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स्वास्थ्य से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों के तेज़ गति से होते अंतर्राष्ट्रीयकरण एवं स्वास्थ्य से संबंधित रणनीतियों को नया स्वरूप प्रदान करने वाली नई एवं आधुनिक प्रौद्योगिकियों के बढ़ते प्रभाव के मद्देनज़र भारत को हेल्थ सेक्टर के लिए एक अंतर-सरकारी संस्थान यानी ऐसे संस्थान के गठन की बेहद ज़रूरत है, जो केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करें.
यह लेख विश्व स्वास्थ्य दिवस 2024: मेरा स्वास्थ्य, मेरा अधिकार श्रृंखला का हिस्सा है.
ज़्यादातर संघीय व्यवस्था वाले राष्ट्रों में स्वास्थ्य राज्य का विषय होता है और इन देशों की तर्ज पर भारत के संविधान में भी स्वास्थ्य को राज्य के विषय के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है. इसका अर्थ यह है कि स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने की प्राथमिक ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की है. इसीलिए, केंद्र एवं राज्यों के बीच शक्तियों और कार्यों का बंटवारा करने वाली संविधान की सातवीं अनुसूची में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता, अस्पताल व डिस्पेंसरी आदि का प्रबंधन एवं संचालन राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है. हालांकि, हक़ीक़त यह है कि केंद्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के पास बहुत अधिक शक्तियां हैं और देशभर में स्वास्थ्य के क्षेत्र में दख़ल देने का अधिकार है. चाहे नीतियां बनाने का विषय हो, या फिर योजनाओं का वित्तपोषण, केंद्र सरकार का स्वास्थ्य देखभाल और चिकित्सा सुविधाओं से संबंधित कार्यक्रमों के संचालन में दबदबा बना हुआ है. केंद्र सरकार को संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत संघ एवं समवर्ती सूचियों के माध्यम से क़ानून बनाने की शक्ति मिली हुई है. केंद्र सरकार इसी के बल पर स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित विधायी और कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग करती है. "जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन" (प्रविष्टि 20 ए), "क़ानूनी, चिकित्सा और अन्य पेशे" (प्रविष्टि 26) जैसे कार्य समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं और इसी वजह से केंद्र सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य नीतियां बनाने का अधिकार हासिल होता है. इसी प्रकार से संघ सूची के अंतर्गत 28, 64, और 66 प्रविष्टियां केंद्र सरकार को पोर्ट क्वारंटाइन एवं स्वास्थ्य व चिकित्सा से संबंधित वैज्ञानिक और तकनीक़ी शिक्षा को निर्धारित व संचालित करने का अधिकार प्रदान करती है. इसके अलावा, आय के नज़रिए से देखें तो केंद्र सरकार की स्थित बेहद मज़बूत है (केंद्र के पास करों को लागू करने और वसूलने के स्रोत बहुत अधिक हैं). इसलिए, स्वास्थ्य क्षेत्र से संबंधित प्रमुख नीतियां और कार्यक्रम केंद्र सरकार द्वारा ही बनाए जाते हैं, जबकि दूसरे प्रमुख संघीय देशों में ऐसा देखने को नहीं मिलता है. इतना ही नहीं, केंद्र द्वारा बनाए गए कार्यक्रमों को लागू करने का काम राज्य सरकारों को दिया गया है. ज़ाहिर है कि कुष्ठ रोग मिशन, मलेरिया, पोलियो, डायरिया, एचआईवी/एड्स आदि जैसे विभिन्न राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों को केंद्र द्वारा ही तैयार किया जाता है और शुरू किया जाता है. अर्थात स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाओं का ख़ाका तैयार करने और उनके वित्तपोषण में राज्यों की भागीदारी न के बराबर होती है.
स्वास्थ्य क्षेत्र से संबंधित प्रमुख नीतियां और कार्यक्रम केंद्र सरकार द्वारा ही बनाए जाते हैं, जबकि दूसरे प्रमुख संघीय देशों में ऐसा देखने को नहीं मिलता है. इतना ही नहीं, केंद्र द्वारा बनाए गए कार्यक्रमों को लागू करने का काम राज्य सरकारों को दिया गया है.
हाल-फिलहाल में देखा जाए, तो कई वजहों से हेल्थकेयर से जुड़ी योजनाओं पर केंद्र का दबदबा और बढ़ गया है. इन वजहों में से एक सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र का बढ़ता अंतर्राष्ट्रीयकरण है. स्वास्थ्य के बढ़ते वैश्वीकरण के कारण केंद्र और राज्यों के पारस्परिक संबंध बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं. पिछले लगभग एक दशक के घटनाक्रमों पर नज़र डालें, तो सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में वैश्विक दख़ल अच्छा-ख़ासा बढ़ गया है. ख़ास तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमन को लेकर कई क़दम उठाए गए हैं. इसमें बीमारियों की रोकथाम एवं उनकी निगरानी को लेकर सदस्य देशों या कहा जाए की उनकी राष्ट्रीय सरकारों के ऊपर ज़िम्मेदारी डाली गई है. स्वास्थ्य से संबंधित इन अंतर्राष्ट्रीय नियम-क़ानूनों में महामारी जैसी चुनौतियों का मुक़ाबला करने पर ख़ास तवज्जो दी गई है और सदस्य देशों की राष्ट्रीय सरकारों से उम्मीद की जाती है कि वे अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमों एवं संधियों के मुताबिक़ अपनी ज़िम्मेदारी को निभाएंगी.
कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि नई-नई डिजिटल टेक्नोलॉजी एवं स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में डेटा क्रांति स्वास्थ्य संघवाद को बढ़ावा देने के लिए ख़ास तौर पर ज़िम्मेदार हैं.
सच्चाई यह है कि भारत समेत दुनिया के तमाम संघीय राष्ट्रों ने स्वास्थ्य से जुड़े राष्ट्रीय क़ानून बनाने के लिए इन्हीं अंतर्राष्ट्रीय संधियों की आड़ ली ही. ज़ाहिर है कि इस दौरान अक्सर स्वास्थ्य के मुद्दे पर राज्य सरकारों की भूमिकाओं और उनकी शक्तियों की अनदेखी कर दी जाती है. इसका एक बेहतरीन उदाहरण राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) है. वर्ष 2005 में तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को लागू किया था. यह कार्यक्रम वैश्विक संस्थानों, ख़ास तौर पर विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन से प्रेरित था. NRHM की अवधारणा और कार्यान्वयन में राज्यों की भूमिका बहुत कम थी. स्वास्थ्य से जुड़ी नीतियों को बनाने और कार्यान्वित करने में राज्यों को दरकिनार करने का सिलसिला अभी भी जारी है. केंद्र एवं राज्यों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में आने वाली चुनौतियों की वजह से वर्तमान में NRHM के मामले में ज़िले को कार्यान्वयन की उत्तरदायी इकाई बनाया जा रहा है.
स्वास्थ्य संघवाद यानी हेल्थ सेक्टर में केंद्र के बढ़ते प्रभुत्व की दूसरी वजह तकनीक़ी लिहाज़ से हो रहे तेज़ बदलावों, ख़ास तौर पर वर्तमान में चल रही डेटा क्रांति (डेटा क्लाउड के माध्यम से, जिसे भौतिक सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता) है. कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार से मौज़ूदा वक़्त में विभिन्न स्तरों पर स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़े सामने आ रहे हैं, ऐसे में प्रभावी नीतियां बनाने में इन महत्वपूर्ण आंकड़ों का केंद्रीकृत प्रबंधन एवं विश्लेषण बहुत ज़रूरी हो गया है, भले ही इसका राज्यों की स्वायत्तता पर कुछ भी असर क्यों न पड़े. उदाहरण के तौर पर भारत में केंद्र सरकार के प्रमुख कार्यक्रम राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य ब्लूप्रिंट (NDHB) द्वारा एक एकीकृत स्वास्थ्य सूचना प्रणाली विकसित की जा रही है. इस प्रणाली का मकसद पारदर्शिता लाना, क्षमता को बढ़ाना और नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना है. गौर करने वाली बात यह है कि राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य ब्लूप्रिंट पर पूरी तरह से केंद्र का नियंत्रण है और इसका उद्देश्य सरकारी एवं निजी एजेंसियों से सहयोग लेकर, उनकी सहभागिता बढ़ाकर पारस्परिक रूप से संचालन की क्षमता हासिल करना है. इसमें बाक़ी सब तो ठीक है, लेकिन राज्यों की सक्रिय भागीदारी का नितांत अभाव नज़र आता है. कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि नई-नई डिजिटल टेक्नोलॉजी एवं स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में डेटा क्रांति स्वास्थ्य संघवाद को बढ़ावा देने के लिए ख़ास तौर पर ज़िम्मेदार हैं.
