Published on Jul 09, 2022 Updated 0 Hours ago

अल्प विकसित देशों और विकासशील राष्ट्रों का मछली कारोबार अब भी गुज़र-बसर के स्तर पर बना हुआ है. उनपर नियमनों का वैसा बंधन नहीं लगना चाहिए जैसा विकसित देशों पर लगता है.

क्या WTO मछली कारोबार से जुड़ी दुश्वारियों के निपटारे में कामयाब रहा है?

विश्व व्यापार संगठन के 12वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के मद्देनज़र मछली उद्योग को दी जा रही सब्सिडियों पर कई दौर की वार्ताएं हुईं. इन तमाम वार्ताओं में वैश्विक स्तर पर इस मसले के पहेली बनकर उभरने की बात रेखांकित हुई. साथ ही इस मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन (WTO) द्वारा आम सहमति तैयार करने के रास्ते की मुश्किलों पर भी ज़ोर डाला गया. बिना लाग-लपेट के आसान शब्दों में कहें तो पूरी बहस का सार ये है- हमारे महासागरों से हद से ज़्यादा मछलियां पकड़े जाने की बात सबने स्वीकार की है. बहरहाल, इस समझ के चलते अल्प विकसित देशों (LDCs) और विकासशील राष्ट्रों के तटवर्ती समुदायों के नाज़ुक हालात को कमतर करके नहीं देखा जा सकता. इन तमाम देशों के लिए मछलियों का शिकार उनकी खाद्य सुरक्षा की बुनियाद है.

हमारे महासागरों से हद से ज़्यादा मछलियां पकड़े जाने की बात सबने स्वीकार की है. बहरहाल, इस समझ के चलते अल्प विकसित देशों (LDCs) और विकासशील राष्ट्रों के तटवर्ती समुदायों के नाज़ुक हालात को कमतर करके नहीं देखा जा सकता.

दुनिया के विकसित देश औद्योगिक पैमानों पर मछली व्यवसाय को अंजाम देते आ रहे हैं. उनके विशाल औद्योगिक बेड़ों ने दशकों तक महासागरों का दोहन किया है. दूसरी ओर अनेक विकासशील और अल्प विकसित देश अब भी गुज़र-बसर के स्तर पर ही सिमटे हुए हैं. वार्ताओं और प्रस्तावनाओं के तमाम चरणों में दुनिया के देशों द्वारा अनेक बार ये बात दोहराई गई है कि ‘हरेक के लिए एक जैसा रवैया’ इस मसले का जवाब नहीं है.

सीधी बात

मंत्रिस्तरीय निर्णय के मौजूदा मसौदे में एक बात साफ़-साफ़ कही गई है. इसके मुताबिक अवैध रूप से, चोरी-छिपे और बिना किसी नियमन के (IUU) मछली पकड़ने के काम में लगी कश्तियों या संचालकों को कोई भी सदस्य सब्सिडी नहीं देगा और न ही ऐसे संचालकों को किसी तरह की सब्सिडी जारी रहेगी. 

मसौदा निर्णय की ये बात सुनने में अच्छी लगती है. हालांकि क़रीब से पड़ताल करने पर पता चलता है कि संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (FAO) की अंतरराष्ट्रीय कार्ययोजना के तहत IUU की परिभाषा अल्प विकसित राष्ट्रों और विकासशील देशों के लिए चिंताजनक है. दरअसल इन देशों में मछली उद्योग के नाकाफ़ी विकास और बुनियादी ढांचे के अभाव के चलते इस क्षेत्र को एक विकट स्थिति का सामना करना पड़ रहा है. यहां पकड़ी जाने वाली ज़्यादातर मछलियां बंदरगाह आधारित न होकर तटों के किनारे वाली होती हैं. इसके चलते नियमन संबंधी और जानकारी जुटाने की क़वायद बेहद बोझिल हो जाती है. हालांकि, मछलियों का ऐसा शिकार अंतरराष्ट्रीय क़ानून के प्रतिकूल नहीं है. अवैध, चोरी-छिपे और बिना किसी नियमन के मछलियों के शिकार को लेकर मंत्रिस्तरीय मसौदा निर्णय और WTO के समझौते में 2 साल के संक्रमण काल की पेशकश की गई है. हालांकि भारत ने इस सिलसिले में 7 साल के संक्रमण काल का प्रस्ताव किया है

