Author : Amrita Narlikar

Published on Jul 29, 2023 Updated 0 Hours ago

बहुपक्षीयवाद के सामने खड़े संकटों के आगे लाचारी से हाथ मरोड़ने के बीच हम अक्सर ये बात भूल जाते हैं कि इस संकट से ऐसे कई अवसर भी पैदा हुए हैं, जिनका फ़ायदा भारत को उठाना चाहिए.

घटते बहुपक्षीयवाद वाली दुनिया में नये मौकों का जन्म कैसे हो: भारत अपने और दूसरे देशों के लिए क्या कर सकता है?
घटते बहुपक्षीयवाद वाली दुनिया में नये मौकों का जन्म कैसे हो: भारत अपने और दूसरे देशों के लिए क्या कर सकता है?

ये लेख हमारी सीरीज़, इंडिया@75: उम्मीदें, महत्वाकांक्षाएं और नज़रिए, का हिस्सा है.


दूसरे विश्व युद्ध के बाद की बहुपक्षीय व्यवस्था को आकार देने में भले ही पश्चिमी देशों की बड़ी भूमिका रही हो. लेकिन, इस बात ने भारत को नए अंतरराष्ट्रीय संगठनों की स्थापना से जुड़ी वार्ताओं में सक्रिय भूमिका निभाने से नहीं रोका. मिसाल के तौर पर, 1947 में आज़ाद होने से पहले ही भारत के वार्ताकार संस्थागत तरीक़े से इस तरह काम कर रहे थे जिससे आने वाले समय में आकार लेने वाली अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था में भारत के (और अन्य विकासशील देशों की चिंताओं और) हितों का ध्यान रखा जाए. भारत, संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य भी था और वो जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड ऐंड टैरिफ़ (GATT) पर दस्तख़त करने वाले मूल देशों में भी शामिल था. यहां तक कि जब ऐसे समझौते उसके लिहाज़ से मुफ़ीद साबित नहीं हुए- क्योंकि भारत न तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य था और न ही वो GATT में फ़ैसले लेने वाले अनौपाचारिक ‘क्वॉड’ का सदस्य था- तो भी बहुपक्षीयवाद को लेकर भारत के उत्साह में कोई कमी नहीं नज़र आई.

पिछले 70 वर्षों के दौरान कई बार अन्य देशों के साथ गठबंधन करके और कई बार अकेले ही, दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के तौर पर भारत ने बहुपक्षीय व्यवस्था को भीतर से सुधारने की कोशिश की. इससे भारत को एक ‘मुश्किल वार्ताकार’ देश का उपनाम भी दिया गया.

पिछले 70 वर्षों के दौरान कई बार अन्य देशों के साथ गठबंधन करके और कई बार अकेले ही, दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के तौर पर भारत ने बहुपक्षीय व्यवस्था को भीतर से सुधारने की कोशिश की. इससे भारत को एक ‘मुश्किल वार्ताकार’ देश का उपनाम भी दिया गया. ख़ास तौर से तब और जब भारत ने पश्चिमी देशों के साथ बातचीत में सख़्ती दिखाई. तमाम मुद्दों पर भारत के नैतिकता और सिद्धांतों वाले रवैये ने कम से कम कुछ व्यवस्थाओं (जैसे कि 2000 के दशक के मध्य से विश्व व्यापार संगठन के फ़ैसले लेने वाले अनौपचारिक क्वाड में ब्राज़ील और भारत को भी शामिल किया जाने लगा) में सुधार भी हुआ. इसके बदले में बहुपक्षीय व्यवस्था ने भारत को भी काफ़ी लाभ पहुंचाया: नई सदी की शुरुआत के साथ भारत का नाटकीय उभार देखने को मिला, जो काफ़ी हद तक भारत द्वारा घरेलू स्तर पर किए गए आर्थिक और सामाजिक सुधारों से मुमकिन हुआ. भारत की इस तरक़्क़ी में बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था के चलते, दुनिया में बड़े युद्ध न होने और खुले बाज़ार की व्यवस्था से विकास और तरक़्क़ी के हासिल हुए अवसरों का बहुत बड़ा योगदान रहा.