स्वास्थ्य सेक्टर में केंद्र सरकार के बढ़ते दख़ल की तीसरी और सबसे अहम वजह कोविड-19 महामारी के कारण उपजे हालात हैं. कोविड-19 महामारी जिस प्रकार तेज़ी के साथ अपने पैर पसार रही थी, उन हालातों में केंद्र सरकार की ओर से त्वरित कार्रवाई करना बेहद़ ज़रूरी हो गया था. महामारी से निपटने के लिए स्पष्ट क़ानूनों के अभाव में केंद्र सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अंतर्गत मिली अपनी आपातकालीन शक्तियों का इस्तेमाल किया और राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगाया, साथ ही महामारी के फैलाव को रोकने के लिए वैक्सीन उत्पादन, वैक्सीन की ख़रीद, मूल्य निर्धारण और वितरण आदि जैसे क़दम उठाए. निसंदेह तौर पर महामारी की विकरालता के मद्देनज़र इस तरह के क़दम ज़रूरी थे, लेकिन इस सबका केंद्र और राज्यों के रिश्तों पर गंभीर असर पड़ा. कोरोना महामारी का वो दौर काफ़ी लंबा चला और इस दौरान सभी अहम फैसले केंद्र सरकार द्वारा ही लिए जाते थे. इसका कई राज्यों ने, ख़ास तौर पर विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों की सरकारों ने विरोध किया था और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने एवं दूसरे कामकाजों पर केंद्र के दख़ल को लेकर आपत्ति जताई थी, साथ ही केंद्र सरकार पर राज्यों की स्वायत्तता को कुचलने का आरोप लगाया था. यद्यपि, कोरोना महामारी के दौरान केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय का जो अनुभव मिला, उसे कतई ठीक नहीं कहा जा सकता है. कई मौक़ों पर तो केंद्र और राज्यों के बीच हालात इतने बिगड़ गए कि महामारी को नियंत्रित करने के लिए किए जा रहे प्रयासों के सामने गंभीर चुनौतियां पैदा हो गईं. इन परिस्थितियों ने कई विश्लेषकों एवं नीति निर्माताओं को ऐसे सुधारों का समर्थन करने के लिए मज़बूर कर दिया, जो ऐसे हालातों में संघीय सरकार को राज्यों के मुक़ाबले अधिक शक्तियां प्रदान कर सकते हैं. विश्लेषकों का यहां तक कहना है कि भारत की संघीय प्रणाली में ऐसी तमाम ‘कमज़ोरियां’ हैं जो महामारी को नियंत्रित करने के लिहाज़ से उचित नहीं है. इनके मुताबिक़ देश के नीति निर्माताओं को स्वास्थ्य के विषय को संविधान की "समवर्ती सूची" में शामिल करने के बारे में विचार करना चाहिए, ताकि केंद्र सरकार को चिकित्सा शिक्षा की तरह ही स्वास्थ्य से जुड़े मामलों पर कार्रवाई के लिए और ज़्यादा अधिकार मिल सकें.
विश्लेषकों का यहां तक कहना है कि भारत की संघीय प्रणाली में ऐसी तमाम ‘कमज़ोरियां’ हैं जो महामारी को नियंत्रित करने के लिहाज़ से उचित नहीं है.
हालांकि, बड़ी संख्या में ऐसे भी विश्लेषक हैं, जिनका कहना है कि भारत जैसे विशाल देश में संघीय संतुलन को बरक़रार रखना आवश्यक है. इनका मानना है कि भारत में राज्यों की स्वायत्तता एवं स्वास्थ्य सेवाओं को आम लोगों तक पहुंचाने के वर्तमान विकेन्द्रीकृत मॉडल से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए. जैसा की ऊपर बताया जा चुका है कि संविधान में स्वास्थ्य को राज्यों का विषय बताया गया है, बावज़ूद इसके पिछले कुछ वर्षों के दौरान स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों को संबोधित करने में केंद्र का दख़ल बढ़ता जा रहा है. हालांकि, कोरोना महामारी ने यह भी सामने लाने का काम किया है कि केंद्र के ज़्यादा दख़ल की भी कुछ सीमाएं हैं, यानी यह हमेशा कारगर साबित नहीं होता है. यद्यपि, स्वास्थ्य के अंतर्राष्ट्रीयकरण, आधुनिक प्रौद्योगिकियों के प्रसार और स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों के महत्व ने कुछ हद तक स्वास्थ्य के केंद्रीकरण यानी केंद्र के हस्तक्षेप को जायज ठहराने का काम किया है. लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि कोरोना महामारी के दौरान जो हालात पैदा हुए, उन्होंने यह साबित किया है कि स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में विकेंद्रीकृत ढांचा एवं राज्य सरकारों की भूमिका कितनी ज़्यादा महत्वपूर्ण है. कोरोना महामारी के दौरान ख़ास तौर पर दख़ल के तरीक़े एवं अधिकार क्षेत्र को लेकर केंद्र एवं राज्यों के बीच जो तनातनी दिखी, उससे एक बात सामने आई कि ऐसे हालातों को संभालने और समन्वय स्थापित करने के लिए कोई अंतर-सरकारी मौज़ूद नहीं है. ज़ाहिर है कि अगर इंटर-स्टेट काउंसिल यानी अंतर-राज्य परिषद जैसे अंतर-सरकारी मंचों को सशक्त किया जाता है और उनकी भागीदारी को बढ़ाया जाता है, तो निश्चित तौर पर महामारी के दौरान परिस्थितियों को संभालने में केंद्र और राज्यों के बीच बेमतलब की खींचतान कम हो जाएगी. स्वास्थ्य से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों के तेज़ी से होते अंतर्राष्ट्रीयकरण एवं स्वास्थ्य से संबंधित रणनीतियों व प्रबंधन को नया स्वरूप प्रदान करने वाली नई प्रौद्योगिकियों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भारत को हेल्थ सेक्टर के लिए एक अंतर-सरकारी संस्थान स्थापित करने की बेहद ज़रूरत है. यानी जिस प्रकार से जीएसटी काउंसिल का गठन किया गया है, उसी प्रकार से हेल्थ सेक्टर के लिए भी अधिकार संपन्न फोरम गठित किया जाना चाहिए, ताकि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित किया जा सके. आख़िर में, कोरोना महामारी को दौरान जो कटु अनुभव प्राप्त हुए हैं, उन्हें एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए और उनके मुताबिक़ ठोस क़दम उठाए जाना चाहिए.
निरंजन साहू ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...
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