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हिज़्बुल्लाह के प्रमुख हसन नसरल्लाह़ की मौत का बहुत व्यापक असर होना तय है, जिससे इस संगठन के भविष्य को लेकर अहम सवाल खड़े हो गए हैं.
Image Source: Getty
27 सितंबर को इज़राइल ने लेबनान की राजधानी बेरूत के बेहद घने बसे उपनगरीय दहिएह इलाक़े में हवाई हमले किया, जिसमें लंबे समय से हिज़्बुल्लाह के सुप्रीमो रहे हसन नसरल्लाह़ को निशाना बनाकर मार दिया गया. हसन नसरल्लाह़ न केवल हिज़ुब्लाह की कमान संभालते थे, बल्कि वो एक क़द्दावर विचारक भी थे और पिछले तीन दशकों से लेबनान की सियासत में बड़ी शख़्सियत माने जाते थे. इसीलिए, उनकी मौत का बहुत व्यापक असर होना तय है. हालांकि, अभी तो उनकी मौत से जवाबों से ज़्यादा सवाल खड़े हो गए हैं.
अमेरिका और दूसरे देशों ने हिज़्बुल्लाह को 1997 में आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया था. पर लेबनान में हिज़्बुल्लाह को मुल्क के भीतर एक रियासत के तौर पर देखा जाता था. इज़राइल के लिए पिछले कुछ महीनों के दौरान हिज़्बुल्लाह के शीर्ष नेताओं का सफ़ाया कोई रणनीतिक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक फ़ैसला था. ऐसे अभियान चलाने की क्षमता और क़ुव्वत चंद दिनों में नहीं तैयार होती, बल्कि इसमें लंबे समय की तैयारी लगती है. यही नहीं, इज़राइल का ये सैन्य अभियान अपने देश की जनता के लिए सुरक्षा का वो भाव पैदा करना है, जिसको पिछले साल हमास के हमले से न सिर्फ़ चोट पहुंची थी, बल्कि इस भाव का सफाया भी हो गया था.
नसरल्लाह़ किसी ऐसे वैसे आंदोलन के नेता नहीं थे और हिज़्बुल्लाह भी कोई अल क़ायदा जैसा संगठन नहीं था, जिसके लड़ाके गुफ़ाओं में छुपे हों और दुश्मन के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध लड़ रहे हों.
नसरल्लाह़ किसी ऐसे वैसे आंदोलन के नेता नहीं थे और हिज़्बुल्लाह भी कोई अल क़ायदा जैसा संगठन नहीं था, जिसके लड़ाके गुफ़ाओं में छुपे हों और दुश्मन के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध लड़ रहे हों. तीन दशकों तक हिज़्बुल्लाह की कमान संभालने वाले नसरल्लाह़ के नेतृत्व में ये संगठन एक उग्रवादी आंदोलन से एक राजनीतिक संगठन में तब्दील हो गया था. अब अच्छा हो या बुरा हिज़्बुल्लाह लेबनान की पहचान का एक अहम हिस्सा बन गया था, और अपने नेता के साथ ये समूह इस पूरे क्षेत्र में ईरान की रणनीति की धुरी बन चुका है. हमास तो एक सुन्नी इस्लामिक संगठन है. इसके उलट, हिज़्बुल्लाह शिया समुदाय के हितों की नुमाइंदगी करता है. 7 अक्टूबर के हमलों के बाद नसरल्लाह़ बहुत सतर्क किरदार के तौर पर सामने आए थे, जो फिलहाल तो इज़राइल के ख़िलाफ़ सीधी जंग छेड़ने के उत्सुक नहीं थे.