आज बहुपक्षीय व्यवस्था के सामने एक अभूतपूर्व संकट खड़ा दिख रहा है. इस संकट के कई कारण हैं. हमें बहुपक्षीय व्यवस्था के सामने ये चुनौती तब दिखती है, जब इसे बढ़ावा देने वाले देशों के भीतर ही इसके बुनियादी मूल्यों को लेकर सवाल उठते हैं और बहुपक्षीय संगठनों की बातचीत अटक जाती है. इन चुनौतियों में हम एक दूसरे देश पर ‘निर्भरता को हथियार बनाने’ को भी जोड़ सकते हैं. जब आपस में जुड़ी हुई वैश्विक मूल्य आधारित श्रृंखलाओं में कुछ ताक़तवर देश अपने यहां के उत्पादन पर दूसरे देशों की निर्भरता को हथियार बना लेते हैं- और ये साफ़ है कि मौजूदा बहुपक्षीय संगठन आज के दौर की चुनौतियों से निपट पाने की क़ाबिलियत नहीं रखते हैं. बहुपक्षीय व्यवस्थाओं की लंबे समय से चली आ रही इन कमज़ोरियों को महामारी ने और उजागर कर दिया है: विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 से निपटने में जो ग़लतियां कीं, उसके लिए इसकी कड़ी आलोचना हुई है; आज जब बहुत से सदस्य देश बौद्धिक संपदा के अधिकारों में रियायत देने को लेकर आपस में झगड़ रहे हैं, तो विश्व व्यापार संगठन बस एक असहाय मूक-दर्शक बना हुआ है. WTO की इस लाचारी की वजह से विकासशील देशों में कोरोना की वैक्सीन और दवाओं के उत्पादन की क्षमता का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है.

बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था आज गंभीर संकट में है, वो भी उस वक़्त जब इसकी ज़रूरत सबसे ज़्यादा है; अगर ये व्यवस्था तबाह होती है, तो इससे भारत समेत सभी देशों को नुक़सान होगा.

बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था आज गंभीर संकट में है, वो भी उस वक़्त जब इसकी ज़रूरत सबसे ज़्यादा है; अगर ये व्यवस्था तबाह होती है, तो इससे भारत समेत सभी देशों को नुक़सान होगा. बहुपक्षीय व्यवस्था के सामने खड़े इस संकट के आगे लाचारी से हाथ मलने के दौरान ये बात अक्सर भुला दी जाती है कि बहुपक्षीयवाद के इस संकट में ऐसे कई मौक़े भी छुपे हैं, जिनका लाभ भारत को उठाना चाहिए.

किसी भी बड़े संकट को यूं ही हाथ से नहीं जाने देना चाहिए

बहुपक्षीयवाद के सामने खड़े संकट से जो अवसर उभर रहे हैं, उसके चार पहलू हैं. पहला, हालांकि भारत कई दशकों से बहुपक्षीय व्यवस्था में सुधारों (जैसे कि अंतरराष्ट्रीय संगठनों को और समावेशी बनाने) की मांग कर रहा है. लेकिन, मौजूदा संकट ने अब तमाम देशों को इस बात का बख़ूबी एहसास करा दिया है कि मौजूदा व्यवस्था को सुधारने की ज़रूरत है. दूसरी, पश्चिम के प्रमुख देश- ख़ास तौर से यूरोपीय देश- अब ये मानने लगे हैं कि उन्हें नए साझीदारों और दोस्तों की दरकार है. ऐसा ख़ास तौर से इसलिए भी हुआ है कि आज अमेरिका उस व्यवस्था से मुंह फेरता दिख रहा है, जिसे एक दौर में ख़ुद उसने गढ़ा था और इसकी रक्षा करता था. तीसरी, बहुपक्षीय व्यवस्था के संकट का एक बड़ा कारण विकसित और विकासशील देशों में पैदा हुआ ये भाव है कि उन्हें तो भूमंडलीकरण से कोई फ़ायदा ही नहीं हुआ. भूमंडलीकरण के प्रति ये मोहभंग काफ़ी हद तक तमाम देशों में पैदा हुई उन असमानताओं की वजह से है, जो ख़ुद भूमंडलीकरण की देन हैं.

भूमंडलीकरण के वैकल्पिक और ज़्यादा टिकाऊ विकल्प तलाशने ही होंगे, जिनसे समृद्धि और सुरक्षा के मक़सद हासिल किए जा सकें. ये एक अच्छा मौक़ा है, जब नए विचारों को आकार दिया जा सके.

