोग के मुताबिक़ अगले एक दशक के दौरान जलवायु अनुकूलन पर 1.8 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करने से 7.1 ट्रिलियन का कुल मुनाफ़ा मिल सकता है. इनमें प्राकृतिक आपदाओं से कम नुक़सान, फसल का ज़्यादा उत्पादन और लोगों के स्वास्थ्य में सुधार जैसे फ़ायदे शामिल हैं.
बड़ा सवाल है कि कैसे और किन परिस्थितियों के तहत मुनाफ़े की सामाजिक और आर्थिक दरों को बराबर किया जा सकता है? ये तब हो सकता है जब: a) प्राइवेट सेक्टर के लिए अनिवार्य कर दिया जाए कि वो अपनी कॉरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) के खर्च के एक हिस्से को जलवायु अनुकूलन में इस्तेमाल करें; b) वित्तीय संस्थानों और/या निजी लोगों के लिए अनुकूलन फंडिंग में इस्तेमाल की गई रक़म और मुनाफ़े पर टैक्स में छूट के ज़रिए प्रोत्साहन की स्थिति तैयार की जाए.
जलवायु अनुकूलन के लिए अलग-अलग प्रकार के संस्थानों और साधनों की ज़रूरत है. ग्रीन बॉन्ड, क्लाइमेट इंश्योरेंस, इम्पैक्ट इन्वेस्टिंग (ऐसा निवेश जो वित्तीय फ़ायदे के अलावा पर्यावरण के लिए भी फ़ायदेमंद हो), वेदर डेरिवेटिव्स (ख़राब या अप्रत्याशित मौसम से जुड़े जोखिम को कम करने के लिए वित्तीय साधन), इत्यादि जहां प्रचलन में हैं वहीं पश्चिमी अमेरिका में इनोवेटिव तौर-तरीक़े जैसे कि वॉटर फ्यूचर्स मार्केट (जहां सोना या तेल की तरह पानी की ट्रेडिंग होती है) है. इन तौर-तरीक़ों में ये संभावना है कि वो जलवायु अनुकूलन के लिए प्राइवेट सेक्टर की तरफ़ से महत्वपूर्ण फंडिंग का दरवाज़ा खोल दें. इस बात को स्वीकार करना भी महत्वपूर्ण है कि अनुकूलन की कोशिशें हर समस्या के समाधान के लिए नहीं है. अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों के सामने अलग-अलग चुनौतियां होती हैं और अनुकूलन के लिए उसी के मुताबिक़ दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत होती है. इसका ये मतलब है कि अलग-अलग किरदारों, जिनमें सरकार, प्राइवेट सेक्टर के निवेशक और स्थानीय समुदाय शामिल हैं, के बीच ज़्यादा सहयोग और समन्वय की ज़रूरत है.
निलांजन घोष सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी (CNED) के साथ-साथ ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के कोलकाता सेंटर के प्रमुख हैं.
श्रीनाथ श्रीधरन ORF में विज़िटिंग फेलो हैं.
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Dr Nilanjan Ghosh is Vice President – Development Studies at the Observer Research Foundation (ORF) in India, and is also in charge of the Foundation’s ...
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