नसरल्लाह़ की इस हिचक की वजहों पर अभी भी बहस छिड़ी हुई है. इससे पहले भी इज़राइल हिज़्बुल्लाह और हमास के कई नेताओं की हत्या कर चुका है. लेकिन, इस कोशिश में उसको काफ़ी झटके भी झेलने पड़े हैं. पर, इससे इज़राइल को हिज़्बुल्लाह के फौजी और सियासी इरादों के बारे में भी कई सबक़ सीखने को मिले हैं. ये हमला इज़राइल की सैन्य क्षमता के साथ साथ उसकी भौगोलिक सच्चाइयों का भी उदाहरण है. इससे पहले इज़राइल ने दो बार, 1982 और 2006 में दक्षिणी लेबनान पर क़ब्ज़ा करने और अपनी सीमा और लेबनान के बीच बफ़र ज़ोन बनाने की कोशिश की है, जिसमें उसको सीमित कामयाबी ही मिल सकी थी. उसके बाद से ही हिज़्बुल्लाह ने अपने हथियारों का ज़ख़ीरा बहुत बढ़ा लिया है. आज हिज़्बुल्लाह के पास ईरान की मदद से बैलिस्टिक मिसाइलें, ड्रोन और ऐसे दूसरे कई हथियार मौजूद हैं. क़ादिर-1 बैलिस्टिक मिसाइल, जिसको हिज़्बुल्लाह ने सबसे पहले मौजूदा संघर्ष के दौरान इस्तेमाल करते हुए तेल अवीव में इज़राइल की ख़ुफ़िया एजेंसी के मुख्यालय को निशाना बनाया था, उसके बारे में कहा जाता है कि वो ईरान की सेना की शहाद-3 मिसाइल का ही एक प्रतिरूप है.
इज़राइल की सुरक्षा का सबसा बड़ा ज़मानतदार अमेरिका भी इस दुविधा में फंस गया है कि उसको क्या करना चाहिए और वो इज़राइल से क्या कराना चाहता है. यहां पर अमेरिका की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है.
इज़राइल और विशेष रूप से प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के लिए हिज़्बुल्लाह के पूरे मौजूदा नेतृत्व का सफ़ाया एक हौसला बढ़ाने वाला और आकर्षक मौक़ा है. इज़राइल की सुरक्षा का सबसा बड़ा ज़मानतदार अमेरिका भी इस दुविधा में फंस गया है कि उसको क्या करना चाहिए और वो इज़राइल से क्या कराना चाहता है. यहां पर अमेरिका की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है. इस साल की शुरुआत में जहां अमेरिका, सऊदी अरब और इज़राइल के रिश्ते सामान्य करने के प्रयास कर रहा था, वहीं अब उसको इस क्षेत्र में अपने सैन्य सहयोगी को मदद करने पर ध्यान देना होगा. सच्ची बात तो ये है कि अमेरिका ऐसा सिर्फ़ इज़राइल के लिए नहीं कर रहा है. बल्कि, इसके ज़रिए वो सुरक्षा की गारंटी देने वाले देश की अपनी ख़राब होती छवि को भी बचाने की कोशिश कर रहा है. ग़लती सुधारने और विशेष रूप से एशिया में चीन के साथ बढ़ती होड़ के बीच अमेरिका अपनी ताक़त और राजनीतिक हैसियत का दबदबा बनाए रखने की कोशिश कर रहा है. ऐसे मोड़ पर अपने बेहद क़रीबी साथी देश का साथ छोड़ने से अमेरिका की तरफ़ से दुनिया को ऐसा संदेश जाएगा, जो उसके लिए बहुत महंगा साबित हो सकता है. इसके साथ साथ चूंकि इज़राइल, एक घोषित आतंकवादी संगठन हिज़्बुल्लाह से लोहा ले रहा है. ऐसे में अमेरिका के लिए इज़राइल पर कोई वास्तविक दबाव बना पाना और भी मुश्किल हो गया है. हालांकि, इसका एक नतीजा ये भी हुआ है कि कई बार इज़राइल, अमेरिका के समर्थन का कहीं ज़्यादा लाभ उठा लेता है. ये सच्चाई आम लोगों की मौत की बढ़ती तादाद और ख़बरों के मुताबिक़, अमेरिका को नसरल्लाह़ पर हमले की इज़राइल की योजना की पहले से जानकारी न होने की बात से उजागर हो जाती है.