हालांकि, इसकी एक वजह ये भी है कि दुनिया के बहुत से देशों के नागरिकों को ये नहीं समझाया जा सका है कि भूमंडलीकरण के चलते कई फ़ायदे भी हुए हैं. इस वजह से विकसित देशों में नीतियां बनाने वाले समूहों के बीच अपने अंदर झांककर देखने की शुरुआत हुई है. इसकी मिसाल हम 2020 के म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन और इसके पश्चिमीकरण की ग़ैरमौजूदगी पर ध्यान केंद्रित करने के रूप में देख सकते हैं. और चौथा ये कि धीरे धीरे तमाम देशों में इस बात को लेकर स्वीकार्यता बढ़ रही है कि हड़बड़ी में किए गए ऐसे भूमंडलीकरण को मंज़ूर नहीं किया जा सकता, जहां पर उत्पादन श्रृंखलाओं को हथियार बना लिया जाए. ऐसे में भूमंडलीकरण के वैकल्पिक और ज़्यादा टिकाऊ विकल्प तलाशने ही होंगे, जिनसे समृद्धि और सुरक्षा के मक़सद हासिल किए जा सकें. ये एक अच्छा मौक़ा है, जब नए विचारों को आकार दिया जा सके. और हालांकि, भारत के पास हमेशा ही दुनिया को देने के लिए बहुत कुछ रहा है, लेकिन शायद अब वो मौक़ा है जब दुनिया, भारत के योगदान को सराहेगी.

रणनीतियां

इन अवसरों का ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाने के लिए बेहतर होगा कि भारत इन रणनीतियों को अपनाए.

पहली तो ये कि भले ही भारत नए से नए ख़याल पेश करे, मगर उसकी कोशिशें तब तक असरदार नहीं होंगी, जब तक वो अकेले काम करेगा. ऐसे में एक जैसे ख़यालात वाले देशों के साथ गठबंधन बनाना अहम होगा. यहां भारत, जर्मनी और फ्रांस द्वारा बनाए गए ‘बहुपक्षीयवाद के लिए गठबंधन’ के साथ मिलकर काम कर सकता है. इससे न सिर्फ़ ये गठबंधन मज़बूद होगा बल्कि सुधार के एजेंडे को लागू करने में भी मदद मिलेगी. अगर भारत विकासशील देशों के साथ साथ विकसित देशों के साथ मिलकर भी काम करेगा, तो इससे उसकी आवाज़ को और मज़बूती मिलेगी.

आक्रामक भूमंडलीकरण और बाक़ी दुनिया के लिए अपने बाज़ार बंद करने के दो विपरीत ध्रुवों के बीच भारत को ‘स्वर्ण मध्यमान’ की ज़रूरत होगी, जिससे वो समान विचारधारा वाले देशों के साथ अपने आर्थिक संबंध को और विविधतापूरण बनाए.

दूसरी, दुनिया के हालात पर नज़र रखने के साथ साथ भारत को अपने पास-पड़ोस के क्षेत्रों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. क्षेत्रों को बाक़ी दुनिया से जोड़ना ही चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का मक़सद है. अगर भारत अपने पास पड़ोस के देशों से नहीं जुड़ता है, तो भारत के सामने जोखिम इस बात का है कि वो ख़ुद को एक मुश्किल भौगोलिक आर्थिक स्थिति में धकेल सकता है. क्योंकि, चीन उसके पड़ोसी देशों से क़रीबी संबंध बनाकर उसकी घेरेबंदी कर सकता है. आज जब दुनिया एक दूसरे पर बहुत निर्भर है, तो इसे हथियार भी बनाया जा सकता है. ख़ास तौर से अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान जब चीन पर अपनी निर्भरता काम करना चाहते हैं, तो भारत के सामने एक अच्छा मौक़ा है कि वो ख़ुद को चीन के प्रभाव क्षेत्र से दूर कर ले. अन्य देशों के साथ गठबंधन बनाकर काम करने के साथ साथ भारत अगर उन देशों से नज़दीकी बढ़ाए, जो इसी दुविधा के शिकार हैं- जैसे कि यूरोप- तो वो अपने लिए दुनिया में एक अहम जगह बना सकता है. वो ख़ुद को उदारवादी व्यवस्था में बहुपक्षीयवाद को नया रूप देने वाले देश के तौर पर पेश कर सकता है.