ज़रूरत से ज़्यादा मछलियों के शिकार के संदर्भ में भी समझौते में कई बातें कही गई हैं. इसके मुताबिक अगर भंडार में मछलियों का शिकार हद से ज़्यादा है तो कोई भी सदस्य सब्सिडी मुहैया नहीं कराएगा. हद से ज़्यादा मछलियों के शिकार का ख़ुलासा तटवर्ती सदस्य या संबंधित RFMO (क्षेत्रीय मछली व्यवसाय प्रबंधन संगठन) की ओर से किया जाता है. इसके लिए सभी तरह के उपलब्ध वैज्ञानिक प्रमाणों का सहारा लिया जाता है. भंडार को दोबारा खड़ा कर जैविक रूप से टिकाऊ स्तर तक ले जाने पर सब्सिडियों की मंज़ूरी दी जाती है. वैसे तो ये एक मुनासिब धारा लगती है लेकिन ये संतुलित नहीं है. इसकी दो वजहें हैं. पहला, भंडार को दोबारा खड़ा करने को लेकर नाकाफ़ी क्षमता निर्माण और तकनीकी जानकारियों का अभाव और दूसरा कमज़ोर और असुरक्षित मछुआरा समुदाय में मछलियों के भंडार को मापने और उनकी निगरानी कर पाने की अक्षमता. 

ज़रूरत से ज़्यादा मछलियों के शिकार के संदर्भ में भी समझौते में कई बातें कही गई हैं. इसके मुताबिक अगर भंडार में मछलियों का शिकार हद से ज़्यादा है तो कोई भी सदस्य सब्सिडी मुहैया नहीं कराएगा. हद से ज़्यादा मछलियों के शिकार का ख़ुलासा तटवर्ती सदस्य या संबंधित RFMO की ओर से किया जाता है. 

बहरहाल, समझौते पर क़रीब से नज़र डालने पर ये बात रेखांकित होती है कि इस मसले की बुनियादी दिक़्क़तें अब भी बरक़रार हैं. सब्सिडियों के चलते हद से ज़्यादा मछलियों के शिकार और सीमा से अधिक क्षमता निर्माण से जुड़े मसलों पर मंत्रिस्तरीय मसौदा निर्णय ख़ामोश है. हद से ज़्यादा मछलियों के शिकार को इसी क़वायद से सबसे ज़्यादा बढ़ावा मिलता है. इस हरकत के बेतहाशा जारी रहने से महासागरों का ग़ैर-वाजिब दोहन होता है. लिहाज़ा समझौते के बावजूद मछली उद्योग में ग़ैर-टिकाऊ तौर तरीक़ों से जुड़ी व्यापक आशंका जस की तस है. 

ज़ोखिम भरा नज़रिया

मछली उद्योग को लेकर वैश्विक असमंजस ने भारत को विकट स्थिति में ला दिया है. विकासशील देश होने के नाते भारत का मछली उद्योग चीन की तरह औद्योगिक पैमाना हासिल नहीं कर सका है. भारत का मछली उद्योग वैश्विक मछली उत्पादन में महज़ तक़रीबन 7.7 प्रतिशत का योगदान देता है. इसी तरह मछलियों के कुल व्यापार में भारत का हिस्सा सिर्फ़ 4.1 फ़ीसदी है.

भारत में क़रीब 90 लाख लोग मछली उद्योग से जुड़े हुए हैं. गुज़र-बसर के लिए इस क्षेत्र से जुड़े ये तमाम लोग मछली उद्योग से जुड़े पारंपरिक तौर-तरीक़े अपनाते हैं. ये कम पूंजी से काम चलाते हैं, मछली मारने के लिए तक़रीबन 20 मीटर की कुल लंबाई वाली छोटी कश्तियों का सहारा लेते हैं और तट के नज़दीक ही मछली पकड़ते हैं. भारत का मछुआरा समुदाय अब भी सरकारी मदद पर निर्भर है. भारत सिर्फ़ एक क्षेत्रीय मछली व्यवसाय प्रबंधन संगठन (RFMO) का हिस्सा है. इससे ज़ाहिर होता है कि वो गहरे समुद्र में मछली पकड़ने से जुड़ी क़वायद का हिस्सा नहीं है. भारत में अनेक लोगों के लिए मछली ही भोजन का एकमात्र स्रोत है. गुज़र-बसर के लिए मछलियां पकड़ने की परंपरा और भीषण ग़रीबी के बावजूद भारत मछलियों के क्षेत्र में अनुशासित तौर-तरीक़ा अपनाता रहा है. मछलियों का भंडार दोबारा तैयार होने देने के लिए भारत के मछुआरे हर साल 61 दिनों तक समंदर से दूर रहते हैं. भारत सरकार एक मछुआरा परिवार को महज़ 15 अमेरिकी डॉलर सालाना की सब्सिडी देती है. दूसरी ओर दुनिया के अन्य देश एक मछुआरा परिवार को 42,000 अमेरिकी डॉलर, 65,000 अमेरिकी डॉलर और 75,000 अमेरिकी डॉलर की सहायता मुहैया कराती है. मौजूदा मसौदे के साथ इस असमानता को संस्थागत रूप दे दिए जाने से पारंपरिक मछुआरों के लिए पैदा होने वाले भावी अवसर ख़तरे में पड़ जाएंगे. साथ ही उनके लिए आगे विकास का रास्ता और मुश्किल हो जाएगा.