लेकिन, अगर इज़राइल के सामने ये दुविधा है कि ‘अब आगे क्या’ तो ईरान के सामने भी यही सवाल खड़ा है. ईरान ने अपने तथाकथित ‘प्रतिरोध की धुरी’ को ताक़तवर ही इसीलिए बनाया था कि उसको इज़राइल से सीधे न भिड़ना पड़े और एक पारंपरिक युद्ध में उलझने से बचा जा सके. हसन नसरल्लाह़ की अगुवाई में हिज़्बुल्लाह, ईरान की इस ‘प्रतिरोध की धुरी’ का केंद्र बिंदु था. ईरान की राजधानी तेहरान में नए राष्ट्रपति महमूद पेज़ेशकियान के शपथ ग्रहण के बाद हमास के मुखिया इस्माइल हासिनाय की हत्या और अब बेरूत में हिज़्बुल्लाह के मुखिया की हत्या के बाद ईरान की प्रतिक्रिया उम्मीद के उलट बहुत शांत रही है. चूंकि हिज़्बुल्लाह ईरान की विचारधारा और राजनीति से बहुत क़रीब से जुड़ा है, इसलिए वो इस घटना के बाद भी ईरान से दूरी नहीं बनाएगा. लेकिन, आगे चलकर ईरान के नरमपंथियों और कट्टरपंथियों के बीच फ़ैसले लेने को लेकर एकजुटता बनाए रखने और ईरान की सरपरस्ती को लेकर सवाल ज़रूर उठेंगे. ये नए राष्ट्रपति पेज़ेशकियान के लिए भी एक भयंकर चुनौती है. भले ही सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह ख़मेनेई या फिर बेहद ताक़तवर इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) पर उनका ज़ोर क्यों न हो. मगर ईरान के नए राष्ट्रपति को जनादेश इस बात के लिए मिला है कि वो ईरान की जनता को समृद्धि की तरफ़ ले जाएं और ख़ुद पेज़ेशकियान के शब्दों में कहें तो ईरान की जनता को सीधे संघर्ष में धकेलने के बजाय वो ‘इंसाफ़’ की ओर ले जाना चाहते हैं.
ये सवाल भी दिलचस्प है कि अगर ईरान चुप्पी साधकर बैठ गया तो इसके परिणाम क्या होंगे? वैसे तो ईरान ने इसी साल की शुरुआत में हिज़्बुल्लाह और यमन के हूतियों के साथ तालमेल दिखाते हुए इज़राइल पर मिसाइलों और ड्रोन से हमला किया था. लेकिन, इसका कारण सीरिया में ईरान के कूटनीतिक ठिकाने पर इज़राइल का सीधा हमला था. ईरान ने ये हमला तब किया जब वो सीधे सीधे इज़राइल के निशाने पर आ गया था. वहीं अब जब हानिया और नसरल्लाह़ की हत्या की गई, तो वो ख़ामोश बैठा रहा तो निश्चित रूप से ईरान के समर्थन वाले संगठनों के नेतृत्व के बीच उसके इस रुख़ को लेकर दिलचस्प परिचर्चाएं होंगी और शायद जंग के मोर्चे पर सीधे लोहा ले रहे लड़ाकों के बीच तो ये सवाल ख़ास तौर से उठे.
कुल मिलाकर, संघर्ष के इस मोड़ पर इस बात की उम्मीद कम ही है कि आने वाले कुछ महीनों के दौरान कोई शांति समझौता या फिर युद्ध विराम पर सहमति बनने वाली है.
कुल मिलाकर, संघर्ष के इस मोड़ पर इस बात की उम्मीद कम ही है कि आने वाले कुछ महीनों के दौरान कोई शांति समझौता या फिर युद्ध विराम पर सहमति बनने वाली है. नसरल्लाह़ के चचेरे भाई हाशिम सफीद्दीन के हिज़्बुल्लाह का नया नेता बनने की उम्मीद जताई जा रही है. इस दौरान, ईरान और हिज़्बुल्लाह की प्रतिक्रिया से साफ़ है कि उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि इज़राइल संघर्ष का दायरा बढ़ाकर लेबनान तक ले जाएगा और अपनी मौजूदा बढ़त का ज़्यादा से ज़्यादा लाभ लेने की कोशिश करेगा. इसका कारण शायद अतीत के ऐसे हालात का तजुर्बा रहा था. लेकिन, भविष्य के लिए अगर कोई पूर्वानुमान लगाने का मुश्किल काम करना चाहे, तो मध्य पूर्व के लिए एक सामान्य उसूल यही होगा कि वो ये न देखे कि देश और संगठन कह क्या रहे हैं, बल्कि उनकी करनी पर ध्यान दे.
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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...
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