तीसरी, भले ही आज भारत विचारधारा से ज़्यादा यथार्थवाद को तरज़ीह दे रहा हो. लेकिन, बेहतर यही होगा कि वो अपने उन बुनियादी मूल्यों का इस्तेमाल करे, जिनके लिए वो हमेशा खड़ा होता आया है: लोकतंत्र, बहुपक्षीयवाद, क़ानून का राज और अभिव्यक्ति की आज़ादी. इन मूल्यों की अहमियत है, क्योंकि बहुपक्षीयवाद केवल एक समझौता मात्र नहीं है; इसे एक लक्ष्य भर मानना ठीक नहीं होगा. इसके बजाय भारत को सवाल उठाना होगा कि बहुपक्षीयवाद, किसलिए है? सिर्फ़ नियमों पर आधारित एक बहुपक्षीय व्यवस्था के लिए तर्क देने भर से काम नहीं चलने वाला है; इन नियमों की बुनियाद का काम करने वाले मूल्यों पर भी हमेशा ज़ोर देते रहना होगा. मूल्यों को ऐसी तवज्जो देने का भारत को ख़ास तौर से चीन से तुलना के दौरान फ़ायदा होगा.

भारत को सवाल उठाना होगा कि बहुपक्षीयवाद, किसलिए है? सिर्फ़ नियमों पर आधारित एक बहुपक्षीय व्यवस्था के लिए तर्क देने भर से काम नहीं चलने वाला है; इन नियमों की बुनियाद का काम करने वाले मूल्यों पर भी हमेशा ज़ोर देते रहना होगा.

आख़िर में, इनमें से कोई भी रणनीति तब तक काम नहीं करेगी, जब तक भारत अपने घरेलू हालात नहीं सुधारता. सबसे अहम क्षेत्र तो अर्थव्यवस्था का है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बढ़ती भूमिका को उसके अपने नागरिकों से ताक़त तब तक नहीं मिलेगी, जब तक भारत की सरकार लोगों को रोज़गार औ बेहतर रहन सहन के मौक़े मुहैया नहीं कराती है. ये महामारी दुनिया के सभी देशों की सरकारों के लिए कड़ा इम्तिहान बनकर आई है. ख़तरा इस बात का है कि महामारी से निपटने और अपने संभावित प्रतिद्वंदियों से बज़ाहिर निर्भरता को देखते हुए भारत अपने ‘आत्मनिर्भर अभियान’ के चलते विपरीत दिशा में न चल पड़े. ये आत्मनिर्भर अभियान पहले के दशकों की ‘ख़ुद के भरोसे’ रहने की नीति जैसा ही है. ऐसा हुआ तो भारत पिछले तीस साल के दौरान कड़ी मेहनत से हासिल किए गए फ़ायदों को गंवा देगा. कोरोना वायरस की महामारी के चलते, आज जब पूरी दुनिया आर्थिक सुस्ती की शिकार है, तब भारत के लिए सही आर्थिक नीति का चुनाव करना बहुत ज़रूरी हो जाता है. एक तरफ़ तो छोटी होती आपूर्ति श्रृंखलाओं (जो आत्मनिर्भर भारत अभियान का मक़सद हैं) और दूसरी तरफ़ भरोसेमंद साझीदारों के साथ गहरे आर्थिक एकीकरण को संरक्षित करने के बीच तालमेल बिठाने के लिए इन रणनीतियों की ज़रूरत होगी. 

आक्रामक भूमंडलीकरण और बाक़ी दुनिया के लिए अपने बाज़ार बंद करने के दो विपरीत ध्रुवों के बीच भारत को ‘स्वर्ण मध्यमान’ की ज़रूरत होगी, जिससे वो समान विचारधारा वाले देशों के साथ अपने आर्थिक संबंध को और विविधतापूरण बनाए. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक टिकाऊ आर्थिक विकास पर उभरते भारत को- ऐसे दूसरे देशों के साथ सहयोग बढ़ाने की ज़रूरत होगी जो उसके साथ लोकतंत्र, बहुलतावाद, उदारवाद और अन्य मूल्य साझा करते हैं. इस तरह से भारत के पास दूसरे देशों को प्रभावित करने, उन्हें अपने साथ जोड़ने की ज़्यादा ताक़त होगी, न कि ऐसे भारत के पास, जो अपने भीतरी राजनीतिक उठा-पटक और कम होती विकास दर के बीच अपने अंदर ही झांक रहा होगा. आख़िरकार, एक सुधरे हुए और मज़बूत बहुपक्षीयवाद के समर्थक देशों के लिए अपनी घरेलू राजनीति में इस बहुलतावाद की मज़बूत जड़ों की ज़रूरत होगी.

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