भारत में अनेक लोगों के लिए मछली ही भोजन का एकमात्र स्रोत है. गुज़र-बसर के लिए मछलियां पकड़ने की परंपरा और भीषण ग़रीबी के बावजूद भारत मछलियों के क्षेत्र में अनुशासित तौर-तरीक़ा अपनाता रहा है. 

10 जून के मसौदा समझौते में नुक़सानदेह सब्सिडियों के साथ-साथ अल्पविकसित देशों और विकासशील देशों के लिए विशिष्ट और ख़ास तरह के बर्तावों (S&DT) का प्रावधान था. बहरहाल 17 जून को जारी दस्तावेज़ में इसे शामिल नहीं किया गया है (जैसा कि पिछले खंड में चर्चा भी की गई है). सबसे ख़तरनाक सब्सिडी पर मंत्रिस्तरीय निर्णय ख़ामोश है. ये सब्सिडी है- S&DT पर वार्ताओं में दुश्वारियों के चलते हद से ज़्यादा मछलियों के शिकार और ज़रूरत से ज़्यादा क्षमता निर्माण में योगदान देने वाली सब्सिडियां. इसके साथ ही विकासशील देशों को आमतौर पर दी जाने वाले संक्रमण काल से जुड़ी मोहलत को लेकर भी कोई चर्चा नहीं की गई है. इसे बाद के लिए छोड़ दिया गया है.

भारत की दलील है कि मछली उद्योग के क्षेत्र में विकसित देशों को महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र को पहुंचे ज़बरदस्त नुक़सान की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए. भारत ने इस क्षेत्र में टिकाऊ विकास से जुड़े किसी भी समझौते के लिए ‘साझा लेकिन भिन्न स्वरूप वाली जवाबदेही’ और ‘प्रदूषण करने वालों द्वारा भुगतान करने के सिद्धांत’ की वक़ालत की है.

मौजूदा मसौदे के मद्देनज़र भारत की दलील है कि मछली उद्योग के क्षेत्र में विकसित देशों को महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र को पहुंचे ज़बरदस्त नुक़सान की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए. भारत ने इस क्षेत्र में टिकाऊ विकास से जुड़े किसी भी समझौते के लिए ‘साझा लेकिन भिन्न स्वरूप वाली जवाबदेही’ और ‘प्रदूषण करने वालों द्वारा भुगतान करने के सिद्धांत’ की वक़ालत की है. इस मसले पर इंडोनेशिया, श्रीलंका और दूसरे विकासशील देशों के समर्थन के बावजूद भारत को समझौते के रास्ते की रुकावट क़रार दिया जाता रहा है. भविष्य में इस मसले पर और मज़बूत क़िलेबंदी के लिए भारत को इस मुद्दे पर हित साझा करने वाले विकासशील देशों से ज़्यादा से ज़्यादा समर्थन जुटाना चाहिए. ख़ास तरह के S&DT प्रावधानों के ज़रिए नुक़सानदेह सब्सिडियों को जड़ से मिटाना मुमकिन हो सकेगा. भारत ने मार्च 2020 के अनुरोध पत्र में ये प्रस्ताव किया था. अगले मंत्रिस्तरीय सम्मेलन से पहले समान विचार वाले देशों के बीच सामूहिक सर्वसम्मति तैयार करने से हम मछलियों के भंडार की हिफ़ाज़त कर सकेंगे. इस क़वायद से सबसे ज़रूरतमंद लोगों को और ज़्यादा समान अवसर मुहैया कराने में भी मदद मिलेगी.        

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